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Thursday 9 December 2021

पुस्तक चर्चा – एक तयशुदा मौत

 

पुस्तक चर्चा – एक तयशुदा मौत


“… जैसे ही आप दूसरों की सहायता से संगठन खड़ा करने की बात करते हैं – उनकी सहायता से जो समाज के प्रतिष्ठित तबके के लोग हैं – देशी-विदेशी सहानुभूति लेना चाहते हैं, उसी समय आपके साथ राजनीतिक बहस समाप्त हो जाती है. क्योंकि आप एक फासिल हैं, क्योंकि आधारहीन उदार मानवता की ही एक परिणिति है मृत्यु. हत्यारों को बचाने का अर्थ ही मृत्यु है. आप मृत्यु की उपत्यका में खड़े हैं … “

गैर सरकारी संगठन अर्थात NGO की कार्यप्रणाली की पड़ताल है यह उपन्यास. इस अंश में संगठन में राजनीतिक और भद्रलोक के हस्तक्षेप से मृत्यु की बात, मृत्यु की उपत्यका में खड़े होने की बात कही है – NGO का कोई कार्यकर्ता अगर उसकी ‘सुरक्षित लाईन’ से अलग जाकर उसमें राजनीति व समाज के लिए काम करने के और तरीकों का घालमेल करता है तो संगठन (NGO) उससे किनारा कर लेता है, उसे निकाल देता है या उसका इस्तीफा ले लेता है या उसे बिल्कुल अलग–थलग करके किसी संकट में उसकी कोई मदद नहीं करता – संगठन में उसकी मौत हो जाती है – यह मौत सांकेतिक से लेकर वास्तविक भी हो सकती है – स्वाभाविक मृत्यु नहीं, हत्या ! इस उपन्यास में ऐसे ही कार्यकर्ता, दीपांकर उर्फ दीपू की हत्या की पड़ताल है जिसकी एक जुलूस में हत्या कर दी गयी और उसके साथ एक अन्य सहयोगी, रामू, गायब हो जाता है. गाँव में भी उसका कोई पता नहीं चलता या तो उसकी भी हत्या कर दी गयी या वह हत्या की आशङ्का से भूमिगत हो गया – वह उस NGO में भी नहीं था किन्तु दीपू के कामों में उसका  साथी था. हत्या की पड़ताल के बहाने यह उपन्यास NGO की कार्य संस्कृति और बस एक लीक की पड़ताल करता है जिससे अलग जाने पर तयशुदा है मौत.

मौत की पड़ताल होते हुए भी यह उपन्यास कोई जासूसी उपन्यास नहीं जिसमें हत्या होती है, कोई उसकी जाँच करता है, रोचक और रोमांचक घटनाक्रम से होते हुए हत्यारे का पता चलता है और उसे सज़ा मिलती है, मृतक को न्याय मिलता है. इसमें हत्या ऐसे है कि लगता है दीपू की नियति ही थी उसकी हत्या. दीपू की हत्या क्यों हुई, NGO संस्कृति कैसी है, कौन लोग मन बहलाव और समाज सेवा के दिखावे के साथ इनमें जुड़ते हैं – यह उपन्यास बखूबी बताता हैं –

                                                                          “ … राजनीतिक कार्यकर्ता होलटाइमर के रूप में उन्हीं लड़के-लड़कियों को देखते थे जो अपने कैरियर, अपनी ख्याति, धनलिप्सा, परिवार सब छोड़कर मनुष्य के लिए काम करने निकल पड़ते थे. और आज के स्वैच्छिक संगठनों के कार्यकर्ता, ग्रासरूट एक्टिविस्ट, वे अच्छा वेतन  पाते हैं. संगठन चलाते हैं. धनी घरों के लड़के और लड़कियाँ जिन्हें पैसों की उतनी ज़रूरत नहीं होती – और वेतन के लिए इस ग़रीब देश के लड़के-लड़कियों को जुटाया जा सकता है. थोड़ा – बहुत आदर्श की बात करते हुए. ये नये संगठन संचालक, सजे-सँवरे लड़के और लड़कियाँ, आदर्श, ख्यति, विदेशी सेमिनार, पत्रिकाओं में इण्टरव्यू और आजकल कुछ वामपन्थी ग्रुपों की भी पीछे से सहायता … यह सब मिलकर ज़ाहिरा तौर पर एक सफल जीवन तो है ही. पुलिस की लाठी-गोली नहीं है, राजनीतिक टण्टा नहीं है, बीच-बीच में स्थानीय तौर पर झमेला होने पर भी उसे ऊपर के लोगों की सहायता से सुलझा लिया जा सकता है … “

दीपांकर उर्फ दीपू दिल्ली के एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय ( नाम नहीं लिखा किन्तु समझा जा सकता है कि JNU की बात हो रही है ) में समाजशास्त्र का शोध छात्र है. वहीं वह ‘कॉमरेड्स’ यूनियन, NGO आदि के सम्पर्क में आता है और शोध में व्यवहारिक कार्य  के सिलसिले में खदान के असंगठित मजदूरों के बीच आता है. यहाँ वह एक NGO – SEED (Society for education and Development) के कार्यकर्ता के रूप में आया है. ‘सीड’ इन मज़दूरों के लिए स्कूल चलाती है. यह गूजरों का इलाका है जो यहाँ के मुल निवासी हैं. स्कूल गूजरों की बस्ती में है और गूजर नहीं चाहते कि इन मजदूरों के बच्चे उस स्कूल में आयें. खदान है तो असंगठित मज़दूर हैं, ठेकेदार हैं,  स्थानीय सम्पन्न लोग हैं, ठेकेदार, स्थानीय  लोग, पुलिस, सहकारी केन्द्र, नेता – सबका गठजोड़ है जिन सबका शिकार खदान मजदूर है. दीपू देखता है कि यहाँ स्कूल से अधिक ज़रूरत समय पर उचित मजदूरी की है, स्वास्थ्य और सुरक्षा की है और स्कूल तथा शिशु केन्द्र की है जो गूजरों की बस्ती में नहीं बल्कि इन्हीं के बीच हो. वह मज़दूरों को संगठित करने, उचित मज़दूरी दिलाने और उनके बीच स्कूल खोलने के प्रयास में लग जाता है, ‘खदान मज़दूर संघ’ का गठन होता है. यह ‘सीड’ समेत किसी को नहीं पचता. परिस्थितियां ऐसी बनती हैं कि सीड से असहमति के बाद वह इस्तीफा देकर श्रमिक संघ और स्कूल के काम में लग जाता है. एस. डी.एम. को ज्ञापन देनें के क्रम में जुलुस निकलता है और उसी में ठेकेदारों के गुण्डे जुलूस पर आक्रमण कर देते हैं और उसकी हत्या हो जाती है.

हत्या की ख़बर पाकर दीपू का एक साथी घटना कि तह में जाने के इरादे से वहाँ पहुँचता है और पड़ताल में NGO संस्कृति और तमाम गठजोड़ की परतें खुलती हैं जिनकी कुछ झलक उपन्यास के अंशों से मिली होगी.    

उपन्यास रोचक और स्तब्धकारी है किन्तु सजग पाठक स्तब्ध नहीं होता क्योंकि वह इन सब प्रवृत्तियों को जानता ही है, बावजूद जानकारी के उपन्यास बांध लेने में समर्थ है. पतला उपन्यास है. यह उपन्यास जनचेतना, निरालानगर, लखनऊ में उपलब्ध है और डाक से भी मंगाया जा सकता है. इस प्रकार का साहित्य जनचेतना में बहुलता से उपलब्ध है.

