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Sunday 11 January 2015

कला और कलाकारों के प्रति कुछ

महान डच चित्रकार विन्सेन्ट वॉन गॉग के जीवन पर आधारित इरविंग स्टोन के उपन्यास “ Lust for Life”  ( हिन्दी मे इसी नाम से अशोक पाण्डेय द्वारा अनूदित, संवाद प्रकाशन से प्रकाशित ) मे इस कलाकार की कला यात्रा – सह - जीवन यात्रा का एक प्रसंग है, जब वह लंदन मे एक आर्ट गैलरी मे नौकरी कर रहा होता है. जैसाकि होता है, आर्ट गैलरियों मे मूल चित्र के साथ अधिकतर प्रिंट / अनुकृतियां (नकल) बेचे जाते हैं. मूल तो एक ही होता है, मूल कलाकार भी दुबारा वही चित्र पेण्ट करे तब भी, तो लोग अपनी कलापिपासा कैसे शांत करें. जो मूल खरीदने की हैसियत नही रखते उन्हे भी अपनी इस पिपासा को शांत करने का अधिकार है, कुछ लोगों को यह भी दिखाना होता है कि वे केवल धनवान ही नही हैं, बड़ा घर ही नही है बल्कि सुरुचि सम्पन्न भी हैं, कला पारखी और संरक्षक भी हैं और इन सबसे भी अधिक आख़िर गैलरियों के मालिकों को धन्धा भी चलाना होता है --- शायद इन्ही कारणों से मशहूर कलाकारों के काम के प्रिंट / नकल खूब बनती हैं और बिकती भी हैं… तो जिस स्टोर मे विन्सेन्ट सेल्समैन था, वहां भी प्रिंट / नकल भी बिकती थी.

एक दिन एक अमीर महिला अपने नये मकान के लिये कुछ कलाकृतियां खरीदने आयी. विन्सेन्ट को उसे अटेण्ड करना था. उस महिला ने उसे अपनी ज़रूरत बतायी, दीवारों की नाप, खिड़कियों की संख्या और लोकेशन बतायी जिनके लिये वो चित्र चाहती थी और यह भी बताया कि बेहतरीन चीज़ों के लिये उसे खर्च की चिन्ता नही थी. वह चाहे कलाप्रेमी थी या कलाप्रेमी होने का दिखावा करना चाहती थी किन्तु कला की समझ उसे बिल्कुल नही थी और इस बात को उसने छिपाया भी नही. वह उस सेल्समैन (विन्सेन्ट) से बेहतरीन कलाकृतियों के चुनाव मे सहायता चाहती थी और उसने उसकी समझ और सदाशयता पर पूरा भरोसा किया था. खर्च किये जाने वाले पैसों के बदले उसकी यह अपेक्षा उचित थी उसका यह अधिकार भी था और उसकी अपेक्षा को पूरा करना विन्सेन्ट का कर्तव्य भी. लिकिन विन्सेन्ट ने उसकी कोई सहायता नही की क्योंकि वह उकताया हुआ था, अपने जीवन से असन्तुष्ट था और इन सबसे भी बढ़कर, “… अपने फूहड़ भड़कीले पहनावे और बेहूदा व्यवहार से वह औरत विन्सेन्ट के लिए मध्यवर्ग की उद्देश्यहीनता और व्यापारिक जीवनशैली का प्रतीक बनती गई… “ जब वह कुछ चित्र चुन चुकी तो ---

“तो,” सन्तुष्ट होकर वह बोली, “मेरे ख़्याल से मैने उम्दा चुनाव किया है.”

“अगर आपने आंखे बन्द करके भी छांटा होता, “ विन्सेन्ट बोला, “तो भी शायद आप इससे बुरा तो नही ही करतीं.”

आप समझ ही सकते हैं कि इसके बाद क्या हुआ होगा ! वह औरत दहाड़ी, बिना कुछ खरीदे गालियां देती बाहर निकल गयी. गैलरी के मालिक –

मि. ओबॉक गुस्से से पगला गए, “ प्यारे विन्सेन्ट,” वे बोले, “ तुम्हे हो क्या गया है ? तुमने सप्ताह का सबसे बड़ा ऑर्डर तबाह कर दिया, ऊपर से उस महिला का अपमान किया.”

