Followers

Wednesday 30 September 2020

5 अण्डररेटेड किताबें

 

 5 अण्डररेटेड किताबें

फेसबुक पर एक प्रतियोगिता के बारे में पढ़ा जिसमें  5 अण्डररेटेड किताबों के बारे में संक्षेप में बताना था






  तो इच्छा हुई कि उन किताबों के बारे में बताऊँ जो मेरी मतिअनुसार अच्छी हैं, विषय-वस्तु का पूर्ण निर्वाह करती हैं, भाषा-शैली और साहित्यिक  कसौटी पर खरी हैं – संक्षेप में,  पठनीय हैं किन्तु उनका उतना प्रचार-प्रसार न हुआ जितनी वे पात्रता रखती हैं. फेसबुक पर कई पेज और ग्रुप हैं जिन पर किताबों की बात होती है,  उनके अलावा सुधी पाठक  अपनी वाल पर भी किताबों के बारे में चर्चा करते रहते हैं किन्तु इनकी चर्चा नही होती देखी. ऐसी ही  5  किताबों पर बात कर रहा हूँ –

-          “क” – लेखकः राबर्तो कलासो – राजकमल प्रकाशन से,

-          “ मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ” – लेखिकाः महुआ माजी - राजकमल प्रकाशन से,

-          “कथासरित्सागर” – लेखक सोमदेव – नेशनल बुक ट्रस्ट से,

-          “ काटना शमी का वृक्ष पद्मपंखुरी की धार से” – लेखकः सुरेन्द्र वर्मा – भारतीय ज्ञानपीठ से, एवं

-          “ उपसंहार” – लेखकः काशीनाथ सिंह – राजकमल प्रकाशन से.

                                  ********************

“क” भारतीय मानस और देवताओं की कहानियां

जैसा उपशीर्षक से स्पष्ट है, इसमें पौराणिक चरित्रों की कहानियां हैं. पौराणिक चरित्र, जो हिन्दुओं के पूज्य और धार्मिक चरित्र हैं, कुछ तो अवतार हैं और त्रिदेवों की कथा भी है किन्तु पौराणिक आख्यान होते हुए भी यह धार्मिक ग्रन्थ नही और न ही उन पात्रों और घटनाओं की नये सम्दर्भों में या अपनी मान्यतानुसार व्याख्या करता है – यह उन घटनाओं और पात्रों को ग्रन्थों मे वर्णित आधार पर ही सरस और प्रवाही रूप में बताता है और कुछ प्रसङ्गों का गहन विवेचन भी है.  किताब में 15 अध्याय हैं. पहला आख्यान सृष्टि के प्रारम्भिक दौर का है जो गरुण, विनता और कद्रु की कथा है और गरुण द्वारा अमृत लाने का वर्णन है. उसी क्रम, में नाग, बालखिल्य ऋषिगण,  इन्द्र, प्रजापति और तैतीस कोटि ( करोड़ नही, प्रकार ) देवों की कथा है. आगे ब्रह्मा, शिब,  विष्णु,  राम, कृष्ण, अश्विनीकुमार, अश्वमेघ यज्ञ, सप्तऋषियों की वार्ता से बुद्ध तक का आख्यान और दर्शन है.

इन आख्यानों में न तो केवल सपाट लोकरञ्जक कथा है और न ही बोझिल दर्शन बघारा गया है बल्कि बहती हवा, जल, व्याप्त प्रकाश आदि की तरह पाठक सहज भाव से उन आख्यानों में प्रवेश करता और लिप्त होता है. अभी “बुक बाबू क्लब” पेज पर इस किताब की चर्चा देख कर सुखद अनुभूति हुई. किताब मूल रूप से इतालवी में है, अंग्रेजी में अनूदित हुई और हिन्दी में देवेन्द्र कुमार ने अनुवाद किया.

 

मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ

विकिरण, प्रदूषण और विस्थापन से जूझते आदिवासियों की गाथा है यह उपन्यास. यद्यपि लेखिका ने प्रथानुसार इस उपन्यास के पात्र, स्थान और घटनाओं के काल्पनिक होने का स्पष्टीकरण दिया है किन्तु सब जानते हैं कि यह सब काल्पनिक नहीं. जहाँ भी जंगल हैं, खनिज हैं या यूँ ही तमाम वनसम्पदा है, उन पर उद्योगपतियों की गृद्धदॄष्टि लगी होती है. वे विकास के नाम पर खनिज का दोहन करते हैं , जंगल काटते हैं और इस प्रक्रिया में कारखानों का साधारण से लेकर विकिरणयुक्त अपशिष्ट वहां के जल स्रोतों को, भूमि को व हवा को जीवन के लिए प्राणघातक स्तर तक प्रदूषित करता है जिसका खामियाजा भुगतते हैं उस जंगल में रहने वाले आदिवासी. वे भूमि, पर्यावरण, स्वास्थ्य और जान तक गंवाते हैं. सरकार भी उद्योगपतियों का ही हित साधती है. इस दुष्चक्र में होता है संघर्ष और आदिवासी हर तरह से मारे जाते हैं.

