एपनवारी
!
बारात दुआरे लगने
वाली ही है. ‘लगने वाली है’ है
तो आधे घण्टे से देख रहे हैं. सामने ही तो दिख रही है,
थोड़ा – थोड़ा सरक भी रही है किंतु अब तक दुआरे नहीं
लगी और कह नहीं सकते कि कितनी देर में लगेगी. उधर के भी कुछ लोग
उकता रहे हैं और इधर के तो अधिकांश ही. लड़की का बाप कंधे पर मिलनी
का शाल डाले, हाथ में माला लिए और जेब में समधी के लिए समधौरा
हेतु नेग का सामान लिए खड़ा है. उसके अगल – बगल अन्य गणमान्य रिश्तेदार व घनिष्ठ मित्र उसी की तरह शाल – माला लिए खड़े हैं, महिलाओं का हुजूम भी है जो बारात में
आने वाली महिलाओं के स्वागतार्थ फूल – माला व उपहार लिए खड़ी हैं
किंतु बारात है कि सामने तो दिख रही है किंतु हिल कर नहीं दे रही और आधा – पौन घण्टा तक उसके दुआरे लगने की सम्भावना भी नहीं. ऐसा
इसलिए कि बारात है – काहे की ज़ल्दी ! सब
नाचते हुए आ रहे हैं. थोड़ी – थोड़ी देर में
रुक – रुक कर नाचने लगते हैं और जब बारात चलती है तो कुछ नृत्यवीर
नाचते हुए भी चलते/ चलते हुए भी नाचते हैं. नाच तो बारात उठने के समय से ही रहे थे मगर अब जबकि स्वागत द्वार सामने दिख
रहा है तो नृत्यकला और क्षमता के सारे आयाम पेश करने हैं. अब
वह नाच है या उलरफांद, जो भी है, हो रहा
है और वधू पक्ष व वर पक्ष के कुछ लोगों के सामने सहन करने व प्रतीक्षा के अलावा कोई
चारा नहीं. वधू पक्ष वाले खड़े – खड़े थक
गये हैं, कभी इस टांग पर ज़ोर डालते हैं, कभी उस टांग पर. हट कर सुस्ता भी नहीं सकते. तमाम बेबियां और शोना-बाबू टाईप लोग नाच रहे हैं और वर
पक्ष वाला मन ही मन भुनभुना रहा है पर मुखमण्डल पर मुस्कान चस्पा किए है, ‘
जी भर के नाच ले बेबी, नाच – नाच के तोड़ दे सैण्डल…’
तो उधर का घोष
है, ‘जिसको डांस नहीं करना वो जा
के अपनी भैंस चराये … ‘ कवि कहना तो कुछ और ही चाहता
है, किंतु शालीनता (वि)वश ‘भैंस चराये’ कह रहा है.
लोग वही समझ भी रहे हैं और मन ही मन वही उचार रहे हैं. ‘बहारों फूल बरसाओ’ से लेकर ‘आज मेरे यार की शादी है’ तक हो चुका,
पता नहीं ‘ये देश है वीर जवानों का’ पर भांगड़ानुमा कुछ हो चुका या नहीं, बारात संहिता
का अनिवार्य नाच ‘नागिन डांस’ हो
चुका या अब होगा – हो भी चुका होगा तो दुआरे तो फिर से ज़रुर ही
होगा. बारातों में ‘कम सेप्टेम्बर’
की धुन और ‘मुझे दुनिया वालों शराबी न समझो,
‘डम डम डिगा डिगा’ … अब आउटडेटेड हो चुकी
है, इन पर कमर तोड़ नाचने वाले भी अब बुढ़ा कर भुनभुनाने वालों
में शामिल हो गये हैं – ‘अब न रहे वो पीने वाले,
अब न रही वो मधुशाला…’ मधुशाला से याद
आया कि डांस का ये ज़ोर कुछ लोगों में तो उसी कुछ ml के तड़के से
है और कुछ बारात में शामिल ‘बेबियों’ के
नाचने से ! अब आत्मनिर्भरता का युग है, पहले बारात आदि में और सड़क – पण्डाल में नाचने के लिए
नाचनेवालियां बुलायी जाती थीं, अब लोग उनके भरोसे नहीं.
अब घर के लड़के, बहू – बेटियां
सड़क पर भी नाच लेती हैं और लड़की वालों के सामने डी.जे.
की धुन पर भी.
