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Sunday 7 December 2014

पुस्तक चर्चाः “उपसंहार” – काशीनाथ सिंह


पुस्तक चर्चाः “उपसंहार” – काशीनाथ सिंह

पौराणिक चरित्र और उन पर आधारित महाकाव्य सदा से ही अबूझ आकर्षण का केन्द्र रहे हैं. उन चरित्रों का फलक इतना विस्तृत है कि लोग एक बार मे पूरा देख ही नही पाते और कार्य इतने अतिमानवीय कि वे चरित्र श्रद्धा से देखे जाते - जाते अपने जीवनकाल मे ही ईश्वर हो जाते हैं और वे महाकाव्य धर्मग्रन्थों का दर्जा प्राप्त कर लेते हैं. इस दर्जे को प्राप्त होने पर उन चरित्रों व उनके हर कार्य का निरूपण और विश्लेषण उसी नज़रिया से किया जाता है जैसा मूल ग्रन्थ मे है. उससे अलग व्याख्या का जोखिम प्रायः कोई उठाता नही किन्तु समर्थ साहित्यकार उनके कार्यों की निर्मम चीर फाड़ करते हैं और उनके अन्तर को मानवीय संवेगों के अनुसार टटोलते हैं. वे उन प्रश्नों से मुठभेड़ करते हैं जो कभी न कभी हर अध्येता के मन मे उठे होते हैं. महाभारत ऐसा ही महाकाव्य है और उसमे कृष्ण का चरित्र अगम - अगाध है. कृष्ण के मन के ऐसे ही झञ्झावात को पकड़ा है काशीनाथ सिंह ने सितम्बर, २०१४ मे राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित अपने नये उपन्यास “उपसंहार” मे.

उपन्यास महाभारत युद्ध के समापन से प्रारम्भ होता है. युद्ध अतिविनाशकारी सिद्ध हुआ, विजेता भी पराजित ही सिद्ध हुए क्योंकि उन्हे जो धरती मिली वह झुलसी हुई थी. विजेता दम्भ से भरे थे और उन्मत्त आचरण वाले हो गये थे. इस महायुद्ध को धर्मयुद्ध कहा गया किन्तु युद्ध के दौरान ही प्रश्न उठने लगे थे कि क्या वास्तव मे यह धर्मयुद्ध था. प्रश्नों के घेरे मे थे केवल कृष्ण और प्रश्न करने वालो मे थे उनके अपने और सबसे बढ़कर वे स्वयं. उन्हे भी अब लगता था कि जो उन्होने किया, वह धर्म नही था और उस धर्माचरण से जो हासिल हुआ, वह विभीषिका थी. अब उनके अपने ही अधर्म कर रहे थे. महाभारत मे तो अर्जुन को उन्होने अपनों के विरुद्ध युद्ध करन्ने को प्रेरित किया किन्तु अब वे स्वयं अपनों को रोक नही पा रहे थे. उन्हे सब निरर्थक लग रहा था और वे आशंका और अवसाद मे जी रहे थे. परिणिति बहुत त्रासद रही. सता और सचमुच के मद मे चूर उनके कुटुम्ब ने अपनों का वध कर दिया, बचों-खुचों का कृष्ण ने वध किया, बलराम ने आत्महत्या ( सागर मे जलसमाधि ) कर ली और वे जरा नामक व्याध द्वारा पशु के धोखे मे पशु की तरह मारे गये.
कृष्ण के अंर्तद्वन्द्व और अंतिम दिनों की गाथा है उपसंहार. काशीनाथ सिंह की एक अलग ही शैली का परिचय मिलता है इसमे. पूरा तो आप उपन्यास पढ़कर ही जानेंगे, अभी उपन्यास से कुछ अंश देखें जो मेरे विचार से उपन्यास का परिचय दे रहे हैं --


