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Monday 5 December 2022

एपनवारी !

 


एपनवारी !

बारात दुआरे लगने वाली ही है. ‘लगने वाली हैहै तो आधे घण्टे से देख रहे हैं. सामने ही तो दिख रही है, थोड़ाथोड़ा सरक भी रही है किंतु अब तक दुआरे नहीं लगी और कह नहीं सकते कि कितनी देर में लगेगी. उधर के भी कुछ लोग उकता रहे हैं और इधर के तो अधिकांश ही. लड़की का बाप कंधे पर मिलनी का शाल डाले, हाथ में माला लिए और जेब में समधी के लिए समधौरा हेतु नेग का सामान लिए खड़ा है. उसके अगलबगल अन्य गणमान्य रिश्तेदार व घनिष्ठ मित्र उसी की तरह शालमाला लिए खड़े हैं, महिलाओं का हुजूम भी है जो बारात में आने वाली महिलाओं के स्वागतार्थ फूलमाला व उपहार लिए खड़ी हैं किंतु बारात है कि सामने तो दिख रही है किंतु हिल कर नहीं दे रही और आधापौन घण्टा तक उसके दुआरे लगने की सम्भावना भी नहीं. ऐसा इसलिए कि बारात हैकाहे की ज़ल्दी ! सब नाचते हुए आ रहे हैं. थोड़ीथोड़ी देर में रुकरुक कर नाचने लगते हैं और जब बारात चलती है तो कुछ नृत्यवीर नाचते हुए भी चलते/ चलते हुए भी नाचते हैं. नाच तो बारात उठने के समय से ही रहे थे मगर अब जबकि स्वागत द्वार सामने दिख रहा है तो नृत्यकला और क्षमता के सारे आयाम पेश करने हैं. अब वह नाच है या उलरफांद, जो भी है, हो रहा है और वधू पक्ष व वर पक्ष के कुछ लोगों के सामने सहन करने व प्रतीक्षा के अलावा कोई चारा नहीं. वधू पक्ष वाले खड़ेखड़े थक गये हैं, कभी इस टांग पर ज़ोर डालते हैं, कभी उस टांग पर. हट कर सुस्ता भी नहीं सकते. तमाम बेबियां और शोना-बाबू टाईप लोग नाच रहे हैं और वर पक्ष वाला मन ही मन भुनभुना रहा है पर मुखमण्डल पर मुस्कान चस्पा किए है, जी भर के नाच ले बेबी, नाचनाच के तोड़ दे सैण्डल…’  तो उधर का घोष  है,जिसको डांस नहीं करना वो जा के अपनी भैंस चराये … ‘ कवि कहना तो कुछ और ही चाहता है, किंतु शालीनता (वि)वशभैंस चरायेकह रहा है. लोग वही समझ भी रहे हैं और मन ही मन वही उचार रहे हैं. बहारों फूल बरसाओ से लेकर आज मेरे यार की शादी हैतक हो चुका, पता नहीं ये देश है वीर जवानों कापर भांगड़ानुमा कुछ हो चुका या नहीं, बारात संहिता का अनिवार्य नाचनागिन डांस हो चुका या अब होगाहो भी चुका होगा तो दुआरे तो फिर से ज़रुर ही होगा. बारातों में कम सेप्टेम्बर की धुन और मुझे दुनिया वालों शराबी न समझो, ‘डम डम डिगा डिगाअब आउटडेटेड हो चुकी है, इन पर कमर तोड़ नाचने वाले भी अब बुढ़ा कर भुनभुनाने वालों में शामिल हो गये हैंअब न रहे वो पीने वाले, अब न रही वो मधुशालामधुशाला से याद आया कि डांस का ये ज़ोर कुछ लोगों में तो उसी कुछ ml के तड़के से है और कुछ बारात में शामिलबेबियोंके नाचने से ! अब आत्मनिर्भरता का युग है, पहले बारात आदि में और सड़कपण्डाल में नाचने के लिए नाचनेवालियां बुलायी जाती थीं, अब लोग उनके भरोसे नहीं. अब घर के लड़के, बहूबेटियां सड़क पर भी नाच लेती हैं और लड़की वालों के सामने डी.जे. की धुन पर भी.

