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Saturday 18 May 2013

"यादव और अहीर" - अन्तर की पड़ताल के बहाने पुस्तक चर्चा, पुस्तकः रुक्मिणी मङ्गल

वह चर्चा करता हूँ जिसके लिये मुझे "यादव और अहीर" मे अन्तर जानने की ज़रूरत महसूस हुई. पिछले दिनों ( दिनांक 14 दिसम्बर, 2012 को ) एक पुस्तक हाथ लगी " रुक्मणी मंगल". इसे बाकायदा खरीदा था किन्तु जिन विशेषताओं / परिस्थितियों के वशीभूत होकर 'हाथ लगी' कह रहा हूँ, उनमे खरीदने के बावजूद 'हाथ लगी' कहना उपयुक्त है. लाल बारादरी, लखनऊ मे एक पेण्टिंग प्रदर्शनी लगी थी ( चित्र से कुछ सरल से चित्रों का बोध होता है जबकि कला क्षेत्र मे चित्रकारों को पेण्टर कहा जाता है, वे अपने काम को "पेण्ट करना" कहना अधिक उपयुक्त समझते हैं और उनके चित्रों - नही पेण्टिंग्स मे अमूर्त सहित चित्रकला के विविध रूप होते हैं. अभी यहां विषय कला की विवेचना नही है अतः इस चर्चा पर विराम बस इस बात के साथ कि प्रदर्शनी मेरी मुहबोली भांजी, शिखा ओझा की थी जो अब लगभग स्थापित कलाकार है ) वहीं राज्य ललित कला अकादमी, उत्तर प्रदेश, लखनऊ का अकादमी प्रकाशन स्टाल भी था, वहीं यह पुस्तक भी थी. खास बात यह कि बाज़ार मे यह पुस्तक प्रकाशन के समय (1975) भी बिक्री के लिये उपलब्ध नही थी, अब तो कोई प्रश्‍न ही नही. इसे वहीं से खरीदा जा सकता था और वहां भी यह अन्तिम प्रति थी. पुस्तक "हार्ड बाऊण्ड" कवर मे है, उसमे उक्त काव्य के अतिरिक्त "गढ़वाल शैली / कलम" के मोलाराम जी अन्य कलाकारों द्वारा इस काव्य के प्रसंगों पर बनाये गये पन्द्रह (15) चित्रों की प्रतिकृतियों ( Replica ) के फोटोग्राफ्स हैं. ज्ञातव्य है कि मूल चित्रों / मूर्ति सहित अन्य शिल्पों की प्रतिकृतियां भी दक्ष कलाकारों द्वारा तैयार की जाती हैं और पारखी ही मूल और प्रतिकृति मे अन्तर कर सकता है. हैदराबाद के सालारजंग संग्रहालय मे जेमेका सहित अनेक मूर्तियां प्रतिकृतियां ही हैं. फोटोग्राफ्स भी इस कोटि के हैं कि उन पर सुरक्षित रखने के लिये लगाया जाने वाला विशेष पारदर्शी कागज भी लगा है और .... पुस्तक मात्र पैतीस रुपया ( रुपया 35.00 ) की है. अब कहिये ! पुस्तक "हाथ लगी" ही कही जायेगी ! पुस्तक के आवरण का चित्र चस्पा कर रहा हूँ -- इसलिये भी कि उसमे "रुक्मिणी मंगल " मे "" और "अंग् " प्राचीन शैली मे लिखा गया है जो मै कम्प्यूटर से नही लिख पा रहा हूँ.
अब पुस्तक के अन्दर की चर्चा.
रचनाकाल कथानक आदि
आप तो जानते ही हैं कि मुझे काव्य, और उसमे भी प्राचीन काव्य मे अपेक्षाकृत अधिक रुचि है. यह काव्य भी श्री विष्‍णुदास द्वारा सन् 1435 से 1442 के मध्य लिखा गया है.1435 से 1442 के मध्य की बात इसलिये कि अनेक प्राचीन कृतियों मे रचनाकाल निर्धारित नही हो पाता. उस समय कलाकार बहुधा इन पचड़ों मे नही पड़ते थे, वे रचना पर तिथि रह गयी तो उस समय के राजा के शासनकाल या फिर उसके किसी समकालीन, जिसने अपनी किसी कृति पर तिथि डाली हो, की कृति के आस पास रचनाकाल ठहराया जाता था. रचनाकाल के बारे मे अनिर्णय का एक और कारण था. उस काल मे छपाई आदि तो होती नही थी. मूल कृति की हाथ से लिख कर प्रतियां तैयार की जाती थीं जिन पर प्रतिलिपिकार वह तिथि अंकित कर देता था जब प्रतिलिपि पूर्ण होती थी. प्रतिलिपिकार अलग - अलग राज्यों मे अलग -अलग काल मे अपने राजा के आदेश पर प्रतिलिपियां तैयार करते थे जो उन राज्यों के अभिलेखागारों मे रखी जाती थीं. स्पष्‍ट ही, सबकी तिथि अलग होती थी और अभिलेखागार की प्रति को मूल मान लेने की त्रुटि से रचनाकाल के बारे मे कोई निर्णय नही हो पाता था. अब इस पुस्तक मे ही कवर पर 1975 छपा है जबकि अन्दर अकादमी अध्यक्ष श्रीमती राजन नेहरू का आभार एवं परिचयात्मक वक्तव्य दिनांक 18.02.1973 का है, प्रथम भाग के सम्पादक श्री नीलकंठ पुरुषोत्तम जोशी का आमुख 08.02.1973 का है.  अब इस पुस्तक के प्रकाशन काल मे भ्रम होगा कि नही.
