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Friday 9 October 2020

विश्व डाक दिवस

 



“ अजब आदमी है ये क़ासमी इसे बे-कुसूर ही जानिए।

 ये तो डाकिया है जनाब-ए-मन इसे भेजता कोई और है॥“

-    ज़ियाउल हक़ क़ासमी

आज #विश्वडाकदिवस है तो पहले की तरह हर दिन नही तो आज के दिन तो डाक और उससे भी अधिक डाकिये की याद की ही जानी चाहिए. पहले संदेशे या कोई भी ज़रुरी/ गैरज़रूरी बात, हाल-चाल, निमन्त्रण आदि डाक से ही भेजे जाते थे और संदेशों के ही बराबर भेजे जाते थे रुपये. बैंकों का पर्याप्त चलन हो जाने के बाद भी धन प्रेषण का विश्वसनीय और लोकप्रिय तरीका था, मनी ऑर्डर. परदेश कमाने गये प्रिय से भी अधिक प्रतीक्षा डाकिये की होती थी, वह उनका भेजा हुआ पैसा जो लाता था जिससे घर चलता था और साथ में लाता था उनका संदेशा. गांवों में बहुधा डाकिया पैसा देने के साथ संदेशा पढ़ कर भी सुनाता था. पहाड़ों पर आधे से अधिक घरों के मर्द फौज़ में होते थे सो उनकी अर्थव्यवस्था का आधार ही मनी ऑर्डर था. पाहुने से अधिक आवभगत डाकिये की होती थी. मनीऑर्डर का इन्तेज़ार हॉस्टल में रह कर पढ़ रहे छात्रों को भी होता था. तकनीक का प्रचार प्रसार हुआ तो कागज कलम का इस्तेमाल कम हुआ, धन प्रेषण के त्वरित और सस्ते तरीके आये तो डाक और डाकिया अब साल दो साल में आने वाले दूर के मेहमान हो गये अन्यथा ये जीवन की धुरी थे. डाक का इस्तेमाल कम हुआ किन्तु अब भी सरकारी और अदालती पत्र व्यवहार, परीक्षा व साक्षात्कार के लिये बुलावा, नियुक्ति पत्र आदि अब भी डाक से ही आता है और अब जबकि सरकारी डाक विभाग के समानान्तर कोरियर सर्विस की सेवा इतनी मज़बूती से कदम जमा चुकी है कि डाक विभाग / डाकखाना और डाकिया अप्रासंगिक से हो गये हैं ऐसे में भी स्पीड पोस्ट की विश्वसनीयता और चलन बरकरार है.

अब डाकिया तो आता नही, कोरियर आता है तो हम इन कोरियर्स को भी डाकिया कह सकते हैं. पहले कुछ ही सामान डाक से बुक कराया जाता था, बहुतेरे होंगे जिन्होनें चिट्ठी के अलावा आज तक पार्सल बुक कराया ही न होगा किन्तु अब ई-व्यापार बढ़ने से राशन-पानी, दवा, कपड़े, जूते, घड़ियां, स्टेशनरी, किताबें, खाने-पीने का समान …. क्या-क्या नही डाक से, मतलब कोरियर से, मंगाया जा रहा है. अब कोरियर का भी उसी बेसब्री से रास्ता देखा जाता है जैसे कभी डाकिये का देखा जाता था बावजूद इसके कि अब पता रहता है कि हमारे सामान ( शिप से न भेजा जाने पर भी इसे शिपमेण्ट कहते हैं ) की क्या स्थिति है. वह कब कोरियर कम्पनी से चला और कब तक पहुँचेगा जबकि डाक के मामले में यह था ही नही. पत्र भेज दिया, डाक के डब्बे में खुद डाल कर आये या पक्का करना चाहा तो अभिस्वीकृति ( Acknowledgement ) व्यवस्था के तहत खिड़की पर दिया और पावती ली, और पक्का करना हुआ तो रजिस्ट्री कर दी, रजिस्टर्ड AD करके पावती ले ली, मगर लिये रहिये पावती – बहुत मामलों में कोई भरोसा नही रहता था कि कब पहुँचेगा, पहुँचेगा भी या नही. बहुत लोगों के साथ ऐसा हुआ कि नौकरी के लिए आवेदन भेजा, लोगों की लिखित परीक्षा हो गयी, साक्षात्कार हो गया, तैनाती हो गयी मगर हम टापते रहे – काहे से कि हमारा आवेदन ही न पहुँचा. ऐसा भी हुआ कि आवेदन तो पहुँच गया किन्तु हम तक लिखित परीक्षा / साक्षात्कार का बुलावा ही न पहुँचा. ये अतिशयोक्ति नही, हम भुक्तभोगी रहे हैं इन दारुण स्थितियों के. अभी कुछ दिन पहले लखनऊ के ही एक मित्र को पत्र लिखा. करीब एक पखवारा हो गया तब उन्हे मिला. इससे तो बेहतर था कि हम लाल डब्बे में डालने तो गये ही थे, आठ-दस किलोमीटर और बढ़ लेते तो उन्हे हाथ में देकर आते.

