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Wednesday 30 September 2020

5 अण्डररेटेड किताबें

 

 5 अण्डररेटेड किताबें

फेसबुक पर एक प्रतियोगिता के बारे में पढ़ा जिसमें  5 अण्डररेटेड किताबों के बारे में संक्षेप में बताना था






  तो इच्छा हुई कि उन किताबों के बारे में बताऊँ जो मेरी मतिअनुसार अच्छी हैं, विषय-वस्तु का पूर्ण निर्वाह करती हैं, भाषा-शैली और साहित्यिक  कसौटी पर खरी हैं – संक्षेप में,  पठनीय हैं किन्तु उनका उतना प्रचार-प्रसार न हुआ जितनी वे पात्रता रखती हैं. फेसबुक पर कई पेज और ग्रुप हैं जिन पर किताबों की बात होती है,  उनके अलावा सुधी पाठक  अपनी वाल पर भी किताबों के बारे में चर्चा करते रहते हैं किन्तु इनकी चर्चा नही होती देखी. ऐसी ही  5  किताबों पर बात कर रहा हूँ –

-          “क” – लेखकः राबर्तो कलासो – राजकमल प्रकाशन से,

-          “ मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ” – लेखिकाः महुआ माजी - राजकमल प्रकाशन से,

-          “कथासरित्सागर” – लेखक सोमदेव – नेशनल बुक ट्रस्ट से,

-          “ काटना शमी का वृक्ष पद्मपंखुरी की धार से” – लेखकः सुरेन्द्र वर्मा – भारतीय ज्ञानपीठ से, एवं

-          “ उपसंहार” – लेखकः काशीनाथ सिंह – राजकमल प्रकाशन से.

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“क” भारतीय मानस और देवताओं की कहानियां

जैसा उपशीर्षक से स्पष्ट है, इसमें पौराणिक चरित्रों की कहानियां हैं. पौराणिक चरित्र, जो हिन्दुओं के पूज्य और धार्मिक चरित्र हैं, कुछ तो अवतार हैं और त्रिदेवों की कथा भी है किन्तु पौराणिक आख्यान होते हुए भी यह धार्मिक ग्रन्थ नही और न ही उन पात्रों और घटनाओं की नये सम्दर्भों में या अपनी मान्यतानुसार व्याख्या करता है – यह उन घटनाओं और पात्रों को ग्रन्थों मे वर्णित आधार पर ही सरस और प्रवाही रूप में बताता है और कुछ प्रसङ्गों का गहन विवेचन भी है.  किताब में 15 अध्याय हैं. पहला आख्यान सृष्टि के प्रारम्भिक दौर का है जो गरुण, विनता और कद्रु की कथा है और गरुण द्वारा अमृत लाने का वर्णन है. उसी क्रम, में नाग, बालखिल्य ऋषिगण,  इन्द्र, प्रजापति और तैतीस कोटि ( करोड़ नही, प्रकार ) देवों की कथा है. आगे ब्रह्मा, शिब,  विष्णु,  राम, कृष्ण, अश्विनीकुमार, अश्वमेघ यज्ञ, सप्तऋषियों की वार्ता से बुद्ध तक का आख्यान और दर्शन है.

इन आख्यानों में न तो केवल सपाट लोकरञ्जक कथा है और न ही बोझिल दर्शन बघारा गया है बल्कि बहती हवा, जल, व्याप्त प्रकाश आदि की तरह पाठक सहज भाव से उन आख्यानों में प्रवेश करता और लिप्त होता है. अभी “बुक बाबू क्लब” पेज पर इस किताब की चर्चा देख कर सुखद अनुभूति हुई. किताब मूल रूप से इतालवी में है, अंग्रेजी में अनूदित हुई और हिन्दी में देवेन्द्र कुमार ने अनुवाद किया.

 

मरंग गोड़ा नीलकंठ हुआ

विकिरण, प्रदूषण और विस्थापन से जूझते आदिवासियों की गाथा है यह उपन्यास. यद्यपि लेखिका ने प्रथानुसार इस उपन्यास के पात्र, स्थान और घटनाओं के काल्पनिक होने का स्पष्टीकरण दिया है किन्तु सब जानते हैं कि यह सब काल्पनिक नहीं. जहाँ भी जंगल हैं, खनिज हैं या यूँ ही तमाम वनसम्पदा है, उन पर उद्योगपतियों की गृद्धदॄष्टि लगी होती है. वे विकास के नाम पर खनिज का दोहन करते हैं , जंगल काटते हैं और इस प्रक्रिया में कारखानों का साधारण से लेकर विकिरणयुक्त अपशिष्ट वहां के जल स्रोतों को, भूमि को व हवा को जीवन के लिए प्राणघातक स्तर तक प्रदूषित करता है जिसका खामियाजा भुगतते हैं उस जंगल में रहने वाले आदिवासी. वे भूमि, पर्यावरण, स्वास्थ्य और जान तक गंवाते हैं. सरकार भी उद्योगपतियों का ही हित साधती है. इस दुष्चक्र में होता है संघर्ष और आदिवासी हर तरह से मारे जाते हैं.