इस काव्य की भी मुख्यतः चार ( 4 ) प्रतियां हैं - हैं तो और भी किन्तु उन्ही का उल्लेख किया जा रहा है जो इस कृति ( जो मेरे पास है ) के प्रकाशन का आधार हैं -
1. श्री मुकुन्दीलाल के संग्रह से प्राप्त कृति,
2. इलाहाबाद संग्रहालय की प्रति,
3. काशी नागरी प्रचारिणी सभा की प्रति, एवं
4. काशी नागरी प्रचारिणी सभा मे संगृहीत 'याज्ञिक संग्रह' की प्रति.
स्पष्‍ट है, मुझे इनमे से किसी प्रति को देखने का भी सौभाग्य नही मिला है. यह विवरण भी अति संक्षिप्त है, ग्रन्थ मे तो बहुत विवरण साक्ष्य दिये हैं.
कथानक पौराणिक है. विद्रुम (विदर्भ) देश के कौन्डिन्यपुर के राजा भीष्मक  की कन्या, रूक्मी की बहन, राजकुमारी रुकमिणी बचपन मे ही कृष्ण से प्रीतबद्ध होकर उनसे ही विवाह करना ठान लेती है. एक बार महल मे नारद का आगमन हुआ और उन्होने उसका विवाह कृष्ण से होने की भविष्यवाणी की तबसे ही वह  उनके प्रति आकृष्ट हो गयी. रुक्मी कृष्ण को निम्न जाति का अहीर/ ग्वाला मानता है जो उनके स्तर से नीचे है. वह उसका विवाह चंदेरी के राजा दमघोष के पुत्र शिशुपाल से करना चाहता है और बारात भी बुला लेता है. रुक्मणी तब एक ब्राह्मण को पत्र देकर कृष्ण के पास भेजती है और विवाह हेतु निमन्त्रण देती है. कृष्ण भी सेना सहित बारात लेकर आते हैं और योजनानुसार जब रुक्मणी देवी पूजन के लिये जाती है तब उपवन से उसका अपहरण कर लेते हैं. रुक्मी, शिशुपाल व प्रमुख बाराती जरासन्ध से उनका युद्ध होता है जिसमे वे सब पराजित होते हैं और रुक्मिणी- कृष्ण विवाह के साथ ग्रन्थ का समापन होता है. ग्रन्थ विभिन्न छन्दों मे है जो लगभग 73 राग – रागिनियों और 9 तालों मे निबद्ध हैं. छन्दों के साथ राग – ताल का निर्देश भी मिलता है. स्पष्ट ही, कवि विष्णुदास संगीत मे भि निष्णात रहे होंगे. ग्रन्थ मे श्रंगार के साथ वीर व हास्य रस का भी समावेश है.
यादव और अहीर के बारे मे
वर्तमान मे यादव व अहीर को एक ही माना जाता है. बहुधा जो यादव दूध का व्यवसाय करते हैं, उन्हे अहीर कहा जाता है किन्तु हैं दोनो एक ही. अब शंका इस कारण हुई कि कम से कम दो छन्दों मे ऐसा उल्लेख किया गया है जिससे लगता है कि अहीर को उज्जड, गंवार और स्तरहीन माना जाता था और यादव तथा अहीर मे अन्तर किया जाता था. दोहा 14 मे रूक्मी कहता है, “ … और भूप कहा मिटि गये, ढूंढो अहीर गंवार “ अर्थात क्या और राजा खत्म हो गये थे जो रुक्मिणी के लिये अहीर गंवार ढूंढा.
यहां तो यादव की उच्चता नही दर्शाई गयी, अहीर को ही निम्न कहा गया किन्तु दोहा 45 मे कृष्ण को भेजे जाने वाले पत्र मे रुक्मिणी कहती है, “… जादौ कुल की राखियो, मत हो जाइयो अहीर…” मतलब यादव तो स्वीकार्य था, अहीर नही.
जाति व कुल को लेकर तब (कृष्ण के काल द्वापर मे नही तो विष्णुदास के काल मे तो था ही ) खुले रूप से जाति – कुल मे अन्तर किया जाता था और लोग खुल कर व्यक्त भी करते थे. अब अच्छा था या बुरा, था तो !
ग्रन्थ की एक और विशेषताः क्षेपक का निरूपण
