पिछले साल की बात है. 25 मई को विवाह गीतों पर आधारित लोक गीतों की एक नृत्य-संगीत संध्या मेबतौर दर्शक/श्रोता शामिल होने का अवसर मिला.उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ मे (जोमेरी जन्मभूमि है, घर भी है व सम्प्रति वहीं नियुक्ति व निवास भी है) चिनहट से थोड़ा आगेइंदिरा नहर के किनारे एक लोक व ग्राम्य कला तथा परिवेश को समाहित किये हुए एकपर परिसर है - "कलागांव." एक बड़े परिसर मे गांव को साकार किया गया है - वही कच्चेव छप्पर वाले घर, तालाब , नहर, बैलगाड़ी, चौपाल, लोक/श्रम गीत, लोक/ग्राम्य कला,ग्राम्य पहनावे में कर्मचारी --- संक्षेप मे वह सब कुछ कि लगे कि हम गांव में हैं. यद्यपि सबकृत्रिम है (वातानुकूलित झोपड़ियां भी हैं) फिर भी, कर्मचारियों का व्यवहार व भाषा कृत्रिम/ व्यवसायिक नही है और हमारी नयी पीढ़ी के लिये तो एक कौतूहल व सौगात ही है . (जिन्हे 'कलागांव' के बारे मे अधिक उत्सुकता हो, वे कृपया www.kalagaon.com देखें )
जानकारी देने के चक्कर मे विषयान्तर हो गया. खैर, मूल विषय पर आता हूँ.विवाह एक विशद उत्सव ही है और जहां उत्सव हो वहां नाच-गाना, ढोलक की थाप,छेड़-छाड़, रूठना- मनाना, हर्ष-उल्लास , मान-अभिमान, नत होना व आंखॅ नम होना तोहोगा ही. अब तो लोग (विशेषतः किशोर वय तक के शहरी/महानगरीय बच्चे) तो इन सबके नाम पर बस जो सीरियलों मे होता है-- उसी को ही विवाह गीत/ रस्मों आदि के रूप मेजानते हैं, ऐसे में पुरानी/ गांव की रस्मों व गीतों से युक्त एक शाम तो मनोरंजन से अधिकअपनी विरासत से मुलाकात थी.
पूरा कार्यक्रम एक विवाह की भांति था . विवाह गीतों मे रस्मों/रीति-रिवाजों को याविवाह रस्मों मे गीतों/नृत्य - संगीत को पिरोया गया था. शुरु से जब कन्या का पिता वरदेखने जाता है, तभी से मां-बाप के मन मे कैसी हूक उठती है, एक तरफ तो यह तत्परता कि कन्या के लिये उपयुक्त वर मिले तो दूसरी ओर बेटी के बिछोह का दुःख- इस भाव कोवही ठीक-ठीक समझ सकते हैं जो विवाह योग्य कन्या के मां-बाप हों (साथ ही साथसंस्कारी भी हों, अति आधुनिक नहीं कि यह सब महसूस भी न कर सकें या थोड़ा-बहुतमहसूस भी करें तो इसे कस्बाई/गंवई मानसिकता मान कर छुपाएं). खुशी और घबराहटदोनो होती है. मां-बाप का यह हाल होता है तो कन्या के मन मे मायका छूटने के दुःख केसाथ भावी घर-वर के प्रति आशंका व उमंग दोनो ही. कन्या के छोटे भाई-बहनों/ सहेलियोंकी अलग ही खुशी व छेड़-छाड़. इन सबको एक सुन्दर/मार्मिक गीत व नृत्य के साथ विवाहके उपयुक्त परिधानों मे सजी महिलाओं/बालिकाओं ने पेश किया. पूरा वातावरण सजीव होउठा-- और क्यों न हो ... आकाशवाणी / दूरदर्शन के कलाकार , दूरदर्शन के उदघोषक औरसोने पर सुहागा यह कि श्री योगेश प्रवीन ( इनके नाम से लखनऊ के सुधी जन भली-भांतिपरिचित हैं , अन्य लोगों को बता दूं कि वे इतिहासविद, लेखक व लोक जीवन के मर्मज्ञ हैं -उमराव जान समेत अनेक फिल्मों मे भी उनका योगदान है, लखनऊ पर उनकी कईकिताबें हैं और मुझे उनके संसर्ग का सौभाग्य मिला जब मै लखनऊ के विद्यांत कॉलेज मेपढ़ता था जहां वे अध्यापक थे) की परिकल्पना व आलेख से सजी संध्या "अवध कीअमराई " थी.
