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Monday 27 February 2023

मीठी मीठी बातें !

 मीठी मीठी बातें !

आख़िरकार करीब अठ्ठारह सालों बाद




मुझे मेरी पसन्द की एक खास मिठाई मिल गयी. मिठाईयां तो सारी ही मुझे पसन्द हैं – सूखी से तर तक, खोया से छेना तक और सब्जी की भी. मुझे तो बूंदी के आजकल वाले मोतीचूर के लड्डू भी पसन्द हैं, मेवा के भी, बड़ी बूँदी के भी और वैसे भी जो पहले बैना में भेजे जाते थे – सूखे और ऐसे कि फेंक के मारो तो गुलुम पड़ जाये. बालूशाही भी, रसगुल्ले की तमाम किस्में भी – मतलब किसी मिठाई या मीठे व्यञ्जन को यह नही कह सकता कि मुझे यह पसन्द नही. मै खाने में बचपन से ही बड़ा मिठुआ रहा हूँ , ईश्वर की दया है कि मधुमेह से बचा हूँ और विडम्बना भी कि इतना मीठा खाते हुए भी बोली में उतनी मिठास न आ सकी.

उस मिठाई का नाम है, मैसूर पाक. इसे मसूर भी कहते हैं. यह गरिष्ठ किन्तु वज़न में हल्की होती है . घी की प्रचुरता रहती है और देशी घी में बनाई जाय तो तालू और दांतों में चिपकती नही. मेरे अलावा घर में और किसी को पसन्द नही. जब मै फरेन्दा ( आनन्द नगर, गोरखपुर से आगे ) में तैनात था तो एक दुकान पर मिली और मै अक्सर लिया / खाया करता था. वहां से आने के बाद बहुत जगह तलाश किया किन्तु नही मिली. अब नये लोग और नयी तरह की मिठाईयों का चलन और यह ठहरी पुरानी मिठाई. जिस हलवाई के यहां मै नियमित रूप से मिठाई लेता हूँ, उससे भी ज़िक्र किया. वह मेरी पसन्द की एक मिठाई, परवल की मिठाई, रक्षाबन्धन और दीपावली में बनाता है. हाँलाकि मै लेता पाव भर ही हूँ क्योंकि मेरे अलावा घर में किसी को पसन्द नही . उससे उम्मीद थी मगर उसने कहा कि अब उसे बनाने वाले कारीगर नही मिलते और उसे बनाना नही आता, देखिये शायद चौक ( लखनऊ का पुराना इलाका जो खाने-पीने की चीज़ों, चिकनकारी, सर्राफा और हाथ के बहुत से काम के लिये मशहूर है ) में मिल जाये. चौक में भी कुछ जगह देखा किन्तु नही मिली.