खैर, आख़िर तो बारात को दुआरे लगना ही था, सो लगी और यथायोग्य मिलनी के तुरन्त बाद साले टाईप के कुछ लोग दूल्हे को टांग कर द्वारचार स्थल पर ले गये, साथ में समधी व अन्य घनिष्ठ लोग आये और बाक़ी लोग भोजन स्थल की ओर सिधारे और मैं पहले से भी पहले का चिंतन करने लगा. पहले बारातों में गोला दगाने (सुतली वाला या किसी और तरह का बड़ा और तेज़ आवाज़ करने वाला बम, वो बम नहीं पटाखा/ पड़ाका )की प्रथा थी.  जब बारात दूर पर होती थी या जनवासे से निकलने वाली होती थी तो गोला दगा कर सूचना दी जाती थी कि बारात अब प्रस्थान करने को है. तब ट्रैफिक वगैरह का इतना शोर नहीं होता था तो गोला की आवाज़ लड़की वालों तक पहुँच जाती थी और वे तत्पर हो जाते थे. गोला व अन्य आतिशबाजी वगैरह दूल्हा का जीजा / बहनोई या फूफा लाता था, अब तो अधिकांशतः वर के परिवारीजन ही यह व्यवस्था करते हैं और यह छुड़ाने / दगाने का काम आतिशबाज करता है. अब गोला दगा कर सूचना तो भेज दी किंतु लड़की वालों तक पहुँची कि नहीं या पहुँची तो वे लोग तैयार हैं, इसकी भी पुष्टि होनी ज़रूरी है तो इसके लिए एक रस्म होती हैतेलवारा’. इसमें कन्या पक्ष का नाऊ या जीजा/ फूफा ( मतलब मान्य रिश्तेदार ) एक बड़े कटोरे में सरसों का तेल भरकर और उसमें एक सिक्का डाल कर जनवासे ले जाता था और वर पक्ष के सुपुर्द करता था. कटोरा फूल/ पीतल/ चाँदी का होता था और सिक्का भी चाँदी का या चलन में जो एक रुपये का हो, वह डाला जाता था. वर पक्ष तेलवारा लाने वाले को यथायोग्य नेग देता था. तेलवारा एक प्रकार से पुष्टिकारी निमन्त्रण होता था बारात लाने का.