 

मरंगगॉड़ा एक आदिवासी गांव हैं जहां ज़मीन के नीचे है यूरेनियम. इसी यूरेनियम के दोहन के चक्कर में कैसे जीवनचक्र छिन्न-भिन्न होता है, जल स्त्रोत विकिरण से प्रदूषित हो जाते हैं, उन्हे प्राणघातक बीमारियां होती हैं, वे बीमारी से ग्रस्त होकर ज़ल्दी मरते रहते हैं और सरकार से लेकर आन्दोलन तक – सब उन्हे एक संसाधन मान कर दोहन करते हैं. अन्त न सुखद है, न दुखद – बस वही है जो आज हो रहा है. कहा काल्पनिक जा रहा है किन्तु सहज ही जाना जा सकता है कि यह छत्तीसगढ़ के यूरेनियम समृद्ध क्षेत्र की विनाशगाथा है. इस दारुणगाथा के साथ ही हैं आदिवासी जीवनशैली और जंगल के वे वर्णन जो पाठक को मानो उसी वन प्रांतर में ले जाते हैं. उपन्यास रोचक और प्रवाहमय शैली में है.

 

कथासरित्सागर

महाकवि सोमदेव द्वारा विरचित यह ग्रन्थ गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ का सरस रूपान्तरण है. इसमे उस काल, जब राजा-महाराजा होते थे, भगवान भी धरा पर आते थे और श्रेष्ठिजन सुदूर देशों में व्यापार हेतु जाया करते थे, की कथाएं हैं. जैसे बात में से बात निकलती आती है वैसे ही एक कथा से दूसरी कथा फिर उस कथा से कोई और कथा – इसी प्रकार अनेक सरस, गुदगुदाने वाली, नीति की शिक्षा देने वाली कथाएं निकलती आती हैं. इनका उद्देश्य कोई शिक्षा या उपदेश देना नही अपितु मनोरञ्जन है. इसमें तान्त्रिक अनुष्ठानों, प्राकेतर कथाओं, गन्धर्व, किन्नर, विद्याधर एवं अन्य दिव्यलोक के प्राणियों की कथाएं हैं जो विभिन्न कारणों से मनुष्यों के सम्पर्क में आते हैं और जन्म होता है एक विचित्र कथा का. अनेक पुरानी कथाओं, वैताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी, किस्सा तोता मैना आदि कई कथानकों की छवि इसमें है. मिथक, इतिहास, फैटेंसी, इन्द्रजाल आदि का अनूथा संगम है इन कथाओं में. हर वय वर्ग के पाठकों का मनोरञ्जन करने में सक्षम हैं ये कथाएं. संस्कृत से रूपांतर राधावल्लभ त्रिपाठी ने किया है.

 

काटना शमी का वृक्ष पद्मपंखुरी की धार से

यह महाकवि कालिदास के जीवन पर आधारित उपन्यास है. उपन्यास इस अर्थ में विलक्षण है कि इसकी भाषा-शैली इतनी प्राञ्जल और प्रवाहमय है कि यह काव्य का सा आनन्द देता है. लेखक, सुरेन्द्र वर्मा, ने उपान्यास के शीर्षक के बाद लिखा भी है, “ कविसुरेन्द्रवर्माविरचित” ठीक भी है, कवि कालिदास का जीवनवृत्त तो काव्य होना ही था. इसमे कालिदास के बारे में प्रचलित किवदन्ती, कि वे वज्र मूर्ख थे, जिस डाल पर बैठे थे उसी को काट रहे थे और कुछ पण्डितों ने परम विदुषी विद्द्योत्तमा से बदला लेने के लिये षड्‍यन्त्रपूर्वक उसका शास्त्रार्थ और विवाह कालिदास से करा दिया और भेद खुलने पर उसने उन्हे भी अपमानित किया और देवी काली की उपासना करके वे कविकुलगुरु बने. इस  उपन्यास में कालिदास की कवि प्रवृत्ति और अध्ययन व कवि बनने के संघर्ष को दिखाया है. उन दिनों काव्य प्रतिभा व अन्यान्य कलाओं का केन्द्र उज्जयिनी था सो वे वहीं के लिये अपने छोटे से ग्राम से चल पड़े. उज्जयिनी कला व साहित्य का केन्द्र तो था किन्तु वहां भी विद्वानों की मठाधीशी थी, षड्‍यन्त्र थे और प्रतिष्ठा पाने को आये गुणवानों की भीड़ थी. कालिदास कैसे अपने ग्राम से निकल कर आते हैं, पुस्तकालय में उनके साथ क्या बीतती है, उज्जयिनी में उन्हे स्थान नही मिलता सो वे एक घर में किराये पर रहते और  किराये के साथ गृहस्वामिनी की बेटी को ट्यूशन पढ़ाते व उनकी बगिया की देखभाल करते हैं और ग्रन्थ प्रकाशित करवाने में कितनी दिक्कतें आती हैं और कैसे वे राजकुमारी की दृष्टि में चढ़ते हैं – इसकी रोचक गाथा है यह उपन्यास. इस क्रम में पर्याप्त चुटीले हास्य-व्यंग्य प्रसङ्ग हैं. उपन्यास  शुरू करते ही बांध लेता है. बार-बार पठनीय है यह कृति.

