“
अजब आदमी है ये क़ासमी इसे बे-कुसूर ही जानिए।
ये तो डाकिया है जनाब-ए-मन इसे भेजता कोई और है॥“
- ज़ियाउल हक़
क़ासमी
आज
#विश्वडाकदिवस है तो पहले की तरह हर दिन नही तो आज के दिन तो डाक और उससे भी अधिक डाकिये
की याद की ही जानी चाहिए. पहले संदेशे या कोई भी ज़रुरी/ गैरज़रूरी बात, हाल-चाल, निमन्त्रण
आदि डाक से ही भेजे जाते थे और संदेशों के ही बराबर भेजे जाते थे रुपये. बैंकों का
पर्याप्त चलन हो जाने के बाद भी धन प्रेषण का विश्वसनीय और लोकप्रिय तरीका था, मनी
ऑर्डर. परदेश कमाने गये प्रिय से भी अधिक प्रतीक्षा डाकिये की होती थी, वह उनका भेजा
हुआ पैसा जो लाता था जिससे घर चलता था और साथ में लाता था उनका संदेशा. गांवों में
बहुधा डाकिया पैसा देने के साथ संदेशा पढ़ कर भी सुनाता था. पहाड़ों पर आधे से अधिक
घरों के मर्द फौज़ में होते थे सो उनकी अर्थव्यवस्था का आधार ही मनी ऑर्डर था. पाहुने
से अधिक आवभगत डाकिये की होती थी. मनीऑर्डर का इन्तेज़ार हॉस्टल में रह कर पढ़ रहे
छात्रों को भी होता था. तकनीक का प्रचार प्रसार हुआ तो कागज कलम का इस्तेमाल कम हुआ, धन प्रेषण के त्वरित और सस्ते तरीके आये तो डाक और डाकिया अब साल दो साल में आने वाले दूर के मेहमान हो गये अन्यथा ये जीवन की धुरी थे. डाक का इस्तेमाल कम हुआ किन्तु अब भी सरकारी और
अदालती पत्र व्यवहार, परीक्षा व साक्षात्कार के लिये बुलावा, नियुक्ति पत्र आदि अब
भी डाक से ही आता है और अब जबकि सरकारी डाक विभाग के समानान्तर कोरियर सर्विस की सेवा
इतनी मज़बूती से कदम जमा चुकी है कि डाक विभाग / डाकखाना और डाकिया अप्रासंगिक से हो
गये हैं ऐसे में भी स्पीड पोस्ट की विश्वसनीयता और चलन बरकरार है.
अब
डाकिया तो आता नही, कोरियर आता है तो हम इन कोरियर्स को भी डाकिया कह सकते हैं. पहले
कुछ ही सामान डाक से बुक कराया जाता था, बहुतेरे होंगे जिन्होनें चिट्ठी के अलावा आज
तक पार्सल बुक कराया ही न होगा किन्तु अब ई-व्यापार बढ़ने से राशन-पानी, दवा, कपड़े,
जूते, घड़ियां, स्टेशनरी, किताबें, खाने-पीने का समान …. क्या-क्या नही डाक से, मतलब
कोरियर से, मंगाया जा रहा है. अब कोरियर का भी उसी बेसब्री से रास्ता देखा जाता है
जैसे कभी डाकिये का देखा जाता था बावजूद इसके कि अब पता रहता है कि हमारे सामान ( शिप
से न भेजा जाने पर भी इसे शिपमेण्ट कहते हैं ) की क्या स्थिति है. वह कब कोरियर कम्पनी से चला और कब तक पहुँचेगा जबकि डाक के मामले में यह था ही नही. पत्र भेज दिया, डाक
के डब्बे में खुद डाल कर आये या पक्का करना चाहा तो अभिस्वीकृति ( Acknowledgement
) व्यवस्था के तहत खिड़की पर दिया और पावती ली, और पक्का करना हुआ तो रजिस्ट्री कर
दी, रजिस्टर्ड AD करके पावती ले ली, मगर लिये रहिये पावती – बहुत मामलों में कोई भरोसा
नही रहता था कि कब पहुँचेगा, पहुँचेगा भी या नही. बहुत लोगों के साथ ऐसा हुआ कि नौकरी
के लिए आवेदन भेजा, लोगों की लिखित परीक्षा हो गयी, साक्षात्कार हो गया, तैनाती हो
गयी मगर हम टापते रहे – काहे से कि हमारा आवेदन ही न पहुँचा. ऐसा भी हुआ कि आवेदन तो
पहुँच गया किन्तु हम तक लिखित परीक्षा / साक्षात्कार का बुलावा ही न पहुँचा. ये अतिशयोक्ति
नही, हम भुक्तभोगी रहे हैं इन दारुण स्थितियों के. अभी कुछ दिन पहले लखनऊ के ही एक
मित्र को पत्र लिखा. करीब एक पखवारा हो गया तब उन्हे मिला. इससे तो बेहतर था कि हम
लाल डब्बे में डालने तो गये ही थे, आठ-दस किलोमीटर और बढ़ लेते तो उन्हे हाथ में देकर
आते.
विश्व
डाक दिवस के मौक़े पर ये क्या ऊल-जुलुल बकने लगा, उसे याद कर रहा हूँ तो उसकी कमियों
के साथ ! मगर ये आईना है जिसमें डाक विभाग को देखना चाहिए. ये भी कारण है जिससे कोरियर
व्यवसाय इस कदर फैला कि लोग भूलने से लगे कि डाक विभाग भी है और एक डाकिया भी होता
था जो खाकी वर्दी पहन कर साईकिल पर आता था, चिट्ठी देता था और कहने पर पढ़ कर भी सुनाता
था. इतना ही नही, इसरार करने पर वो खत का जवाब भी लिख देता था और उसे डाक में डाल देने
की ज़िम्मेदारी भी लेता था. बहुधा कम पढ़े-लिखे या अनपढ़ लोग उससे खत पढ़ कर सुनाने
को कहते और उसका जवाब लिखने को. वे अपनी बोल चाल की भाषा में तमाम उसके सामने उंडेल
देते और वह उनका सार-संक्षेप करके, पत्र वाली भाषा में लिख देता और उसे पढ़ कर भी सुनाता
कि ये-ये लिखा है. उससे कोई दुराव-छिपाव न होता, इतनी आत्मीयता हो जाती कि वह घर के
सदस्य सा हो जाता था. अब कोरिय्रर त्वरित तो है किन्तु उसमें वो बातें कहाँ. वो बाईक
पर बड़ा सा झोला लादे आता है, पैकेट दिया और भुर्र्र हो गया.
विश्व
डाक दिवस के अवसर पर डाक विभाग और उससे भी अधिक डाकियों को प्रणाम.
सीधा
सादा डाकिया जादू करे महान।
एक
ही थैले में भरे आँसू और मुस्कान॥
- निदा फ़ाज़िली