तेलवारा के बाद वर पक्ष से नाऊ या जीजा/फूफाएपनवारीलेकर जाता था जो एक प्रकार से विवाह का सूचनापत्र होता था, पुष्टि कि अब हम लोग बारात लेकर आ रहे हैं. एपनवारी लेकर आने वाले को कन्या पक्ष यथायोग्य नेग देता था. चूँकि एपनवारी वर पक्ष का नाऊ लेकर आता था इसलिए नेग भी बढ़िया दिया जाता था. एपनवारी से याद आते हैं सुविख्यात रूपन बारी, जो महोबा वीरोंआल्हा-ऊदल, मलखान, ढेवा, जागन, भयंकर राय, जगजीत, विजयपाल सिंह आदि वीरों के विवाह की एपनवारी लेकर गये और मुहमांगा नेग लेकर लौटे. रूपन बारी स्वयं भी बहुत वीर थे और धौलगढ़ के राजा मान सिंह की पुत्री, त्रिवेणी कुँवरि, के साथ इनका विवाह ( उसी प्रसिद्ध महोबा रीति के अनुसारविकट युद्ध करके ) हुआ था. ये लगभग सभी लड़ाईयों में आल्हा-ऊदल और साथियों की तरफ से लड़े थे. रूपन बारी की याद इसलिए कि इनकी एपनवारी ले जाने के नखरे / ठाट/ शर्तें ही निराली थीं और सब इनकी मानते भी थे. जिसकी शादी की एपनवारी लेकर जाते, उसी का घोड़ा, पगड़ी, तलवार आदि धारण करके ठाट से जाते थे. जब लड़की वालों के द्वार पर एपनवारी देते तो मुहमांगा नेग मांगते. नेग भी क्या मांगते, चार घड़ी भर चले सिरोही, औ बहि चले रकत की धार ( चार घड़ी तक तलवारें चलें, ऐसा युद्ध हो कि रक्त की धार बह चले ) अबबड़े लड़ैया महुबे वाले जिनसे हार गयी तरवारिके रूप में प्रसिद्ध लोग जहाँ शादी करने जाते थे वे लोग भी ऐसेवैसे न होते थे, वे भी वीर और लड़ने को तैयार ही रहते थे और रूपन बारी के बारे में सुन भी रखा होता था तो उसी तरह से तैयार रहते थे तो मुहमांगा नेग दिया जाता. उधर के लोग तलवार निकाल कर टूट पड़ते, जम कर लड़ाई होती. उधर कई लोग और इधर से अकेला रूपन बारी ! मगर वो लड़ताभिड़ता, सबको लहूलुहान करता अपने खेमें में बिना कोई घाव खाये लौट आता. उसका रिकार्ड था कि जितनी एपनवारी लेकर गया, यही नेग मांगा और ख़ुद बिना कोई घाव खाये सबको घायल करके लौटा. बाद में भी द्वारचार से विवाह, पंगत और विदाई तक मार काट होती ही रहती थी. गनीमत कि वोवीरगाथा कालखतम हो गया, बहुत शादियों से तेलवारा और एपनवारी जैसी रस्में भी या तो खतम हो गयीं या फिर रस्मन बस निभा भर ली जाती हैं. 

इस एपनवारी, रूपन बारी और महोबा के वीरों और लड़ाईयों की चाहे जितनी गाथा गायी जाये, जितना सराहे जायें, जितना इन पर गर्व किया जाय किंतु यह वीरता से अधिक घमण्ड था, असभ्यता थी और दूसरे को कुछ न समझने की प्रवृत्ति थी, ये लोग बिना बात ही लड़ने को उतारू रहते थे और विवाह जैसे कार्य में, जिसमें एक कुल और लड़की से जीवन भर का सम्बन्ध जुड़ता हैपारस्परिक सद्भाव और प्रेम के बजाय हिंसक लड़ाई करते, रक्तपात करते, पगपग पर अपमानित करते. किसी ने शत्रुता करने जैसा कुछ किया हो, युद्ध करने जा रहे हों तो जम कर लड़ें, प्रेमपूर्वक लड़ें किंतु यह क्याजिसे प्रेम का नाता जोड़ने जा रहे हैं उससे अकारण और छेड़छेड़ कर लड़ाई. वो लड़की, जो व्याह कर आती होगी, क्या इनसे प्रेम कर पाती होगी, सहज रह पाती होगी या सम्मान करती होगी जिन्होंने उसके पिता, भाई व अन्य सम्बन्धियों से अकारण / दर्प में रक्तपात किया. या फिर वह भी ऐसी ही हो चुकी होगी, सब ऐसे हो चुके होंगे कि लड़ाई के बिना आनंद ही न आता होगा. लड़ासे तो ऐसे रहते थे और कुख्यात भी थे कि एक विवाह में शर्त ही रख दी गयी कि सब निःशस्त्र आयेंगे. ये निहत्थे गये भी किंतु जेवनार के समय बैठने के लिए दिये गये पीढ़ों से ही मार काट शुरू कर दी. वैसे आल्हा वीरगाथा काल का लोक काव्य है जिसमें इतिहास के साथ अतिशयोक्ति का भयंकर घालमेल है. ऐसीऐसी छोड़ी गयी है कि लपेटते नहीं बनता, तिकल्ला क्यागुल्ला और चरखी भी न लपेट पायें. युद्ध ही नहीं, और कामों में भी महोबा वाले अजेय बताये गये हैं. एक बानगी देखें,