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पुस्तकः एक तयशुदा मौत

विधाः उपन्यास

लेखकः मोहित राय

अनुवादकः रामकृष्ण पाण्डेय ( मूल बंगला से हिन्दी में अनूदित )

प्रकाशकः परिकल्पना प्रकाशन ( राहुल फाउण्डेशन का इम्प्रिण्ट)

मूल्यः ₹70.00, पृष्ठ 94

जनचेतना का सम्पर्क सूत्रः 0522-4108495, janchetna.books@gmail.com, वेबसाइट janchetnabooks.org

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“ … बुर्जुआ वर्ग का एक हिस्सा इसलिए सामाजिक व्यथाओं को दूर करना चाहता है ताकि बुर्जुआ समाज को बरकरार रखा जा सके. अर्थशास्त्री, परोपकारी, मानवतावादी, श्रमजीवी वर्ग की हालत सुधारने के आकांक्षी, दीन सहायता संगठन, पशु निर्दयता निवारण समितियों के सदस्य, नशाबन्दी के लिए उतावले लोग, हर कल्पनीय प्रकार के अनजान सुधारक इसी श्रेणी में आते हैं. इसके अलावा, इस तरह के समाजवाद का पूरी की पूरी पद्वतियों के रूप में विशदीकरण कर दिया गया है … इस समाजवाद का एक दूसरा, अधिक व्यवहारिक, परन्तु कम व्यवस्थित रूप प्रत्येक क्रान्तिकारी आन्दोलन को मज़दूर वर्ग की दृष्टि में यह दिखाकर गिराना चाहता है कि उसे मात्र राजनीतिक सुधारों से नहीं, बल्कि जीवन की भौतिक अवस्थाओं, आर्थिक सम्बन्धों में परिवर्तन से ही कोई लाभ हो सकता है. लेकिन जीवन की भौतिक अवस्थाओं में परिवर्तन समाजवाद के इस रूप का मतलब बुर्जुआ उत्पादन सम्बन्धों के उन्मूलन से कदापि नहीं है … बल्कि इन्हीं सम्बन्धों पर आधारित प्रशासकीय सुधारों से है, अर्थात ऐसे सुधारों से जो किसी हालत में पूँजी और श्रम में परिवर्तन नहीं लाते … “

-         कार्ल मार्क्स-फ़्रेडरिक एंगेल्स, कम्युनिस्ट घोषनापत्र से (यह इसी उपन्यास के अन्त में निचोड़ के रूप में दिया है.)

 

Saturday 13 November 2021

पउम चरिउ ( पद्म चरित्र )


 


“सीय राममय सब जग जानी। करौं प्रनाम जोरि जुग पानी॥“

“प्रणाम पण्डित जी ! सियाराम मय तो सब जग है ही, यह चौपाई गा रहे हैं तो लगता है आज राम जी का कोई प्रसङ्ग सुनायेंगे.”

“सुनाउँगा तो किन्तु आज राम जी का नहीं बल्कि रावण का एक प्रसङ्ग सुनाउँगा.”

“सुनाइये ! आप तो कुछ भी सुनायें, अच्छा ही होगा. रावण प्रसङ्ग में भी तो राम ही का गुणगान होता है.”

“यह तो भली कही. आज जो मन में आया, वह कुछ अलग लगेगा किन्तु उसे सुनते हुए बी्च में टोकना मत. यदि कोई शङ्का हुई तो कथा के अन्त में समाधान होगा.”

“शङ्का और समाधान तो तब होगा जब आप कथा प्रारम्भ करेंगे. भूमिका इतनी बांधते हैं कि कथा का आधा समय उसी में निकल जाता है.”

“तो सुनो –

आज रावण का अभिमान खण्डित होने, उसके पराजय की कथा सुनाता हूँ, साथ ही रहेगी देवकन्या, तनूदरा, की कथा जिसका रावण ने हरण किया, रावण की बहन, चन्द्रनखा ( जो सूर्पनखा के नाम से अधिक जानी जाती है ) का भी उल्लेख आयेगा किन्तु मुख्य कथा रावण और बालि के युद्ध की है जिसमें रावण पराजित हुआ.”

“क्या महराज ! ये सब तो अनेक बार सुना हुआ है.  हाँ तनूदरा की कथा नहीं सुनी है किन्तु ग्रंथों मे उल्लेख है कि रावण ने देव और गन्धर्व कन्याओं का हरण किया था, यह तनूदरा भी उन्हीं में से कोई होगी.”

“ तुम लोग सुनने से पहले ही टोकने लगे. कहा ना, वही कथाएं हैं किन्तु कम सुने या जैसा सुना, उससे भिन्न परिचय वाले चरित्रों के साथ.  तो धैर्यपूर्वक सुनों  -

रावण महाबलशाली और पराक्रमी था. वह विकट योद्धा था जिसने यम, इन्द्र आदि को भी पराजित किया था. शिव जी का तो वह भक्त ही था, किन्हीं कारणों से विष्णु जी उससे युद्ध से विरत थे और ब्रह्मा जी युद्धादि करते नहीं थे. अब त्रिदेवों का उससे युद्ध होना न था व अन्य सभी को वह परास्त कर चुका था तो उसमें अभिमान आना स्वाभाविक ही था. इतने युद्ध करके भी उसकी युद्ध लिप्सा मिटी न थी, वह ‘युद्धम्‍ देहि’ का घोष करता घूमता ही रहता था. ऐसा नहीं कि रावण की बराबरी के अथवा उससे भी अधिक वीर और बलशाली योद्धा नहीं थे – वे थे और रावण उनसे भी युद्ध करने गया. ये और बात है कि पराजित हुआ, बंदी हुआ और पिता की सिफारिश से छूटा या विजेता ने दया करके मुक्त कर दिया. सहस्त्रबाहु कार्तवीर्य अर्जुन और वानरराज बालि ऐसे ही वीर थे.

खर-दूषण से भी एक प्रकार से पराजित ही हुआ. एक बार रावण ने एक देवकन्या, तनूदरा, के सौन्दर्य की प्रशंसा सुनी तो उसका हरण करने देवलोक पर चढ़ाई कर दी. जब वह देवलोक में व्यस्त था तो राक्षस वंश के ही खर और दूषण नामक दो भाईयों ने लङ्का पर चढ़ाई करके रावण की बहन चन्द्रनखा का हरण कर लिया. तनूदरा का हरण करके जब वह लौटा तो उसे चन्द्रनखा के हरण की सूचना मिली तो वह उन्हें दण्डित करने व चन्द्रनखा को मुक्त कराने सेना लेकर चल दिया. जब मंदोदरी को यह सूचना मिली तो उसने पूरे रनिवास के साथ रावण को समझाया कि कि अपनी बहन व दूसरे की बहन एक जैसी सम्मानयोग्य हैं. आप तनूदरा का हरण कर लाये तो आपका यह कार्य वीरोचित और खर-दूषण का कार्य अपराध कैसे हुआ ? उचित यही है कि आप खर-दूषण को बुलाकर चन्द्रनखा का विवाह उनसे कर दें. पता नही क्या विचार करके रावण ने मंदोदरी की बात मान ली और चन्द्रनखा का विवाह खर से करा कर उसे पाताल-लङ्का का आधिपत्य दे दिया. “

“हैं ! यह क्या सुना रहे हैं महराज ! खर-दूषण ने सूर्पणखा का हरण किया और रावण ने उन्हें दण्डित करने के स्थान पर खर से सूर्पणखा को  ब्याह दिया ! ऐसा तो हमने न कभी सुना, न पढ़ा और न ही गाँव-शहर की रामलीलाओं में देखा. अमीश के किसी उपन्यास से सुना रहे हैं क्या ?”

