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Friday 30 April 2021

“छापक पेड़ छिवलिया … “ करुणा का महा आख्यान !

 

“छापक पेड़ छिवलिया … “ करुणा का महा आख्यान !

 


ये सोहर जब भी सुनता हूँ, मन द्रवित हो जाता है. दुःख से भी बढ़ कर चीत्कार, विवशता और क्रोध के भाव उमड़ते हैं. गायक का मन भारी होने लगता है तो स्वर भी भारी होकर टूटने लगते हैं और सुनने वाला भी करुण हो जाता है. प्रेम, निष्ठुरता, सामन्तशाही, विवशता और विवशताजन्य शाप का आख्यान है यह सोहर.

 

धरोहर अभिषेक  की एक पोस्ट पर कभी इस सोहर की चर्चा हुई थी, तब इसे प्रस्तुत करने को कहा था किन्तु पोस्ट ओझल हुई तो यह बात भी आयी-गयी हो गयी. कल फिर किसी की प्रतिक्रिया/टिप्पणी से यह पोस्ट दिखी तो फिर बात छिड़ी तो फिर तकादा हुआ और हुई यह पोस्ट.

 

संक्षेप इस सोहर पर कुछ बात. राम जन्म का उत्सव मनाया जा रहा है. दावत के लिए शिकार लाया गया है, उन्हीं में एक हिरन भी है. हिरन का शिकार होने से पहले ही हिरनी को आभास हो जाता है कि राजकुँअर जी की छट्ठी है तो शिकार होगा और मेरा हिरन भी मारा जायेगा. इसी आशङ्का में हिरनी ढाक के पेड़ के नीचे उदास खड़ी है. हिरन उदासी का कारण पूछता है तो वह मन का डर बताती है. ऐसा ही होता है. हिरन को शिकारी ले गये तो व्याकुल होकर हिरनी भी पीछे-पीछे दौड़ी. हिरन का माँस रसोई में रांधा जा रहा है और हिरनी विवश खड़ी देख रही है. मचिया पर कौशल्या राम को लिए बैठी हैं तो हिरनी विनती करती है कि मांस तो रसोई में पक रहा है हमें उसकी खाल ही दे दो, पेड़ से टांग लेंगे, देख कर हिरन की मौजूदगी लगेगी, उसी को देख कर जी लेंगे. कौशल्या खाल देने से भी मना कर देती हैं कि हिरनी, घर जाओ ! खाल तो हम न देंगे, उससे खँजड़ी मढ़ायेंगे, मेरे राम उसे बजा कर खेलेंगे. हिरनी बेचारी क्या कर सकती थी. मन मार कर लौटती है. जब-जब खँजड़ी बजती है तब-तब उस खँजड़ी पर मढ़ी खाल की उस ध्वनि को सुनकर हिरनी को हिरन की याद आती है. ऐसी दशा में वो उसी ढाक के पेड़ के नीचे चली जाती है. वहीं खड़े-खड़े अपने हिरन को बिसूरती है. कातर दीठ से राह निहारती है.

 

अब देखें सोहर

 

छापक पेड़ छिउलिया पतवन धनवन हो

तेहि तर ठाढ़ हिरिनिया मन अति अनमन हो।।

 

चरतहिं चरत हरिनवा हरिनी से पूछेले हो

हरिनी ! की तोर चरहा झुरान कि पानी बिनु मुरझेलु हो।।

 

नाहीं मोर चरहा झुरान ना पानी बिनु मुरझींले हो

हरिना ! आजु राजा के छठिहार तोहे मारि डरिहें हो।।

 

मचियहिं बइठल कोसिला रानी, हरिनी अरज करे हो

रानी ! मसुआ सींझेला रसोइया खलरिया हमें दिहितू नू हो।।

 

पेड़वा से टाँगबो खलरिया मनवा समुझाइबि हो

रानी ! हिरी-फिरी देखबि खलरिया जनुक हरिना जियतहिं हो

 

जाहु हरिनी घर अपना, खलरिया ना देइब हो

हरिनी ! खलरी के खँजड़ी मढ़ाइबि राम मोरा खेलिहेनू हो।।

 

जब-जब बाजेला खँजड़िया सबद सुनि अहँकेली हो

हरिनी ठाढि ढेकुलिया के नीचे हरिन के बिजूरेली हो।।

 

अब एक-एक बन्द का अर्थ देखें –

 

ढाक का ( छापक को ढाक/छूल कहते हैं और छिवलिया का अर्थ है छाँव ) एक छोटा सा घने पत्ते वाला पेड़ है. ये खूब लहलहा रहा है. इसी पेड़ के नीचे हिरनी खड़ी है, लेकिन वो मन से बहुत बेचैन है.

 

चरते-चरते हिरन ने हिरनी की इस दशा को देखा. उसने पूछा, ‘हे हिरनी, तुम उदास क्यों हो? क्या चारागाह सूख गया है या तुम्हारा मन पानी के अभाव से व्याकुल है.’

 

हिरनी ने कहा, ‘हे प्रिय, न तो चारागाह ही सूखा है और न ही मैं पानी बिना मुरझा रही हूं. बात कुछ और है. आज राजाजी के यहां उसके पुत्र की छट्ठी है. वे आज तुम्हें मार डालेंगे.

