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Thursday 11 March 2021

शिवरात्रि पर शिव विवाह का प्रसङ्ग


 “जय राम जी की ! जय हनूमान जी की ! जय होय भोले नाथ की औ साथ मा जय होय पंडी जी की !” पंडी जी , आज कौन प्रसंग सुनइहो ?

“ जय जय होय जजमान ! आज तो महाशिवरात्रि का पावन पर्व आय, आदिशक्ति औ शिव के बियाह का. भोलेनाथ का बियाह तो और कौन प्रसंग सुनाइब ! आज तो शिव-पार्वती का बियाह प्रसंग चली औ आज शिवरात्रि है औ बियाहौ रातै मा होत है सो कथा देर रात तक चली. अब भक्तगनौ आय गये हैं तो सिरीगनेश कीन जाय भोलेनाथ के कौतुक भरे बियाह का. “
“ बिल्कुल ! अब इहौ मा कौनों साईत घड़ी बिचारेक है का. मुदा एक निहोरा आय. बाबा तुलसी भी रामचरित मानस अवधी मा कहिन हैं, शिव-पार्वती का बियाह “पार्वती मङ्गल” भी अवधी मा आय, हम-आप औ हियां के जादातर लोग अवधी समुझ लेत हैं, बोलतौ हैं औ रसौ लेत हैं भाखा मा, मुदा बहुत से लोग ई सिकायत कीन्ह कि रस तो है भाखा मा मुदा अवधी समुझ मा नाइ आवत है. जो सुनावत हो ऊका समुझ तो लेइत है मुदा जोरि-गांठ के कौनिउ तनी ! अवधी समझे मा दिक्कत होत है तो पंडी जी ! भले अइसे लोग दसै-पांच होयं मुदा सबका मान राखेक चाही. ई तो हरि कथा आय सबका रस मिलेक चाही. भाखा औ भाषा के चक्कर मा काहे कुछ लोग कथा से विमुख होयं औ दोख हमका-आपका लगे तो पंडी जी अबते कथा खड़ी बोली मा कहौ.
“ ठीक है यजमान. वैसे इस आग्रह में अवधी समझ में न आने की अपेक्षा यह भाव अधिक है कि अवधी को गवाँरु भाषा मान लिया गया है, वो भी अवध में ! लोगों का बोलने का अभ्यास भले न हो किन्तु समझ तो सभी लेते ही हैं किन्तु वही भाव कि समझना भी स्वीकार किया तो अभिजात्य समाज उन्हे भी गवाँर – देहाती मानेगा. विडम्बना यह कि ऐसे लोग भी अन्य लोकभाषाओं और क्षेत्रीय भाषाओं / बोलियों में रुचि लेते हैं और समझ भी लेते हैं. भोजपुरी गाने तो खूब छाये हुए हैं, हरियाणवी और पंजाबी गाने भी खूब सुनते और पसन्द करते हैं, डी.जे. पर धमाल तो बिना भोजपुरी और हरियाणवी गानों के फीका रहता है मगर अवधी में शर्म आती है. खैर, हम तो कथावाचक ठहरे सो कथा उस भाषा में कहेंगे जिसे सब लोग समझ लें आनन्द लें. तो बोलिये आदियोगी शिव और आदि शक्ति भवानी की जय. कथा का आनन्द लें और हाँ ! कथा में कुछ हास-परिहास भी रहेगा, उसमें तो आपत्ति नही है ना ! किसी की भावना न आहत हो जाय.
“ अरे नही पण्डित जी. हास- परिहास से तो कथा में रस आ जाता है और भगवान भोलेनाथ तो ठहरे परम कौतुकी. सभी देवगण कौतुकी हैं. शिव जी ने भी कौतुक किया और बाबा तुलसी ने भी तो इस कौतुक का बखान किया है. आप कुछ अपनी तरफ से गढ़ कर थोड़े न कहेंगे. आप निर्द्वन्द्व होकर कथा सुनायें.”