“ कहा न, जिज्ञासा का निवारण भी होगा किन्तु कथा के अन्त में. और हाँ, ये अमीश त्रिपाठी या किसी नये लेखक के उपन्यास से नहीं, शताब्दियों पुराने ग्रंथ से है. अब ऐसे ही टोकते रहोगे तो शेष कथा और जिज्ञासा शमन अगली कड़ी में ही हो सकेगा.”

“नहीं, नहीं महराज ! अगली कड़ी नहीं. आप तो कथा और शमन-वमन आज ही करें किन्तु संक्षेप में.”

“वमन तो न करूँगा, न अभिधा में, न व्यञ्जना में. खैर, संक्षेप में ही आगे सुनो -

एक बार रावण सभा में बैठा था कि बल का दर्प और युद्ध की इच्छा से उसने सभासदों से ऐसे वीर के बारे में पूछा जो उसके सम्मुख टिक सके. यदि कोई हो तो उसे पराजित करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करे. सभासद चाटुकार थे, डरते भी थे किन्तु रावण के बारम्बार आग्रह करने और अभयदान देने पर कई सभासदों ने विद्याधर चंद्रोधर, इक्षुख के पुत्र नल और नील व विद्याधरों के राजा, सूर्यख के पुत्र, महाबलशाली बालि के बारे में बताया. इनमें सबने एक स्वर से बालि को अतुलित बलशाली बताया. उन्होंने यह भी बताया कि बालि ने कैलाश पर्वत पर आदिनाथ ऋषभदेव की अभ्यर्थना के बाद ‘सम्यक्‍’ नामक व्रत धारण किया है जिसमें निश्चय किया है कि भगवान ऋषभदेव के अतिरिक्त किसी के सामने सर नहीं झुकायेगा, रावण यह जान कर जल-भुन गया. यद्यपि वानर साम्राज्य से उसकी 19 पीढ़ियों से मित्रता चली आ रही थी फिर भी उसने अपमानजनक संदेश भेजा कि या तो आधीनता स्वीकार करे अथवा युद्ध करे. जब बालि के पिता, सूर्यख, को रावण के इस निश्चय का भान हुआ तो भयभीत होकर उन्होंने संन्यास ले लिया.

बालि भी महाबलशाली था, उसने रावण की बात अस्वीकार करते हुए युद्ध की तैयारी की. युद्धभूमि में युद्ध के लिए सन्नद्ध  हुआ तो बालि के मंत्री, विपुलमति, ने प्रस्ताव किया कि सेनाओं को  लड़वाने से कोई लाभ नहीं, भयङ्कर जन हानि होगी. उचित होगा कि आप दोनों ही लड़ कर जय-पराजय का निर्णय कर लें, व्यर्थ ही सेना के निर्दोष वीरों की हत्या क्यों हो !

दोनों ने मान लिया. बालि ने रावण को पहले प्रहार करने का अवसर दिया. रावण ने अनेक दिव्यास्त्र छोड़े जिन्हें बाली ने निष्फल कर दिया. रावण की ‘महोदरी सर्पिणी’ विद्या को बाली ने ‘अहिनाशिनी’ विद्या से काट दिया. तब रावण ने बाली की अहिनाशिनी, ‘गारुणी विद्या’, के जवाब में प्रबल ‘नारायणी शक्ति’ छोड़ी  तो नारायणी से विष्णु गारुणी के ऊपर बैठ गये. गरुण तो उनका वाहन ही है सो गारुणी विद्या निष्प्रभावी हो गयी. तब बाली ने ‘माहेश्वर विद्या’ का प्रहार किया. विकराल कङ्काल और त्रिशूल से युक्त माहेश्वरी विद्या शशि, गौरी, गङ्गा और कार्तिकेय को धारण किये हुए आयी तो रावण के पास उसकी काट न थी, उसे पराजय स्वीकार करनी पड़ी.  महाप्रतापी बाली ने लङ्काधिपति रावण को विमान और चन्द्रहास तलवार सहित हथेली में उठा लिया और सौ बार घुमा कर फेंक दिया.

बाली उदार वीर था. उसने छोटे भाई सुग्रीव को बुला कर उसे वानरराज घोषित कर दिया, रावण से मित्रता और आधीनता की सलाह दी और तीनों लोकों के अधिपति भगवान आदिनाथ ऋषभदेव की शरण में चला गया.

रावण को भी माहेश्वरी विद्या सिद्ध थी किन्तु अभिमान और अधैर्य के कारण उसने पहले प्रहार का आमन्त्रण स्वीकार किया. यदि वह कुशल नीतिकार होता तो दिव्यास्त्रों का यह क्रम बाली से शुरू होता और रावण अन्त में माहेश्वरी विद्या का प्रयोग करता जिसकी काट बाली के भी पास न थी. यह बाली के धैर्य की जीत थी. “

“ कथा समाप्त हो गयी महराज कि अभी कुछ और बाक़ी है, हो तो वह भी सुना डालिए तो उसके बाद हम कुछ कहें.”

“कथा कभी समाप्त होती है क्या, और फिर हरि कथा ! ‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता, कहहिं सनहिं बहुविधि सब संता’. हाँ यह कथा समाप्त हुई. जानता हूँ, मार उबल रहे होंगे, कहें अब आप लोग.”

“महराज ! आज क्या विचित्र बातें बता गये, सूर्पणखा का हरण खर-दूषण ने किया और फिर रावण ने खर से सूर्पनखा का विवाह कर दिया और वह भी मंदोदरी के समझाने पर ! अरे ! जब मंदोदरी ने कितना समझाया कि सीता को ससम्मान लौटा दीजिये, राम से युद्ध न कीजिए, वे नर नहीं, नारायण हैं, कुल का नाश हो जायेगा … तब वह नहीं माना और और उस समय बहन का हरण करने वाले से ही उसका विवाह कर दिया !

और यह क्या ! बाली जैन था और आदिनाथ ऋषभदेव का भक्त था, बाली के पिता ने संन्यास ले लिया था, बाली ने सुग्रीव को राजतिलक करके राज-पाट दे दिया और ‘तीनों लोकों के अधिपति’ भगवान आदिनाथ ऋषभदेव की शरण में चला गया ! ये सब तो न सुना, न पढ़ा. न मानस में, न वाल्मीकि रामायण में, और तो और राधेश्याम रामायण में भी ऐसा नहीं है और न ही किसी रामलीला या नाटक मण्डली में देखा. क्या लन्तरानी हाँक दिये महराज !” 