विश्व डाक दिवस के मौक़े पर ये क्या ऊल-जुलुल बकने लगा, उसे याद कर रहा हूँ तो उसकी कमियों के साथ ! मगर ये आईना है जिसमें डाक विभाग को देखना चाहिए. ये भी कारण है जिससे कोरियर व्यवसाय इस कदर फैला कि लोग भूलने से लगे कि डाक विभाग भी है और एक डाकिया भी होता था जो खाकी वर्दी पहन कर साईकिल पर आता था, चिट्ठी देता था और कहने पर पढ़ कर भी सुनाता था. इतना ही नही, इसरार करने पर वो खत का जवाब भी लिख देता था और उसे डाक में डाल देने की ज़िम्मेदारी भी लेता था. बहुधा कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ लोग उससे खत पढ़ कर सुनाने को कहते और उसका जवाब लिखने को. वे अपनी बोल चाल की भाषा में तमाम उसके सामने उंडेल देते और वह उनका सार-संक्षेप करके, पत्र वाली भाषा में लिख देता और उसे पढ़ कर भी सुनाता कि ये-ये लिखा है. उससे कोई दुराव-छिपाव न होता, इतनी आत्मीयता हो जाती कि वह घर के सदस्य सा हो जाता था. अब कोरिय्रर त्वरित तो है किन्तु उसमें वो बातें कहाँ. वो बाईक पर बड़ा सा झोला लादे आता है, पैकेट दिया और भुर्र्र हो गया.

विश्व डाक दिवस के अवसर पर डाक विभाग और उससे भी अधिक डाकियों को प्रणाम.

सीधा सादा डाकिया जादू करे महान।

एक ही थैले में भरे आँसू और मुस्कान॥  

-    निदा फ़ाज़िली   

Thursday 1 October 2020

गाँधी जयन्ती की पूर्व सन्ध्या पर !

 


गाँधी जयन्ती की पूर्वसन्ध्या पर गाँधी जी की तो याद आयी ही किन्तु उनसे भी अधिक कुछ और लोगों की याद ज़ोर मारने लगी. इधर कुछ वर्षों में यह चलन हो गया है, फेसबुक, व्हाट्स ऐप और ट्वीटर आदि पर तो ज़ोर शोर से ही, कि गाँधी जयन्ती पर गाँधी जी को याद न करके कुछ और लोगों को याद किया जाय, उनकी बात की जाय – इस दिन तो ज़रूर ही चाहे बाक़ी तीन सौ इकसठ ( तीन सौ चौसठ इसलिए नही कि एक-दो दिन तो उनकी भी जयन्ती पुण्यतिथि वगैरह पड़ जाती है जिन्हे गाँधी जयन्ती  के दिन याद किये जाने का चलन है )  दिन उन्हे बिसराए ही रखा जाता हो. अब जब ये चलन ही हो चला है तो  भला मैं कैसे न याद करता दूसरों को  - याद कर रहा हूँ. 