 

उपसंहार

काशीनाथ सिंह के इस उपन्यास में शीर्षक के साथ लिखा है, ‘उत्तर महाभारत की कृष्ण कथा’ और लिखा है ‘ चरम सफलता में निहित है एकाकीपन का अभिशाप’ इन उपशीर्षकों से स्पष्ट है कि यह महाभारत युद्ध के बाद की कथा है जब कृष्ण युद्ध में तटस्थ रहकर भी पाण्डवों को विजय दिलाने वाले नायक के रूप में प्रतिष्ठित हुए और द्वारिका आये. कृष्ण तो वीतराग थे किन्तु उनके संगी-साथियों को विजय मद चढ़ गया था जिसकी परिणिति यदुकुल के विनाश में हुई. युद्ध के बाद उसके दौरान हुए विनाश, घात-प्रतिघात आदि का चिन्तन किया उन्होनें तो पाया इस युद्ध और विजय की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी – पराजितों और विजेताओं, दोनों पक्षों को. यह कृष्ण के आत्मचिन्तन का दौर था. द्वारिका में भी कहां सब ठीक था – हर ओर असन्तोष, विद्रोह और आक्षेप के स्वर थे. दाऊ भी उन्हें आरोपित कर रहे थे और उनका पुत्र प्रद्युम्न भी, साम्ब भी व्यथित और विद्रोही होकर लक्ष्मणा ( कृष्ण की पुत्रवधू, दुर्योधन की पुत्री ) के साथ महल छोड़ कर जा चुका था – लक्ष्मणा पिता दुर्योधन व अपने मायके के लोगों की हत्या के लिये कृष्ण को दोषी मान रही थी. फिर वो कथा जब दुर्वासा का कृष्ण मे महल में आगमन हुआ .

 

बहुत झञ्झोड़ता है यह उपन्यास. नाटकों की भांति लम्बे एकालाप भी हैं और लम्बी किन्तु सरलकविताएं, जो कृष्ण की मनोदशा को अभिव्यक्त करती हैं. पौराणिक पात्र होते हुए भी यह धार्मिक आख्यान नही है.

                                       ****************

इन सब किताबों के लेखक प्रख्यात हैं, विषय-वस्तु का निर्वाह हर तरह से बहुत अच्छी तरह हुआ है, काशीनाथ सिंह और सुरेन्द्र वर्मा की अन्य कृतियां ( सुरेन्द्र वर्मा की ‘मुझे चाँद चाहिए” और काशीनाथ सिंह की “काशी का अस्सी” व अन्य कई ) बहुचर्चित रही हैं, स्वयं लेखक भी अतिचर्चित / बहुपठित रहे किन्तु ये कृतियां उतनी नही पढ़ी गयीं जितनी कि उनकी अन्य कृतियां जबकि ये भी कम नही. इस पोस्ट में मेरा प्रयास उन कुछ कृतियों की ओर सुधी पाठकों का ध्यान आकृष्ट कराना है.

( "उपसंहार" किताब का परिचय यहीं एक पृथक पोस्ट में भी दिया है, कृपया देखें )

 

Monday 28 September 2020

लखनऊ की नई लाईब्रेरियां !

  


कुछ दिन पहले लखनऊ के पुस्तकालयों के बारे में बात की थी, मौक़ा लाईब्रेरी / लाईब्रेरियन दिवस का था. तब पहले के पुस्तकालयों से अब तक अस्तित्व बचाये हुए कुछ पुस्तकालयों की बात की किन्तु लखनऊ में इधर के कुछ सालों में ‘उगी’ लाईब्रेरियों की बात पोस्ट बड़ी होने के डर से न कर सका, अब करता हूँ.