करीब पाँच साल पहले की बात है. मैं एक कार्यक्रम में गोमती नगर गया और लौटते में रात के साढ़े दस बज गये (कार्यक्रम में देर नही हुई, देर का और किस्सा है ) जब घर के पास पहुँच गया तो याद आया कि मिठाई लेनी थी, सुबह ही एक जगह जाना था. सुबह शायद दुकान न खुली होती और फिर श्रीमती जी ने ताकीद की थी कि मिठाई लेते आना, ये नही कि सुबह लेने दौड़े. अब बिना मिठाई के घर में कैसे घुसता तो करीब दो किलोमीटर वापस लौटा. वैसे तो कई दुकानें हैं किन्तु काजू कतली मै राधे लाल, अलीगंज की दुकान ( साफ – सफाई आदि के संदर्भ में और दीपावली के पूर्व के नियमित / औपचारिक आयोजन में छापा पड़ा तो क्लीयर हुआ कि ये वो राधे लाल नहीं हैं जिनकी दुकान चौक में है, ‘परम्परा’ नाम से और इसकी कई शाखाएं हैं ) से ही लेता था. आशंका थी कि शायद दुकान बढ़ा दी गयी हो और उम्मीद कि शायद खुली हो. जब पहुँचा तो दुकान तो बढ़ा दी गयी थी किन्तु एक चौथाई शटर खुला हुआ था और दुकान मालिक बाहर कुर्सी डाले हिसाब जैसा कुछ कर रहे थे. अब मुझे भी तसल्ली हुई और वो भी फुरसत से थे तो बातें भी होने लगीं. मैने बताया कि मुझे आपकी दुकान का पेठा पान ( यह पेठा- कद्दू प्रजाति का फल – की पतली परत तिकोने आकार में काट और पाग कर, खाने वाला हरे रंग से रंग कर उसमें खोया, मेवा, पतली कतरी सुपारी और पान का एसेन्स डाल कर पान के बीड़े की तरह लपेटी जाती है और चाँदी का वर्क लगाया जाता है. सुपारी और पान के एसेन्स की वज़ह से बिल्कुल पान का स्वाद आता है ) बहुत पसन्द है. जब चौक जाना होता है तो ज़रूर लेता हूँ. (चौक की दुकान का ज़िक्र किया और पेठा पान का भी. वो समझ तो गये होंगे कि मैं ‘परम्परा’ राधे लाल की बात कर रहा हूँ और इस दुकान को उसकी शाखा समझ रहा हूँ किंतु मेरी भूल सुधारी नही)  वो बोले कि यहां भी बनाते हैं कभी-कभी. फिर चर्चा परवल की मिठाई व मसूर की चली. जब मैने अपने हलवाई के बारे में बताया तो वे कुछ चौंके और उसकी दुकान का नाम-पता  पूछा. मसूर के बारे में बताया कि हम बनाते हैं और नौकर को एक पीस लाने को कहा. वो लाया और मैने खाया. मज़ा आ गया, बरसों बाद वो स्वाद. काजू कतली के तो उनकी दुकान पर एक किलो और आधा किलो के डब्बे तैयार रहते हैं, बस उठा कर देना होता है सो दे दिया, मसूर दूसरे दिन खरीदना ठहरा. तब से अब तक तीन बार खरीद चुका हूँ, ये भी घर में मेरे अलावा कोई नही खाता. बाद में एक दो बार बंगलुरु में नौकरी करने वाला भतीजा ‘मैसूर पाक’ लाया किंतु वो गीला वाला लाया. मुझे उसमें मज़ा नहीं आया, मुझे सूखा वाला भाता है.

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जब मै दमोह में तैनात था तो हर चौथे –पाँचवे दिन पाव भर मिठाई लाता था, यद्यपि अकेले ही रहता था.. एक दुकान है जो दमोह में मिठाई की सबसे अच्छी दुकान है, मिठाईयां भी अच्छी हैं. मै उनके यहां की लगभग सारी मिठाईयां टेस्ट कर चुका हूँ और अब जान गया हूँ कि कौन सी मिठाई दोहराने योग्य है. लौड़ी में भी जब था तो एक दुकान पर गोंद के लड्डू बढ़िया मिलते थे तो अक्सर लेता था. वो लड्डू लखनऊ भी ले गया और दिल्ली भी – सबको बहुत पसन्द आये. ऐसे ही जब चित्रकूट में था तो बस से ही जाता था. रास्ते में एक जगह पड़ती थी, ललौली. वहां के लड्डू मशहूर और स्वादिष्ट होते थे ( थे, अब हैं नही.) जाते में चित्रकूट में खाने के लिये लेता था और लौटते में घर के लिये. अभी करीब बारह साल पहले चित्रकूट जाना हुआ तो ललौली की तरफ से गये, लड्डू भी लिये मगर वो बात नही रही अब. अल्मोड़ा की बाल मिठाई और सिंघौड़ी तो मुझे बहुत पहले से ( जब मैं हाईस्कूल में, सन १९७४ में, था तबसे ) पसन्द है. मेरे एक पहाड़ी मित्र थे उन्होने पहली बार खिलायी थी. लखीमपुर जाते समय रास्ते में ( सड़क मार्ग से ) मैगलगंज नामक कस्बा है जहां गुलाब जामुन बहुत बढ़िया मिलते हैं. वो भी खाये. अब जगह भी बहुत बदल गयी है और जहाँ पहले दो – तीन दुकानें हुआ करती थीं, अब दसियों दुकानें हैं और सब “असली और पुरानी दुकान” हैं. सब धोखा न खाने की ताकीद करते हैं मगर पहले के स्वाद को देखें तो धोखा ही खाने को मिलता है.  दमोह से जबलपुर के रास्ते में एक जगह है, कटंगी. वहां बड़े बड़े रसगुल्ले ( वस्तुतः काला जाम ) खूब बिकते हैं. क बार वो भी टेस्ट किये मगर कुछ खास नहीं लगे सिवाय आकार के. बनारस जाना होता था तो वहां लौंगलता नामक मिठाई अच्छी और प्रसिद्ध थी. यह खोया भरी गुझिया जैसी होती थी जो पगी होती थी. गुझिया का ज़िक्र आया तो मुझे पिचक्का भी पसंद है. यह आकार में बड़ी गुझिया होती है जिसमें खोया, मेवा के साथ सोंठ ( सूखी हुई अदरक ) प्रचुर मात्रा में होती है और चीनी की जगह गुड़ डाला जाता है. सोंठ और गुड़ का ही मेल है. यह खाने में मिठास के साथ कड़ुआहट लिये होती है और सबको पसन्द नही आती. बाज़ार में मिलती नही और घरों में महिलायें बनाती नहीं. दो ही बार खायी है, एक बार मामा के यहां बचपन में और एक बार सास जी ने खास मेरे लिये बनाये थे जब उन्हे मालूम पड़ा कि मुझे पसन्द हैं. आज भी पिचक्का का स्वाद याद आता है. माज़ूम भी खायी है ( भांग डाल कर बनायी गयी बर्फी ) लेकिन दो ही बार. मीठी चीज़ों में बाजरे को गुड़ के साथ उबाल कर खायें तो बहुत बढ़िया लगता है, राब ( गुड़ बनते समय ढीला गुड़ )  भी मुझे अच्छी लगती है और गुड़धनिया ( भुने गेँहू और गुड़,  मसला हुआ ) पहले गुड़धनिया हनुमान जी के मंदिर में प्रसाद के तौर पर चढ़ाई जाती थी, अब कोई नही चढ़ाता.