वो क्या है कि गाँधी जयन्ती के दिन लगभग सब जगह  छुट्टी रहती है किन्तु जिनकी वजह से छुट्टी मिलती है, उनको याद करने के बजाय बहुत से लोग बैंक और बैंकियों ( बहुतेरे बैंकिये अपने को बैंकर्स कहते हैं ) को बड़ी शिद्दत से याद करते हैं. बहुधा बैंकियों से फोन करके या प्रत्यक्ष पूछते हैं, “ कल बैंक भी बन्द रहेंगे क्या !”  यह वाक्य जानकारी चाहने वाला सामान्य वाक्य भर नही है – इस एक वाक्य में जिज्ञासा, आश्चर्य, कौतूहल, धिक्कार, खेद ... जाने कितने भाव भरे हैं. यह बोल कर नही बल्कि लिख कर पूछा गया होता तो इसमें प्रश्नवाचक चिन्ह ? नहीं, बल्कि विस्मयादिबोधक चिन्ह ! लगा होता. बताईये भला ! यह भी कोई बात हुई कि जिस दिन हमारी छुट्टी हो उस दिन बैंक भी बन्द रहें. जाने कितने तो काम होते हैं बैंक के जो आज कर आते मगर नहीं, बैंक ही बन्द है ! हमें और सब कार्यालय बन्द होने से परेशानी नहीं किन्तु बैंक भी बन्द हैं !!! शहर में तो नहीं किन्तु गाँव, कस्बा, तहसील, छोटा जिला आदि की शाखाओं में दस- बीस लोग चैनल बन्द देख कर भी गार्ड से पूछने आ जाते हैं, “ आज बैंक बन्द है !” या “आज बैंक काहे बन्द है ?” गार्ड द्वारा बताये जाने पर ही उन्हे पता चलता है कि गाँधी जयन्ती पर अन्य कार्यालयों की तरह बैंक में भी छुट्टी रहती है और यह सरकार का नियम है. हमें तो इसमें बैंक वालों की एक साजिश और लगती है कि महीने के शुरू में ही दो अक्टूबर रखवा दिया, कितने तो काम होते हैं बैंक के महीने की शुरुआत में और छुट्टी रख ली धूर्तों ने ! 

बैंक और बैंकियों के अलावा जो और लोग / वर्ग शिद्दत से याद किये जाते हैं उनमें से दूसरे पायदान पर हैं देशी-अंग्रेजी दारू की दुकानें और उनके सेल्समैन. मद्यपों में कुछ लोग दूरदर्शी होते हैं , वो गाँधी जयन्ती की पूर्व सन्ध्या पर ही खरीद कर रख  लेते हैं किन्तु सब तो ऐसे सजग नागरिक नही होते ना ! वे ठेका / दुकान / मॉडल शॉप / बार आदि बन्द देख कर उन सेल्समेन को याद करते हैं जो सांकेतिक तरीके से शटर खटखटाने पर 1/20 शटर खोल कर माल थमा देते हैं या पिछवाड़े की गली में आने को कह देते हैं. इस अवसर  पर दुकान के पास जूस का ठेला लगाने वाले भी याद किये जाते हैं. कुछ लोग मित्रों को भी याद करते हैं, “ कुछ रखे हो क्या ! याद ही नही रहा नही तो कल ही ले लिये होते” ऐसे संदेश सोशल मीडिया ( व्हाट्स ऐप )  पर भी इस तरह दिये जाते हैं, “ दवा की बहुत ज़रुरत है और आज दुकाने बंद हैं. किसी के पास हो तो दे दे.” अब लोग समझ लेते हैं कि दवा-दारू वाली दवा की बात हो रही है. तो गाँधी जयन्ती पर बजाय गाँधी जी को याद करने के लोग बैंक वालों के साथ इन्हे भी याद करते हैं.

