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Thursday 27 March 2014

ऐरा गैरा नत्थू खैरा


 

ऐरा गैरा नत्थू खैरा

अभी चाय के दो घूंट ही लिये थे कि कुण्डी खड़की. अब तो कालबेल है, जञ्जीर-कुण्डी वाले बचे-खुचे दरवाज़े भी अब हटे - तब हटे की मुद्रा मे खड़े हैं किन्तु मै कालबेल की आवाज़ को कुण्डी खड़कना ही कहता हूँ. हाँ तो कुण्डी खड़की, झांक कर देखा, नत्थू था. “ छत पर चले आओ भई, ज़रा एक चाय और भेजना ” ये हांक लगा कर मै फिर दरी पर जा बैठा. पहली हांक नत्थू के लिये थी और दूसरी पत्नी के लिये. वह कुछ गुस्सा जैसा लग रहा था, चाल मे भी तेज़ी थी जो तैश की सी थी.

ये उतरते जाड़े के दिनों की बात है. कोहरा, बदली के दिन विदा हो चुके थे और उनके डर से छुपी रहने वाली या डर-डर के आने वाली धूप बेधड़क आने लगी थी,  कुछ गुजरात टूरिज्म के विज्ञापन मे अमिताभ की शैली मे.”… कुछ पल तो गुज़ारिये धूप मे.” मनुहार करती सी लगती थी. वो सुनहरी गुनगुनी सी धूप रोक ही लिया करती थी अगर किसी उससे ज्यादा अहमियत वाले से मिलने जाना न हो. रविवार की सुबह और कोई घरेलू काम भी नही सो छत पर धूप के साथ बैठ कर कुछ लिखत-पढ़त के इरादा से दरी, डेस्क, कागज – कलम, किताबें जमाईं, पानी का जग, गिलास और चाय का कप लेकर “अब तो सब हो गया” के भाव से बैठक पर नज़र डाली. अभी बैठा ही था और चाय के दो घूंट ही लिये थे कि कुण्डी खड़की. अरे ! यह तो बता चुका हूँ कि कुण्डी खड़की… नत्थू आया और बड़े तैश मे आया.

नत्थू इसी मोहल्ले का बाशिंदा है मगर बसा किसी घर मे नही. इसके आगे नाथ न पीछे पगहा, ज़ोरू न जाता अल्लाह मियां से नाता. कहां से आया – पता नही. पार्क का मंदिर ही उसका ठिकाना है. मंदिर की साफ-सफाई, देख-रेख करता है और बारामदे मे सो रहता है. बस काम भर का लिखना पढ़ना आता है, थोड़ा बहुत बिजली का काम भी जानता है, सभी के छोटे-मोटे काम कर देता है तो उसके बीड़ी तम्बाकू का इन्तज़ाम हो जाता है, खाना कभी बना लिया तो ज्यादातर किसी न किसी के यहां खा लिया. मै उससे काम कराने के अलावा बतिया भी लिया करता हूँ सो मेरा मुहलगा सा है, यारी सी है और पढ़ते-लिखते देख कर काबिल भी मानता है… मै भी उसका भ्रम नही तोड़ता. बैठने को कहा, बैठते हुए ही बोला, ”ये क्या फैला रखा है आप लोगों ने ? कैसी-कैसी कहावतें गढ़ रखी हैं, “ऐरा गैरा नत्थू खैरा !” छोटा आदमी हूँ तो क्या हमारी कोई इज्जत नही. ये ऐरा, गैरा कौन हैं जिन्हे मेरे साथ जोड़ दिया. अरे कोई गैर है तो मेरे साथ क्यों है और ये ऐरा और खैरा कौन हैं. मैने तो इन्हे देखा तक नही और जोड़ दिया मेरे साथ. कितना भी सबके काम करो कहेंगे बेइज्जती करते हुए – ऐरा गैरा नत्थू खैरा ! ग़ल्ती करें ऐरे, गैरे, खैरे और बदनाम हो नत्थू.”