गुड़धनिया का ज़िक्र निदा फाज़ली ने एक शेर में किया है –

गरज बरस प्यासी धरती को फिर पानी दे मौला ।

चिड़ियों को दाने बच्चों को गुड़धानी दे मौला ॥

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मिठुआपन की दो यादें हैं जो एक रिकार्ड भी हैं, अब मुझे लगता है कि ऐसा नही करना चाहिये था. स्वास्थ्य से खिलवाड़ अच्छा नही होता मगर वो दिन ही खिलंदड़पन के थे. गदह पच्चीसी की उमर थी अर्थात वय से भी युवा था. तब एक बार करीब एक घण्टे के अन्दर तेईस पीस मलाई की गिलौरी खाई थी. ( मैथिलों के लिए तो तेईस पीस कुछ भी नहीं हुआ. वे तो उपेक्षा भाव से ही इतनी मात्रा को लेंगे किंतु है क्या सामान्य लोगों में किसी का इससे ज़्यादा का रिकार्ड ! या खा चुके हैं इससे अधिक ! ) इसके दो कुप्रभाव हुए. एक तो फिर रात को खाना ठीक से खाया नही गया और दूसरा कि इतना मीठा खाने से मूत्र विसर्जन में दिक्कत हुई. महसूस होता था, उतरता नही था. मगर ये दिक्कत कुछ ही घण्टे रही. एक बार आधा भगौना खीर खाई थी, भोजन के बाद.  खीर भी बड़ी स्वादिष्ट, मेवा पड़ी और गाढ़ी थी. यह एक पुड़िहा बांभन से कम्प्टीशन में खाई थी. दोनों बराबरी पर छूटे थे. खिलाने वाला मेरा मोहल्ले के नाते भांजा था, दीदी के यहां कुछ मांगलिक कार्य था.

