पुस्तक
चर्चा
पुस्तक – फुटपाथ पर
कामसूत्र-नारीवाद और सेक्शुअलिटीः कुछ भारतीय निर्मितियाँ
लेखक – अभय कुमार दुबे
विधा – कथेतर ( विषय
केन्द्रित लेखों का संकलन )
प्रकाशक – वाणी प्रकाशन
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शीर्षक से भ्रम हो सकता
है कि इस किताब में साहित्य/विमर्श की पैकिंग में यौन प्रसङ्गों को चटखारेदार और खुली
भाषा में वर्णित किया गया होगा, यह किताब छुपा कर / कवर चढ़ा कर पढ़ने वाली श्रेणी
की होगी – वैसी ही जैसी पहले ( मेरी किशोरावस्था में, जब डिजिटल का नाम भी न था ) बस
स्टेशन और बहुत जगह सड़क पर पत्रिकाएं और ‘लुगदी साहित्य’ बेचने वाले पीली पन्नी में
पैक करके, जाने-पहचाने या किसी पुराने का सन्दर्भ लेकर आने वाले या जिनकी पात्रता से
वह सन्तुष्ट / निश्चिन्त हो जाय – ऐसे ग्राहकों को ऐसे किताब वाले बेचा करते थे.
किताब देखने पर मुझे
ऐसा भ्रम कतई नहीं हुआ. मैनें किताब उठाई, लेखक, ‘अभय कुमार दुबे’, का नाम देखा तो
विचार बनाया खरीदने का और किताब खरीदने की उपयुक्त विधि से जाँच-परख के बाद पाया कि
किताब उठाना सही रहा. अभय कुमार दुबे के लेख मैं ‘हंस’ में और यत्र-तत्र पढ़ चुका था,
फिर उन्हें ‘भारतीय भाषा कार्यक्रम’ के ‘विकासशील समाज अध्ययन पीठ’ के सराय कार्यक्रम
की फेलोशिप मिली (जब फेलोशिप सम्बन्धी उल्लेख, लेखों की विषयवस्तु और अंश हंस में पढ़े
थे, तबसे अब तक धुंधली याद थी – यह विवरण किताब के प्राक्कथन से ताज़ा हुआ और यहाँ
दिया ) तो उसके अन्तर्गत ये लेख लिखे गये जो पुस्तकाकार सामने आये. पुस्तक राजेन्द्र
यादव को समर्पित है, उन्होनें ही नब्बे के दशक में लेखक को हंस के स्त्री-अंकों के
साथ जोड़ा. किताब और लेखक के बारे इतना कुछ (शीर्षक और आवरण पर के चित्र के कारण सफाई
देने जैसा) इसलिए बताया कि हंस और राजेन्द्र यादव को पढ़ने वाले अनुमान लगा लें कि
यह कैसी किताब होगी. किताब के बारे में कुछ लेखक मे मुह से भी सुनें जो उन्होनें प्राक्कथन
में कहा है –
“ मेरी इस पुस्तक के
प्रकाशन से बहुत पहले ही स्त्री-विमर्श हिन्दी-जगत में विचारोत्तेजक जगह बना चुका है.
लेकिन, सेक्शुअलिटी-विमर्श इस दुनिया के लिए काफी कुछ नया है. इसके साथ एक मुश्किल
यह भी है कि नारीवाद के साथ सेक्शुअलिटी का विमर्श जोड़ते ही या दोनों को एक-दूसरे
के आईने में देखने की कोशिश करते ही हिन्दी-संसार के एक हिस्से की भृकुटियाँ तन जाती
हैं. ऐसी प्रतिक्रिया के पीछे या तो नियोजित अज्ञानता होती है, या फिर शुद्धतावाद से
निकला दुराग्रह. दोनों का ही शमन करना असम्भव है. इसलिए ऐसे अंदेशों से बेपरवाह होकर
मैंने यह किताब तैयार की है, और जानबूझ कर इसका शीर्षक इस तरह का रखा है जिससे बहस
को और बल मिले. इसमें पिछले पच्चीस साल में लिखे गये मेरे तत्सम्बन्धित एथ्नॉग्राफ़िक
नोट्स, कुछ विश्लेषण और कुछ विवरण सम्मिलित हैं जिनके ज़रिये भारतीय समाज में निजी
और अंतरंग धरातल पर बनने वाले मानवीय रिश्तों की आधुनिक गतिशीलता रेखांकित करने का
प्रयास किया गया है. यह सामग्री किसी नये सिद्धांत की तरफ़ ले जाने का दावा तो नहीं
करती, लेकिन यदि पाठकों ने इसका सहानुभूतिपूर्वक स्वागत किया तो शायद उन्हें इसके भीतर
एक नयी दृष्टि की सम्भावना ज़रुर दिख सकती है… “
इस किताब में दस लेख
हैं – हर लेख का उपशीर्षक है जो उसकी दिशा का संकेत देता है. लेख में भी कई अध्याय/
शीर्षकों मे उद्वरणों सहित विमर्श को आगे बढ़ाया गया है. लेखक अपनी बात ही नहीं कहता
बल्कि पूर्वर्वर्ती/ समकालीन लेखकों का उदाहरण भी देता चलता है, उनके सम्दर्भ भी देता
है जो लेख में भी उसी पृष्ठ पर और पुस्तक के अन्त में अनुक्रमणिका में दिये गये हैं
ताकि बात की पुष्टि हो व जो पाठक और पढ़ना
चाहें वे सन्दर्भित लेख/ पुस्तक भी पढ़ सकें.