नौकरी के सिलसिले में कई साल प्रदेश से बाहर तैनात रहा. जब आता था तो जगह-जगह चौबीसों घण्टे चलने वाली लाईब्रेरियों ( इन्हे पुस्तकालय कहने का जी नही चाह रहा – क्यों ! जिनका इनसे साबका पड़ा होगा वे जान ही रहे होंगे, बाक़ी अभी जान जाएंगे )  के बोर्ड देखे – 24 X 7, वाई-फाई सुविधा से युक्त, किन्ही में कैफे भी. मैं जानकीपुरम मे रहता हूँ और इन्जीनियरिंग कॉलेज से लेकर कपूरथला तक और उधर हनुमान मंदिर तक कुछ नही तो पचीसों तो हैं ही, पचास तक भी हो सकते हैं. कुछ बेसमेण्ट में तो कुछ ऊपरी मंज़िलों में. देख कर ख़ुशी और कौतूहल होता था कि इतनी लाईब्रेरियां और कौतूहल ये कि अचानक से ऐसा क्या हुआ जो लोग इतने पढ़ीस हो गये और इधर के ही. जब इधर इतने हैं तो शहर भर में तो सैकड़ों की तादाद में होंगी ही. अन्दर जाकर देखने का मौक़ा न  लगा सो कौतूहल बना रहा. जब लखनऊ वापसी हुई तो एक मे गया फिर कई एक मे गया कि सब ऐसी हैं या कोई पुस्तकालय जैसी भी है.

पुस्तकालय में ढ़ेरों किताबें होती हैं जो बहुधा साहित्यिक और विविध विधाओं की होती हैं. कुछ ऐसे पुस्तकालय भी होते हैं जिनमें कोर्स ( बहुधा स्नातक एवं उच्च कक्षाओं की )  की किताबें भी बहुतायत से होती हैं या कोर्स की  किताबें ही होती हैं. कुछ में वाचनालय भी होता हैं जहाँ लोग बिना सदस्य बने या निर्गत कराए बैठ कर किताबें पढ़ सकते हैं, नोट्स बना सकते हैं, फोटो कॉपी ( सशुल्क ) करा सकते हैं. अधिकतर ऐसे पुस्तकालयों में तीन-चार किताबें साल भर या सत्र भर के लिये निर्गत की जाती हैं. इनमें सदस्य बनना होता है. इन पुस्तकालयों से उन छात्रों को बड़ी मदद हो जाती है जो किताबें खरीदने की स्थिति मे नही होते या खरीदना नही चाहते. लखनऊ विश्वविद्यालय में टैगोर लाईब्रेरी के साईड में ‘कोआपरेटिव लेण्डिंग लाईब्रेरी ( CLL के नाम से अधिक जानी जाती थी ) थी ( हो सकता है, अब भी हो ) किन्तु उसमें केवल विश्वविद्यालय के छात्रों को ही यह सुविधा थी. ऐसे अन्य पुस्तकालयों में आचार्य नरेन्द्रदेव पुस्तकालय और चन्द्रभानु गुप्त नव चेतना सदन ( अपट्रान बिल्डिंग, अशोक मार्ग ) में स्थित लाईब्रेरी में यह सुविधा थी.

जब इन नयी लाईब्रेरियों में गया तो पाया कि ये परम्परागत अर्थ में लाईब्रेरी हैं ही नही बल्कि ये स्व अध्ययन केन्द हैं जो केवल पढ़ने की जगह और शांत वातारण उपलब्ध कराते हैं. इनमें किताबें नही होती हैं ( अपवाद स्वरूप कुछ में एक-दो अख़बार, कुछ पत्रिकाएं और कुछ किताबें मिलीं ) जैसे साईबर कैफे में छोटे-छोटे केबिन बने होते हैं वैसे ही कतार में पचीसों केबिन होते हैं ,जिनमें छात्र बैठ कर पढ़ते और नोट्स बनाते हैं. किताबें वे अपनी लाते हैं और चूँकि ये चौबीसों घण्टे खुलने वाली लाईब्रेरियां हैं तो वे अपने चुने हुए तयशुदा वक़्त पर आते और उसी वक़्त के दायरे में पढ़ते हैं. अब लगातार पढ़ते / नोट्स बनाते रहते हैं तो कुछ में चाय वगैरह की व्यवस्था (सदस्यता शुल्क के अलावा, जितनी लें उतने के शुल्क पर ) भी रहती है. यह आवासीय भवनों में भी हैं और व्यवसायिक भवनों में भी. एक केयर टेकर भी होता है जो सदस्यों के आने और रुकने का समय नोट करता है ( ताकि कोई तयशुदा समय से पहले न आये और अपने टाईम स्लॉट से अधिक न बैठने पाये ) सामान्य देखभाल करता है, यह भी देखता है कि कोई अवाञ्छित गतिविधि न हो. वह कुछ सामान्य व्यवस्था ( जैसे बिजली, पानी, सफाई वगैरह ) भी करता है. चूँकि ये लाईब्रेरी हैं नही तो उस व्यक्ति को लाईब्रेरियन कतई नही कहा जा सकता, होता भी नही है,  वह केयर टेकर भर होता है. यह व्यवसाय है तो इसका मालिक या तो एक ऑफिसनुमा जगह में बैठता है या फिर तय समयावधि में आता है. सदस्यता आदि देने का काम वही करता है. सामान्यतः यह राशि 800/- से 1200/- तक होती है.