 

जैसा कि हिरनी को आशङ्का थी, आगे वैसा ही हुआ. और जानवरों के साथ उसके हिरन का भी शिकार हुआ. उसके मांस का भोज हुआ. राम-जन्म पर राज्योत्सव हुआ. इधर मृत्यु, उधर सत्ता का उत्सव. हिरन के मारे जाने पर हिरनी राजा दशरथ की रानी कौशल्या के पास जाती है. वो रानी से अपना अनुरोध कहती है:

                                                                                                   रानी कौशल्या मचिया पर बैठी हुई हैं. हिरनी विनती कर रही है, ‘हे रानी, हिरन का मांस तो आपकी रसोई में सीझ ही रहा है. आपसे एक विनती है, हिरन की खाल ही हमें दिलवा दीजिए. मैं इसे पेड़ पर टांगूंगी. हेर-फेरकर देखा करूँगी. अपने मन को समझाऊंगी कि हिरन तो जीवित है, जी रहा है.

 

कौशल्या साफ मना कर देती हैं

                            हे हिरनी, तुम अपने घर जाओ. ये भी मुझसे नहीं होगा. मैं हिरन की खाल तुम्हें नहीं दूंगी. इस खाल से खँजड़ी मढ़ी जाएगी. इसे मेरे बेटे राम बजाएंगे. इससे खेलेंगे.

 

असहाय हिरनी लौट आती है, लेकिन

                                       उस खँजड़ी पर मढ़ी खाल जब-जब बजती है, तब-तब हिरनी उस ध्वनि को सुनकर अनकती है. (अनकना का मतलब अनुभव करना और याद आना दोनों है) ऐसी दशा में वो उसी ढाक के पेड़ के नीचे चली जाती है. वहीं खड़े-खड़े अपने हिरन को बिसूरती है. कातर दीठ से राह निहारती है.

 

इस सोहर का एक बन्द और है जो बहुधा गाया नहीं जाता ( या मैनें नहीं सुना ) उसमें विवश होकर जाने से पहले हिरनी कौशल्या को शाप देती है कि

 

जैसे सुन्न हमरो निकुंज बन अउर बृंदावन हो 

रानी! वइसे सुन्न होइहैं अजोध्या रमइया बिनु हो॥

                                                     जैसे हमारा कुञ्ज और वृन्दावन सूना हो गया है, हे रानी ! वैसे ही अयोध्या भी राम के बिना सूनी हो जायेगी.

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कुछ बातें सोहर और इस सोहर परः

 

सोहर मुख्यतः जन्मोत्सव का गीत है, लोक गीतों में यह संस्कार गीतों की श्रेणी में है किन्तु कुछ ब्याह गीतों को भी सोहर कहते हैं. सोहर उल्लास का, बधाई देने का, मङ्गलकामना का गीत है किन्तु यह सोहर करुण है, निष्ठुरता का गीत है और शाप का भी. लोक गीतों में कब उल्लास का स्वर करुण हो जाय, पता नहीं चलता – एक रपटीली ज़मीन पर गीत चलते हैं जो अनजाने और अनचाहे ही रपट कर करुणा की ओर चले जाते हैं. ब्याह गीतों में सिखावन और विदाई करुण आख्यान ही हैं जो बेटी के पराये घर जाने की टीस में कि उससे साथ कैसा व्यवहार हो, आँख नम कर देते हैं. ब्याह गीतों में ही नकटा यूँ तो हँसी-मज़ाक है किन्तु यह नारी जीवन की करुण कथा / विद्रूप भी है कि जो उसके साथ होता है / जो वह नहीं कर सकती/ सामान्य अवस्था में नहीं कह सकती – नकटा में सब खुल कर कह देती है सो सोहर के इस आख्यान के करुण होने में अचरज न करें.

 

यह सोहर भोजपुरी का है और लोग इसे अवधी का भी बताते हैं. हम इस पचड़े में नहीं पड़ते कि यह भोजपुरी है कि अवधी – यह जानकार और विद्वत जन बतायें.

 

साथ ही एक बात और कि कोई यह वितंडा न खड़ा करे कि भला ऐसा भी कहीं हुआ होगा ! दशरथ की रसोई और रामजन्म का उत्सव – भला मांस पका होगा या मांस तो वे लोग खाते नही थे ! या फिर कौशल्या जी इतनी क्रूर और निष्ठुर नहीं हो सकती ! यह आक्षेप है… आदि, इत्यादि ! तो भईया ! यह लोक है. लोक का संसार शास्त्रीयता की सीमाओं से परे है. वह जो कुछ देखता और सोचता है – उसे गीतों, कथाओं और खेल में ढाल लेता है. वह भगवान से हँसी का नाता भी रखता है, गरियाता भी है, रूठता भी है. मिथिला में राम से परिहास का नाता है और दशरथ से भी. ब्याह की गारियों में चारों भाई, दशरथ, शांता … सब ‘न्योते’ जाते हैं वैसे ही जैसे सामान्य ब्याह की गारियों में सम्बन्धी. लोक जो भोगता है, उसे मज़बूती, स्वर और विश्वसनीयता देने के लिए पहले हुए या वर्तमान राजाओं / चरित्रों में आरोपित करता है सो कथ्य को इसी लोक दृष्टि से देखें.