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Thursday 9 December 2021

पुस्तक चर्चा – एक तयशुदा मौत

 

पुस्तक चर्चा – एक तयशुदा मौत


“… जैसे ही आप दूसरों की सहायता से संगठन खड़ा करने की बात करते हैं – उनकी सहायता से जो समाज के प्रतिष्ठित तबके के लोग हैं – देशी-विदेशी सहानुभूति लेना चाहते हैं, उसी समय आपके साथ राजनीतिक बहस समाप्त हो जाती है. क्योंकि आप एक फासिल हैं, क्योंकि आधारहीन उदार मानवता की ही एक परिणिति है मृत्यु. हत्यारों को बचाने का अर्थ ही मृत्यु है. आप मृत्यु की उपत्यका में खड़े हैं … “

गैर सरकारी संगठन अर्थात NGO की कार्यप्रणाली की पड़ताल है यह उपन्यास. इस अंश में संगठन में राजनीतिक और भद्रलोक के हस्तक्षेप से मृत्यु की बात, मृत्यु की उपत्यका में खड़े होने की बात कही है – NGO का कोई कार्यकर्ता अगर उसकी ‘सुरक्षित लाईन’ से अलग जाकर उसमें राजनीति व समाज के लिए काम करने के और तरीकों का घालमेल करता है तो संगठन (NGO) उससे किनारा कर लेता है, उसे निकाल देता है या उसका इस्तीफा ले लेता है या उसे बिल्कुल अलग–थलग करके किसी संकट में उसकी कोई मदद नहीं करता – संगठन में उसकी मौत हो जाती है – यह मौत सांकेतिक से लेकर वास्तविक भी हो सकती है – स्वाभाविक मृत्यु नहीं, हत्या ! इस उपन्यास में ऐसे ही कार्यकर्ता, दीपांकर उर्फ दीपू की हत्या की पड़ताल है जिसकी एक जुलूस में हत्या कर दी गयी और उसके साथ एक अन्य सहयोगी, रामू, गायब हो जाता है. गाँव में भी उसका कोई पता नहीं चलता या तो उसकी भी हत्या कर दी गयी या वह हत्या की आशङ्का से भूमिगत हो गया – वह उस NGO में भी नहीं था किन्तु दीपू के कामों में उसका  साथी था. हत्या की पड़ताल के बहाने यह उपन्यास NGO की कार्य संस्कृति और बस एक लीक की पड़ताल करता है जिससे अलग जाने पर तयशुदा है मौत.

मौत की पड़ताल होते हुए भी यह उपन्यास कोई जासूसी उपन्यास नहीं जिसमें हत्या होती है, कोई उसकी जाँच करता है, रोचक और रोमांचक घटनाक्रम से होते हुए हत्यारे का पता चलता है और उसे सज़ा मिलती है, मृतक को न्याय मिलता है. इसमें हत्या ऐसे है कि लगता है दीपू की नियति ही थी उसकी हत्या. दीपू की हत्या क्यों हुई, NGO संस्कृति कैसी है, कौन लोग मन बहलाव और समाज सेवा के दिखावे के साथ इनमें जुड़ते हैं – यह उपन्यास बखूबी बताता हैं –

                                                                          “ … राजनीतिक कार्यकर्ता होलटाइमर के रूप में उन्हीं लड़के-लड़कियों को देखते थे जो अपने कैरियर, अपनी ख्याति, धनलिप्सा, परिवार सब छोड़कर मनुष्य के लिए काम करने निकल पड़ते थे. और आज के स्वैच्छिक संगठनों के कार्यकर्ता, ग्रासरूट एक्टिविस्ट, वे अच्छा वेतन  पाते हैं. संगठन चलाते हैं. धनी घरों के लड़के और लड़कियाँ जिन्हें पैसों की उतनी ज़रूरत नहीं होती – और वेतन के लिए इस ग़रीब देश के लड़के-लड़कियों को जुटाया जा सकता है. थोड़ा – बहुत आदर्श की बात करते हुए. ये नये संगठन संचालक, सजे-सँवरे लड़के और लड़कियाँ, आदर्श, ख्यति, विदेशी सेमिनार, पत्रिकाओं में इण्टरव्यू और आजकल कुछ वामपन्थी ग्रुपों की भी पीछे से सहायता … यह सब मिलकर ज़ाहिरा तौर पर एक सफल जीवन तो है ही. पुलिस की लाठी-गोली नहीं है, राजनीतिक टण्टा नहीं है, बीच-बीच में स्थानीय तौर पर झमेला होने पर भी उसे ऊपर के लोगों की सहायता से सुलझा लिया जा सकता है … “