इसी प्रकार आगे बढ़ते हुए सगाई (बरीक्षा या छेदना), तिलक, बन्ना-बन्नी, हल्दी,नकटा (हँसी - मज़ाक से भरपूर छेड़-छाड़ के गीत), गारी, (प्रेमपूर्ण गालियां - जो कन्या पक्षकी महिलाएं विवाह के दूसरे दिन कलेवा/भात के समय वर पक्ष के लोगों को लक्ष्य करके,नाम ले-लेकर गाती हैं .. कभी- कभी ये गालियां फूहड़, अश्लील व दैहिक सम्बन्धों कोभदेस भाषा मे उजागर करती हुई होती हैं किन्तु कोई बुरा नही मानता.. सब मज़ा लेते हैं. ..... अब भात तो होता नही सो गारी भी नही और अब तो बहुत ही कम महिलाओं को यहआता है , जिन्हें आता है उनकी कोई सुनता नहीं- अब तो न इन सबके लिये टाईम है नबोध. अब तो यह सब फूहड़ व गवांरपन माना जाएगा भले ही लोग टी.वी. पर "लॉफ्टर शो"मे परिवार के साथ इससे भी फूहड़/ अश्लील क्यों न देख रहे हों) सुहाग, विदाई आदि केगीत नृत्य-अभिनय सहित पेश किये गये.
विवाह के हर अवसर पर गीत हैं जिनमे से अधिकांश के साथ नृत्य भी होता है- वहसब अपने मूल रूप मे सजीव हो उठा. बारात पर वर पक्ष को उलाहना देते हुए 'बिन बजनीपायल लाए बने ... अपनी दादी नचावत आए बने ... अपनी भाभी/चाची .... नचावत आएबने' गीत हो या ननदोई को छेडते हुए 'सरौता कहां भूल आए प्यारे ननदोईया' हो सबनेसमा बांध दिया. जब विदाई की बारी आई तो कन्या का भाई व बाप से लिपट कर रोना व"काहे को ब्याही विदेश" गीत सबकी आखें नम कर गया, और यह सब सायास अभिनयनही था... इतनी सजीव प्रस्तुति थी... माहौल ऐसा भारी हो गया था कि अभिनय कर रहेकलाकारों समेत सबकी आंखे नम हो गयीं. बड़ी यादगार व सफल प्रस्तुति रही.
इस शानदार प्रस्तुति के बाद गोरखपुर के किसी (नाम याद नही) गांव से आए ठेठगंवई लोगों द्वारा "कहरवा" (एक पिछड़ी/श्रमिक जाति- जो गांवों मे बहुधा बड़ी गरीबी काजीवन बिताती है- द्वारा रचित व गाये जाने वाले लोक गीत व नाच) प्रस्तुत करने कीघोषणा की गई व दर्शकों/श्रोताओं से अपेक्षा की गई कि वे इसका भी आनन्द उठाएंगे वकलाकारों का उत्साहवर्धन करेंगे. विडम्बना यह कि इन सबकी अपेक्षा दर्शकों से ही थी, 'अवध की अमराई' कार्यक्रम के कलाकार, उद्घोषक, साजिन्दे वगैरह सब मंच तो छोड़ हीचुके थे-- उन्होने थोड़ी देर बैठना भी गंवारा न किया तो दर्शक भी उठने लगे थे. खैर"कहरवा" शुरू हुआ. कहां तो इससे तुरन्त पहले ही प्रशिक्षित/व्यवसायिक कलाकारों द्वाराचमक-दमक से भरपूर सधा हुआ कार्यक्रम और कहां ये गांव के लोग. इनकी वेशभूषा भीअति साधारण ही थी- वही रोज पहनी जानी वाली धोती व बनियान... वह भी झक सफेदनही, बस धुली व बिना प्रेस की, उस पर बनियान को साफ दिखाने के चक्कर मे इतनी नीललगाई थी कि वह खराब लग रही थी. गांव अपने वास्तविक/नग्न रूप मे था लेकिन बसयहीं तक हीनता/कमी थी.... जब गाना/पारम्परिक वाद्य (हुड़ुक जोड़ी,ढप व खड़ताल) शुरूहुए व खुली आवाज मे गाना शुरु हुआ तो जो कला रसिक/मर्मज्ञ थे उन्हे तो भरपूर रसमिलने लगा. उन्होने "भरथरी" ( महाराज भृर्तहरि की कथा जो कतिपय