प्राचीन गन्थों, विशेषतः काव्य व संस्कृत ग्रन्थों मे बहुधा क्षेपक या प्रक्षिप्त की बात कही जाती है. क्षेपक / प्रक्षिप्त वो छन्द / श्लोक होते हैं जो मूल रचनाकार के नही होते, बाद मे अगले संस्करणों मे विविध कारणों से शामिल कर दिये जाते हैं. विद्वानों और पारखियों के अलावा शेष पाठक उन्हे मूल रचनाकार का मान कर ग्रन्थ व ग्रन्थकार पर प्रश्न व लांछन लगाते हैं. तब तक रचनाकार को दिवंगत हुए बहुत काल हो चुका होता है अतः शंका का प्रमाणिक समाधान नही हो पाता. समर्थक उन्हे क्षेपक बताते हैं तो विपक्षी मूल. स्पष्ट है, क्षेपक ग्रन्थ के मूल स्वर के विपरीत या उससे निम्न स्तर के होते हैं.
क्षेपक अनेक कारणों से होते हैं. कभी तो मूल रचनाकार की मृत्यु के समय ग्रन्थ अपूर्ण रह जाने पर उसके पुत्र / योग्य शिष्य द्वारा ग्रन्थ पूरा किया जाता है. कभी यह स्वेच्छा से तो कभी आश्रयदाता राजा के आदेश पर किया जाता था. स्पष्ट ही, क्षेपक मूल ग्रन्थ से अलग होता था जिसे राजा, क्षेपककार व पारखी के अतिरिक्त बिरले ही पहचान पाते थे.
                           क्षेपक का अन्य कारण होता था अन्य समर्थकों किन्तु कम प्रसिद्ध कवियों द्वारा अपना मत को मान्यता दिलाना. वैसे तो उन्हे उतना मान नही मिलता था किन्तु मूल ग्रन्थ मे शामिल हो जाने पर उनके मत को भी मान्यता मिलने लगती थी तथापि वे अनजान ही रहते थे.
                          एक और कारण होता था विरोधी व ईर्ष्यालु व विरोधी कवियों का कुटिल प्रयास. जब वे अपेक्षाकृत अच्छे काव्य से कवि को टक्कर नही दे पाते थे तो उसे बदनाम करने व उसके ग्रन्थ की प्रतिष्ठा गिराने के लिये निम्नस्तरीय व विरोधी स्वर के क्षेपक घुसेड़ देते थे.
वात्स्यायन के प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थ “कामसूत्र” मे बहुत क्षेपक हैं. ‘कोकशास्त्र’ सहित अन्य व अंग्रेजी ग्रंथ तो अधिकांशतः क्षेपकाधारित ही हैं.
अभी तक (विद्वानों की बात नही करता, मेरे समक्ष ) यह समस्या होती थी कि क्षेपकों की पहचान कैसे की जाय. इस ग्रन्थ मे क्षेपकों को इंगित करने के साथ यह भी बताया है कि कैसे पहचाना गया कि वे क्षेपक हैं. एक – दो उदाहरण ही देता हूँ. मूल पदों की अन्तिम पंक्ति मे कवि का नाम विष्णुदास ही मिलता है ( यथा, “… विष्णुदास देवन सिरनायक, रसना मंगल गाई “ – पद 2, राग यमन ) जबकि क्षेपक पदों मे अन्य प्रकार – “विष्णु मथुरा के स्वामी, जीवन के अंतरजामी” या “मेरे पति नंदनंद विष्णु… “ आदि है. स्याही, लिपि व शैली/ शब्दों का अंतर (यह संकेत पांडुलिपियों / संग्रहालयों की प्रतियों मे ही देखे जा सकते हैं ) समकालीन घटनाओं से मेल न खाना भी क्षेपक को इंगित करता है. यह संकेत अन्य ग्रन्थों मे भी क्षेपकों की पहचान मे सहायक हो सकते हैं.  
अब बस, बहुत विस्तार नही कर रहा हूँ क्योंकि ग्रन्थ मे रुचि और उसे पढ़े बिना यह प्रलाप ही होगा.
सुधी साथी यदि इस पोस्ट का उत्साहपूर्वक स्वागत करेंगे तो लगभग 1842 के माइकेल मधुसूधन दत्त के काव्य “ मेघनाथ वध “ की चर्चा करूंगा जिसे समीक्षकों ने मिल्टन के ‘पैराडाइज लॉस्ट’ के समकक्ष माना है, नही तो एक बार तो पढ़ चुका हूँ, दूसरी बार का इरादा है. पुराने ग्रन्थों पर चर्चा का कारण – एक तो मेरी रुचि और दूसरा यह कि नये तो सुधी साथी पढ़ ही लेंगे, पुराने की चर्चा कोई मेरे जैसा खब्ती ही करेगा.
राज नारायण
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* तिरछे अक्षरों और हरे रंग मे लिखा मेरा आकलन है ( जो मेरे विचार से तर्कसंगत है ) और गाढ़े अक्षरों मे नीले रंग से लिखा इस ग्रन्थ से लिया गया है.
 