“ सही कहते हो. न सुना, न पढ़ा और न देखा ! किन्तु प्रश्न यह है कि आप सबने जितना पढ़ा-सुना-देखा … क्या बस उतना ही है ? इससे अधिक और अलग कुछ और नहीं है क्या ? तुलसीदास जी ने स्वीकारा है कि ‘रामायन सत कोटि अपारा !’  रामायण या राम कथा बहुत हैं. तुलसी के पहले भी देश में ही अनेक कवियों ने राम कथा का गान किया. सत कोटि अपारा अर्थात सैकड़ों तरह की रामायण देश-विदेश में हैं और उतनी ही पूज्य और मान्य हैं जितनी कि वाल्मीकि रामायण या तुलसी बाबा की मानस.  उत्तर और मध्य भारत बस राम कथा के इन दो ग्रंथों से अधिक परिचित है तो बस इन्हीं में लिखे को अन्तिम सत्य मानता है जबकि राम कथा के विविध रूप हैं. दशरथ जातक आदि पर तो उत्तर भारत में बवाल हो गया था कि एक प्रदर्शनी में उससे कुछ उद्वारण प्रस्तुत किये हये थे. राम केवल उत्तर व मध्य भारत के ही नहीं हैं व केवल हिन्दू धर्मावलम्बियों के ही नहीं. दक्षिण के भक्त भी हिन्दू ही हैं, नेपाल के भी. उड़िया में भी राम हैं, जैनियों के भी और लोक के भी. वनवासियों के भी और जनजातियों, आदिवासियों के भी. लोक के राम को तो लोक जैसा ही चित्रित किया जायेगा ना ! यह कथा जैन ग्रंथ, “पउम चरिउ” से ली गयी है.”

“ पउम चरिउ !  हमने तो इस ग्रंथ का नाम नहीं सुना ! और हम इसमें वर्णित कथा को क्यों मानें !”

“ वही तो ! तुमने नाम नहीं सुना तो क्या वह ग्रंथ है नहीं. कूपमण्डूक केवल कहानी में नहीं होते ! चलो, नहीं मालूम तो यह कोई बड़ी बात नहीं. सबको सब कुछ कहाँ मालूम होता है, बताने पर भी न मानों तो भी कोई बात नहीं किन्तु देख-परख कर पुष्टि तो कर सकते हैं कि लन्तरानी हाँकी जा रही है या ऐसे भी ग्रंथ हैं जिनमें राम कथा उससे भिन्न स्वरूप में है जो आपने पढ़ी-सुनी. और कुछ नहीं तो साहित्य ही मान कर ग्रहण करें.”

“हाँ ! साहित्य वाली और राम कथा के विविध रूप वाली बात तो मानने वाली है. महराज ! केवल नाम ही बतायेंगे या और भी बतायेंगे जैन ग्रंथ, “पउम चरिउके बारे में !

“अवश्य बतायेंगे ! यह पूर्वग्रह, कि राम कथा बस उतनी ही है जितनी हमें मालूम है,  त्याग कर सुनें.

पउमचरिउ रामकथा पर आधारित अपभ्रंश का एक महाकाव्य है। इसके रचयिता जैन कवि स्वयंभू (सत्यभूदेव) हैं। इसमें बारह हज़ार पद हैं।

जैन धर्म में राजा राम के लिए 'पद्म' शब्द का प्रयोग होता है, इसलिए स्वयंभू की रामायण को 'पद्म चरित' (पउम चरिउ) कहा गया। इसकी रचना छह वर्ष तीन मास ग्यारह दिन में पूरी हुई। मूलरूप से इस रामायण में कुल 92 सर्ग थे, जिनमें स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने अपनी ओर से 16 सर्ग और जोड़े। गोस्वामी तुलसीदास के 'रामचरित मानस' पर महाकवि स्वयंभू रचित 'पउम चरिउ' का प्रभाव  दिखलाई पड़ता है।

यह सन् 965 में पूर्ण हुआ था। अतएव स्वयंभू का रचनाकाल इसी के आस-पास होना चाहिये, तुलसी के पूर्व.  अभी तक इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हुई हैं - पउमचरिउ (पद्मचरित), रिट्ठणेमिचरिउ (अरिष्ट नेमिचरित या हरिवंश पुराण) और स्वयंभू छंदस्। इनमें की प्रथम दो रचनाएँ काव्यात्मक तथा तीसरी प्राकृत-अपभ्रंश छंदशास्त्रविषयक है। यह ग्रंथ प्रतिष्ठित प्रकाशन, “ भारतीय ज्ञानपीठ” द्वारा प्रकाशित है.

अब बहुत बता दिया. कथावाचक को भोजन इत्यादि आप लोग तो करायेंगे नहीं,  वो तो घर जाकर ही करना होगा और  अब विलम्ब किया तो घर पर भी न मिलेगा, लंघन ही करना होगा. अतः मुझे चलने दें व अधिक जिज्ञासा हो तो 'पउम चरिउ' पढ़ें.”

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Wednesday 22 September 2021

पुस्तक चर्चा - फुटपाथ पर कामसूत्र

 


पुस्तक चर्चा

पुस्तक – फुटपाथ पर कामसूत्र-नारीवाद और सेक्शुअलिटीः कुछ भारतीय निर्मितियाँ

लेखक – अभय कुमार दुबे

विधा – कथेतर ( विषय केन्द्रित लेखों का संकलन )

प्रकाशक – वाणी प्रकाशन

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शीर्षक से भ्रम हो सकता है कि इस किताब में साहित्य/विमर्श की पैकिंग में यौन प्रसङ्गों को चटखारेदार और खुली भाषा में वर्णित किया गया होगा, यह किताब छुपा कर / कवर चढ़ा कर पढ़ने वाली श्रेणी की होगी – वैसी ही जैसी पहले ( मेरी किशोरावस्था में, जब डिजिटल का नाम भी न था ) बस स्टेशन और बहुत जगह सड़क पर पत्रिकाएं और ‘लुगदी साहित्य’ बेचने वाले पीली पन्नी में पैक करके, जाने-पहचाने या किसी पुराने का सन्दर्भ लेकर आने वाले या जिनकी पात्रता से वह सन्तुष्ट / निश्चिन्त हो जाय – ऐसे ग्राहकों को ऐसे किताब वाले बेचा करते थे.

किताब देखने पर मुझे ऐसा भ्रम कतई नहीं हुआ. मैनें किताब उठाई, लेखक, ‘अभय कुमार दुबे’, का नाम देखा तो विचार बनाया खरीदने का और किताब खरीदने की उपयुक्त विधि से जाँच-परख के बाद पाया कि किताब उठाना सही रहा. अभय कुमार दुबे के लेख मैं ‘हंस’ में और यत्र-तत्र पढ़ चुका था, फिर उन्हें ‘भारतीय भाषा कार्यक्रम’ के ‘विकासशील समाज अध्ययन पीठ’ के सराय कार्यक्रम की फेलोशिप मिली (जब फेलोशिप सम्बन्धी उल्लेख, लेखों की विषयवस्तु और अंश हंस में पढ़े थे, तबसे अब तक धुंधली याद थी – यह विवरण किताब के प्राक्कथन से ताज़ा हुआ और यहाँ दिया ) तो उसके अन्तर्गत ये लेख लिखे गये जो पुस्तकाकार सामने आये. पुस्तक राजेन्द्र यादव को समर्पित है, उन्होनें ही नब्बे के दशक में लेखक को हंस के स्त्री-अंकों के साथ जोड़ा. किताब और लेखक के बारे इतना कुछ (शीर्षक और आवरण पर के चित्र के कारण सफाई देने जैसा) इसलिए बताया कि हंस और राजेन्द्र यादव को पढ़ने वाले अनुमान लगा लें कि यह कैसी किताब होगी. किताब के बारे में कुछ लेखक मे मुह से भी सुनें जो उन्होनें प्राक्कथन में कहा है –

 