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मीठी मीठी बातें बहुत हैं. इसकी नींव बचपन से ही पड़ गयी थी. पिता जी भांग खाते थे और भंगेड़ियों के नियमानुसार रबड़ी – मलाई भी. भांग तो खाना शुरू नही किया मगर रबड़ी खाने लगा. रोटी के साथ भी रबड़ी खाने का अलग ही स्वाद है. रबड़ी अब भी खाता हूँ मगर नियमित नही और अब तो पाव भर भी नहीं खा पाता, डेढ़ – दो सौ ग्राम में ही इच्छा भर जाती है. रबड़ी और मलाई ( पुराने लखनवी इसे बालाई कहते हैं ) मे तब भी और अब भी कुछ टुच्चे मुनाफाखोर हलवाई आरारोट और ब्लॉटिंग पेपर की मिलावट करते हैं इसलिये रबड़ी –मलाई छोटी दुकान से लेना उचित रहता है. वैसे नरही, शिवाजी मार्ग तिराहा और चौक में रबड़ी अच्छी मिलती है. चौक में जाड़ों में मक्खन भी मिलता है, वह भी खाता हूँ. वह मक्खन घर में सबको पसन्द है. चौक के अकबरी गेट के अन्दर की तरफ हलवा की एक दुकान है जिसमें कई तरह के हलवे मिलते हैं, वो भी बहुत स्वादिष्ट होते हैं.  मीठे में मै आम रोटी ( मतलब आम के साथ रोटी ) भी खाता हूँ, गुड़ रोटी भी और चीनी रोटी भी और घी-चीनी-रोटी भी. गुड़ भी खाता हूँ और गुलगुले से भी परहेज़ नही करता, वो भी मुझे पसन्द हैं. मोटे चूरा को मीठे दही के साथ खाना भी पसन्द है. मिठाई पसन्द करने की बात लगभग सभी परिचित जानते हैं. ऐशबाग ( यहाँ की जगहों/ हलवाईयों के नाम से यहाँ के लोग परिचित होंगे ही ) में बाबूलाल हलवाई की दुकान प्रसिद्ध है. बाबूलाल ( बहुत पहले दिवंगत ) का पोता मेरा शिष्य था तो वह दुकान की ताज़ी और अच्छी मिठाई श्रद्धा और अनुरोधपूर्वक प्रस्तुत करता था. उस दुकान से मैने मिठाई खरीद कर नही खाई. नाश्ते में जलेबी और इमरती भी बहुत बढ़िया होती है. जलेबी दही के साथ खाने का चलन है मगर इसके अलावा मै दूध में भिगो कर, जब फूल जाय, भी खाता हूँ.

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बहुत मीठी मीठी बातें हो गयीं. कहीं आप लोग शीर्षक पढ़ कर यह तो नही समझे थे कि मै कुछ प्रणय सम्बन्धी मीठी मीठी बातें करने वाला हूँ. अब अगली पोस्ट में दो कड़वी बातें करूँगा.

Tuesday 14 February 2023

दो छोर !