कारणों सेजोगी/विरक्त हो गये थे व संस्कृत मे श्रंगार शतकम, नीति शतकम व वैराग्य शतकम कीरचना की) शुरू किया... "भिक्षा मांगे राजा भरथरी महरानी < FONT size=3>से." एकबारगी तो लोग रुके मगर न तो बहुत सांगीतिक वाद्य, न साज-सज्जा और भाषा/बोली भीशहरी लोगों के लिये अनजानी-अबूझ सी. उस पर तुर्रा यह कि पहले के कार्यक्रम मे तो सबस्पष्ट होते हुए भी दूरदर्शन के प्रशिक्षित उद्घोषक थे जो गीत सार बताते चल रहे थे औरकहां यह लोग जिनके पास न तो उद्घोषक था और खुद भी कथासार बताने जैसा कुछ नहीकर रहे थे . या तो वे इसमे सक्षम नही थे या उपेक्षा व अन्य कारणों से हीन भावना मे थे,नही तो ये वही लोग थे जो गांव मे रात भर भारी भीड़ के बीच सफल प्रस्तुति देते थे. अबतक तो रिकार्डिंग वाले भी सामान समेटने लगे थे जो अप्रत्यक्ष संकेत था कि भैय्या! तुमलोग भी समेटो! उन लोक कलाकारों- जो सचमुच के लोक कलाकार थे, लोक कला काप्रशिक्षण पाये हुए शहरी कलाकार नही- के प्रति सबकी यह उदासीनता यह सोचने परविवश कर रही थी कि यह अभी थोड़ी देर पहले सम्पन्न हुए उत्सव का विद्रूप था या फिरइन कलाकारों के विद्रूप का उत्सव था.
इस सबके बावजूद भी उनकी लगन, उनके खुले गले से निकलती पाटदार आवाज,उनकी मस्ती, घोर जिजीविषा, उनका नृत्य -गीत-संगीत.... कुल मिलाकर सब कुछ ऐसाथा जो कहीं न कहीं पहले की प्रस्तुति से कमतर नही था और यही कारण था कि वे अपनाकार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे थे और कुछ श्रोता अभी तक जमे हुए थे... किन्तु कब तक!धीरे-धीरे लोग कम होने लगे, यहां तक कि स्थिति यह आई कि मंच पर केवल कलाकारऔर श्रोताओं मे केवल हम दोनो अर्थात मै और मेरी पत्नी ही बचे थे (बच्चे भी ऊब कर"गांव" भ्रमण करने गये थे व जो स्थान पहले श्रोताओं से भरा था, वे श्रोतागण भी चले नहीगये थे अपितु गांव भ्रमण/खान-पान मे व्यस्त थे) अब तो स्थिति बड़ी असमंजस की हो गयी थी, न हमें उठते बनता था न उन्हें कार्यक्रम समाप्त करते बनता था. वेकार्यक्रम करने, संचालन व बंद करने के मंचीय रंग-ढंग से अपरिचित-से लग रहे थे. हम उनके लिहाज में और वे हमारे लिहाज में बैठे थे. मैने ही बीड़ा उठाया, जैसे ही उन्होने गीत समाप्त किया, लपक कर मैं मुख्य गायक के पास पहुंचा और प्रशंसा के साथ बधाई दी (झूठी प्रंशसा नही थी, लटके-झटके न होते हुए भी वे इसके हकदार थे) और कार्यक्रम समाप्त हुआ. यही थोड़ी देर पहले के उत्सव का विद्रूप था कि ठेठ ग्राम्य कला के विद्रूप का उत्सव या फिर दोनो ही .
तो सुधीजनों, यह थी उक्त कार्यक्रम की रिपोर्टिंग और कला के दो पहलुओं पर नज़र. एक तरफ कला/संस्कृति के साथ-साथ तौर -तरीके, पेशेवराना अन्दाज ( Profesionalism / Perfaction ) व संरक्षण सब कुछ था तो दूसरी ओर सिर्फ कला व संस्कृति थी. कलाकार गांव से बाहर लाकर सीधे पेशेवर ( Professionals ) लोगों के बीच छोड़ दिये गये थे, फिर भी उन्होने अपनी कला के साथ कोई समझौता नही किया.