“ मेरी इस पुस्तक के प्रकाशन से बहुत पहले ही स्त्री-विमर्श हिन्दी-जगत में विचारोत्तेजक जगह बना चुका है. लेकिन, सेक्शुअलिटी-विमर्श इस दुनिया के लिए काफी कुछ नया है. इसके साथ एक मुश्किल यह भी है कि नारीवाद के साथ सेक्शुअलिटी का विमर्श जोड़ते ही या दोनों को एक-दूसरे के आईने में देखने की कोशिश करते ही हिन्दी-संसार के एक हिस्से की भृकुटियाँ तन जाती हैं. ऐसी प्रतिक्रिया के पीछे या तो नियोजित अज्ञानता होती है, या फिर शुद्धतावाद से निकला दुराग्रह. दोनों का ही शमन करना असम्भव है. इसलिए ऐसे अंदेशों से बेपरवाह होकर मैंने यह किताब तैयार की है, और जानबूझ कर इसका शीर्षक इस तरह का रखा है जिससे बहस को और बल मिले. इसमें पिछले पच्चीस साल में लिखे गये मेरे तत्सम्बन्धित एथ्नॉग्राफ़िक नोट्स, कुछ विश्लेषण और कुछ विवरण सम्मिलित हैं जिनके ज़रिये भारतीय समाज में निजी और अंतरंग धरातल पर बनने वाले मानवीय रिश्तों की आधुनिक गतिशीलता रेखांकित करने का प्रयास किया गया है. यह सामग्री किसी नये सिद्धांत की तरफ़ ले जाने का दावा तो नहीं करती, लेकिन यदि पाठकों ने इसका सहानुभूतिपूर्वक स्वागत किया तो शायद उन्हें इसके भीतर एक नयी दृष्टि की सम्भावना ज़रुर दिख सकती है… “

 

इस किताब में दस लेख हैं – हर लेख का उपशीर्षक है जो उसकी दिशा का संकेत देता है. लेख में भी कई अध्याय/ शीर्षकों मे उद्वरणों सहित विमर्श को आगे बढ़ाया गया है. लेखक अपनी बात ही नहीं कहता बल्कि पूर्वर्वर्ती/ समकालीन लेखकों का उदाहरण भी देता चलता है, उनके सम्दर्भ भी देता है जो लेख में भी उसी पृष्ठ पर और पुस्तक के अन्त में अनुक्रमणिका में दिये गये हैं ताकि बात की पुष्टि हो व  जो पाठक और पढ़ना चाहें वे सन्दर्भित लेख/ पुस्तक भी पढ़ सकें.

सारे लेखों का शीर्षक या विषय-वस्तु आदि देना ‘पुस्तक चर्चा’ या ‘पुस्तक परिचय’ के अंर्तगत उपयुक्त नहीं, मात्र एक लेख, “पटरी से उतरी हुई औरतों का यूटोपिया – राष्ट्रवाद का प्रति-आख्यान” की कुछ चर्चा कर रहा हूँ. लेख में पण्डिता रमाबाई, आनन्दीबाई जोशी और सावित्रीबाई फुले की चर्चा है. इन्हें( व इन जैसियों को ) ‘पटरी से उतरी हुई’ इसलिए कहा कि तत्कालीन समाज ( बहुत हद तक आज भी ) में औरतों के लिए जो लीक तय कर दी गयी थी, उससे हट कर इन औरतों नें शिक्षा प्राप्त की, तमाम तरह की चुनौतियों का डट कर सामना करते हुए समाज में अपना स्थान बनाया और न केवल अपने लिए मुक्ति और उन्नति के द्वार खोले अपितु समाज के लिए व्यवहार में भी बहुत कुछ किया.

इस चर्चा के साथ अनामिका के दो खण्डों में प्रकाशित वृहद उपन्यास – ‘दस द्वारे का पींजरा’ और ‘तिनका तिनके पास’ की भी विशद चर्चा है. ये उपन्यास इन्हीं नायिकाओं का जीवनवृत्त हैं. इस चर्चा से गुजरते हुए ये उपन्यास पढ़ने की भी उत्कट इच्छा जाग्रत होगी, कम से कम मुझमें तो हुई ही. अनामिका की कविताएँ और लेख मैंने हंस व अन्य पत्रिकाओं में पढ़े हैं और अब ये उपन्यास भी पढ़ने हैं. इन औरतों ने यद्यपि शिक्षा और औरतों की दशा सुधारने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई किन्तु बड़े-बड़े विद्वान और नारी हितों के लिए कार्य करने वाले उदार समाज सुधाकर भी इनके विरुद्ध हो गये, शायद इसलिए कि ये औरते थीं और मिशनरियों से जुड़ी थीं. उपन्यास से ही एक उद्वरण देखिए –

 

“… सावित्रीबाई फुले और महात्मा फुले के अलावा शायद ही कोई था जो उनके क्रिश्चियन मिशनरियों से जुड़ जाने का पक्षधर रहा हो ! और तो और, विवेकानन्द नें भी मैत्रेयी-गार्गी की परम्परा से हट कर विदेशी शासकों के धर्म से उनके जुड़ जाने की कड़ी निन्दा की थी. लोकमान्य तिलक तो खैर केसरी में लगातार आग उगल ही रहे थे कि यह देशभक्ति के जज़्बे के बिल्कुल ख़िलाफ़ पड़ने वाली स्वार्थसिद्धि है कि कमज़ोर जातियाँ और स्त्रियाँ धर्म ही बदल लें… सबसे ज़्यादा चोट रमाबाई को रामकृष्ण परमहंस की आलोचना से लगी जब उन्होनें इस धर्मांतरण को अहमन्यता और नाम-धाम पाने की लालसा कहा … “

 

किताब में और भी बहुत कुछ है और सन्दर्भित उपन्यासों में भी. यदि शुद्ध या कैसे भी मनोरञ्जन के लिए पुस्तक पढ़ना हो तो यह किताब न पढ़ें, हाँ विषयगत और समकालीन विमर्श व सन्दर्भ ग्रंथों का परिचय पाने व उनसे गुज़रने के इच्छुक हों तो अवश्य यह किताब पढ़ें.

Monday 5 July 2021

बज्जिका लोक गीत और नहुष कथा

 

बज्जिका लोक गीत और नहुष कथा


“ये क्या गुनगुना रहे हैं महराज. भुन्न-भुन्न करके मुह ही मुह में गा रहे हैं कुछ समझ ही नहीं आ रहा. तनिक ज़ोर से और सुर में गायें तो हम भी सुनें.”

“अरे एक लोक गीत है, सुनो –

                               मगर मच्छ  से  भरल गगन  के

                                       गंगा   में    इन्नर    के    नौका l

                                  डूब  गेल  , छुछुआयल  सुरपति

                                            सूअर बनल फिरल गुह खौका ll …”

बस, बस !  महराज ! ये का गा रहे हैं और कौन भाषा है. आप तो जाने किस-किस भाषा में गाते रहते हैं और आजकल लोक का बुखार चढ़ा है – कभी अवधी लोक गीत तो कभी भोजपुरी और पिछली दफा तो उड़िया में राम के वनवासी जीवन के लोक गीत सुनाये थे. ये कौन सी भाषा है और क्या कथा है ? ऐसी भाषा में सुनाईये कि हम भी समझ सकें और जो दस-बीस की भक्तमण्डली जुट जाती है, वो भी समझे. ये मुह ही मुह में और अनजानी भाषा में गाना हो तो घर ही पे गाया करें.”