मेरी तो बोलती बंद हो गयी, कुछ उसके तैश से और कुछ इससे भी कि बात तो उसकी जायज थी. मुझसे कुछ बोलते नही बना सिवाय इसके कि यह कहावत तो बहुत पहले की बनी है.

“ होगी पहले की मगर अब के लोग भी तो यही कर रहे हैं. कहावत मे नत्थू के साथ नत्थी किये गये ऐरा, गैरा और खैरा और फिल्म मे मूंछों और नत्थू का मज़ाक बनाया गया. फिल्म शराबी का सीन याद करें साहब. छोटे कद का एक्टर और मूंछे बड़ी-बड़ी. नाम भी रखा तो नत्थूलाल. उसकी मूंछे छूते हुए डायलाग बोला, मूंछे हों तो नत्थू लाल जैसी. हम आपके जैसे पढ़े-लिखे तो नही मगर इतना तो समझते हैं कि तारीफ नही हो रही है… मज़ाक उड़ाया जा रहा है.”

अभी नत्थू उलझ ही रहा था कि जीने पर से कदमों की आहट सुनाई दी. ये शीला और मुन्नी थीं जिन्होने कुण्डी खड़काना भी ज़रूरी नही समझा. बिना किसी भूमिका के शुरू हो गयी शीला, “ जीना हराम कर रखा है ऐसे गानों ने, जिसे देखो वही देखते ही “शीला की जवानी” और “मुन्नी बदनाम हुयी, डार्लिंग तेरे लिये” गाने लगता है.” उनकी शिकायत पूरी होते न होते लाठी टेकती हुयी बी नसीबन भी आन पहुँचीं. “ ये मुन्नी तो अब परेशान हो रही है, निगोड़े मुझे तो तबसे परेशान किये हैं जब मै नन्ही ही थी. वो क्या गाना चला था, ‘लौंडा बदनाम हुआ, नसीबन तेरे लिये’. ये ‘मुन्नी बदनाम’ तो उसकी नकल है.”

“खाला आप भी !” मेरे मुह से निकला.

“हाँ नही तो क्या ! उस ज़माने मे यह ज़ोरों पर था, जिन छोकरों को इस बदनामी की समझ भी न थी, वो भी देखते ही शुरू हो जाते थे. निकाह हुआ तो तुम्हारे खालू एक शक्की. जब कहीं ये गाना सुनकर आते तो मुझे दिक करते, ‘ये लौंडा कौन है जो तुम्हारे लिये बदनाम हुआ है’. मै लाख कहती, ‘ये तो गाना है, मुए दहिजरों ने बना दिया है. मुझे क्या मालूम, होगी कोई नसीबन और होगा कोई लौंडा… मुझसे कोई वास्ता नही.’ ‘कुछ तो बात होगी, यूं ही कोई थोड़े गाना बनाता है’ पता नही शक़ था कि मियां खुद लौंडे के चक्कर मे थे. उनकी झायं-झायं से तो बेवा होकर छुटकारा मिला मगर ये मरदूद अब बेचारी मुन्नी और शीला का जीना हराम किये हैं.

“ सच कह रही हैं खाला “ ये पटवारी जी थे जो जाने कब आकर बैठ गये थे. “ खालू एक बार मुझसे भी उलझ गये थे, ‘ कहीं ये तुम्हारा वाला लौंडा तो नही जिसके पीछे मेरी नसीबन बदनाम है’. उस ज़माने मे एक और गाना चला था, ‘लौंडा पटवारी का बड़ा नमकीन’ अब आपको खालू परेशान किये थे और मुझे आपकी बहू. ज़रा घर आने मे देर होती तो ताना मारतीं, ‘होगे उसी लौंडे के साथ.’ अब मै कभी सफाई देता तो कभी झल्ला पड़ता. हद तो ये कि एक बार तहसीलदार साहब ने भी मौका देखकर फुसफुसाते हुए कहा, ‘भई, वो तुम्हारा लौंडा कहां है, हमसे भी तो मिलवाओ’ पता नही संजीदा थे कि चुहुल कर रहे थे.”   