“मि. ओबॉक, आप मेरे एक सवाल का जवाब देंगे ?”

“बोलो क्या है ? मुझे ख़ुद तुमसे कुछ सवाल पूछने हैं.”

विन्सेन्ट उस औरत के छांटे प्रिंट एक तरफ हटाकर, मेज़ पर कुहनियां टिका कर बोला, “आप मुझे बताइए कि क्या एक आदमी अपनी इकलौती ज़िंदगी को बेहद मूर्ख लोगों को बेहद मूर्ख लोगों को घटिया कलाकृतियां बेच कर सही ठहरा सकता है ?”

इसके बात का वार्तालाप बहस और कुछ, “या रब न वो समझेंगे हैं, न समझेंगे मेरी बात …” टाईप का है जिसमे कुछ समाजवाद, कुछ पूंजीवाद उर्फ कला को बेच कर / नासमझों को उल्लू बनाकर मुनाफा कमाने पर लानत, कुछ कला की समझ आदि है. इस प्रकरण का अंत वही हुआ जो आप समझ रहे हैं और जो होना भी चाहिये था … विन्सेन्ट को नौकरी से निकाल दिया गया.

यह एक महान कलाकार की और कला की त्रासदी है कि उसे उसके जीवनकाल मे वह सम्मान और पहचान नही मिली जिसका वह हक़दार था. वॉन गॉग के ही नही, कला की लगभग सारी विधाओं के उन कलाकारों के साथ ऐसा ही होता है जिनका काम कुछ ऐसा होता है जो कुछ कला बोध की मांग करता है. चित्रकला की ही बात करें तो अमूर्त, माडर्न, प्रयोगवादी, प्रतीकात्मक, आधुनिक, समकालीन … और भी कई ऐसी ही शैलियों के चित्रकारों ( नामचीनों को छोड़ दें जिनकी कृतियां विश्व की प्रसिद्ध गैलरियों की शोभा बढ़ाती हैं और लाखों से लेकर करोड़ों मे बिकती हैं, कला का प्रतिमान हैं और जिन पर बहस होती है तथा स्थापित, स्थापित होने मे प्रयासरत से लेकर नवोदित चित्रकार उन पर चर्चा / बहस करता पाया जाता है ) की हमेशा से यह शिकायत रही है कि लोगों को कला ( या उनकी कला ) की समझ ही नही है. लोग उन्हे समझ ही नही पाते – न उन्हे और न उनके काम को. वह तो न जाने कितने प्रतीक, बिम्ब और गहन अर्थ चित्र मे भरते हैं, चित्र मे लगाये रंग ही नही उनके शेड और स्ट्रोक तक का विशिष्ट अर्थ है, माध्यम का चयन भी बहुत कुछ कहता है… किंतु ये कूढ़मग़ज उसे समझ ही नही पाते. और तो और, संगी-साथी भी मुह पर तो वाह-वाह करते और पीठ पीछे खिल्ली उड़ाते हैं. कला के मठाधीशों के लिये तो जो उनके मठ का जोगी नही – उसका काम तो बस केनवास पर कूची फेरना है. बस अपने जैसे लोगों के बीच चर्चा होती है लेकिन जनता मे कुछ होता ही नही. प्रदर्शनी लगती है, लोग आते हैं, देखते हैं … मुह बाये / मुह बिचका कर / समझने का स्वांग करते हुए देखते हैं – खरीदता कोई नही. अगर खरीदता भी है तो कौन – वही होटल वाले, मल्टीनेशनल कम्पनियों वाले या वैसे ही नवधनाढ्य जिसका एक नमूना वॉन गॉग से दो-चार हुआ था. इन खरीदारों के लिये तो चित्र बस शो-पीस है या अपने को कलाप्रेमी/ पारखी/ संरक्षक साबित करने का माध्यम. हम इन ढोंगियों के लिये चित्र बनाते हैं या अपने को अभिव्यक्त करने के लिये ! हम इतने सशक्त माध्यम से अभिव्यक्ति करते हैं और जनता है कि…

