“ये सच है पहले कुछ देर तो बिस्मिल तड़पता है
फिर उसके बाद सारी उम्र
भर क़ातिल तड़पता है.
तो तमाम महफिल वाह-वाह
से गूंज उठी. मत्ला ही क्या पूरी ग़ज़ल ही काबिल-ए-दाद थी. बाद मे खोज कर उनका और कलाम
पढ़ा, सारा का सारा उम्दा. यह भी पता चला कि शायर होने के अलावा रोज़ी-रोटी के लिये
शाद साहब बिजनेस करते हैं (‘नवनीत प्रिंटर्स’, चन्दर नगर, लखनऊ ) अब वे सब कुछ बेच
कर विदेश मे बस गये हैं.
मुशायरा मे और लौटने के बाद यही ख़्यालात आते रहे कि वो भी क्या
दिन थे जब लोग पेशा, हुनर और शौक के हिसाब से कपड़े पहनते थे और हुलिया बना कर रखते
थे. शायर टाईप का आदमी दूर से पहचाना जाता था. जिसका शायरी से उतना भी वास्ता होता
था जितना कि सरदारों को सेविंग प्रोडक्ट्स से, वह भी हुलिया देख कर यकीन से कह सकता
था कि ये शायर है. करीने से संवारी बढ़ी हुई दाढ़ी, ज़ुल्फें, टोपी, अचकन/ शेरवानी
और पायजामा, मुह मे पान वगैरह शायर होने की चुगली कर देते थे. कोई गैर शायर ऐसे हुलिया
मे रहता तो लोग ताना कसते कि क्या शायरों जैसी धजा बना रखी है. अब तो कुछ समझ ही नही
आता. अच्छा खासा आदमी शायर निकलता है. अब कलाम पढ़ने पर ही पता चलता है कि आप शायर
हैं वरना लोग कुछ और समझ कर तवज्जो ही नही देते. पैंट-शर्ट, सूट यहां तक कि जीन्स-टी
शर्ट पहना हुआ शख़्स भी शायर निकलता है. इसी तरह कवियों का भी कुछ पता ही नही चलता,
न वो कांधे तक लहराते बाल, न महीन चाल और बोली. न गांधी झोला न धोती-कुर्ता. कवियत्रियों
/ शायरा का तो और भी विचलित कर देने वाला हाल है. इतना सज-धज कर आती हैं कि पता ही
नही चलता कि मुशायरा/ कवि सम्मेलन मे आयी हैं कि शादी मे या खुद की सगाई मे.
पहले हर पेशे की तयशुदा पोशाक हुआ करती थी. आयोजनो मे आने वाले दर्शक/
श्रोता भी माकूल धज के साथ आते थे. अब नाच-नौटंकी वगैरह तो शहरों मे होता नही, अब तो
संरक्षित किये जाने वाली विधा है मगर जब होता था तो देखकर ही मालूम पड़ जाता था कि
चचा नाच या मुजरा मे जा रहे हैं. करीने से चुनी धोती या चूड़ीदार पायजामा, कलफ लगा
और चुन्नट पड़ा कुर्ता, अंगौछा, जेब मे नोट, मुह मे पान, बायीं कलाई मे बेला का गजरा
और आँखों से लेकर ज़ुबान तक खुमारी… सब मिला कर ऐसी महफिलों मे जाने की पोशाक हुआ करती
थी. बाज लोग इन चीजों के अलावा वक़्त ज़रूरत के लिये या रुतबा दिखाने के लिये कट्टा
/ लाईसेंसी भी रखते थे. जब टेंट मे माल हो, नशे की खुमारी हो, कमर मे असलहा लगा हो
और सामने वाला आपसे बढ़कर ज़बर न हो तो इसकी ज़रूरत अक्सर पड़ ही जाया करती थी. मंदिर
जाने वाला अलग पहचाना जाता था और मयखाने जाने वाला अलग. अब तो एक्जिक्यूटिव सा दिखने
वाला, ब्रीफकेस व लैपटाप से लैस आदमी मीटिंग/ सेमिनार जा रहा कि सत्संग मे, मंदिर मे
या मॉडल शाप मे, पब या डिस्को मे – कोई ड्रेस देखकर नही कह सकता.