दीपांकर उर्फ दीपू दिल्ली के एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय ( नाम नहीं लिखा किन्तु समझा जा सकता है कि JNU की बात हो रही है ) में समाजशास्त्र का शोध छात्र है. वहीं वह ‘कॉमरेड्स’ यूनियन, NGO आदि के सम्पर्क में आता है और शोध में व्यवहारिक कार्य  के सिलसिले में खदान के असंगठित मजदूरों के बीच आता है. यहाँ वह एक NGO – SEED (Society for education and Development) के कार्यकर्ता के रूप में आया है. ‘सीड’ इन मज़दूरों के लिए स्कूल चलाती है. यह गूजरों का इलाका है जो यहाँ के मुल निवासी हैं. स्कूल गूजरों की बस्ती में है और गूजर नहीं चाहते कि इन मजदूरों के बच्चे उस स्कूल में आयें. खदान है तो असंगठित मज़दूर हैं, ठेकेदार हैं,  स्थानीय सम्पन्न लोग हैं, ठेकेदार, स्थानीय  लोग, पुलिस, सहकारी केन्द्र, नेता – सबका गठजोड़ है जिन सबका शिकार खदान मजदूर है. दीपू देखता है कि यहाँ स्कूल से अधिक ज़रूरत समय पर उचित मजदूरी की है, स्वास्थ्य और सुरक्षा की है और स्कूल तथा शिशु केन्द्र की है जो गूजरों की बस्ती में नहीं बल्कि इन्हीं के बीच हो. वह मज़दूरों को संगठित करने, उचित मज़दूरी दिलाने और उनके बीच स्कूल खोलने के प्रयास में लग जाता है, ‘खदान मज़दूर संघ’ का गठन होता है. यह ‘सीड’ समेत किसी को नहीं पचता. परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि सीड से असहमति के बाद वह इस्तीफा देकर श्रमिक संघ और स्कूल के काम में लग जाता है. एस. डी.एम. को ज्ञापन देनें के क्रम में जुलुस निकलता है और उसी में ठेकेदारों के गुण्डे जुलूस पर आक्रमण कर देते हैं और उसकी हत्या हो जाती है.

हत्या की ख़बर पाकर दीपू का एक साथी घटना कि तह में जाने के इरादे से वहाँ पहुँचता है और पड़ताल में NGO संस्कृति और तमाम गठजोड़ की परतें खुलती हैं जिनकी कुछ झलक उपन्यास के अंशों से मिली होगी.    

उपन्यास रोचक और स्तब्धकारी है किन्तु सजग पाठक स्तब्ध नहीं होता क्योंकि वह इन सब प्रवृत्तियों को जानता ही है, बावजूद जानकारी के उपन्यास बांध लेने में समर्थ है. पतला उपन्यास है. यह उपन्यास जनचेतना, निरालानगर, लखनऊ में उपलब्ध है और डाक से भी मंगाया जा सकता है. इस प्रकार का साहित्य जनचेतना में बहुलता से उपलब्ध है.

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पुस्तकः एक तयशुदा मौत

विधाः उपन्यास

लेखकः मोहित राय

अनुवादकः रामकृष्ण पाण्डेय ( मूल बंगला से हिन्दी में अनूदित )

प्रकाशकः परिकल्पना प्रकाशन ( राहुल फाउण्डेशन का इम्प्रिण्ट)

मूल्यः ₹70.00, पृष्ठ 94

जनचेतना का सम्पर्क सूत्रः 0522-4108495, janchetna.books@gmail.com, वेबसाइट janchetnabooks.org

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“ … बुर्जुआ वर्ग का एक हिस्सा इसलिए सामाजिक व्यथाओं को दूर करना चाहता है ताकि बुर्जुआ समाज को बरकरार रखा जा सके. अर्थशास्त्री, परोपकारी, मानवतावादी, श्रमजीवी वर्ग की हालत सुधारने के आकांक्षी, दीन सहायता संगठन, पशु निर्दयता निवारण समितियों के सदस्य, नशाबन्दी के लिए उतावले लोग, हर कल्पनीय प्रकार के अनजान सुधारक इसी श्रेणी में आते हैं. इसके अलावा, इस तरह के समाजवाद का पूरी की पूरी पद्वतियों के रूप में विशदीकरण कर दिया गया है … इस समाजवाद का एक दूसरा, अधिक व्यवहारिक, परन्तु कम व्यवस्थित रूप प्रत्येक क्रान्तिकारी आन्दोलन को मज़दूर वर्ग की दृष्टि में यह दिखाकर गिराना चाहता है कि उसे मात्र राजनीतिक सुधारों से नहीं, बल्कि जीवन की भौतिक अवस्थाओं, आर्थिक सम्बन्धों में परिवर्तन से ही कोई लाभ हो सकता है. लेकिन जीवन की भौतिक अवस्थाओं में परिवर्तन समाजवाद के इस रूप का मतलब बुर्जुआ उत्पादन सम्बन्धों के उन्मूलन से कदापि नहीं है … बल्कि इन्हीं सम्बन्धों पर आधारित प्रशासकीय सुधारों से है, अर्थात ऐसे सुधारों से जो किसी हालत में पूँजी और श्रम में परिवर्तन नहीं लाते … “

-         कार्ल मार्क्स-फ़्रेडरिक एंगेल्स, कम्युनिस्ट घोषनापत्र से (यह इसी उपन्यास के अन्त में निचोड़ के रूप में दिया है.)