मित्रों, वास्तविकता भी यही है, लोगों को कला की समझ ही नही है ऐसे मे बस अपने जैसे लोगों के बीच कला विमर्श करने के अलावा चारा भी क्या है. तभी तो, कोई कला प्रदर्शनी देख लीजिये – कलाकार कोई भी हो – अधिकांश दर्शक वही जाने-पहचाने होते हैं. प्रदर्शनियों मे नियमित जाकर देखिये – आप पहचानने लगेंगे कि ये तो वही हैं जो अलां मे थे और फलां मे भी – परमानेण्ट दर्शक होते हैं.

ठीक है, जनता को कला की समझ नही, किन्तु आपने क्या किया उसे समझाने के लिये, उसमे रुचि जगाने के लिये, कला बोध को परिमार्जित करने के लिये और परमानेण्ट दर्शकवर्ग के अलावा नये दर्शक / आम जन को जोड़ने के लिये ? जनता को यह बताने के लिये कि आप इस चित्र के माध्यम से क्या कहना चाहते हैं, आकृतियों को इस तरह बनाने के पीछे क्या है, यह ऑब्जेक्ट जो आपने उसके वास्तविक रंग और शेड के बजाय किसी और रंग और शेड मे पेण्ट किया है तो क्यों? क्यों आपके चित्र की औरतें वैसी नही हैं जैसी वास्तव मे होती हैं, पक्षी वैसे क्यों नही हैं और इमारतें वैसी क्यों नही जैसी मे आप भी रहते हैं, अलग तरह की क्यों हैं और आप अभिव्यक्त क्या करना चाह रहे हैं ?

क्या कहा ! आप क्यों बतायें ? आपकी ज़िम्मेदारी नही बनती जनता मे कला बोध जगाने की ! तो भईया, किसकी बनती है ? आप तो कला विद्यालय मे कई वर्ष शिक्षा लेकर, सतत अभ्यास करके, तमाम पढ़ कर और गुरुओं के निर्देशन मे ये शैली विकसित कर पाये हैं किन्तु आम दर्शक ने तो यह सब नही किया है ना ! वो कैसे समझेगा ये बारीकियां. आप नही बतायेंगे तो और कौन, और आपने कोई शर्त तो रखी नही कि आपकी प्रदर्शनी देखने वही आयेगा जिसमे इतनी समझ हो --- तो यह रोना क्यों और ऐसा करेंगे तो आपकी कला और आम जन के बीच यह दूरी बनी ही रहेगी.
मै यह अपेक्षा नही करता कि प्रदर्शनी के पूर्व / दौरान आप प्रशिक्षण सत्र आयोजित करें या व्याख्यान देने लग जायें किन्तु इतना तो कर सकते हैं कि जब कोई आपके चित्र के सामने खड़ा हो और तुरन्त हट जाये / सामान्य से कुछ अधिक देर तक देखे तो उससे संवाद करें, पूछें कि उसका क्या विचार है, जानने की कोशिश करें कि क्या उसने वही समझा जो आप कहना चाहते थे. हर दर्शक से नही मगर कुछ दर्शकों से तो कर ही सकते हैं ना ! मगर आप ऐसा नही करते. आप रहते तो पूरे टाईम मौजूद हैं प्रदर्शनी मे, मगर उन्ही के इर्द-गिर्द जो आपके संगी-साथी हैं या परमानेण्ट दर्शक. आम जन को तो उपेक्षा से देखते रहते हैं.