 

मरंगगॉड़ा एक आदिवासी गांव हैं जहां ज़मीन के नीचे है यूरेनियम. इसी यूरेनियम के दोहन के चक्कर में कैसे जीवनचक्र छिन्न-भिन्न होता है, जल स्त्रोत विकिरण से प्रदूषित हो जाते हैं, उन्हे प्राणघातक बीमारियां होती हैं, वे बीमारी से ग्रस्त होकर ज़ल्दी मरते रहते हैं और सरकार से लेकर आन्दोलन तक – सब उन्हे एक संसाधन मान कर दोहन करते हैं. अन्त न सुखद है, न दुखद – बस वही है जो आज हो रहा है. कहा काल्पनिक जा रहा है किन्तु सहज ही जाना जा सकता है कि यह छत्तीसगढ़ के यूरेनियम समृद्ध क्षेत्र की विनाशगाथा है. इस दारुणगाथा के साथ ही हैं आदिवासी जीवनशैली और जंगल के वे वर्णन जो पाठक को मानो उसी वन प्रांतर में ले जाते हैं. उपन्यास रोचक और प्रवाहमय शैली में है.

 

कथासरित्सागर

महाकवि सोमदेव द्वारा विरचित यह ग्रन्थ गुणाढ्य की ‘बृहत्कथा’ का सरस रूपान्तरण है. इसमे उस काल, जब राजा-महाराजा होते थे, भगवान भी धरा पर आते थे और श्रेष्ठिजन सुदूर देशों में व्यापार हेतु जाया करते थे, की कथाएं हैं. जैसे बात में से बात निकलती आती है वैसे ही एक कथा से दूसरी कथा फिर उस कथा से कोई और कथा – इसी प्रकार अनेक सरस, गुदगुदाने वाली, नीति की शिक्षा देने वाली कथाएं निकलती आती हैं. इनका उद्देश्य कोई शिक्षा या उपदेश देना नही अपितु मनोरञ्जन है. इसमें तान्त्रिक अनुष्ठानों, प्राकेतर कथाओं, गन्धर्व, किन्नर, विद्याधर एवं अन्य दिव्यलोक के प्राणियों की कथाएं हैं जो विभिन्न कारणों से मनुष्यों के सम्पर्क में आते हैं और जन्म होता है एक विचित्र कथा का. अनेक पुरानी कथाओं, वैताल पच्चीसी, सिंहासन बत्तीसी, किस्सा तोता मैना आदि कई कथानकों की छवि इसमें है. मिथक, इतिहास, फैटेंसी, इन्द्रजाल आदि का अनूथा संगम है इन कथाओं में. हर वय वर्ग के पाठकों का मनोरञ्जन करने में सक्षम हैं ये कथाएं. संस्कृत से रूपांतर राधावल्लभ त्रिपाठी ने किया है.

 