                      भारी चमचा गढ़ महुबे का जेहिमा नौ मन दाल समाय।

                        बड़े  खवैया  महुबे  वाले  चमचा डेढ़  डेढ़  सौ  खांय॥

बारात का बखान होते होते विषयांतर हो गया, बात बारात की रस्म एपनवारी से रूपन बारी की एपनवारी और विकट नेग तक फिर इस पर विमर्श तक पहुँची. अभी सहालग चल रही है, इस गाथा के पूर्वार्ध का अनुभव करना हो तो किसी शादी में लड़की वालों की तरफ से शामिल हों और बारात आने के पहले पहुँचें, औरआल्ह खण्डकाव्य में रुचि हो तो जगनिक लिखित इस काव्य का आस्वादन करें. इस पर टीका व सरल गद्य में अनुवाद भी मिल जायेगा (युनिवर्सल कपूरथला में )  और मूल ( संगीत नाटक अकादमी के पुस्तकालय मेंखरीदने को नहीं, वहीं पढ़ने को ) भी मिल जायेगा. अन्य जगह भी मिल सकता है किंतु पक्की जानकारी मुझे इन्हीं दो जगहों की है.

 

Tuesday 20 September 2022

लिमिटेड एडिशन फाउण्टेन पेन, फाउण्टेन पेन और गांधी जी.

 









माण्ट ब्लैंक (Montblanc) ने जब 'Mahatma Gandhi Limited Edition-241' फाउण्टेन पेन लॉंच किया तब भी मेरा ध्यान इसकी विसंगति पर गया था और आज एक आलेख पढ़ने के बाद तो विसंगति और भी लगने लगी. विसंगति इसलिए महसूस हुई कि Montblanc के फाउण्टेन पेन ( अन्य आईटम भी ) वैसे ही बहुत महँगे होते हैं और इस विशिष्ट संस्करण के पेन तो बहुत ही महँगे थे, प्रत्येक पेन Rs 11.30 लाख रुपये का. गांधी जी सादा जीवन के हिमायती रहे, विलासिता से दूर, ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आधारित वस्तुओं का उपयोग करने वाले, मितव्ययी और विडम्बना यह कि उनके नाम पर और  उनको समर्पित यह पेन इतना महँगा इतना कि फाउण्टेन पेन के शौक़ीन और इस कम्पनी के पेन इस्तेमाल करने वाले लोग भी इसे खरीद सकें. इसे खरीदना पेन के शौक़ीनों/ संग्राहकों के बस की बात नहीं बल्कि ऐसे उत्पाद एक स्टेटस सिंबल और अपनी अमीरी दिखाने, अपने को विशिष्ट दिखाने के लिए धनकुबेरों द्वारा खरीदे जाते हैं. अब खरीदने के बाद इसे वे जेब में लगाये ही रखते हैं या हस्ताक्षर वगैरह करने के अलावा एक-आध पेज कभी लिखते भी हैं ये तो वे ही जानें ! ऐसे पेन भी गहनों की ही तरह धन के प्रदर्शन की ही वस्तु होते हैं. गांधी जी को समर्पित और उनके नाम पर अत्याधिक महँगा ये ये पेन और सादगी पसंद गांधी जी इस विडम्बना के साथ एक और विडम्बना भी है, वह यह कि गांधी जी फाउण्टेन पेन पसंद ही नहीं करते थे, ऐसे में फाउण्टेन पेन के साथ गांधी जी को जोड़ना विडम्बना ही कही जाएगी.