सारे लेखों का शीर्षक
या विषय-वस्तु आदि देना ‘पुस्तक चर्चा’ या ‘पुस्तक परिचय’ के अंर्तगत उपयुक्त नहीं,
मात्र एक लेख, “पटरी से उतरी हुई औरतों का यूटोपिया – राष्ट्रवाद का प्रति-आख्यान”
की कुछ चर्चा कर रहा हूँ. लेख में पण्डिता रमाबाई, आनन्दीबाई जोशी और सावित्रीबाई फुले
की चर्चा है. इन्हें( व इन जैसियों को ) ‘पटरी से उतरी हुई’ इसलिए कहा कि तत्कालीन
समाज ( बहुत हद तक आज भी ) में औरतों के लिए जो लीक तय कर दी गयी थी, उससे हट कर इन
औरतों नें शिक्षा प्राप्त की, तमाम तरह की चुनौतियों का डट कर सामना करते हुए समाज
में अपना स्थान बनाया और न केवल अपने लिए मुक्ति और उन्नति के द्वार खोले अपितु समाज
के लिए व्यवहार में भी बहुत कुछ किया.
इस चर्चा के साथ अनामिका
के दो खण्डों में प्रकाशित वृहद उपन्यास – ‘दस द्वारे का पींजरा’ और ‘तिनका तिनके पास’
की भी विशद चर्चा है. ये उपन्यास इन्हीं नायिकाओं का जीवनवृत्त हैं. इस चर्चा से गुजरते
हुए ये उपन्यास पढ़ने की भी उत्कट इच्छा जाग्रत होगी, कम से कम मुझमें तो हुई ही. अनामिका
की कविताएँ और लेख मैंने हंस व अन्य पत्रिकाओं में पढ़े हैं और अब ये उपन्यास भी पढ़ने
हैं. इन औरतों ने यद्यपि शिक्षा और औरतों की दशा सुधारने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका
निभाई किन्तु बड़े-बड़े विद्वान और नारी हितों के लिए कार्य करने वाले उदार समाज सुधाकर
भी इनके विरुद्ध हो गये, शायद इसलिए कि ये औरते थीं और मिशनरियों से जुड़ी थीं. उपन्यास
से ही एक उद्वरण देखिए –
“… सावित्रीबाई फुले
और महात्मा फुले के अलावा शायद ही कोई था जो उनके क्रिश्चियन मिशनरियों से जुड़ जाने
का पक्षधर रहा हो ! और तो और, विवेकानन्द नें भी मैत्रेयी-गार्गी की परम्परा से हट
कर विदेशी शासकों के धर्म से उनके जुड़ जाने की कड़ी निन्दा की थी. लोकमान्य तिलक तो
खैर केसरी में लगातार आग उगल ही रहे थे कि यह देशभक्ति के जज़्बे के बिल्कुल ख़िलाफ़
पड़ने वाली स्वार्थसिद्धि है कि कमज़ोर जातियाँ और स्त्रियाँ धर्म ही बदल लें… सबसे
ज़्यादा चोट रमाबाई को रामकृष्ण परमहंस की आलोचना से लगी जब उन्होनें इस धर्मांतरण
को अहमन्यता और नाम-धाम पाने की लालसा कहा … “
किताब में और भी बहुत
कुछ है और सन्दर्भित उपन्यासों में भी. यदि शुद्ध या कैसे भी मनोरञ्जन के लिए पुस्तक
पढ़ना हो तो यह किताब न पढ़ें, हाँ विषयगत और समकालीन विमर्श व सन्दर्भ ग्रंथों का
परिचय पाने व उनसे गुज़रने के इच्छुक हों तो अवश्य यह किताब पढ़ें.