गाड़ी पोर्टिको में रुकते रुकते एक बावर्दी अटेण्डेण्ट आ गया और दरवाज़ा खोला. हम गाड़ी से उतरे और अन्दर दाखिल हुए, पीछे से अटेण्डेण्ट हमारा सामान लेकर आया. सामान के नाम पर एक बड़ा सूटकेस भर था, एक हैण्डबैगनुमा फोल्डर था जो हम हाथ में ही लिए हुए थे. रिसेप्शन पर अपनी बुकिंग के बारे में बताया तो एक अटेण्डेण्ट साथ में चला और सामान वाला अटेण्डेण्ट सूटकेस को लगेज लिफ़्ट में लेकर चला. हमारा सुईट नम्बर 1401 था, मतलब 14वीं मंज़िल पर 1 नम्बर सुईट. वहाँ पहुँच कर पाया कि 1401 नम्बर देने की ज़रूरत ही न थी क्योंकि उस मंज़िल पर एक ही सुईट था. खैर, अटेण्डेण्ट ने सामान दाखिल किया और हम ख़ुद ही दाखिल हो गए. अन्दर अजब हाल था, इतना नामचीन होटल, हमारी बुकिंग भी थी, आने का वक़्त भी कन्फर्म था मगर वहाँ सफाई चल रही थी. हाउस कीपिंग और रिसेप्शन में तालमेल ही न था कि हमें नीचे ही रोक लेते, जब सफाई हो जाती तब ही भेजते. नाम बड़े दर्शन छोटे का भाव आया और चेक आउट का फीडबैक अभी से मन में आकार लेने लगा. एक मिनट बाद ही सफाई भी कम्पलीट हो गयी तो चारों तरफ नज़र दौड़ायी. सब ठीक था. बेड, चादर-तकिया, पर्दे, मेज़कुर्सी, सोफा सेन्टर टेबलजो जो ज़रूरी था, वो सब था. साईड टेबल पर वेलकम ड्रिंक और फल आदि थे, एक छोटा फ्रिज़ भी था. बेडरूम की एक पूरी दीवार शीशे की थीबिना बॉलकनी में जाये, कमरे के अंदर से ही बाहर का नज़ारा किया जा सकता था. दीवार के पास दो शानदार कुर्सियां और एक छोटी मेज़ पड़ी थी. ड्रिंक लेकर बैठा और चुसकते हुए बाहर का नज़ारा करने लगा. जानापहचाना नज़ारा सामने था, सआदत अली खां और मुशीरज़ादी का मकबरा हरे कालीन जैसे लॉन पर उगा सा था. वैसे भी वह बहुत मेण्टेन पार्क है, इतनी ऊँचाई से और भी खूबसूरत लग रहा था. बांयी तरफ जेमिनी होटल की बिल्डिंग और दांयी तरफ नज़र घुमाने पर बेगम हज़रत महल पार्क की छतरी और ग्लोब दिख रहा था. हज़ार बार देखा नज़ारा पहली बार देखे की तरह मोहक ! थोड़ी देर बैठा, फिर फ्रेश होकर बाहर निकला. जिस मीटिंग के लिए आया था, वह कल होनी थी सो आज वैसे भी कुछ करने को खास न था. लिफ़्ट के बगल पूरी चौड़ाई में शीशे की अपारदर्शी दीवार थी जिस पर फूल पत्ती बने थे. दीवार के पास गया कि शायद नजदीक से उस पार का कुछ दिख जाए कि शीशा सरक कर दीवार में पैबस्त हो गया. तो यह दीवार सेन्सरयुक्त दरवाज़ा थी. अमूमन ऐसे दरवाज़े बीच से दोनों तरफ सरक कर खुलते हैं किंतु यह एक ही तरफ सरक कर खुला. बाहर निकला तो उसी तरह निःशब्द सरक कर दीवार में समा गया. बाहर तो अजब नज़ारा था, जैसे दूसरे ही युग में पहुँच गया. उस पार अत्याधुनिक होटल और यह जैसे मध्ययुग का परिवेश. ऊबड़ खाबड़, अनगढ़ से पत्थरों का फर्श था, जैसा हुसैनाबाद हरिटेज ज़ोन में है. केवल फर्श ही नहीं, बाक़ी सब भी उसी से मैच करता हुआ था. लंबे चौड़े आँगन के बाद दो सीढ़ियां चढ़ कर एक मीटर चबूतरा और गुफा जैसी गोल छत वाली चौड़ी गली सी. वह गली वस्तुतः बाज़ार थी,  बीच में रास्ता और दोनों तरफ दुकानें. एक तरफ नानबाई की दुकान थी, दूसरी तरफ ममीरा की, तख़्त पर तमाम तरह के हुक्के और चिलम भी सजे हुए थे, अंदर और भी दुकानें थीं. दुकानदार भी पुराने समय जैसे. लम्बा चोगा सा पहने और सर पर पगड़ी, कमर में फेंटा सा बंधा हुआ. ग्राहक भी वैसी ही ड्रेस में आजा रहे थे. कोई चोगा पहने तो कोई अचकन. पगड़ी या लम्बी टोपी सबके सर पर थी, कुछ के सर पर बटी  हुई रस्सियों की पगड़ी थी तो वैसा ही फेंटा, जूते भी चमरौधे. सब छह फुट या उससे भी लम्बे और तगड़े थे व कोई न कोई हथियार तो सभी बांधे हुए थे. इस तरह के लोगों के बीच जींसटी शर्ट पहने मैं बेमेल लग रहा था मगर किसी का ध्यान मेरी तरफ न था. ये लोग आ-जा कहाँ से रहे थे, होटल की तरफ या नीचे तो ऐसे लोग न दिखे और न ही ऐसा परिवेश. दुकानों की तरफ पीठ की तो एक गोल छत वाली गुफा सी ( जैसा रेलवे का ओवरब्रिज का मुहाना होता है ) दिखी जिसमें सीढ़ियां नीचे को उतर रही थीं, उसी से लोग ऊपर आ रहे थे और नीचे उतर रहे थे. ये सीढ़ियां इसी मंज़िल तक थीं, इससे ऊपर जाने का कोई रास्ता न था किंतु छत बंद थी, ऊपर आसमान नहीं दिख रहा था. मैंने सोचा बड़ा जीवट है इन लोगों में जो चौदह मंज़िल चढ़उतर रहे हैं, फिर सोचा कि जिस युग के ये लग रहे हैं उसमें तो ये मीलों पैदल यात्रा किया करते रहे होंगे. उसके बगल एक और गोल छत वाली गैलरी सी दिखी जिसका दूसरा छोर नहीं दिख रहा था. उसमें आने-जाने की जगह छोड़ कर तमाम लोग लेटे-बैठे थे. उनके हाव भाव से लग रहा था कि वे सिर्फ लेटे-बैठे ही नहीं बल्कि रहते भी यहीं हैं, उनका सामान भी दिख रहा था. दांयी तरफ पूरी दीवार पारदर्शी शीशे की खिड़की थी जिससे मेट्रो स्टेशन, स्टेडियम और पुल पर पटरियां दिख रही थीं जिस पर एक ट्रेन भी आती हुई दिखी. यह देखते हुए सर चकराने लगा. यह बात कल्पना से भी परे थी कि ऐसे होटल के अंदर और चौदहवीं मंज़िल पर ये चौदहवीं सदी सा मंज़र होगा. सोचा कि फोटो खींचूँ तो जेब में न मोबाईल था और न पर्स, शायद अन्दर मेज पर ही रखा रह गया. थकान भी हो रही थी, शारीरिक से अधिक मानसिक और भूख भी लग रही थी तो सुईट में जाने को उस दीवार की तरफ गया किंतु पास जाने पर वह सरकी नहीं. शायद इधर सेंसर न लगा था, शायद इसलिए कि उधर वाला तो इधर आ सके किंतु इधर का कोई उधर न जा सके. अब तो घबराहट हुई. दरवाज़ा बीच से खुला होता तो किसी तरह खोलने की कोशिश भी करता किंतु वो तो दीवार में समाया था जहाँ कोई गैप नहीं था. दीवार पर थपकियां दीं, मुक्के भी मारे, आवाज़ें भी दीं किंतु कोई फायदा नहीं, न उधर से कोई रिस्पॉन्स और न इधर से किसी ने ध्यान दिया. हताशा में सर पकड़ कर फर्श पर बैठ गया और आंखें मुंदने लगीं, कब बेहोश होकर गिर गया, पता नहीं. जब आंख खुली या यूँ कहें कि होश आया तो सांस तेज़ तेज़ चल रही थी और शरीर पसीने से तर था जैसे मीलों दौड़ता हुआ आया होऊँ. मैं बिस्तर पर था और होटल में नहीं, अपने घर में और अपने कमरे में था.