20 comments:

  1. इतना ही कहा जा सकता है कि इस प्रकार के विद्वतापूर्ण आलेख- वह भी रोचक शैली में- "शिलालेख" के समान हैं...
    माइकेल मधुसूदन दत्त की अमर रचना "मेघनाथ वध" पर चर्चा अवश्य होनी चाहिए.

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  2. But reality yahi hai ki Vashudev or Nandbaba dono Sage Chachere Bhai hain ..
    or Dono hi Yadav hain .....

    Suppose mere yahan ya tumhare yahan ladki dekhne wale ate hain...
    or Mai 2 bhai hun same age ke ...
    or meri achhi officer rank ki government job lagi hai or mere bhai ki nahi wo aise hi jangli bana ghima krya hai ....
    or to Wo usse shadi karenge jo sabhya hai jiski job lagi hai Samjhdaar Yafav hai na ki jo berojgar hai or jangli bana ghuma krta hai ...
    bs yahi 1 difference hai jo tum log ya to samjh nahi rahe ho ya samjhna nahi chahte ho.....

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    1. भाई संदीप,
      पहले तो इतनी देर से प्रतिक्रिया के लिये क्षमा चाहता हूँ, कतिपय कारणों से ब्लॉग पर नही आ पाया. ये जो आपने कहा है और जो ग्रन्थ मे भी कहा, बिल्कुल यही बात है. सामन्यावस्था मे और आजकल यादव और अहीर एक ही हैं. यादव कहो तो तति अहीर का ही बोध होता है और अहीर कहो तो वे यादव लिखते हैं. बात बस वही आर्थिक, सामाजिक और शैक्षिक रूप से अन्तर की है जो इस मापदण्डों पर ऊँचे खड़े को यादव कहती है और उससे नीचे रह गये को अहीर. ऐसा ही लगभग सारी पिछड़ी जातियों मे है. पढ़े-लिखे, अच्छी नौकरी मे और आर्थिक रूप से दृढ* कश्यप, शर्मा ... हैं तो उस पायदान पर पिछड़ गये कहार, बढ़ई ... !