खैर, किसी तरह लल्लो-चप्पो करके इन सबको चाय-पानी कराके विदा किया. अब पढ़ने-लिखने का क्या मन होता, चिन्तन ही चालू हो गया. कितने ही मुहावरें और कहावते हैं जो किसी नाम पर या जात पर बने हैं. कल को वो भी ऐतराज करने लगें, याचिका-वाचिका दायर दें तो क्या हो ! कहावतें और कुछ नाम तो बदले जा सकते नही भले ही सरकारें उन्हे बदल दें. अब ‘बाम्बे डाईंग’, फिल्म ‘बम्बई का बाबू’ और भी तमाम ‘मुम्बई डाईंग’ और ‘मुम्बई का बाबू’ होने से रहे.

अगर कोई गंगू नामधारी लड़ने लगें कि ‘कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली’ मे मुझे क्यों घसीटा गया, होंगे राजा भोज बड़े, करो उनकी तारीफें , मेरी बेइज़्ज़्ती क्यों पीढ़ी दर पीढ़ी करते चले आ रहे हो. इतना ही नही तेली समाज भी आपत्ति उठा सकता है कि ये गंगू की ही नही पूरी तेली जाति का अपमान है और पता नही किस गंगू को हमारी जात से जोड़ रहे हो. कल को कोई अब्दुल्ला आकर बखेड़ा करे, ’क्यों मियां, मै किस बेगानी शादी मे दीवाना हुआ था, हुआ होगा कोई अब्दुल्ला दीवाना किसी बेगाने की शादी मे, अब तक क्यों सारे अब्दुल्लाओं के पीछे पड़े हो ? गोया अब्दुल्ला नाम न हुआ जात हो गयी !’ है कोई जवाब ! जात की बात पर ध्यान आया कि “मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक” भी तो ऐतराज के लायक है. कल को कोई मुल्ला कह दे कि हमे क्या निरा मुल्ला ही समझ रखा है कि मस्जिद से आगे का न पता हो, न समाई. अरे हम वो मुल्ला नही, दीन के साथ दुनिया की खबर रखते हैं और ऊपरवाले के अलावा नीचे के ऊपरवालों तक भी पहुँच रखते हैं. मुल्ला ऐतराज करें तो पण्डित जी क्यों पीछे रहेंगे. उस्ताद बड़े गुलाम अली खां की गायी ठुमरी, “… कंकरि मार जगा गयो रे बम्भना का छोरा… “ मे एक तो ब्राह्मण को बदनाम किया सो किया मगर ब्राहमण देवता कहना तो दूर बम्भना कहा है और आपको बड़ा रस मिलता है इसे सुनने मे. गया राम, गंगा दास, जमुना दास, नयनसुख आदि भी तो आपत्ति उठा सकते हैं. इनके नामों पर भी तो कहावते हैं और कहावत मे इन नामों को इज्जत तो दी नही गयी है.

नत्थू, शीला, मुन्नी, पटवारी और बी नसीबन के अलावा और कोई शिकायत करने तो नही आया मगर आशंका बराबर बनी हुई है कि कहावतों, मुहावरों और गानो मे शामिल नामों और जातियों के लोग भी आकर खड़े हो गये तो क्या जवाब होगा. अदालती कार्यवाही झेलो और इनका प्रयोग बन्द करो. फिर तो लाक्षणिक अभिव्यक्ति सीमित ही समझो.

दरअसल मुहावरों व कहावतें मे, लोकगीतों से लेकर फिल्मी गानों मे, विभिन्न शीर्षकों मे, कथानकों मे, और और भी कई प्रसंगों मे नाम और जाति का प्रयोग हुआ है. इनके पीछे मंशा क्या रही होगी ! निश्चित ही यह मंशा तो नही ही होगी कि इनका मज़ाक उड़ाया जाय या इन्हे अपमानित किया जाय. अब तो जाति का आधार व्यवसाय नही और यह भी आवश्यक नही कि किसी जाति विशेष के लोगों मे जातिगत गुण-अवगुण या विशेषताएं हों. बहुत अकादमिक विश्लेषण मे न जायें तो किसी घटना या प्रवृत्ति के बारे मे जो कुछ सूत्र रूप मे कहा जाय वह कहावत और जो मुह दर मुह चलन मे रहे, वह मुहावरा. दोनो का ही एक फार्मूला और एक ही मानक है. कोई नाम, कोई जाति या घटना इसलिये जोड़ी जाती है कि पूरी बात न बतानी पड़े, सुनते लोग जान जायें कि, अच्छा उस घटना / उस आदमी ( औरत भी हो सकती है ) की बात हो रही है या ये बात भी ‘ऐसी’ ही है जैसी ‘वो’ थी. यही कहावतों का उद्गम, आशय और उपयोगिता है.

