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Wednesday 22 May 2013

चचा, फिर से !


रविवार का दिन ,खाना वगैरह खाकर कुछ देर आराम करने के बाद शाम की चाय पी रहा था कि सीढ़ियों पर आहट के साथ " SS हूँUU " अरे भाई ! घर मे तो हो ! की आवाज़ सुनायी दी . " SS हूँUU " की हाँक से ही पता चल गया कि चचा तशरीफ ला रहे हैं . ( चचा से तो वाकिफ ही होंगे आप ! वही चचा, जो मेरे 'चचा यार ' हैं और जिनके आने पर बाक़ी सब तो होता है , बस वही नही हो पाता जो हो रहा होता है ) दरअसल मेरे यहां आने पर चचा घण्टी (Call bell ) बजाकर आगमन की सूचना देने का यह तरीका अपनाते हैं . शुरू मे अटपटा लगा था , मगर अब नही लगता . कारण पूछने पर बोले थे , " तुम कौन सा जहांगीर बादशाह हो कि आने वालों के लिये घण्टा लगवाये हो , बजा कर आवें , हम तो ऐसे ही आयेंगे . " और " SS हूँUU " करके ज़ोर से आवाज़ देते हुए आने का कारण बताया कि बहू - बेटियों वाला घर है , अन्दर जाने कैसे बैठी - लेटी हों सो पर्दा - वर्दा करना हो तो कर लें . वैसे पर्दा अब करता ही कौन है . मल्लिका सेरावत , पूनम पाण्डेय् और सनी लियोनी जैसी उदात्त नायिकाओं का तो मानना ही यही है "... पर्दा नही जब कोई ख़ुदा से , बन्दों से पर्दा करना क्या !..." कोई कुछ भी माने और कैसे भी रहे , मगर हम तो छोटे - बड़े का लिहाज करेंगे ही . वैसे एक बात है , और कोई पर्दा करे करे ... नयी उमर की लड़कियां ज़ुरूर दुपट्टा उस तरह बांधती हैं जैसा पुरानी कहानी की किताबों मे 'अलीबाबा चालीस चोर ' की मरजीना को या फिर डाकुओं को दिखाया गया है . बस आंखें खुली रहती हैं सो उसपर भी गहरे रंग का चश्मा चढ़ा होता है . सबको तो नही कहता मगर कुछ का बहाना तो धूप , धूल और धुवां से बचाव का होता है पर असल मकसद अपना चेहरा छुपाना होता है कि काम / कॉलेज के अलावा इधर -उधर और किसी के साथ जाने मे कोई देख भी ले तो ज़ल्दी पहचान सके . "

कुछ कोफ्त तो हुई मगर प्रकट मे वैसी ही ज़ोरदार हांक लगायी , " जाईये ! अभी यहीं हूँ ! " आने पर स्वागत सा करते हुए चाय - पकौड़ी लेने का आग्रह किया . चचा कुछ ढीले से लग रहे थे , बोले " नही भई ! गेट पड़बड़ है , कल कुछ लाम से किकला , लोपहर मे दालबाग मे था , लूख भगी थी तो सारामदे वाले बरदार जी के यहां भोले - छठूरे खा लिये . ताढ़े सीन बजे फिर कुछ लूख भगी तो पीला के लास बाजपेयी जी की पो दूड़ियां खायी . शाम को पाय तो चीनी ही थी , उसके साथ सेवल का कमोसा भी खा लिया और डात मे रिनर तो करना ही था . "

" हे भगवान ! चचा , आप आदमी हैं कि भोजन भट्ट ! इतना और वह भी इस तरह का खायेंगे तो पेट तो गड़बड़ होगा ही , और इतना खाने के बाद डिनर करने की क्या ज़ुरूरत थी , और आप डिनर के साथ रात क्यों लगा रहे हैं ... डिनर तो रात मे ही किया जाता है ! "