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  3. सत्य बात कहीं आपने

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  4. Aise hi ye jlntkhor tulsidas n bhi yadav(ahir) k bare m galat likha.. Ur koi koi doha m bhillo k jagah ahir ko kr diya.. Bc

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    1. हाँ भाई ! ऐसा भी है. तुलसी हों या और कोई साहित्यकार या आज के साहित्यकार - ग्रन्थ में वर्णित कथा के साथ उस समय प्रचलित शब्दावली और मान्यताओं को तथा अपनी मान्यता / पूर्वाग्रह को अपने साहित्य में उकेरते थे, तुलसी भी इससे अछूते नही रहे. उन्होने जो कहा, वह उनकी मान्यता रही, कोई सार्वभौम्न सत्य या राज्यघोषणा नही. तुलसी का नारियों के प्रति दुराग्रह मानस में बहुत जगह है, उन्होने सती को भी मूढ़ कहा और राम के मुख से भी सीता के लिए ( लङ्का काण्ड में, लक्ष्मण शक्ति प्रसङ्ग में ) ऐसा कहलाया जो उन्हे हीन ठहराता है. यह तुलसी का अपना मत था. आभार प्रतिक्रिया के लिए और खेद है विलम्ब से उत्तर देने के लिए. Unknown के बजाय नाम से प्रतिक्रिया होती तो और अच्छा होता.

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  5. #__तीनोंं__देव__बिलखत्__रहे, #__ब्रम्हा__धरे__न्__धीर

    #__तैतिस्__कोटि__देवता__तरसे, #__हम__न__भये__अहीर।

    #__जय__श्री__कृष्णा. 🙏🙏

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  6. Abe gawar hai kya....������
    Bhaat pelne waale bhatiya pandit. Aheer koi caste nhi hoti.....balki ethnic group/tribe hai jo ki pehle Abheer naam se jaani jaati hai.Jo ki pehle Kewal Sindh Punjab me payi jaati thi.Baad me migrate hokar....dusri jagah pahunchi aur local jaatio me merge ho gyi.Aheer kad Kathi ke majboot aur lambe chaude log hote the.Ek typical Aheer lamba aur gora hota hai.....
    Abheer ke apbhransh shabd hai Aheer,Ahir,Aveer,Ahar and Heer inke ye gotra bahut si jaatiyo me paaye jaate hai.Swabhav se arrogant aur gussail hote hai.Aaj kuchh purabiye do kaudi ke granth ko itihaas bta rhe hai.....������

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    1. धन्यवाद भाई जानकारी देने के लिये. ग्रन्थ में आया इसलिये जिज्ञासा हुई. ये काव्य ग्रन्थ है, कोई इतिहास या सरकारी गजट नही जो इसमें एक दो पदों मे 'अहीर' को यादव से हीन मान लिया जाय. यह कवि की अपनी सोच हो सकती है और उस काल में प्रचलित धारणा भी. अब धारणा की ही बात की जाय तो यह तो उस काम में धारणा थी किन्तु आप कृपया इस काल की अपनी धारणा को देखें जो गंवार को गाली जैसा मानता और असहमति व्यक्त करने के लिये 'अबे' जैसे शब्द से सम्बोधित करता. अबे तबे शालीन लोगों की शब्दावली नही.

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  7. Replies
    1. धन्यवाद ब्रजेश जी पोस्ट पढ़ने के लिए.

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  8. Yadav ahir ek hi vans ke hi or ek hi hai is Lekh se bhrmit hone ke jarurat nahi hai.

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    1. पोस्ट पढ़ने और प्रतिक्रिया हेतु धन्यवाद भाई.

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  9. इस पर न तो काव्य में कुछ प्रकाश डाला गया है कि ऐसा क्यों कहा और न ही मैंने पड़ताल की. वैसे इस काव्य व अन्य धारणाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि यदुवंश एक राजवंश था जिसमें सूरसेन थे व अन्य भी राजा हुए. यदुकुल / यदुवंश सत्ता में भागीदार था अतः अन्य राजवंश उससे रिश्ता जोड़ने में सहज थे किंतु अहीर व्यवसाय के आधार पर कहे गये. जो भी दुधारू पशुओं का पालन व दुग्ध एवं अन्य दुग्ध उत्पादों का व्यवसाय करता था वह अहीर कहा गया. इसमें बहुसंख्यक ( या फिर सारे ही ) यादव थे. तो मोटे तौर पर कह सकते हैं कि यादवों में जो दुग्ध का व्यवसाय नहीं करते थे, सत्ता में थे, वे यदुवंशी कहाये और दुग्ध का व्यवसाय करने वाले सामान्य यादव अहीर कहाये. यह भी मेरा अनुमान ही है, कोई प्रमाणिक अध्ययन नहीं

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