                                                                                      तो यह सब सपना था. सपना ही होगा बल्कि सपना ही था क्योंकि कहाँ है उस होटल में ऐसी जगह. बड़ा अजीब सपना था. मगर ठहरिये, यह सपना नहीं था. फिर कुछ ऐसा हुआ जिससे इसके सपना होने पर सन्देह होने लगा, लगा कि यह सपना नहीं, कुछ तो है ऐसा हकीकत में ! हुआ ये कि बाहर से एक मित्र एक मीटिंग में आये थे तो उसी होटल में ठहरे. उनकी फ्लाईट दूसरे दिन की थी और मीटिंग से शाम को फारिग हो गये तो फोन किया और मैं मिलने गया. उनसे मिला, बातें हुईं और निकला तो उसके परिसर में ही स्थित बाज़ार में गया. लगभग हर बड़े होटल में कुछ शोरूम होते हैं जिन्हें बाज़ार का नाम दे दिया जाता है. इनमें अधिकतर सजावटी सामान, शहर का प्रतिनिधित्व करने वाली कलाकृतियां, कपड़े व कुछ ऐसा ही अल्लमगल्लम मिलता है जिसकी होटल में ठहरे लोगों को कोई खास ज़रूरत तो नहीं होती फिर भी बिक्री तो होती ही है. इनमे सामान चुनिन्दा और आला दर्ज़े का होता है जो शहर की और दुकानों पर मुश्किल से ही दिखाई देता है. दाम भी वैसे ही, होटल के स्टार दर्ज़े के अनुरूप होते हैं. मैं खरीदता तो कुछ नहीं मगर धंस लेता हूँ, विण्डो वाचिंग का शगल पूरा करने को इसमें भी धंसा मगर कुछ बदवाल सा था. पहले शीशे के दरवाज़े के पार शोरूम थे किंतु अब एक आधा फुट ऊँचा प्लेटफार्म सा था. उस पर चढ़ा तो आधे हिस्से में फिर एक दरवाज़ा और आधे में वैसा ही गोल गुफानुमा रास्ता (जैसा रेलवे के ओवरब्रिज का होता है ) था जिससे सीढ़ियां ऊपर को जाती दिख रही थीं. बाज़ार वाले हिस्से का फर्श चमकदार ग्रेनाईट का था मगर इधर का फर्श वैसा ही अनगढ़ पत्थरों का. तुरंत पहले देखासपनाकौंध गया. उन सीढ़ियों की तरफ बढ़ा कि ऊपर जाकर देखूँ किंतु साइड में एक लम्बा-तगड़ा दरबान जैसा खड़ा था. पोशाक उसकी वैसी ही थी जैसी ऊपर लोगों की देखी थी, उसकी कमर में तलवार बंधी थी और हाथ में एक सोंटा था. मुझे सीढ़ियों की तरफ बढ़ता देख उसने नामालूम किस भाषा और लहज़े में कुछ कहा जो मुझे बिल्कुल समझ न आया. मैं और आगे बढ़ा और उससे ऊपर के बारे में पूछा किंतु वह जाने क्या समझा कि सोंटा उठा कर मुझे रोकने का उपक्रम किया. इस उपक्रम में सोंटा मेरे माथे से छू गया और पीड़ा की लहर के साथ बिजली सी बदन में पैबस्त होती हुई महसूस हुई, मेरे घुटने मुड़े और मैं गिर गया.