अब आते हैं वो जो इधर छह-सात साल से गाँधी जयन्ती पर इतना याद किये जाते हैं कि पहले पायदान के हक़दार हैं – वे विभूति हैं भगतसिंह ! गाँधी जयन्ती पर सबसे ज़्यादा याद किये जाते हैं भगतसिंह और वो भी अपनी शहादत, विचारों या और किसी सन्दर्भ में नहीं बल्कि बस इस सन्दर्भ में कि “ गाँधी जी ने भगतसिंह की फांसी रुकवाने के लिये कुछ नही किया / वे चाहते तो फांसी रुकवा सकते थे / गाँधी चाहते थे कि भगतसिंह को फांसी हो जाय “ आदि, इत्यादि. न गाँधी जी के काम याद किये जाते हैं, न भगत सिंह के – ये वर्ग बस गाँधी जयन्ती पर इस तरह भगत सिंह को याद करता है. कल देखियेगा, है तो गाँधी जयन्ती किन्तु याद भगत सिंह किये जायेंगे फेसबुक, व्हाट्स ऐप और ट्वीटर आदि पर.

भगत सिंह के अलावा गाँधी जयन्ती पर कुछ छुटपुट लोग और घटनाएं भी याद किये जाने का चलन फेसबुक, व्हाट्स ऐप और ट्वीटर आदि पर है. ये वो औरतें / लड़कियाँ हैं जिनके साथ गाँधीजी के अंतरंग सम्बन्धों को चटखारे ले-लेकर याद किया जाता है और याद दिलाया जाता है. गाँधी जी के कार्यों आदि का समग्र मूल्यांकन न करके बस उन महिलाओं को याद किया जाता है. बाक़ी दिनों उन महिलाओं का भी कोई नामलेवा नही होता किन्तु इस दिन वे चर्चा में होती हैं  - कोई डायरी खंगाली जाती है तो किसी की स्वीकारोक्ति तो किसी किताब के सन्दर्भ तलाशे और पोस्ट किये जाते हैं.

 इस दिन चरखे, फांसी के फन्दे, सावरकर आदि को और भगतसिंह को एक और सन्दर्भ में याद किये जाने का चलन है. लोग यह मांग करते और सुझाव देते हैं कि नोटों पर गाँधी जी के बजाय इनकी-उनकी  फोटो होनी चाहिए. कुछ उत्साही वीर तो हेरा फेरी करके बनाये हुए नोट की फोटो भी चस्पा करते हैं जिन पर उनके सुझाए हुए नायक की फोटो होती है – डिजिटलाइजेशन से कितनी सुविधा हो गयी है, कुछ भी बना लो. सरकार और रिजर्व बैंक को ध्यान देना चाहिए, जाने क्यों वे गाँधी जी की फोटो से चिपटे हुए हैं. बाक़ी दिन इन्हे याद करने या नोट पर फोटो होने की मांग का चलन नही है. गोडसे को भी इस दिन खूब याद किया जाता है. चरखे को ट्रको के पीछे लिखे शेर से याद किया जाता है और एक फिल्मी गीत को ही सब कुछ मानते हुए साबरमती, संत, खङ्ग और ढाल आदि को भी याद कर लिया जाता है.

 तो मित्रों ! कर ली है ना तैयारी गाँधी जयन्ती की कि इस दिन क्या-क्या और किन-किन को याद करना है और माल-वाल लेकर धर लिया है ना कि कल फोन करो, “ भाई, कुछ रखे हो क्या ! याद ही नही रहा नही तो कल ही ले लेते !” इसीलिए पूर्व सन्ध्या पर ही याद दिलाए दे रहा हूँ.

 साथ चस्पा चित्र के कलाकार हैं, Kapil Ghdap ( नाम अंग्रेजी में इसलिए लिख रहा हूँ कि कलाकार के सरनेम का सही उच्चारण नही मालूम ) और चित्र सोपान जोशी की एक फेसबुक पोस्ट से लिया है. सेल्फी का तो चलन है ज़ोरों पर !