“भई, लोक का तो आलोक ही अद्भुत है, जितना ही उसकी ओर जाओ अलौकिक आनन्द का प्रकाश गोचर होता है, जी जुड़ा जाता है. यह ‘बज्जिका’ लोक गीत है. बज्जिका बिहार के तिरहुत प्रमण्डल में बोली जाती है, इसमें बहुत लोक गीत हैं, गद्य में भी बहुत सामग्री है. इसे अभी भाषा का दर्जा नहीं मिला है सो इसे बोली कह सकते हो. इस लोकगीत में राजा नहुष की कथा है.”

“राजा नहुष की कथा ! वो क्या है ! हमें भी सुनाईये किन्तु बज्जिका में न सुनाइयेगा. “

 “जैसी यजमान की इच्छा ! हिन्दी / खड़ी बोली में सुनो.

                                            शाप और पाप सबको लगता है चाहे वो मानव हों, दानव हों, देवता हों या स्वयं भगवान ही क्यों न हों. देवराज इन्द्र को तो शाप मिलते ही रहे किन्तु यह कथा ऐसी है जिसमें पृथ्वी के एक राजा नहुष को अजगर हो जाने का शाप मिला. देवराज इन्द्र ने दैत्यराज वृत्तासुर की हत्या की थी. वह त्वष्टा ऋषि का पुत्र था, ब्राह्मण था सो इन्द्र को ब्रह्महत्या का पाप लगा. अब पाप के निवारण के लिए इन्द्र को सबसे छुप कर एक हज़ार वर्ष तक घोर तप करना था सो इन्द्र मानसरोवर में कमलनाल में कीड़े का रूप धर कर तपस्या करने लगे. अब एक हज़ार साल के लिए तो इन्द्र पद खाली छोड़ा नही जा सकता था सो देव गुरु वृहस्पति ने पृथ्वी के प्रतापी राजा, नहुष, (पुरुरवा के पौत्र, आयु के पुत्र ) से इन्द्र पद संभालने का अनुरोध किया, वे मान गये और इन्द्र पद पर आसीन  हो गये. अब उन्हें इन्द्र की शक्तियां और ऐश्वर्य प्राप्त हुआ तो भोग-विलास में डूब गये. एक दिन इन्द्र की पत्नी, शची, पर उनकी नज़र पड़ी तो मोहित हुए, लुब्ध हुए, कामासक्त हुए और कैसे न कैसे उन्हें पाने की जुगत में लग गये. इन्द्र पद है ही ऐसा कि जो भी इन्द्र होता है, वह कामी, दुष्चरित्र, लोभी, डरपोक, व्यभिचारी होता है. अब ये इन्द्र थे तो शची को येन केन प्रकारेण अपनी अङ्कशायिनी बनने को विवश कर सकते थे. शची ने देवगुरु वृहस्पति को यह बताया तो उन्होंने अपने यहाँ शरण दी. अब तत्कालीन इन्द्र, नहुष, देवगुरु का अतिक्रमण न कर सकते थे किन्तु उन्होंने शची को भय-प्रलोभन देना ज़ारी रखा. देवगुरु ने इन्द्र को तलाशा और यज्ञादि करवा कर शाप मुक्त किया किन्तु उन्हें पूर्ण शक्तियां प्राप्त न हुई थीं सो वे नहुष से युद्ध न कर सकते थे तब सबने मिल कर एक चाल चली और नहुष को संदेशा भेजा कि वे सप्तऋषियों द्वारा ढोयी जाने वाली पालकी में सवार होकर इन्द्राणी के पास आवें तो वे उनकी इच्छा पूरी करेंगी. नहुष ने सप्तऋषियों को विवश किया और पालकी में इन्द्राणी के पास चले. अब ऋषियों को तो पालकी ढोने का अभ्यास था नहीं, वे बड़े कष्ट से और धीरे-धीरे चल रहे थे जबकि नहुष उतावले थे. वे बार-बार धृष्टतापूर्वक उनसे गति से चलने को कहते. उन्होंने ऋषि अगत्स्य को लात मारी और कहा ‘सर्प-सर्प’ अर्थात गति से चलो. अब लात ऋषिवर सह न सके और उन्होंने नहुष को शाप दिया कि जा तू सर्प हो जा. शाप तुरन्त फलीभूत हुआ और नहुष सर्प बन कर पालकी से नीचे पृथ्वी पर नन्द बाबा के एक सूखे कुएं में गिर पड़े. इन्द्र को पुनः शक्तियां और इन्द्र पद प्राप्त हुआ.

                                                यह कथा संक्षेप में सुनाई किन्तु इससे भी संक्षेप में  बज्जिका के लोक गीत में वर्णित है जो मैं गुनगुना रहा था. वो भी सुनो और उसका अर्थ भी  

                         मगर मच्छ  से  भरल गगन  के

                                       गंगा   में    इन्नर    के    नौका l

                                                 डूब  गेल  , छुछुआयल  सुरपति

                                                              सूअर बनल फिरल गुह खौका ll

        भूप    नहूस    बनल    देबिन्दर

                          सची  देइ  के  कनखी  मारल l

                                सप्तरसी  के   चढ़ल   पालकी

                                                    अजगर भेलन , लउकल लौका ll

मगरमच्छों से भरी आकाशगङ्गा में इन्द्र की नाव तिर रही थी कि वह डूब गया. वह इधर-उधर छुछुवाने वाला सुअर बना गुहखौका इन्द्र ( इन्द्र के प्रति तिरस्कार और उसकी लोलुप/कामी प्रवृत्ति को देखते हुए उसे छुछुवाने वाला, अर्थात इधर-उधर मुह मारने वाला, गुहखौका अर्थात मल खाने वाला, सुअर, कहा है ) उसी आकाशगङ्गा में छुपा था.

                                 इन्द्रपद खाली न रहे इसलिए राजा नहुष को इन्द्र बना दिया गया. वह शची को देख कर कनखी मारने लगा ( आँख मार कर भद्दे इशारे करने लगा ) शची की शर्त के अनुसार वह सप्तऋषियों द्वारा ढोयी जाने वाली पालकी पर चढ़ करे आया और शापवश अजगर होकर भूमि पर नण्द बाबा के कूप में गिरा.

“ सही हुआ महराज ! दुष्चरित्र और पद का दुरुपयोग करने वाले नहुष को उचित दण्ड मिला. यह वृत्तासुर वही न जिनका वध दधीचि की अस्थियों से बने वज्र से किया गया था ?”

“हाँ, वही! वृत्तासुर की कथा रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत व अन्य ग्रंथों में वर्णित है और एक कथा में वृत्तासुर का वध समुद्र के फेन से किया गया वर्णित है. आज की बैठकी में इस लोकगीत के सन्दर्भ में नहुष की कथा सुनाई सो वृत्तासुर की कथा को विस्तार नहीं दिया. आगे कभी संयोग बना तो अन्यान्य कथाएं भी कहेंगे.

                                             अब कथा हो गयी, आरती-प्रसाद आदि की व्यवस्था हो तो कथा का विधिवत समापन हो.”

“जो इच्छा महराज ! कथा का प्रतीक्षित फल तो प्रसाद ही है, बहुत से लोग तो इसी के लिए बैठे रहते हैं. सब व्यवस्था है, अभी सब हुआ जाता है.”  