फाउण्टेन पेन और गांधी जी पर बात करने से पहले इस सीरीज के पेन के बारे में कुछ और बात ! इस सीरीज के पेन की बॉडी व्हाईट गोल्ड  से बनी है और इंक भरने के लिए पिस्टन भी  ठोस व्हाईट गोल्ड से बना है ( इंक के बारे में कोई निर्देश नहीं है, कोई भी भर सकते हैं ) . इसके साथ ही एक और सीरीज लांच की गयी  Mahatma Gandhi Limited Edition 3000—जिसके प्रत्येक पेन की कीमत Rs 1.67 लाख थी. इस सीरीज में  3000 फाउण्टेन पेन और 3000 रोलर बॉल पेन उत्पादित किये गये.

इस प्रकार के वैभवशाली / अत्याधिक महँगे पेन गांधी जी के नाम पर लांच किये गये जो कि ग़रीबों के साथ थे और उन्हीं की तरह का आडम्बरहीन जीवन जीते थे. इस विरोधाभास के कारण इसी मुद्दे पर केरल हाईकोर्ट में Violation of the Emblems and Names (Prevention of Improper Use) Act of 1950 के अंर्तगत वाद भी दायर किया गया. यह गांधी जी का नाम और चित्र एक ऐसी वस्तु से संबद्ध करने के विरोध में था जिसकी कीमत लाखों में थी. ( पता नहीं इस मुकदमे का क्या हुआ ? )

भारत में भी गांधी जी का नाम, चित्र और उनके विचार बहुत से निर्माता अपने उत्पादों पर प्रयोग करते हैं एक प्रकार से अपना माल बेचने के लिए गांधी जी और उनसे जुड़ी चीज़ों और विचारों को अपना मॉडल बना कर रख दिया है. आदित्य बिरला समूह’ Eternal Gandhi ( शाश्वत गांधी ) नाम से स्टेशनरी, शो-पीस, डायरी, पर्स ( अभिजात्य वर्ग में इन्हें वॉलेट कहने की प्रथा है ) आदि बेचता है, इनमें पेन सेट ( फाउण्टेन और बॉल पेन ) तथा कई केटेगरी के रोलर बॉल पेन भी हैं किंतु ये इतने महँगे नहीं हैं, बल्कि फाउण्टेन पेन के शौक़ीन / उपभोक्ता वर्ग के हिसाब से सामान्य कीमत ( Rs. 3350/-,  MOP Pen Set – एक फाउण्टेन और एक बॉल पेन ) ही है. सम्भवत इतनी कम कीमत के कारण ही इन पेन पर गांधी जी का नाम और चित्र होने पर भी कोई विवाद नहीं हुआ. 

गांधी जी बहुत लिखते थे, शायद अपने समकालीनों में सबसे अधिक, किंतु वे फाउण्टेन पेन से लिखना पसंद नहीं करते थे. उसके बजाय वे नरकुल वाले पेन (Reed Pens) का प्रयोग करते थे. यहाँ एक तथ्य और उल्लेखनीय है कि नरकुल / सेठा वाले पेन (Reed Pens) से उनका आशय डिप पेनसे था. Reed Pens नरकुल (वनस्पति) की डण्डियां होती हैं जिनमे चाकू से नोक बनायी जाती है जबकि डिप पेनया होल्डर पेनके नाम से प्रचलित पेन में बॉडी लकड़ी/प्लास्टिक/ धातु की होती है, इनमें खांचा होता है जिसमें निब फंसाई जाती है. दोनों ही प्रकार के पेन में इंक भरने की व्यवस्था नहीं होती, उन्हें इंक में डुबो कर लिखा जाता है, तो चाहे सेठे का पेन हो या होल्डर दोनों ही डिप पेनहैं. एक बार डुबोने पर चार-छह लाईनें ही लिखने भर की रोशनाई आती है अतः कुछ देर के बाद इन्हें फिर रोशनाई में डुबाना होता है. स्पष्ट है, लिखने के लिए पास में रोशनाई की दवात साथ होनी चाहिए. घर या कार्यालय के लिए तो ठीक किंतु यात्रा आदि में लिखने में दवात भी साथ रखना असुविधाजनक होता है.