                                                    होश आया तो अस्पताल में था. घर वाले और वह दोस्त मेरे पास थे. पता चला कि मुझे बाज़ार के पास बेहोश होकर गिरता देख कर वहाँ के स्टाफ ने होटल में पता किया. रिसेप्शन वाला पहचान गया, मैंने उसी से उस दोस्त का रूम पूछा था. उसने दोस्त को बताया और दोस्त ने घरवालों को और मुझे अस्पताल में दिखाया. पता चला कि मैं लगभग बारह घण्टे बेहोश रहा. चोट तो कोई नहीं थी किंतु बेहोश तो रहा ही. डॉक्टर ने घरवालों से मेडिकल हिस्ट्री पूछी और फिर मुझसे भी. वाकया बयान करने पर डॉक्टर ने किसी मनोचिकित्सक को दिखाने की राय दी, एक को रेफर भी किया. डॉक्टर और बाक़ी सबने बताया कि उस होटल तो क्या, शहर भर में और आस पास कोई ऐसी जगह नहीं. अस्पताल से छुट्टी होने पर घर वालों के साथ फिर उस होटल और बाज़ार गया, ऊपर फ़लकनुमा तक गया, परिसर में स्थित बाज़ार में गया किंतु कहीं कुछ वैसा नहीं, सब कुछ सामान्य और पहले जैसा ही था. समझ में नहीं आता कि क्या था ये. अभी मनोचिकित्सक से इलाज चल रहा है और कुछ कुछ विश्वास हो चला है कि यह सब मेरे मन की उपज थी किंन्तु चलो पहले वाला सपना था मगर बाज़ार के पास वाला तो जागते में था. उसके गवाह भी थे कि मैं होटल, फिर बाज़ार गया और वहीं बेहोश हुआक्यों बेहोश हुआ होऊँगा भला ! आप में से जो यहाँ के हैं वे बतायें कि क्या है ऐसी कोई जगह, उस होटल में या लखनऊ में कहीं और !