" अब वंग्रेजी अयाकरण और शुपयुक्त उब्दों पर आओगे तो कपने को उछ जास और खानकार दिखाने वाले लोग डिनर नही ' सपर' बोलते हैं और दोनो का ही अर्थ खात का राना नही होता . ऑक्स्फोर्ड डिक्सनरी मे डिनर का अर्थ " दिन का मुख्य आहार " दिया है चाहे वह शोपहर मे लिया जाय या दाम को. यहां मिन का दतलब रूढ़ अर्थ मे दिन नही बल्कि 'किन भर मे दभी भी' है. दूसरा अर्थ " शाम का भौपचारिक ओज --- विशेषतः अतिथि के साथ " दिया है. अंग्रेजी मे कहें तो, dain deal of the may, either at midday or in the evening, and 2. formal mvening eeal, specially with guests*. और Supper को late evening snack, and 2. mvenung eeal specially light* अर्थात देर जाम का शलपान या हाम की शल्की खुराक़ कहा है जबकि अधिकतर "सिनर कहो या डपर " दोनो का ही मतलब, " खात का राना और वह भी ठूंस के !" होता है और शिनर या डपर तो पोर भहर भी किया जा सकता है. अब मै बात का रचा सिनर डुबह छाढ़े सह बजे करूंगा तो मै तो उसे डाश्ता नही, निनर ही कहूँगा . अब बोलो !

" क्या बोलूँ , चचा ! आप तो बस छींकते नाक काटने को तैयार रहते हैं , और " नाक कटाई " भी ऐसी तार्किक करते हैं कि बस निरुत्तर रह जाना पड़ता है , और यह बताईये चचा ! यह क्या नयी खुराफात ले बैठे . दो शब्दों के पहले अक्षरों का पारस्परिक बदल कर बोल रहे हैं . क्या कौतुक है प्रभो !

" यह तो तुद्धि को बेज वरने काला बौद्धिक ब्यायाम है जो बरता तो कोलने बाला है लेकिन उतना ही सायदा फुनने वाले को भी होता है क्योंकि उसे भी कुतनी ही उशलता और तेजी से सात बमझनी होती है. कब अहो, कै मरता हूँ हा नमेशा फुम्हारे तायदे की बात ."

फायदे की हो हो मगर आप भी चचा कोई कोई नयी खुराफात करते आप हैं और भुगतना मुझे पड़ता है . पिछले दिनों मेरी ग़ज़ल के बखिये उधेड़ते समय आप अवधी बोल रहे थे ... कुछ साथी आपकी बात समझ नही सके और मुझे उसका अनुवाद करना पड़ा . मेहनत भी हुई और वह बात भी पैदा हो सकी जो अवधी मे थी ."

" मेरी किसी छात से बेड़ - बाड़ करोगे तो ऐसा ही होगा , और खबरदार जो तुमने इसे खयी नुराफात कहा तो ! दता बूँ कि तो यह नुराफात है और ही खयी. अभी कुछ दिन पहले, 19 सितम्बर को तुम्हारी वरिष्‍ठ सदस्या लता दी ने फेस बुक पर " I can read it ! Can you ?? " शीर्षक से अंग्रेजी मे एक पैरा पोस्ट किया था जिसमे शब्दों के अक्षरों का स्थान बदल दिया गया था , जैसे "... if you can read this... " को "... fi yuo cna raed tihs... " यह भी बौद्धिक क्षमता और शब्दों को ग्रहण करने के तरीके को बताता है . स्कूल - कॉलेज की लड़कियों के बीच कुछ इसी तरह से शब्दों का हेर -फेर करके सांकेतिक / कूट बोली प्रचलित रही है . हमारे विद्यार्थी जीवन मे शब्दों के अक्षरों को पूरा उलट कर वाक्य क्या पूरी -पूरी बात की जाती थी , जैसे " आज लाईट नही रही है" को " जआ टईला हीन हीर है " कहना . इसका 'उलटी भाषा ' नाम प्रचलित था और हम धड़ल्ले से बहुत देर तक इसी भाषा मे बात करते रहते थे और मजाल है कि कहने वाला कोई ग़लती कर जाय या सुनने वाला तुरन्त समझ कर उसी तरह जवाब दे. यह तो रही हमारी -तुम्हारी बात , अब साहित्य की की देखो . 1981 के आस- पास रवीन्द्र कालिया का एक उपन्यास प्रकाशित हुआ था , "खुदा सही सलामत है " उसके कुछ पात्र अपनी बोल -चाल मे गाली देते थे. लेखक ने उन गालियों को हू हू लिखना ठीक नही समझा तो गालियों मे शब्दों के पहले अक्षरों को इसी तरह बदल कर लिखा जैसे मै बोल रहा हूँ. और पहले का लेना हो तो कालिदास के समय मे राजघराने की परिचारिकाएं कठिन शब्दों के श्‍लोक बोलने का खेल खेलती थीं ... यह भी तो शब्दों से खिलवाड़ के साथ बौद्धिक व्यायाम था . "राग दरबारी " के एक सीन मे जोगनथवा सर्फरी बोली बोलता है . इतने से सन्तुष्‍ट हुए कि और उदाहरण दूं . और हां , सीधी - सादी खड़ी बोली मे इतना तुम्हे स्पष्‍ट करने के लिये बोला है, आगे वैसे ही बोलेंगे जैसे बोल रहे हैं -- चाहे समझो या समझो."