कई लाईब्रेरियां देखीं कि शायद कोई वास्तव में लाईब्रेरी जैसी हो जहाँ किताबें हों, किताबें निर्गत की जाती हों और वाचनालय हो किन्तु सब केवल पढ़ने की जगह उपलब्ध कराने वाले केन्द्र निकले. इनमें प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले ही होते हैं. अब सवाल ये कि इन्हे लाईब्रेरी क्यों नाम दिया गया. शायद लाईब्रेरी व्यावसायिक गतिविधि में न गिनी जाती हो और इस पर टैक्स और विभिन्न विभागों से अनुमति आदि की आवश्यकता न होती हो या उनमें कुछ छूट हो. कुछ ऐसे व्यावसायिक भवन हैं जिनमें शादी-व्याह और अन्य आयोजन होते हैं, वे बाज़ार दर पर किराये पर दिये जाते हैं किन्तु नाम “सत्संग भवन”  होता है. सत्संग आदि धार्मिक गतिविधियों में आते हैं, उनमें व्यावसायिक गतिविधियों, जैसे कर एवं अन्य प्रावधान नही होते सो वे सत्संग भवन के नाम से रजिस्टर्ड होते हैं. मेरी तरफ एक “ सत्संग भवन” है जिसमें सत्संग या कोई धार्मिक आयोजन आज तक नही हुआ, वह सत्संग की छूट लेकर व्यावसायिक गतिविधियां चला रहा है – ये “लाईब्रेरियां” भी इसीलिए लाईब्रेरी नाम से हैं. एक यह बात छोड़ दी जाय तो यह चलन स्वागतयोग्य ही है. वास्तविक पुस्तकालय निर्धारित समय पर ही खुलते-बन्द होते हैं जबकि ये चौबीसो घण्टे खुले रहते हैं जिनमें छात्र अपनी सुविधानुसार टाईम स्लॉट में अध्ययन करते हैं. चौबीसों घण्टे चलने के बावजूद कोई आपत्तिजनक गतिविधि या झगड़ा-झञ्झट  होते नही सुना.

अभी कुछ दिन पहले एक बोर्ड देखा, Books with Coffee (The hangout Library कुछ अलग सा नाम था, Books का भी उल्लेख था और नाम में इसे पहले रखा गया था सो पहले बहुत सी ऐसी लाईब्रेरियां देखे होने के बावजूद क्षीण सी सम्भावना लगी कि शायद यह वास्तविक लाईब्रेरी हो, नही तो Book Café  तो हो ही.  आशङ्कित होते हुए भी गया किन्तु यह भी वैसा ही ‘सेल्फ स्टडी सेन्टर’ निकला . कोरोना काल होने से रौनक थी ही नही, करीब पचास लोगों की जगह होते हुए भी बस एक युवक और एक युवती ही थे और वे भी स्टडी नही कर रहे थे. मालूमात हासिल करने की नियत से पूछा तो उन्होनें ऊपर इशारा कर दिया. ऊपर गया तो कुछ मिस्त्रीनुमा लोग काम कर रहे थे, पूछने पर बताया, “ भैया ( मालिक ) शाम को आते हैं “ स्टडी करने वाले जिस मुद्रा / भंगिमा में थे उससे इन लाईब्रेरियों के ‘मिलन केन्द्र’ के रूप में भी विकसित होने की सम्भावना लगी.

ऊपर Book Café  का ज़िक्र किया. लखनऊ में यह भी हैं और बहुत ही अच्छी, स्तरीय, बेहतरीन साज-सज्जा, साहित्यिक किताबों  साहित्यिक एवं सांस्कृतिक केन्द्र और  परिवेश तथा बेहतरीन कैफे के साथ हैं. पोस्ट भी बड़ी हो रही है तो यदि आप इच्छुक होंगे तो अगली पोस्ट में उनकी चर्चा करूँगा. तब तक न हो तो एक चक्कर इन ‘लाईब्रेरियों’ का लगा आईये.  