“ तो सज्जनों ! चित्त लगा कर शिव जी के विवाह की कथा सुनें. शिव जी हैं तो आदि देव किन्तु दोनों देवों से अलग. कर्पूरगौरं अर्थात कपूर की तरह गौर वर्ण के हैं किन्तु शरीर पर भस्म लपेटे रहते हैं, चिता भस्म. शिव अर्थात कल्याणकारी हैं किन्तु भयङ्कर और अमङ्गल वेष बनाये रहते हैं. शरीर पर भस्म और व्याघ्रचर्म, बस ! श्रंगार में सर्प लपेटे, शीश पर गङ्गा जो जटा-जूट में अटक कर रह गयीं, मस्तक पर चन्द्र सो चन्द्रमौलि व चन्द्रशेखर भी कहाये. कभी कपाल भी उनकी हथेली पर बहुत काल तक चिपका रहा सो कपाली कहाये. रहने का कोई घर नहीं, शम्शान में या कैलाश पर. गण भी भूत-प्रेत और वाहन भी बैल. अब भले ही त्रिदेवों में एक हों, जगदीश्वर हों . अब ऐसे नङ्ग-धड़ङ्ग , घर-बार से हीन, संगी-साथी ऐसे को लड़की कौन देता. सो इनके विवाह में अड़चनें शुरू से रहीं. वैसे तो कोई जामाता बना नही रहा था किन्तु दक्ष प्रजापति की पुत्री, सती, ने शिव को पसन्द किया और क्यों न करतीं. वे तो आदि शक्ति, सदा ही शिव में समाहित थीं तो दक्ष की पुत्री रूप में उन्हें वरण तो शिव का ही करना था सो शिव को वरा. अब विवाह तो हो गया किन्तु दक्ष ने इससे स्वयं को इतना अपमानित अनुभव किया कि शिव क्या, अपनी पुत्री सती से भी नाता तोड़ लिया. यज्ञ किया तो सब देवों को न्योता पर सती को नही बुलाया. इतना ही नहीं, यज्ञ में शिव का भाग भी नही रखा. अब पिता पर स्नेह और मायके में यज्ञ के कारण सती वहाँ गयीं तो किन्तु शिव का निरादर और पिता की उपेक्षा से क्षुब्ध होकर यज्ञ कुण्ड में स्वयं की आहुति दे दी. बाद में शिवगणों ने यज्ञ विध्वंस किया और दक्ष को समुचित दण्ड मिला. ये सब कथा आप सती मोह प्रसङ्ग में सुन चुके हैं, सो अति संक्षेप में नीरस ढङ्ग से बखाना, अब सुनें शिव के दूसरे विवाह, पार्वती से विवाह, की कथा.
वही सती हिमवान के घर पार्वती रूप में उत्पन्न हुईं. अब शिव जी सती के वियोग में थे, उनकी विवाह करने की कोई मंशा न थी इधर पार्वती शिव जी को वर रूप में पाने हेतु घोर तप कर रही थीं. किन्तु शिव जी सब जानते हुए भी विवाह के इच्छुक ही न थे. अब शिव योगी तो थे ही, कौतुकी भी कम न थे. जानते थे कि वही सती हैं जो पार्वती के रूप में उत्पन्न हुई हैं, विवाह तो करना ही होगा किन्तु मनौना करवा रहे थे. वो काहे को उतावलापन दिखाते और हिमवान भी ऐसे वर से अपनी सुघढ़ पुत्री का विवाह करते, अब तो वे दुहाजू भी थे. जब नारद ने हिमवान को पार्वती का हाथ देखकर भावी वर के लक्षण बताये तो वे बहुत दुखी हुए.
सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुन दुइ चारी॥
अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना॥

जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष।
अस स्वामी एहि कहँ मिलिहि परी हस्त असि रेख॥

अब बताईये भला, जिस कन्या के बारे में उसके माता-पिता से बताया जाय कि गुणहीन, अनाथ ( माता-पिता विहीन ), उदासीन, संशयहीन ( लापरवाह ) योगी, जटाधारी, निष्काम नङ्गा और अमङ्गल वेष वाला पति मिलेगा – तो उन्हे कैसा लगेगा ! इससे तो बिटिया कुँवारी ही भली. तब नारद जी ने शिव के लक्षण बखाने कि ठीक यही लक्षण शिव जी के हैं और वे प्रतिष्ठित देव हैं , बड़े हैं, समर्थ हैं और समर्थ को कोई दोष नही लगता.

सुभ अरु असुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कौ अपुनीत न कहई॥
समरथ कहुँ नहिं दोष गोसाईं। रबि पावक सुरसरि की नाईं॥

संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना॥

खूब समझाया कि गङ्गा जी में तो शुभ-अशुभ सब जल बहता है उन्हे कोई अपावन नही कहता. सूर्य, अग्नि और गङ्गा जी की भाँति समर्थ को दोष नही लगता - तरह-तरह से समझाया. हिमवान कुछ कुछ मान भी गये किन्तु मैना, हिमवान की पत्नी और पार्वती जी की माता, ने तो साफ मना कर दिया कि घर-वर और कुल हमारे अनुरूप हों तब ही विवाह कीजिए अन्यथा नही. भले बेटी कुमारी ही रहे, घर ही रहे किन्तु ऐसे अयोग्य वर के साथ उसका विवाह नही करूँगी –

जौं घरु बरु कुलु होई अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरूपा॥
न त कन्या बरु रहे कुआरी। कंत उमा मम प्रानपियारी॥
इधर हिमवान विचलित, मैना तो मान ही रहीं ऊपर से पार्वती जिद करें कि विवाह तो शिव जी से ही करेंगे और तप करने का दृढ़ विचार प्रकट किया. इधर ये असमंजस तो उधर शिवजी भी कम नही, वो तो विवाह को ही राजी नही. अब देवताओं को चिंता हुई कि शिव जी विवाह ही न करेंगे तो उनका पुत्र कहाँ से होगा जो तारकासुर का वध करके देवताओं को त्रासमुक्त करेगा. ब्रह्मा जी की सलाह से सबने अनुनय-विनय की पर वे माने ही नही. उनके आराध्य राम – सो वे रामभजन मे ही रत रहने लगे –

जब तें सती जाइ तनु त्यागा। तब तें सिव मन भयौ विरागा॥
जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा॥

जब सबके प्रयास निष्फल हो गये तो राम प्रकट हुए और उन्होनें शिवजी को समझाया, विवाह का अनुरोध किया और शिवजी ने उसे आज्ञा मान कर शिरोधार्य किया –

अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु।
जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मांगे देहु॥

तब भी शिवजी तैयार नही थे किन्तु राम की मर्यादा रखने को राजी हुए –

कह सिव जदपि उचित यह नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं॥

अब जब सब तय हो गया कि विवाह करना है और पार्वती जी से ही करना है तब भी विवाह की अड़चनें कम न हुईं और शिवजी ने ही अड़चनें डालीं. उन्होने सप्त्रऋषियों को भेजा अपने विरुद्ध भड़काने को कि परीक्षा लें. सप्तॠषियों के भड़काने पर भी वे अडिग रहीं और उनसे यह सुनकर भी शिवजी स्वयं वेश बदल कर भड़काने गये

अब सुख सोवत सोचु नहिं भीख मांगि भव खाहिं।
सहज एकाकिन्ह के भवन कबहुँ कि नारि खटाहिं॥

अब बहुत क्या विस्तार करना, शिवजी ने खूब हिला-हिला कर पक्का कर लिया. धन्य है पार्वती का प्रेम कि वे तब भी शिवजी से विवाह को दृढ़ रहीं. लो भई सब मान गये, हिमवान को संदेशा भी भेज दिया गया, विवाह की तिथि निकल आयी, सब तैयारियाँ हो गयीं, बारात सजी तो फिर शिवजी ने कौतुक किया. जो धजा थी, उससे भी विकट वेश बनाया. अब ब्याह को जा रहे हैं बारात लेकर किन्तु धजा कैसी वही साँप के ही कुण्डल और कङ्गन , जटाओं का मुकुट और उस पर भी साँप लपेटे , भभूत रमायी और बाघम्बर लपेट लिया कि चलो भाई –
सिवहि संभु गन करहिं सिंगारा। जटा मुकुट अहि मौरु सँवारा॥
कुंडल कंकन पहिरे ब्याला। तन बिभूति पट केहरि छाला॥

जैसे वो, वैसे ही उनके बाराती. जस दुलहा तस बनी बराता –

कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू। बिनु पद कर कौ बहु पद बाहू॥
बिपुल नयन कौ नयन बिहीना। रिष्टपुष्ट कोउ अति तनखीना॥