गुंडे- बदमाशों की अलग पोशाक थी तो डाकुओं की अलग और नेताओं की तो
बगुला भगत की तरह सफेद खादी हुआ करती थी. फिल्मो मे भी हिरोईन की अलग तरह की पोशाक
थी तो वैम्प और कैबरे डांसर की अलग. अब तो सारे किरदार एक ही तरह की पोशाक मे निभाये
जाते हैं… वही वैम्प/ कैबरे डांसर की पोशाक मे. पूजा,शादी-बारात मे पण्डित जी अलग ही
दिखते थे.धोती-कुर्ता, अंगौछा,माथे पर चन्दन तिलक, चोटी व कंठी माला के साथ पोथी-पत्रा
का झोला बता देता था कि ये पंडित जी हैं. ऐसा शख़्स बारात मे दूर-दूर, नाचने वालों
से बिल्कुल अलग और नाश्ता-खाना मे अग्रणी रहता था किन्तु अब पण्डित की भी वो छवि टूट
रही है. मेरे एक घनिष्ठ मित्र की शादी थी. बारात दरवाजे लगने वाली थी और बारातियों
का नाच चरम पर था कि बारात दरवाजे पर लगी और नाचते- नाचते अगला स्टेप लेकर एक नौजवान
द्वारचार स्थल पर वर पक्ष के पण्डित के लिये रखे पीढ़े पर बैठ गया. कन्या पक्ष के पण्डित
ने जब आँखे तरेरी तो उसने द्वारपूजा के मंत्र पढ़ने शुरु किये, पता चला कि वो वर पक्ष
का पण्डित है.अब पोशाक ऐसा झमेला पैदा करती है.
केवल चित्रकार और रंगकर्मी ही ऐसे
बचे हैं जो पोशाक और हुलिया की प्रतिबद्धता अभी भी निबाह रहे हैं. नही पूरी धज होगी
तो भी बाल , दाढ़ी, जीन्स पर कुर्ता और कुछ साजो सामान और कुछ देर बात करें तो पता
चल ही जाता है कि बन्दा या बन्दी चित्रकला या रंगकर्म से गों ताल्लुक रखता है. पुलिस
वालों की तो पेशे के प्रति ऐसी निष्ठा है कि वे वर्दी मे न हों तो भी शरीफ आदमी भी
ताड़ लेता है कि ये पुलिसिया है.
पोशाक - व्यक्तित्व,पेशा और शौक़ को
लेकर कबीर ने कहा था, “मन न रंगाए,रंगाए जोगी कपड़ा… “ यह उन लोगों पर व्यंग्य था जो
बाहरी आडम्बर तो खूब करते हैं किन्तु अन्दर से वैसे नही होते जैसा वेश बनाए रखते हैं.
उनका क्षेत्र अध्यात्म था अतः यह व्यंग्य उन लोगों पर था जो साधुओं का सा वेश धरे रहते
हैं, गेरूआ पहनते व जटा, दाढ़ी बढ़ाये रहते हैं किन्तु अन्दर से वही माया-मोह, राग-द्वेश
व छल-कपट मे लिप्त रहते हैं. आज के लोग उन लोगों से अलग हैं. शायद अधिक सच्चे जो कपड़ों
की अनिवार्यता को नकार कर जो हैं उसके लिये वैसा हुलिया और पोशाक मे नही काम मे यकीन
रखते हैं. आज का शायर शायरी पर ध्यान देता है न कि शायर जैसी पोशाक और हुलिया पर. लेख
की शुरूआत ‘शाद’ जी के कपड़ो / हुलिया को देख कर झटका लगने से की थी मगर यह झटका भर्तसना
का नही था बल्कि सराहना का भाव उदित हुआ कि मुख्य काम / शौक़ है… पोशाक नही. आज का
आदमी मन रंगाए है, कपड़ा नही.
राज नारायण
शाद साहब को एक ही बार हमने रूबरू देखा था कभी आमने सामने उनका कलाम सुनने का मौका नहीं मिला.
ReplyDeleteअब तो वे विदेश में बस गये किंतु लखनऊ आते रहते हैं और जब आते हैं तो कहीं न कहीं कार्यक्रम भी होता है. इस बार आयें और कार्यक्रम हो तो सूचित करूँगा.
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