 

Saturday 12 September 2020

लोक के कबीर

 

लोक के कबीर

  गुरु ने बतायो, बेधन भेद बतायो ॥

पहली भिक्षा अन्न की लाना, गाँव नगरिया पास न जाना।

हिन्दू तुर्की छोड़ के लाना, लाना झोली भर के ॥

दूजी भिक्षा मांस की लाना, जीव जन्तु के पास न जाना ।

जिन्दा मुर्दा छोड़ के लाना, लाना खप्पर भर के ॥

तीजी भिक्षा जल की लाना, कुआँ-बावड़ी पास न जाना ।

ताल-तलैया छोड़ के लाना, लना तूँबी भर के ॥

चौथी भिक्षा लकड़ी लाना, रूख वृक्ष के पास न जाना ।

गीली-सूखी छोड़ के लाना, लाना गठ्ठर भर के ॥

कहत कबीर सुनो भई साधो, ये पद तो निरवाना ।

इस पद का जो अर्थ करेगा, वो है चतुर सुजाना ॥

 

अभी दो-तीन दिन पहले यह पद मेरी नज़र से गुज़रा, इसमें कहत कबीर सुनो भई साधो था, इससे लगता था कि यह पद कबीर का है किन्तु यह कबीर का है नही ! पञ्चों की सम्मति के आशय से इसे आपके समक्ष रखा और लगभग सभी ने सम्मति दी कि ये पद कबीर का नही है. अब मुझे क्यों लगा कि ये पद कबीर का नही है और कैसे ऐसे बहुत से पद कबीर के नाम से लोक में चल रहे हैं – इस पर कुछ कहने से पहले इस पद का शब्दार्थ ( जो कि स्पष्ट ही है ) और गूढ़ार्थ बता कर ‘चतुर सुजाना’ बन लूँ. वैसे तो इस पोस्ट पर आने वालो में अधिकांश को पता ही होगा किन्तु एक-आध मित्र हो सकते हैं जिन्हे गूढ़ार्थ न मालूम हो – अर्थ बताने को मेरी प्रगल्भता न मानें, उन्ही एक-आध मित्रों के लिए अर्थ प्रस्तुत है.

एक जोगी अपने शिष्य को भिक्षा लेने के लिए भेज रहा है और शिष्य के गूढ़ार्थ बोध की परीक्षा लेने के आशय से सीधे-सीधे यह नही बता कि भिक्षा में क्या लाना है  बल्कि कहता है, भिक्षा में अन्न लाना कि


न्तु हिन्दू-मुसलमान ( मतलब किसी भी व्यक्ति ) से न लाना और किसी गाँव-नगर में भी न जाना और झोली भर के लाना. दूसरी विशेषता बताते हैं कि मांस लाना किन्तु जीव-जन्तु या ज़िन्दा-मुर्दा का मांस न हो और खप्पर भर के लाना. तीसरी बात जल लाना किन्तु कुआँ-बावड़ी, ताल-तलैया से मत लाना और तूंबी भर के लाना. चौथी बात कि लकड़ी लाना किन्तु किसी वृक्ष से न लाना, गीली-सूखी न हो और गठ्ठर भर हो. गुरूजी (इस पद में कबीर) ने कहा यह निर्वाण का पद है और जो इसका अर्थ बतावे वो चतुर सुजान है.

                                                                                                                              अब चेला भी ऐसे गुरूओं की संगत में बहुत रहा होगा, ऐसी अटपटी / गूढ़ संकेतों वाली बातें खूब सुनी-गुनी होंगी सो वह भिक्षा में एक ऐसी वस्तु लेकर आया जिसमें चारों शर्तें पूरी हो गयीं – वह भिक्षा थी नारियल.

                                                                                               नारियल की गिरी / गरी को अन्न भी कहा गया है, भूख मिटाता है और यह किसी की रसोई में नही बनता सो पहली शर्त पूरी हो गयी. फलों के गूदे को मांस भी कहा जाता है. वाल्मीकि रामायण सहित कई जगह मांस का उल्लेख है, वनवास मे राम लक्ष्मण से मांस लाने को कहते हैं और वे गूदेदार फल लाते हैं. मांस को लोक भाषा में गूदा भी कहते हैं ( पहले तो सूखे हाड़ थे, अब कुछ गूदा चढ़ा है हड्डियों पर. मांसल शरीर को गुदाज भी कहते हैं सो गूदा और मांस पर्यायवची के रूप में लोक में प्रचलित और स्वीकार्य रहे हैं ) तो नारियल में गूदा है और यह किसी जीव-जन्तु का नही. नारियल में पानी होता है सो जल भी हो गया और कुआँ-बावड़ी आदि किसी स्रोत का नही. नारियल का खोपरा लकड़ी ही है. खप्पर भी है और जलावन भी. गुरुजी एक शर्त जोड़ना भूल गये – बाल / जटा लाने की अन्यथा नारियल के रेशे बाल / जटा भी कहे जाते हैं. इस तरह “चतुर सुजान” चेले ने एक फल लाकर गुरु जी की सारी शर्तें पूरी कर दीं.