Wednesday 23 June 2021

लोक में राम – उड़िया लोक गीतों में वनवास काल में राम-सीता-लक्ष्मण

 



लोक में राम – उड़िया लोक गीतों में वनवास काल में राम-सीता-लक्ष्मण

राम जन-जन में व्याप्त हैं और जन-जन के हैं. राम कथा तो सब जगह कमोबेश एक सी ही है किन्तु राम को सबने अपने ढंग से पूजा, वर्णित किया और पाया. अधिकांश लोगों के मन में राम तुलसी के रामचरित मानस के चित्रण के अनुसार ही विराजमान हैं. उनका रहन-सहन, आचरण, लीला वैसी ही है जैसा तुलसी ने गायी. तुलसी जन कवि हैं, मानस को उन्होंने जन भाषा, अवधी, में गाया, लोगों के मन में उनकी छवि वही है जो तुलसी ने स्थापित की – मर्यादा पुरुषोत्तम की.  विष्णु के अवतार, साक्षात परमब्रह्म, जिन्हें शङ्कर भी पूजते हैं.

राम जी को चौदह वर्ष का वनवास मिला, उनके साथ सीता और लक्ष्मण भी गये. अब तीनों ही राजवंश के, राजसी सुख-सुविधा के साथ महल  में पले रहे.  सुकोमल थे, अभाव, भय और अनिश्चितता कि भोजन क्या होगा, मिलेगा या नहीं, रहेंगे कहाँ … आदि समस्या क्या, इन प्रश्नों से भी सामना न हुआ वे ही राम-लक्ष्मण-सीता वन-वन इन सबको झेलते हुए भटके. वनवास का वर्णन तुलसी ने मानस में किया तो है किन्तु किसी अभाव का नहीं. उन्हें इनका कुछ सामना ही न करना पड़ा. वाल्मीकि तथा तुलसीदास के राम वन में जाकर भी किसी राजा से कम नहीं रहे. पर्ण कुटी तैयार करने से लेकर कंद-मूल-फल की व्यवस्था और पहरेदारी लक्ष्मण करते थे. जहाँ भी कुछ ऐसी बात आयी कि ये भूमि पर सो रहे हैं या कुटी में रह रहे हैं या वन में मिलने वाला आहार कर रहे हैं तो इस वर्णन के साथ ही तुलसी याद दिला देते थे ये तो लीला कर रहे हैं. राम के अवतार / परमब्रह्म होने की बात तुलसी न कभी भूले और न ही श्रोताओं को भूलने दिया. जहाँ किसी कष्ट की बात आयी, दन्न से अगली ही चौपाई/ दोहा आदि में कि धोखे में न आ जाना कि भगवान को कष्ट हो रहा है, ये तो लीला है.

तुलसी वनवास दिखा कर भी वनवासी का जीवन न दिखा सके किन्तु लोक का तो मन भी अलग होता है और मान्यता भी. वो तो भगवान को भी अपने जैसा ही मानता है. उसके भगवान वैसा ही सोचते और करते हैं जैसा वह. उनके लिए वह वैसी ही चिंता करता है जैसे अपने स्तर के संगाती के प्रति. बरसात आती है तो उसे चिंता  होने लगती है –

“कौन बिरछ तर भीगत हुइहें राम-लखन दुहु भाई … “

सभी भाषाओं के लोक में राम सामान्य व्यक्ति हैं. वे सामान्य व्यक्तियों की सी ही तकलीफ उठाते हैं और वैसे ही खेती-किसानी भी करते हैं. तुलसी या वाल्मीकि के राम के वनवास की छोटी-छोटी बातों के लिए ह्रदय प्यासा ही रह जाता है. हम नहीं जान पाते कि राम-सीता-लक्ष्मण दिन में कितनी बार हँसते थे, रोते थे कि नहीं, उदास या चिन्तित भी होते थे, क्या खीझते और रूठते भी थे. कितना और कैसा मनोविनोद होता था, कंद-मूल-फल ही खाते थे कि रोटी भी खाते थे ? रोटी-दाल खाते थे तो आटा कहाँ से मिलता था और दाल-सब्जी मर्यादा पुरुषोत्तम की. कहाँ से ? दूध –दही का सेवन करते थे कि नहीं, गाय आदि पाली थी क्या ? दिन-प्रतिदिन के ये क्रिया-कलाप तुलसी या वाल्मीकि या राम को हर समय भगवान और मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप की याद दिलाने वाले/ लीला बताने वाले ग्रंथ इस विषय में मौन हैं. ये तो लोक ही बताता है. लोक के अलावा अन्य ग्रन्थों में, भले ही वह लोक भाषाअवधी का रामचरित मानस हो, ऐसा सहज चित्रण नहीं मिलता. आज देखें उड़िया लोक गीतों में वनवासी प्रभु का सरल / सामान्य जन का सा जीवन.

अब केवल कंद-मूल-फल खाकर तो नहीं रह सकते न ! वो भी चौदह बरस ! तो राम खेती भी करते हैं, हल चलाते हैं. लोकगीत में पहले तो किसी किसान के हल चलाने का वर्णन है किंतु गीत के बीच में ही किसान की जगह राम-सीता-लक्ष्मण शामिल हो जाते हैं. लोक अपने बीच वनवासी राम को मिला लेता है.

चलो चलो, बैल, देर न करो, थोड़ी देर में तुम्हे छुट्टी मिल जाएगी. खाने को ताज़ा घास मिलेगी, पीने को ठण्डा पानी. किसान बूढ़े बैलों को पसंद नहीं करता. राम हल चला रहे हैं, लक्ष्मण जी जुताई करेंगे, सीताजी के लिए और क्या काम है, वे बीज बो देंगी.

चालो-चालो बलद न करो भालोनी,

आऊरी घड़िए हेले पाईवो मेलानी,

खाईवो कंचा घास जे … पीईवो ठंडा पानी हो … ।

बूढ़ा बलूद कु जे हलिया मंगु नांई

राम बांधे हल लईखन देवे नामी,

आऊरी कि करिवे जे …

सीताया देवे रोई जे … ।

 

लोक के राम-लक्ष्मण में काम के बंटवारे को लेकर विवाद भी होता है (तुलसी की तरह नहीं कि लक्ष्मण बिना कहे ही सारा काम अपने ऊपर ले लें) राम ढेंकी में धान कूटते हैं और पान भी खाते हैं. ढेकी के पास हीरा-मणियों की तरह धान का ढेर लगा है, राम और लक्ष्मण में विवाद हो रहा है कि कौन धान डाले, कौन कूटे. राम ने कहा – लक्ष्मण, तुम धान डालो, मैं कूटूँगा. यह कह कर राम ढेकी पर बैठ गए और पान खाने लगे. दो में से एक पान राम नें खा लिया. धान कूटने का काम आनंद से चलता गया. चारो ओर महक फैल गयी.

 

हीरा मांणकर धान ढेंकी-रे अच्छी पनां

राम लईखन दुई हेले झींका टणां,

किए गो पेलिवो से धान, कहो मोते कि न जे … !

राम बोलति हे … सुनो लखईन

पेलीवो धान तुम्भे कुटिया मोर मन,

एते कहि ढेंकी ऊपरे बस्सी भांगे पान

दि खंडि पानरु खंडिए खाईले राम तो से … !

धान कूटा पेला चालीला केते रंगे रसे,

महकी ऊठूछी वासना की मीठा लागीवा से !