काटना शमी का वृक्ष पद्मपंखुरी की धार से

यह महाकवि कालिदास के जीवन पर आधारित उपन्यास है. उपन्यास इस अर्थ में विलक्षण है कि इसकी भाषा-शैली इतनी प्राञ्जल और प्रवाहमय है कि यह काव्य का सा आनन्द देता है. लेखक, सुरेन्द्र वर्मा, ने उपान्यास के शीर्षक के बाद लिखा भी है, “ कविसुरेन्द्रवर्माविरचित” ठीक भी है, कवि कालिदास का जीवनवृत्त तो काव्य होना ही था. इसमे कालिदास के बारे में प्रचलित किवदन्ती, कि वे वज्र मूर्ख थे, जिस डाल पर बैठे थे उसी को काट रहे थे और कुछ पण्डितों ने परम विदुषी विद्द्योत्तमा से बदला लेने के लिये षड्‍यन्त्रपूर्वक उसका शास्त्रार्थ और विवाह कालिदास से करा दिया और भेद खुलने पर उसने उन्हे भी अपमानित किया और देवी काली की उपासना करके वे कविकुलगुरु बने. इस  उपन्यास में कालिदास की कवि प्रवृत्ति और अध्ययन व कवि बनने के संघर्ष को दिखाया है. उन दिनों काव्य प्रतिभा व अन्यान्य कलाओं का केन्द्र उज्जयिनी था सो वे वहीं के लिये अपने छोटे से ग्राम से चल पड़े. उज्जयिनी कला व साहित्य का केन्द्र तो था किन्तु वहां भी विद्वानों की मठाधीशी थी, षड्‍यन्त्र थे और प्रतिष्ठा पाने को आये गुणवानों की भीड़ थी. कालिदास कैसे अपने ग्राम से निकल कर आते हैं, पुस्तकालय में उनके साथ क्या बीतती है, उज्जयिनी में उन्हे स्थान नही मिलता सो वे एक घर में किराये पर रहते और  किराये के साथ गृहस्वामिनी की बेटी को ट्यूशन पढ़ाते व उनकी बगिया की देखभाल करते हैं और ग्रन्थ प्रकाशित करवाने में कितनी दिक्कतें आती हैं और कैसे वे राजकुमारी की दृष्टि में चढ़ते हैं – इसकी रोचक गाथा है यह उपन्यास. इस क्रम में पर्याप्त चुटीले हास्य-व्यंग्य प्रसङ्ग हैं. उपन्यास  शुरू करते ही बांध लेता है. बार-बार पठनीय है यह कृति.

 

उपसंहार

काशीनाथ सिंह के इस उपन्यास में शीर्षक के साथ लिखा है, ‘उत्तर महाभारत की कृष्ण कथा’ और लिखा है ‘ चरम सफलता में निहित है एकाकीपन का अभिशाप’ इन उपशीर्षकों से स्पष्ट है कि यह महाभारत युद्ध के बाद की कथा है जब कृष्ण युद्ध में तटस्थ रहकर भी पाण्डवों को विजय दिलाने वाले नायक के रूप में प्रतिष्ठित हुए और द्वारिका आये. कृष्ण तो वीतराग थे किन्तु उनके संगी-साथियों को विजय मद चढ़ गया था जिसकी परिणिति यदुकुल के विनाश में हुई. युद्ध के बाद उसके दौरान हुए विनाश, घात-प्रतिघात आदि का चिन्तन किया उन्होनें तो पाया इस युद्ध और विजय की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी – पराजितों और विजेताओं, दोनों पक्षों को. यह कृष्ण के आत्मचिन्तन का दौर था. द्वारिका में भी कहां सब ठीक था – हर ओर असन्तोष, विद्रोह और आक्षेप के स्वर थे. दाऊ भी उन्हें आरोपित कर रहे थे और उनका पुत्र प्रद्युम्न भी, साम्ब भी व्यथित और विद्रोही होकर लक्ष्मणा ( कृष्ण की पुत्रवधू, दुर्योधन की पुत्री ) के साथ महल छोड़ कर जा चुका था – लक्ष्मणा पिता दुर्योधन व अपने मायके के लोगों की हत्या के लिये कृष्ण को दोषी मान रही थी. फिर वो कथा जब दुर्वासा का कृष्ण मे महल में आगमन हुआ .

 

बहुत झञ्झोड़ता है यह उपन्यास. नाटकों की भांति लम्बे एकालाप भी हैं और लम्बी किन्तु सरलकविताएं, जो कृष्ण की मनोदशा को अभिव्यक्त करती हैं. पौराणिक पात्र होते हुए भी यह धार्मिक आख्यान नही है.

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इन सब किताबों के लेखक प्रख्यात हैं, विषय-वस्तु का निर्वाह हर तरह से बहुत अच्छी तरह हुआ है, काशीनाथ सिंह और सुरेन्द्र वर्मा की अन्य कृतियां ( सुरेन्द्र वर्मा की ‘मुझे चाँद चाहिए” और काशीनाथ सिंह की “काशी का अस्सी” व अन्य कई ) बहुचर्चित रही हैं, स्वयं लेखक भी अतिचर्चित / बहुपठित रहे किन्तु ये कृतियां उतनी नही पढ़ी गयीं जितनी कि उनकी अन्य कृतियां जबकि ये भी कम नही. इस पोस्ट में मेरा प्रयास उन कुछ कृतियों की ओर सुधी पाठकों का ध्यान आकृष्ट कराना है.

( "उपसंहार" किताब का परिचय यहीं एक पृथक पोस्ट में भी दिया है, कृपया देखें )

 

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