                                   *****************************

अब आते हैं इस पर कि क्यों मुझे लगा कि यह पद कबीर का नही हो सकता. कबीर ने उलटबांसी खूब कही हैं किन्तु उनके हर पद में भक्ति, अध्यात्म या पाखण्डों का विरोध है या दैनिक जीवन में काम आने वली नीतियां, सद्वचन हैं – पहेलियाँ नहीं. यह पद  तो  केवल पहेली  है और पहेली भी गाँव-जवार में खूब बूझी जाने वाली. न इसमें ( पूछने और बूझने )  धर्म है, न अध्यात्म, न कोई दर्शन , न लोकहित की कोई बात और न ही कुरीतियों / पाखण्ड पर प्रहार. यह उन पहेलियों से तनिक भी अलग नही ( ‘कोई लावे ऐसा नर, पीर बावर्ची भिश्ती खर’ टाइप की ) जो बड़े-बूढ़े बच्चों से बुझाया करते थे. ये विशुद्ध मनोरंजन के लिए है.

 

अब ये पहेली है तो इसे ऐसा क्यों बनाया गया कि कबीर की लगे. गुरु-चेला, भिक्षा आदि जोड़ा और तब भी कमी लगी तो कहत कबीर सुनो भई साधो  भी लगा दिया . कबीर लोक चेतना के कवि हैं, उनकी सधुक्कड़ी भाषा, खरी बात और साधो या संतों को सम्बोधित करके बात करना लोक को बहुत रुचा. इनके पदों में भक्ति का वो स्वरूप न था जिसे लोक अन्य भक्त कवियों की रचना में पाता था. भक्त कवि या अन्य कवि जन की बात नही कहते थे, वे राम या कृष्ण आदि का लीला गान करते या महिमा का. अन्य कवि श्रंगारी थे या विरदावलियां गाते थे. जन की समस्या या साधारण जन की बात, उससे उसी की भाषा मे बात न थी. समाज में अनेक भेद, छुआछूत और पाखण्ड व्याप्त थे. कबीर ने अपनी कविता में इन सब पर बात की, पण्डित-मुल्ला दोनों को खरी-खरी सुनाई और पाखण्डों पर तार्किक चोट की तो कबीर जन - जन में गाये-सराहे जाने लगे. हर वो साधु, जोगी या फकीर जो उनकी तरह बात करता था – कबीर जैसा स्वीकार्य हो गया. कबीर एक व्यक्ति न रह कर एक शैली हो गये. जो कबीरी बात करे सो कबीर. कबीर को लोक ने अपनाया तो अनेक लोक के कबीर हो गये और उनकी रचनाएं कबीर का नाम धारें कही-सुनी जाने लगीं और कबीर के नाम से प्रचलित होती रहीं. बात कबीर जैसी थी तो पद भी कबीर का हो गया. उसमें कबीर का नाम, कहत कबीर या कबिरा लगा दिया गया गया कबीर जैसा होने के कारण. लोक को इस मीमांसा से मतलब न रहा कि यह कबीर की है या नही – वो तो इसी में मगन कि कबीर जैसी बात है तो कबीर की है. यह अन्य काव्य में क्षेपक य प्रक्षिप्त जैसा न था, इसका उद्देश्य कबीर के काव्य को दूषित करना न था, अन्य कोई निहितार्थ भी समझ नही आते. यह सब साधु / जोगी / फकीर – जो कबीर जैसा गाते और पदों में कबीर का नाम लगाते -  लोक के कबीर थे.

ऐसे ही लोक के कबीर का एक पद देखें. कबीर का नही है, मालूम नही किसका है पर कबीर के नाम से प्रचलित है –

 

आज बसैं सबरी घर रामा ।

सबरी राम का आवत जानैं, चन्दन से लिपवावावैं धामा ।

गंगा ते सबरी जल भरि लावैं, तखत बैठि परभू करैं असनाना ।

बैरी-मकोइया परभू भोग लगावैं, अवर नहीं सबरी घर सामा ।

कुस कै गुदरी सबरी बिछावैं, लोटि-लोटि परभू करै विसरामा ।

कहत कबीर सुनौ भई साधो, सुफल भयो यहि सबरी के जामा ।

 

(अवधी के अध्येता, अमरेन्द्र अवधिया, ने ‘नवभारत टाइम्स” में “गलचउरा” कॉलम में ‘सबरी के राम’ शीर्षक से आलेख दिया है, उसी में यह पद है)

 

लोक में कबीर के अलावा भी भिन्न पद

 

कबीर लोक में गये तो अनेक पद कबीर के नाम से प्रचलित हो गये किन्तु बहुतेरे पद ऐसे हैं जो कबीर के विभिन्न संकलनों में अलग-अलग रूप में हैं और रूपक भी अलग बांधा गया है. अब कबीर ने तो कोई संकलन किया नही. पद गाते रहे और शिष्य उन्हे संकलित करते रहे. पहले श्रुति और स्मरण से कि जो सुना वह याद रह गया और सुनाते रहे . औरों ने भी सुना और सुनाते रहे. इस तरह चार से चालीस लोगों के बीच तैरते पदों में से किसी ने कितना पकड़ा, कितना छोद़ा और कितना अपने पास से मिलाया – कहना मुश्किल है. बहरहाल वो सारे पद कुछ या बहुत कुछ अन्तर के साथ भी कबीर के ही माने जायेंगे.