“ … यहीं कृष्ण को ब्राह्मणों को तीज – त्योहारों पर
  दान- दक्षिणा देते समय एक नया अनुभव हुआ
  कि ये जिसकी दान – दक्षिणा और सेवा-सत्कार से प्रसन्न हों
  उसे नारायण बना दें और जिससे असन्तुष्ट हों
  उसे असुर और राक्षस … “
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“ … कैसे समझाऊँ तुझे “ कृष्ण खड़े हो गए – “ बस यही समझो कि प्रत्येक मनुष्य कभी न कभी कुछ ही पलों या क्षणों के लिए ही सही, ‘ किसी न किसी का ईश्वर हुआ करता है. ऐसा एक नही, कई बार हो सकता है. आख़िर ईश्वर है क्या ? मनुष्य के श्रेष्ठतम का प्रकाश ही तो ? और यह प्रकाश प्रत्येक मनुष्य के भीतर होता है, लेकिन फूटता तभी है जब किसी को कातर, बेबस, निरुपाय और प्रताड़ित देखता है. मै भी था ईश्वर. हाँ, मेरी अवधि किन्ही कारणों से थोड़ी लम्बी खिंच गई रही होगी. … चलो अब… “
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“… ‘हाँ, तुमने एक काम ज़रूर किया’ बलराम रुक कर बोले- ‘तुमने युद्ध की शास्त्रीय और पुरानी शैली को नाकारा साबित कर दिया – अपनी छल और कूट बुद्धि से. इसका प्रयोग तुम राक्षसों-असुरों के संहार के लिए करते हो. लेकिन युद्ध मे छल से तुमने जिनका वध किया, वे असुर और राक्षस नही थे. भीष्म, द्रोण, कर्ण – ये अनमोल रत्न थे आर्यावर्त के, जो किसी-किसी युग मे कभी-कभार ही पैदा होते हैं. इन्हे अकेले नही मार सकता था क्या अर्जुन ? फिर वो किस बात के लिए तीनों लोकों मे सबसे बड़ा धनुर्धर कहलाता फिर रहा था ?’
  बलराम कृष्ण की प्रतिक्रिया देखते रहे.
  कृष्ण ने आँखें बन्द कर रखी थीं. चुप थे. … “
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“ … और रही बात ईश्वर की
 तो मै ईश्वर कहो या वासुदेव – होना चाहता था
 क्योंकि उसकी कोई जाति नही होती, वर्ण नही होता, गोत्र नही होता
 अकेला वही है जो वर्णाश्रमों के बन्धनों से मुक्त है.

 और दाऊ, कोई भी हारने के लिए नही लड़ता
 लड़ता है विजय के लिए
 और विजय गांडीव के रास्ते नही मिलती
 मिलती है रणनीति से
 जिसे तुम छल, कपट, झूठ, अधर्म कहते हो
 वे रणनीति के ही अंग हैं
 और मैने ‘रणनीतिकार’ की भूमिका उसी दिन तय कर ली थी
 जिस दिन स्वयं को ‘निःशस्त्र’ घोषित किया था. … “
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“ … शुरुआत की रुक्मिणी ने –
 ‘प्रद्युम्न के दिमाग से यह बात निकल ही नही रही है
 कि आपने बाप का कर्तव्य नही निभाया.
 कहता रहता है हमेशा
 कि सौरीघर से ही सात दिनों के अन्दर
 आधी रात को शम्बरासुर उठाकर ले गया
 और उस आदमी ने जानने की कोशिश ही नही की
 कि कौन ले गया ? कहाँ ले गया ? क्यों ले गया ?
 ऐसा भी कोई बाप होता है क्या ?
 मैने जाना ही नही कि बचपन क्या होता है ?
 माँ-बाप का प्यार क्या होता है ?
 उन्हे जब मेरी फिक्र नही तो मै क्यों करूँ उनकी फिक्र ?
 मै जो कुछ हूँ अपने बलबूते हूँ, किसी का अहसान नही मेरे ऊपर !
 उन्हे ‘पुरुषोत्तम’, ‘जनार्दन’, जगदीश्वर’ जो कुछ होना है
 हुआ करें, हमारे ठेंगे पर ! … “
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“ … लेकिन यह निश्चिन्तता बहुत देर तक नही रह सकी.
 वे इस चिन्ता मे घुलने लगे कि
 जिस लोकराज्य और गणराज्य के लिए
 वे जीवन भर राजतन्त्रों के खिलाफ लड़ते रहे
 उस गणराज्य की अपनी मुश्किले हैं, अपनी समस्याएँ हैं
 और उनका समाधान अगर है तो उन्ही के पास
 जो उन्हे खड़ी कर रहे ह्हैं.
 लेकिन इतना ही वे समझ सकते तो खड़ी क्यों करते ? … “
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“ … ‘लेकिन दारुक ! इधर लगातार मेरे भीतर कुछ गूँज हो रही है. उथल-पुथल मची हुई है. वह जगे मे नही, सोए मे भी सुनाई देती है. महाभारत शुरु होने से पहले ही जब दोनो पक्षों की सेनाएँ आमने-सामने डँट गईं, तो धृतराष्ट्र ने संजय से जानकारी चाही. संजय ने गान्धारी वगैरह को बुलाकर सबके सामने कहा – ‘यतो कृष्णस्ततो धर्मः यतो धर्मस्ततो जयः’ यानि जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ धर्म है और जहाँ धर्म है, वहीं जय है. यह मैने सुना था. इधर बार-बार यही प्रतिध्वनि मेरे कानों मे गूँज रही है कि क्या सचमुच मैने महाभारत मे अठारह दिन धर्माचरण किया था, जिससे विजय मिली ?’ … “ 

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