उनका डिप पेनसे लिखने का आग्रह पत्रों में व्यक्त हुआ है.  20 मार्च, 1932 को परसराम मेहरोत्रा को लिखे एक पत्र में उन्होंने कहा है,

“… लड़कियों को फाउण्टेन पेन का प्रयोग करने की कतई ज़रूरत नहीं है, बल्कि मैं तो कहता हूँ कि आश्रम में किसी को भी फाउण्टेन पेन प्रयोग नहीं करना चाहिए. हर एक को इतनी ज़ल्दी क्यों है ? विद्यार्थियों के लिए तो इनका प्रयोग नुकसानदेह है. यह reed-pen गुजराती, हिन्दी, उर्दू और अन्य भारतीय लिपियों के लिए सबसे अच्छे हैं … “

इससे राईटिंग अच्छी होती है ( और यह सही भी है, मैंने सेठा और होल्डर दोनों तरह के पेन से लिखा है. सेठा के कलम से तो बस प्रारम्भिक कक्षा में कुछ ही माह किंतु होल्डर पेन से बहुत दिन तक )

फाउण्टेन पेन का प्रयोग करने और उसके विकल्प के रूप में डिप पेनका प्रयोग करने के प्रति गांधी अन्य बहुत सी बातों की तरह दुराग्रही थे. व्यक्तिगत रूप से फाउण्टेन पेन उन्हें नापसंद था इसलिए फाउण्टेन पेन की उपयोगिता को स्वीकर करते हुए भी उनका आग्रह उसे इस्तेमाल करने और उसके स्थान पर डिप पेनका इस्तेमाल करने को कहा. यह दुराग्रह उनके एक लेख से भी प्रकट होता है.

1937 में महादेव देसाई को प्रभुदास गांधी ने एक पत्र लिखा जिसमें उनके ( महादेव देसाई के ) फाउण्टेन पेन इस्तेमाल करने ( ज्ञातव्य है, महादेव देसाई फाउण्टेन पेन इस्तेमाल करते थे ) पर सलाह थी, 

“ … कुछ समय पहले एक लेख, ‘Wanted Rural-mindedness’ में आपको फाउण्टेन पेन के बजाय डिप पेन’ (reed-pen ) का इस्तेमाल करने की संस्तुति की गयी थी. यह सही है कि reed-pen से जो मैटर तीन घण्टे में कॉपी किया जाता है, वही मैटर फाउण्टेन पेन से डेढ़ घण्टे में किया जा सकता है ((1) It took three hours to copy out matter, using a reed-pen, that could be done with the fountain-pen in one hour and a half )

नरकुल पेन से लिखने पर थोड़ी थोड़ी देर में चाकू से उसकी नोक बनानी होती है जिसमें एक आलेख की नकल करने पर पंद्रह मिनट से लेकर पौन घण्टा तक समय बरबाद होता है… )

महादेव देसाई द्वारा फाउण्टेन पेन इस्तेमाल किये जाने से गांधी जी खिन्न रहते थे किंतु उनकी ( महादेव देसाई ) उनके सचिव / लेखक / नकल नवीस थे अतः वे इसको सहन करते थे. यह बात उन्होंने अक्टूबर, 1938 को लीलावती असार (Lilavati Asar )  को लिखे पत्र में स्वीकार की है,

 “… और मैं महादेव के फाउण्टेन पेन से लिखने के उदाहरण का अनुसरण नहीं कर सकता. मैं महादेव का फाउण्तेन पेन से लिखना इसलिए सहन करता हूँ कि वे मेरे सचिव और लेखक हैं. आप सचिव और लेखक नहीं हैं और ही होने जा रही हैं तो मैं आपका फाउण्टेन पेन से लिखना सहन नहीं कर सकता … “