 

कबीर के कोई सौ साल बाद जब कबीरपंथ की स्थापना हुई तो एक विशिष्ट पोथी की ज़रूरत महसूस हुई. भक्ति के लोकवृत्त में प्रचलित कबीर रचनाओं मे से चयन करके पोथी तैयार हुई. दादूपंथी और निरंजनपंथियों ने बहुत सी कबीर रचनाओं को छोड़ दिया जिनमें कोई दोष जज़र आया ( जैसे ‘मुगल’ शब्द का प्रयोग – यह कालक्रम दोष माना गया ) बीजक के संकलनकर्ताओं ने बहुत से ऐसे पद छोड़ दिये जो उनके पंथ द्वारा विकसित समझ के विपरीत थे. सम्भवतः यही कारण है कि 1570 से 1681 के बीच कबीर के माने जा चुके 593 पदों में से 32 ही बीजक में मिलते हैं.

कबीरर्पंथियों ने अपनी ज़रूरत के मुताबिक कबीर-वाणी का पाठ अपने लिए तय कर लिया. दादूपंथी पाठ पंथ के लिए उलझन पैदा करता था सो उन्होने बीजक को अपने व्यवहार के लिए माना और इसे रेखांकित करने के लिए कहा, “संतो, बीजक मत परमाना” बीजक कबीर की सभी रचनाओं का संकलन नही बल्कि चुनी हुई रचनाओं का संकलन है – ‘कलेक्टेड वर्क’ नही ‘सिलेक्टेड वर्क’ यही कारण है कि बीजक, ग्रन्थावली और अन्यत्र बिखरे पदों में बहुत अन्तर पाया जाता है.

बात बहुत लम्बी हो रही है, जिस विवेचना को विद्वानों ने किताबों मे समेटा उसे एक फेसबुक पोस्ट मे कैसे समेटा जा सकता है इसलिये एक पद प्रस्तुत कर रहा हूँ जो बीजक ( शुकदेव द्वारा सम्पादित संस्करण )  में अलग है और ग्रन्थावली ( माताप्रसाद गुप्त द्वारा सम्पादित ग्रन्थावली ) में अलग, यहां तक कि रूपक भी बदल दिया गया है. 

कबीर ग्रन्थावली में पद इस रूप में है –

 

हरि मेरा पीव भाई, हरि मेरा पीव,

हरि बिन रहि न सकै मेरा जीव ।

हरि मेरा पीव, मै हरि की बहुरिया । राम बड़े मैं छटुक लहुरिया ।।

किया स्यंगार मिलन के ताई । काहे न मिलो राजा राम गुसांई ॥

अब की बेर मिलन जो पाऊँ । कहै कबीर भौ जल नहि आऊँ ॥

                                                                  ग्रन्थावली में इस पद मे दाम्पत्य-प्रेम का रूपक है तो ‘बीजक’ में ‘कातने’ का रूपक कर दिया गया है –

 

हरि मोरा पीव मैं राम की बहुरिया, राम मोर बड़ो मैं तन की लहुरिया ।

हरि मोर रहटा मैं रतन पिउरिया, हरि को नाम लै मैं कतती बहुरिया ।

मास तागा बरस दिन कुकरी, लोग कहैं भल कातन बपुरी ।

कहै कबीर सूत भल काता, चरखा न होय मुक्ति कर दाता ।

 

( बीजक और ग्रन्थावली में पदों के भेद की सामग्री पुरुषोत्तम अग्रवाल की किताब “अकथ कहानी प्रेम की” से ली गयी है. किताब राजकमल प्रकाशन से है और इसे पहला राजकमल प्रकाशन कृति सम्मान, ‘ कबीर हजारी प्रसाद द्विवेदी पुरस्कार 2009’ से पुरस्कृत किया गया है.

                                                                  इसके अलावा पाठ्य पुस्तकों में, “हरि मोर पिव मैं हरि की बहुरिया” या “ राम मोर पिव मैं राम की बहुरिया” के रूप में मिलता है. गुरु ग्रन्थ साहब में कबीर के पद भी हैं, हो सकता है उसमें किसी भिन्न रूप मे हों. तो मित्रों, कबीर के भिन्न-भिन्न पाठ हैं विभिन्न कारणों से जिनमें भिन्नता मिलती है, इसके अलावा लोक के कबीर तो हैं ही.