जब कोई कहावत बनी तो उस समय के लोग तो समझ लेते थे कि किस सन्दर्भ की बात है किन्तु इनका कोई लिखित अभिलेख तो रखा जाता नही अतः एक पीढ़ी बाद के लोग या उससे भी बाद के लोग उस घटना या व्यक्ति विशेष के बारे मे नही जानते तो कुछ खुराफाती लोग भड़कने और भड़कने से अधिक भड़काने मे लग जाते हैं. ऐसे लोग कभी कोर्स की किताबों के पाठ बदलवाने के लिये तो कभी फिल्मों के नाम को लेकर तो कभी किसी गाने से एक आध शब्द बदलवाने के लिये हाय तोबा मचाते हैं. बहाना यही होता है कि हमारी भावना को ठेस पहुँची / भावना आहत हुई, हमारी जाति का अपमान हो रहा है… आदि, इत्यादि. जहां तक हम समझते हैं, इन कारणों मे से कोई भी वास्तविक नही होता बल्कि ये चर्चा मे आने या सस्ती लोकप्रियता पाने का ओछा हथकण्डा है. सरकार उनकी बात कभी कभी मान भी लेती है. उन्हे तो उतना प्रचार नही मिलता और न ही जातीय गौरव बढ़ता है और न ही वे जाति के प्रतिनिधि बन जाते हैं, बस उनका अहं तुष्ट हो जाता है या फिर फिल्म-विल्म का मामला हुआ तो कुछ माल-मत्ता हाथ लग जाता है.

इस वितण्डा से सबसे अधिक फायदा उसे होता है जिस पर आपत्ति की गयी होती है. फिल्म या किताब या लेख के मामले मे तो मुफ्त मे प्रचार हो जाता है. कुछ समय पहले ‘नया ज्ञानोदय’ मे एक साक्षात्कार मे विभूति नारायण सिंह ने नाम लिये बगैर कुछ लेखिकाओं के लिये एक बहुश्रुत/ प्रचलित शब्द ( फ्लर्ट से ऊंचे दर्जे का) प्रयोग किया तो कुछ ने इसे लपक लिया. नतीजा क्या हुआ – साहित्य मे ज़रा भी रुचि / जानकारी रखने वालों ने ढूंढ-ढूंढ कर वह साक्षात्कार पढ़ा. पत्रिका की बिक्री बढ़ी बस. ऐसे ही फिल्म ’आजा नच ले’ के एक गाने मे ‘सुनार’ शब्द पर हाय-तोबा मची तो शब्द तो हटा मगर बहुतेरे सुनार सहित गाना सुन चुके थे. जिन्होने पहले वाला नही सुना था उन्होने भी सुना. दो कार्टूनों पर चाय के प्याले मे तूफान उठाया गया तो लोगों ने ढूंढ-ढूंढ कर वो कार्टून देखे. विवाद पर लोग प्रयास करके देखते/ पढ़ते/ सुनते हैं कि देखें इसमे है क्या ! इस चक्कर मे औसत माल भी खप जाता है. इससे तो लगता है कि ऐसी आपत्तियां प्रायोजित और इन पर लड़ाई नूरा कुश्ती होती है.   

पहले नत्थू, शीला, मुन्नी, बी नसीबन और पटवारी की बमचक से मार खुपड़ी झांझर हो गयी और रही-सही कसर इस चिन्तन ने पूरी कर दी. अब पढ़ता तो क्या और लिखता भी क्या… सरो सामां समेट कर खाने की गुहार लगाता नीचे उतरा.

राज नारायण

 

 

 

 

  

 

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