तन खीन कोउ अति पीन पावन कोउ अपावन गति धरें।
भूषन कराल कपाल कर सब सद्य सोनित तन भरें॥
खर स्वान सुअर सृकाल मुख गन बेष अगनित को गनै।
बहु जिनस प्रेत पिसाच जोगि जमात बरनत नहिं बने॥

ऐसी बारात देख कर विष्णु और अन्य देवगण तो अलग होकर चले. वे सब सुन्दर, सुदर्शन, वस्त्राभूषणों से सुसज्जित, वैभवशाली रथ और पर सवार, सुमधुर वाणी वाले – कहाँ इनके साथ शोभते सो वे अलग चले. ऐसी बारात देख कर बच्चे तो डर कर भाग गये और मैना, पार्वती की माता, परछन के समय ऐसा विकट वेश देख कर अपने भवन में भाग आयीं और शिवजी जनवासे को गये –

कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी॥
बिकट वेष रुद्रहि जब देखा। अबलन्ह उर भय भयउ बिसेखा॥
भागि भवन पैठीं अति त्रासा। गए महेसु जहाँ जनवासा॥

गौरा को गोद में बैठा लिया, कहने लगीं कि भाड़ में जाय विवाह. मैं तुम्हे लेकर पहाड़ से गिर पड़ूँगी या आग में जल जाऊँगी या समुद्र में डूब मरूँगी. चाहे घर उजड़े या बदनामी हो – यह विवाह तो अब न होगा –

कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।
जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागईं॥
तुम्ह् सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं।
घरु जाउ अपजसु हौउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥

अब ये तो ढिठाई थी शिवजी की कि विवाह में भी ये कौतुक किया. खैर, सबने खूब समझाया-बुझाया तब विवाह हुआ और बड़े उछाह से , विधि-विधान से हुआ. खूब दावत उड़ी और महिलाओं ने गारी भी गाईं. दावतों का वर्णन बाबा तुलसी ने खूब किया है, शिव विवाह में भी और राम विवाह में भी और गारी भी दोनों विवाह में गायी गयी.

भाँति अनेक भई जेवनारा। सूपसास्त्र जस कछु ब्यवहारा॥

सो जेवनार कि कि जाइ बखानी। बसहिं भवन जेहिं मातु भवानी॥

बिबिधि पाँति बैठी जेवनारा। लागे परसन निपुन सुआरा॥
नारिरूंद सुर जेवँत जानी। लगीं देन गारीं मृदु बानी।

गारीं मधुर स्वर देहिं सुंदरि बिंग्य बचन सुनावहिं।
भोजनु करहिं सुर अति बिलंबु बिनोदु सुनि सचु पावहीं॥
जेवँत जो बढ़्यो अनंदु सो मुख कोटिहूँ न परै कह्यो।
अचवाँइ दीन्हें पान गवने बास जहँ जाको रह्यो॥

सो सारी अड़चनों, विघ्न बाधाओं – जो कि कौतुक ही थे – के बाद उमा-शंभु का विवाह हुआ, हिमवान ने भरपूर दहेज दिया, मैना ने गौरी को सिखावन दी, मैना को ममता विलगित देख कर शिवजी ने सास को बहुत समझाया, उनकी शङ्का दूर की, देवताओं ने आकाश से पुष्प वर्षा की, दुन्दुभि बजायीं, शिव विवाह सम्पन्न हुआ.

शिव-पार्वती विवाह का वर्णन गोस्वामी तुलसिदास जी ने एक छोटे काव्य, “पार्वती मङ्गल” में भी किया है. श्रोतागण ऊबने लगे हैं सो उसका बस एक छन्द सुनें और आमोद-प्रमोद का भाव ग्रहण करते हुए निज निज गृह पधारें –

मगनयनि बिधुबदनी रचेउ मनि मंजु मंगलहार सेा।
उर धरहुँ जुबती जन बिलोकि तिलोक सोभा सार सो॥
कल्यान काज उछाह व्याह सनेह सहित जो गाइहैं ।
तुलसी उमा संकर प्रसाद प्रमोद मन प्रिय पाइहै॥