 

 

राम किसी काम से गये और उनको देर हो जाये तो सामान्य स्त्रियों की तरह सीता भी विचलित हो जाती है, चिन्ता करने लगती हैं. सीता की चिन्ता तो तुलसी ने मानस में भी व्यक्त की है. स्वर्ण मृग बन कर आये मारीच के पीछे जब राम जाते हैं तो वध के समय वह लक्ष्मण की सी बोली में कातर स्वर में, “हा लक्ष्मण !” पुकारता है तो अनिष्ट व संकट में पड़े होने की आशङ्का से सीता लक्ष्मण को जाने को कहती हैं और उनके आश्वस्त करने पर कटु वचन भी कहती हैं –

 

आरत गिरा  सुनी  जब  सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥

जाहु बेगि  संकट  अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता॥

भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ   संकट  परइ  कि  सोई॥

मरम बचन  जब  सीता बोला। हरि प्रेरित  लछिमन  मन  डोला॥

-              अरण्य काण्ड, दोहा २७/३से ३ तक

 

उड़िया लोक गीत में राम खेत जोतने गये हैं कि मौसम खराब होने लगा. आकाश पर बादल छाये हैं और बिजली चमक रही है. अँधेरी कुटिया में बैठी सीता का मन आशङ्कित और उदास हो रहा है. कि राम अभी तक वापस नहीं आये, इतनी देर तक क्या कर रहे हैं. उन्होने कोठरी में दिया तक नहीं जलाया.  लक्ष्मण से कहती हैं, “हे लक्ष्मंण! दौड़ कर खेत को जाओ और राम को बुला लाओ”. लक्ष्मण जाते हैं. आगे आगे बैल हैं, पीछे लक्ष्मण और उनके पीछे राम ज़ल्दी-ज़ल्दी घर की ओर आ रहे हैं. राम को घर लौटते हुए देख कर उन्हें कितना आनन्द हुआ होगा.

 

मेघुया आकासे बिजला खेलछी,

मंगा कुड़िया रे सीताया भालछी महाप्रभु से।

पास सरि राम बाहुड़ी गहति,

एतो बेलो जाए किसो करिछन्ति महाप्रभु से।

जायो हे लईखन बेगे बिल कु,

आणी वाकु राम कु निज घर कु महाप्रभु से।पवन बहुछी मेघ गरजछी,

अंदार कुड़िया रे सीताया बस्सछी महाप्रभु से।

आग रे बलद पच्छ रे लईखन,

बेगे राम घर कु फेरी आछी महाप्रभु से।

 

वन में गृहस्थ जीवन का एक और रंग देखें. उड़ीसा में खजूर के वृक्ष बहुत होते हैं और खजूर से मदिरा (ताड़ी) भी निकाली जाती है जिसे प्रायः पुरुष पीते हैं. राम (सम्भवतः इसी आशय से) खजूर का रस निकालने जा रहे हैं तो सीता को मर्यादाबोध हुआ कि लक्ष्मण देखेगा तो क्या कहेगा, छोटे भाई को बरजने के स्थान पर बड़े भाई ताड़ी बनाने को रस निकालने जा रहे हैं. दूर से देख कर सीता दौड़ती हुई आयी और वर्जना के भाव से राम का हाथ पकड़ लिया .

 

छिड़ा लूंगा पिंधी राम जाऊधीले,

खजूरी गच्छ र रस काढ़ीवाकु मो बाईधन।

दूरु देखी सीता अईला धांइ,

धरि पकाईला राम र हस्तकु मो बाईधन।

कि पाई धांईछो खजूरी गच्छ कु,

लईखन ईहा देखी कि कहिबे तुम्भंकु।

 

लोक के राम ब्रह्म या राज परिवार के नहीं और न ही सर्वसमर्थ हैं कि उनके भ्रकुटि विलास से ही सब उपलब्ध हो जाये. वे साधारण मानव हैं, ग़रीब हैं और वे सारे कार्य करते हैं जो निर्धन वनवासी परिवार करता है. सामान्य जन की भांति उनकी छोटी-छोटी इच्छाएं हैं, रूठना, मनाना, रोना हँसना होता है और ऐसा करते हुए लोक यह नहीं कहता कि ये तो लीला कर रहे हैं. लोक के राम उनमें से एक हैं.

 

वनवासी जीवन के चित्र बहुत हैं, एक पोस्ट में बताने को अनुपयुक्त (विस्तार भय है ) और फिर पुस्तक चर्चा भी तो करनी है तो बस एक चित्र देखें और फिर पुस्तक चर्चा.

 

लक्ष्मण चटनी के बहुत शौक़ीन हैं. वे कच्चे आम लाये और सीता ने चटनी पीसी किन्तु सारी की सारी चटनी राम खा गये, लक्ष्मण कहते ही रह गये कि थोड़ी सी चटनी मुझे भी तो दो. चटनी खतम हो गयी तो लक्ष्मण रोने लगे.

 

अंब कसी तोली लईखन आणी

सीताया ठकुराणी चटनी बाटीले,

रघुमणी राम खाईछंति हलिया हे !

टिकिए चटनी मोते देयो आणी हो … सीताया ठकुराणी,

चटणी गल सरी लईखन कांदूछंति जे।

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अब पुस्तक चर्चाः

यह लोक गीत “देवेन्द्र सत्यार्थी लोक निबंध” पुस्तक से लिए हैं जिसका सम्पादन और संचयन प्रकाश मनु ने किया है. लोक सम्पदा तो विशद है और यह भारत के गाँवों में बिखरी पड़ी है. यह लोक सम्पदा गीतों के रूप में भी है और बड़े-बूढ़ों में कण्ठ दर कण्ठ, ह्रदय और स्मृति में है. लोक गीत बहुधा वाचिक/श्रुत परम्परा में पीढ़ी दर पीढ़ी अन्तरित होते आ रहे हैं. युवा पीढ़ी की लोक में रुचि कम है, वे लोक भाषा, बोली, रीति-रिवाज, गीत, नाट्य, देवी-देवता आदि से विमुख होते जा रहे हैं, उन्हें गँवारू मानते हैं सो इनके लुप्त होने का खतरा है. इसी को दृष्टिगत रखते हुए सुधी जन ने इस धरोहरों को संकलित करने और संजोने का काम किया. देवेन्द्र सत्यार्थी उन्हीं में से हैं. वे भारत के अनोखे लोकयात्री थे, जिन्होंने लोकगीतों की खोज में देश का चप्पा-चप्पा छान मारा और अलग-अलग अंचलों के तीन लाख से अधिक लोक गीत इकठ्ठा करके उन पर बहुत सुंदर और गवेषणापूर्ण लेख लिखे.

यह पुस्तक लोकगीतों पर आधारित सत्यार्थी जी के रस-रागपूर्ण लेखों का संचयन है जो लोक संस्कृति का इन्द्रधनुषी बिंब प्रस्तुत करता है. इस पुस्तक में भारत भर के लोकगीत हैं जो मूल भाषा में किन्तु देवनागरी लिपि में हैं और उनका हिन्दी अनुवाद भी दिया है, साथ में सरस भाव भूमि भी. लोक में रुचि रखने वालों के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण ग्रंथ है.

 

पुस्तक – देवेन्द्र सत्यार्थी लोक निबंध

लेखक - देवेन्द्र सत्यार्थी

संचयन व सम्पादन – प्रकाश मनु

विधा - कथेतर, लेख एवं लोकगीत

प्रकाशक – नेशनल बुक ट्रस्ट