सबकी नही कहता किन्तु अधिकांश कलाकारों मे यह उच्चताबोध / अहमन्यता रहती है कि ये है क्या मेरे सामने! ऊपर के प्रसंग मे वॉन गॉग ने इसके अलावा और क्या किया ? उस महिला की मदद तो बिल्कुल नही की बल्कि उसका मज़ाक उड़ाया. अगर वह उसे सही सलाह देता और चुनाव मे मदद करता तो अच्छी कलाकृतियां बिकतीं, उसे कुछ समझ आती और वह अपने जैसे लोगों को प्रेरित करती. कला को भी कुछ बढ़ावा मिलता और कलाकार को भी. इस रवैये से तो कला और आम जन की दूरी बढ़ी ही.

ऐसा नही कहता कि सारे कलाकार इस मानसिकता से ग्रस्त हैं. कुछ सकारात्मक उदाहरण भी हैं. अभी कुछ दिन पूर्व एक प्रदर्शनी लगी(#) उसमे मै तीन बार गया. हर बार संयोजक को हॉल मे पाया और बिना किसी पूर्व परिचय (और बिना मेरी कलाकारों जैसी ‘धज’ के) के मुझ आम जन को भी उन्होने चित्रों के बारे मे, उनका सन्दर्भ, तकनीक, फोटो खींचने की तकनीक, कलाकार के बारे मे बताया और कुछ विमर्श जैसा भी किया और ऐसा उन्होने मेरे साथ ही नही बल्कि हर उस दर्शक के साथ किया जो तनिक भी रुचि लेता दिख रहा था. अब वे संयोजक मेरे मित्र ( फेसबुक पर ) भी हैं. अभी एक-दो दिन पहले की बात है. मैने फेसबुक पर एक चित्र देखा ($) मैने पोस्टकर्ता कलाकार से उसके बारे मे कुछ जानकारी चाही और उन्होने उदारतापूर्वक मुझ नितान्त अजनबी / आम जन को बताया, कला के बारे मे कुछ समझ पैदा की. अब वे फेसबुक पर मित्र भी हैं. कहने का आशय मित्रों, कि आम जन के बीच जाने के फायदे हैं और इससे कला की समझ पैदा होगी, आपका और कला का मान बढ़ेगा, कला और कलाकार उन्ही परमानेण्ट दर्शकों के बीच सीमित होकर नही रहेगा.  
एक बात और है जो कला और आम जन के बीच दूरी बढ़ाती है – वह है कीमतें. कोई भी चित्र देखिये, हज़ारों से कम नही होता. अभी एक चित्र (*) .देखा है, यह कुछ कम कीमत का है अन्यथा तो सब इससे काफी ऊपर से शुरू होते हैं. जब केवल अभिव्यक्ति ही नही, बिक्री भी महत्वपूर्ण है (आख़िर, ईजल, केनवास, रंग, ब्रश और रोटी मुफ़्त तो आती नही – कलाकार को यह तो चाहिये ही) तो दाम भी ऐसा हो कि लोग खरीद सकें या फिर आप ये न कहें कि ऐसे लोग खरीदते हैं जिनके पास कला की समझ नही, पैसा होता है. कीमत तय होती है या लागत के आधार पर (लागत + खर्चे + मुनाफा) या फिर उत्पादन मे लगने वाले समय, कुशलता और दुर्लभता के आधार पर. और भी तमाम कारक हैं पर फिलहाल यहां अर्थशास्त्र पर चर्चा नही हो रही. जब क्रय-विक्रय होना है तो बाज़ार का मांग-पूर्ति का सिद्धान्त चलेगा. दाम वाज़िब रख कर या कला के बारे मे समझ पैदा करके मांग पैदा कीजिये. दाम बहुत ऊंचे होंगे तो खरीदार सीमित से अति सीमित ही होंगे. तब कला की समझ की शर्त, लोकप्रियता की शर्त नही रहेगी – केवल पैसे की होगी जिस पर आपको आपत्ति है.