स्पष्ट है कि यह व्यक्तिगत कारणों से उनका दुराग्रह ही था कि कोई फाउण्टेन पेन से लिखे किंतु सुविधा और अपक्षाकृत कम ( लगभग आधे ) समय में लिखे जा सकने के गुण के कारण उन्होंने महादेव देसाई के सम्बन्ध में अपने दुराग्रह को ताक पर रख दिया. इतना ही नहीं, इसी सुविधा की दृष्टि से उन्होंने यदा कदा कलपते हुएफाउण्टेन पेन इस्तेमाल ( संभवतः विदेश यात्रा में ) भी किया.

जनवरी 1939 को Maurice Frydman के साथ चर्चा करते हुए उन्होंने कहा ,

 “ … मैं फिर कहता हूँ कि मैं फाउण्टेन पेन को नापसंद करता हूँ किंतु इस समय मैं इसका इस्तेमाल कर रहा हूँ, यद्यपि मेरे संदूक में एक डिप पेनहै. मैं जब भी फाउण्टेन पेन इस्तेमाल करता हूँ, हर बार मैं उस डिप पेनके बारे में सोचता हूँ जो मेरे सन्दूक में उपेक्षित पड़ा है… “

जो भी हो, उन्होंने विवशता में महादेव देसाई का फाउण्टेन पेन इस्तेमाल करना सहन किया और स्वयं का भी किंतु ग्राम व्यवस्था पर आधारित होने सस्ता होने के कारण उनकी प्राथमिकता नरकुल पेन और डिप पेन ही रहे.

28 अप्रैल, 1947 को ‘Advice to Students’, शीर्षक लेख में उन्होंने 8 बिंदुओं पर सलाह दी जिसमें से आठवें बिंदु में उन्होंने कहा,

“ … पेन होल्डर और इंक ( डिप पेन ) से लिखना सीखो क्योंकि इंक दो आना की आती है जबकि फाउण्टेन पेन का दाम Rs. 50.82 है… “

( गांधी जी अच्छे वाले पेन का दाम बता रहे होंगे क्योंकि विद्यार्थियों के लिखने वाला प्रारम्भिक फाउण्टेन पेन 1970 में दस रुपये से भी कम में आता था, यदि इतना महँगा होता तो तब मैं तो खरीद ही पाता )

अपने सम्पर्क के लगभग सभी लोगों से उन्होंने पत्र और बातचीत में इस विषय पर चर्चा की फाउण्टेन पेन से लिखने का निर्देश भी किया. सभी पत्रों और बातचीत के अंश भी दिये जाएं तो पोस्ट बहुत लंबी और नीरस हो जाएगी अस्तु इस चर्चा को यहीं विराम दे रहा हूँ.जिन्हें अधिक रुचि और उत्सुकता हो, वे रूपा पब्लिकेशनसे प्रकाशित हुई है, ‘Inked in India’ किताब पढ़ें जिसके लेखक हैं Bibek Debroy और Sovan Roy.

इस पोस्ट के साथ कुछ चित्र भी चस्पा हैं. एक उस ‘Mahatma Gandhi Limited Edition-241' की विज्ञापन होर्डिंग का चित्र है, एक उसे लांच करते हुए तुषार गांधी का है, एक उस पेन का है और दो निब के हैं. इसके साथ एक चित्र आदित्य बिरला ग्रुपके Eternal Gandhi ( शाश्वत गांधी ) के अंर्तगत MOP Pen Set – एक फाउण्टेन और एक बॉल पेन, का है जिस पर गांधी जी उकेरे गये हैं. चूंकि उसकी भी चर्चा इस पोस्ट में की है अतः उसका भी चित्र दे दिया. ये चित्र सन्दर्भित किताब पर आधारित आलेख के साथ नही दिये थे, इन्हें  Mont blanc और Eternal Gandhi की साइट से टीपा है.