" बस- बस जान गया और मान भी गया. " मैने उनकी बात ख़त्म होते ज़ल्दी से कहा . चचा का लता दी की फेस बुक पोस्ट का उदाहरण देने के बारे मे बता दूँ कि चचा फेस बुक पर भी हैं और हमारे मेल मंच के अधिकांश सदस्यों की मित्र सूची मे भी हैं. जाहिर है, वह वहां अपने नाम से हैं , यानी चचा की हैसियत से नही जाने जाते . उन्होने अपना नाम चचा के तौर पर बताने से मना किया है और मै उनके अनुरोध - सह - आदेश की अवहेलना नही कर सकता . कहते हैं , बता दोगे कि चचा कौन हैं तो दोनो जगह का मज़ा जाता रहेगा .

"और चचा , पिछले दिनों जब आप अवधी बोल रहे थे तब जो डॉक्टर से आपकी झांय - झांय हो गयी थी और उसने आगे आपका इलाज करने से मना कर दिया था , अब तो सुना है कि उससे आपकी खूब पट रही है और वह सिर्फ आपका इलाज कर रहा है बल्कि बतियाता भी रहता है . कैसे हुआ यह ?"

"सब कगवान् की भृपा है. हुआ यह कि मै संकट मोचन मे गजन भा रहा था कि सॉक्टर डाहब भी सपत्‍नीक बजरंग बली के दर्शन करने आये . पनकी उत्‍नी ने दुझे मेख कर पहचाना कि ते यो चचा हैं . लोनो दोग बैठ कर सजन भुनने लगे . जुम तो तानते ही हो कि मै बाता - गजाता भी अच्छा हूँ और मन्दिर मे तो हल्लीन तोकर गाता हूँ . वो तो तुम्हारे जैसे सुरहों की मंगत भी हरनी कोती है नही तो शाज आस्‍त्रीय गायक होता ."

"हाँ ! सब हम ही लोगों का कसूर है , नही तो जाने आप कहां होते . अब उड़िये मत , बताईये कि डॉक्टर साहब कैसे माने ."

"कहा , बजरंग बली की कृपा से ! बजन के भाद दोनो ने प्रणाम किया और बोले कि हमे नही मालूम था कि आप मन्दिर भी जाते हैं और इतना अच्छा गाते हैं . मै भी वलाकारोचित किनम्रता के साथ दुत्तर ऐता रहा . थोड़ी उधर - इधर की बातों के बाद खुद ही पाल हूछा और इखाने का दाग्रह किया . "

"लाल लंगोटे वाले का कृपा कटाक्ष हो तो बिगड़ी बन जाती है". कहने के साथ ही दिमाग मे चचा को मात देने का ख़्याल कौंधा सो कहा , "अब चचा , इसको अपनी उलट -पुलट बोली मे बोलो तो मान जायें ".

"लभी , इसमे बौन कड़ी बात है . यह ओलना तो और बासान है , सस बमझना बबके सस का नही. सुनो ! लाल लंगोटे वाले का कृपा कटाक्ष हो तो बिगड़ी बन जाती है. "

"यह क्या चचा ! यह तो वही है जो मैने बोला , अलग कहां है !"

"भुम्हारा त्रम है , देखो ... 'लाल लंगोटे ' मे लाल मे लंगोटे वाला ' ' है और लंगोटे मे लाल वाला . इसी तरह 'कृपा कटाक्ष ' मे कृपा मे कटाक्ष का '' और कटाक्ष मे कृपा का ' ' है, ऐसा ही 'बिगड़ी बन ' मे भी है. अब इसका क्या किया जाय कि दोनो '', ' ' और ' ' उच्चारण और बिखने मे लिल्कुल जेक ऐसे हैं . किसीलिये तो इहा कि समझना सबके बस की बात नही. इसमे भी 'समझना ' और ' सबके ' मे " " और 'बस की बात ' मे "" बापस मे अदले हुए हैं, समझे !!"