इस बाज़ारवाद पर कलाकार को दो आपत्तियां हो सकती हैं – एक तो यह कि कला को इस तरह बाज़ार मे नही उतारा जा सकता (अभी भी और कहां है) / यह अभिजात्य वर्ग या उच्च कला बोध वालों को ही शोभा देती है / बाज़ार या हर ऐरे-गैरे के बीच पॉपुलर करना कला / उच्च मानकों का अपमान या क्षरण है … आदि, इत्यादि ! दूसरी आपत्ति यह कि जब यही आम जन हज़ारों का मोबाईल, लाख के आस-पास की बाईक, ब्राण्डेड कपड़े, एसेसरीज वगैरह खरीद सकता है तो स्मार्टफोन की कीमत का चित्र क्यों नही ? बात तो वाज़िब है भई !

पहले पहली बात पर – एक उदाहरण लें. शास्त्रीय संगीत ( मुख्यतः गायन-वादन ) कितना उच्च कला बोध का और श्रमसाध्य है और राजघरानों के बीच रहा है – इस बात को सभी जानते हैं. इस क्षेत्र के कलाकार जब जनता के बीच प्रदर्शन देने लगे तो उस महान कला और कलाकारों की लोकप्रियता बढ़ी ही और महत्व, गुणवत्ता, सम्मान आदि किसी मे कमी नही हुई. पहले कैसेट / सी.डी. सैकड़ों की कीमत की होती थी, फिर पन्द्रह से पचास रुपये तक के कैसेट आये और अब नेट पर मुफ़्त भी हैं. जो कलाकार महाराजाओं की निजी महफिलों मे प्रस्तुतियां देते थे, वे लखनऊ महोत्सव व दीगर जगहों पर पण्डाल के नीचे, हज़ारों आम जन के बीच प्रस्तुतियां दे रहे हैं तो भी न उनका मान कम हुआ, न कला बाज़ारू हुई और न ही उसका स्तर गिरा – उलटे और सबका मान बढ़ा. मशहूर नाटकों के मञ्चन मशहूर निर्देशक व कलाकार कभी मुफ़्त, कभी खुले मे तो कभी दस से सौ रुपये के टिकट पर करते हैं और हॉल मे तिल रखने की जगह नही होती. जब उन पर कोई आँच नही आयी तो इस कला और कलाकार पर पर भी कोई आँच न आयेगी. दूसरी बात पर संक्षेप मे – वह आम जन इसलिये इन पर इतना खर्च करता है कि एक तो उसे इनकी प्रत्यक्ष उपयोगिता समझ मे आती है और दूसरे अगर नही समझ आती तो उत्पादक समझ और उपयोगिता पैदा करता है. आप यह समझ और उपयोगिता पैदा कीजिये – आपकी भी कृतियां इज़्ज़त से, आपकी चाही कीमत पर बिकेंगी. बेकार के अहं और उच्चताबोध को लेकर अपना बेहतरीन काम केवल कुछ लोगों के बीच जाया न कीजिये.
  
बहुत लम्बा लिख मारा, यह अनाधिकार चेष्टा है, बिना मांगे उपदेश / सलाह ( जिसमे लगभग हर व्यक्ति माहिर और तत्पर होता है ) भी है, बड़बोलापन / छोटा मुह, बड़ी बात भी है और कुछ यह भाव भी हो सकता है कि मै अपने को समझदार मानते हुए मित्रों की समझ पर उंगली उठाते हुए उनका अपमान जैसा कर रहा हूँ – बावजूद इसके कि मै कला का क भी नही जानता … यह सब हो सकता है, किन्तु मै आम जन हूँ और आम जन जो महसूस करता है, उसे कहा. बुरा लगा होगा – क्षमा कीजिये, क्षमा बड़ेन को चाहिये छोटन को अपराध – मुझे विश्वास है कि कलाकार उदार होता है उसी भरोसे इतना कहने की धृष्टता की.


राज नारायण



(#) कला स्रोत , लखनऊ मे राजा रवि वर्मा  (Verma नही, Varma ) के चित्रों (लीथोग्राफ) की प्रदर्शनी, श्री सचिन केलुसकर द्वारा

($)  Knife painting – ‘nature’ made in acrylic medium with knife by Ms. Hema Vishwakarma

(*) An abstract work of Sri Lakshit Soni, Title “Xenium”, Price Rs. 2000.00 at Kala Srot, Lko.