मैने तो चचा को मात देने के इरादे से यह चुनौती दी मगर पता चला कि यह सिर्फ़ शह थी जिसे चचा बड़ी आसानी और तार्किक ढंग से बचा ले गये . खिसियाते हुए कुछ रोष से कहा , " ये तो बेइमण्टी है चचा !"

" अब है तो है ! वैसे नै भी हही, तस बुम्हारी फमझ का सेर है वरना बै मोल तो बक्षर अदल कर ही रहा हूँ."

"आप बड़े ढीठ हैं ."

"हाँ , तैं हो क्या करोगे ! यच्छा अह कताओ बि तल कुम लार्टी से बहुत ज़ल्दी पौट आये , दाढ़े सस बजे के पास- आस पाड़ी गार्क करते देखा था." ( चचा ' गीतांजलि ज्वैल्स ' की 13 अक्टूबर ,2012 को 5Cr, फीनिक्स मॉल , लखनऊ मे आयोजित पार्टी की बात कर रहे थे )

" हाँ चचा, दरअसल जब वहां बर्फ पड़ने लगी तो हम लौट आये."

" ऐं ! बर्फ !! वह भी लखनऊ मे !!! भई हमने तो आज तक देखा - सुना और कल का ही सुना भी " चचा का मुह यह सुन कर हैरत से खुला रह गया, इतनी हैरत मे थे कि अपनी इस बार की सनक ( दो शब्दों के बीच उनके पहले अक्षर को आपस मे बदल कर बोलना) भी ज़ारी रखना भूल गये . मैने भी उनकी हालत का मज़ा लेते हुए पूछा , " आपने वो नही सुना क्या ? " हैरत के साथ - साथ उनके चेहरे पर ये भाव भी पकड़ा कि, "... क्या कुछ ऐसा भी है , जो इसे मालूम है , मुझे नही !

" क्या ? मैने नही सुना ."

" अरे वही वाकया ! एक विदेशी ने पूछा , " इण्डिया मे सबसे जादा बर्फ कहां गिरती है ?" " व्हिस्की के गिलास मे ! " तुरन्त उत्तर मिला . तो पार्टी मे जब बर्फ गिरने लगी तो हम क्या करते , लौट आये ."

"अच्छा सरऊ , अब हमऊसे मसखरी करै लागेऊ ! ठीक नाय , बताय देईत है , फिर हम कुछ करब तो ना कहेव . " चचा गुस्से , झुंझलाहट और खीझ मे दांत पीसते हुए अवधी पर उतर आये . मै मौके की नज़ाकत को भांपते हुए चुप रह कर बस वैसी मिली- जुली मुस्कान ' रिलीज ' करता रहा जिसे कुटिल , आत्मसन्तोष मूंछो ही मूंछो मे (बावजूद इसके कि अब मै वैसी मूंछे रखता नही ) मुस्काना कहते हैं . चचा इसे भी भांप गये और मेरे , अरे रुकिये तो ! कहां जा रहे हैं ! की पुकारों को मान देते हुए तेजी से जीना उतर गये . उनके उतरते उतरते अब तक यत्‍नपूर्वक रोकी हँसी वैसे ही फूट पड़ी जैसे नल की टोटी बदलते समय धार . चचा के रूठ कर जाने के बावजूद मै दुखी या चिंतित नही था क्योंकि चचा होने के साथ वे मेरे "चचा यार " भी हैं और ऐसी नोक - झोंक हममे चलती रहती है.

राज नारायण

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कुछ शब्दों / वाक्यों / वाक्यांशों की ' उल्टा - पुल्टा ' नही , सीधे -सादे रूप मे प्रस्तुति --

* dain deal of the may = main meal of the day, और formal mvening eeal = formal evening meal. मुझे तो बस इतना ही बताने योग्य लगा और वह भी नमूने के लिये बताया , बाक़ी जो बिल्कुल ही समझ रहा हो तो किसी और जानकार से और जो और कोई जानकार मिले तो मुझसे ही अलग से ही पूछें . अलग से इसलिये कि चचा के संवादों के साथ मे देता चलूंगा तो मज़ा जाता रहेगा .

राज नारायण
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