खैर,
आख़िर तो बारात को दुआरे लगना ही था, सो लगी और
यथायोग्य मिलनी के तुरन्त बाद साले टाईप के कुछ लोग दूल्हे को टांग कर द्वारचार स्थल
पर ले गये, साथ में समधी व अन्य घनिष्ठ लोग आये और बाक़ी लोग भोजन
स्थल की ओर सिधारे और मैं पहले से भी पहले का चिंतन करने लगा. पहले बारातों में गोला दगाने (सुतली वाला या किसी और
तरह का बड़ा और तेज़ आवाज़ करने वाला बम, वो बम नहीं पटाखा/
पड़ाका )की प्रथा थी. जब बारात दूर पर होती थी या जनवासे
से निकलने वाली होती थी तो गोला दगा कर सूचना दी जाती थी कि बारात अब प्रस्थान करने
को है. तब ट्रैफिक वगैरह का इतना शोर नहीं होता था तो गोला की
आवाज़ लड़की वालों तक पहुँच जाती थी और वे तत्पर हो जाते थे. गोला
व अन्य आतिशबाजी वगैरह दूल्हा का जीजा / बहनोई या फूफा लाता था,
अब तो अधिकांशतः वर के परिवारीजन ही यह व्यवस्था करते हैं और यह छुड़ाने
/ दगाने का काम आतिशबाज करता है. अब गोला दगा कर
सूचना तो भेज दी किंतु लड़की वालों तक पहुँची कि नहीं या पहुँची तो वे लोग तैयार हैं,
इसकी भी पुष्टि होनी ज़रूरी है तो इसके लिए एक रस्म होती है ‘तेलवारा’. इसमें कन्या पक्ष का नाऊ या जीजा/ फूफा ( मतलब मान्य रिश्तेदार ) एक बड़े कटोरे में सरसों का तेल भरकर और उसमें एक सिक्का डाल कर जनवासे ले जाता
था और वर पक्ष के सुपुर्द करता था. कटोरा फूल/ पीतल/ चाँदी का होता था और सिक्का भी चाँदी का या चलन
में जो एक रुपये का हो, वह डाला जाता था. वर पक्ष तेलवारा लाने वाले को यथायोग्य नेग देता था. तेलवारा एक प्रकार से पुष्टिकारी निमन्त्रण होता था बारात लाने का.
तेलवारा के बाद वर
पक्ष से नाऊ या जीजा/फूफा ‘एपनवारी’ लेकर जाता था जो एक प्रकार से विवाह का
सूचनापत्र होता था, पुष्टि कि अब हम लोग बारात लेकर आ रहे
हैं. एपनवारी लेकर आने वाले को कन्या पक्ष यथायोग्य नेग देता था. चूँकि एपनवारी वर पक्ष का नाऊ लेकर आता था इसलिए नेग भी बढ़िया दिया जाता था.
एपनवारी से याद आते हैं सुविख्यात रूपन बारी, जो
महोबा वीरों – आल्हा-ऊदल, मलखान, ढेवा, जागन, भयंकर राय, जगजीत, विजयपाल सिंह
आदि वीरों के विवाह की एपनवारी लेकर गये और मुहमांगा नेग लेकर लौटे. रूपन बारी स्वयं भी बहुत वीर थे और धौलगढ़ के राजा मान सिंह की पुत्री,
त्रिवेणी कुँवरि, के साथ इनका विवाह ( उसी प्रसिद्ध महोबा रीति के अनुसार – विकट युद्ध करके
) हुआ था. ये लगभग सभी लड़ाईयों में आल्हा-ऊदल और साथियों की तरफ से लड़े थे. रूपन बारी की याद इसलिए
कि इनकी एपनवारी ले जाने के नखरे / ठाट/ शर्तें ही निराली थीं और सब इनकी मानते भी थे. जिसकी
शादी की एपनवारी लेकर जाते, उसी का घोड़ा, पगड़ी, तलवार आदि धारण करके ठाट से जाते थे. जब लड़की वालों के द्वार पर एपनवारी देते तो मुहमांगा नेग मांगते. नेग भी क्या मांगते, “चार घड़ी भर चले सिरोही,
औ बहि चले रकत की धार” ( चार घड़ी तक तलवारें
चलें, ऐसा युद्ध हो कि रक्त की धार बह चले ) अब ‘बड़े लड़ैया महुबे वाले जिनसे हार गयी तरवारि’
के रूप में प्रसिद्ध लोग जहाँ शादी करने जाते थे वे लोग भी ऐसे
– वैसे न होते थे, वे भी वीर और लड़ने को तैयार
ही रहते थे और रूपन बारी के बारे में सुन भी रखा होता था तो उसी तरह से तैयार रहते
थे तो मुहमांगा नेग दिया जाता. उधर के लोग तलवार निकाल कर टूट
पड़ते, जम कर लड़ाई होती. उधर कई लोग और इधर
से अकेला रूपन बारी ! मगर वो लड़ता – भिड़ता,
सबको लहूलुहान करता अपने खेमें में बिना कोई घाव खाये लौट आता.
उसका रिकार्ड था कि जितनी एपनवारी लेकर गया, यही
नेग मांगा और ख़ुद बिना कोई घाव खाये सबको घायल करके लौटा. बाद
में भी द्वारचार से विवाह, पंगत और विदाई तक मार काट होती ही
रहती थी. गनीमत कि वो ‘वीरगाथा काल’
खतम हो गया, बहुत शादियों से तेलवारा और एपनवारी
जैसी रस्में भी या तो खतम हो गयीं या फिर रस्मन बस निभा भर ली जाती हैं.
इस एपनवारी,
रूपन बारी और महोबा के वीरों और लड़ाईयों की चाहे जितनी गाथा गायी जाये,
जितना सराहे जायें, जितना इन पर गर्व किया जाय
किंतु यह वीरता से अधिक घमण्ड था, असभ्यता थी और दूसरे को कुछ
न समझने की प्रवृत्ति थी, ये लोग बिना बात ही लड़ने को उतारू रहते
थे और विवाह जैसे कार्य में, जिसमें एक कुल और लड़की से जीवन भर
का सम्बन्ध जुड़ता है – पारस्परिक सद्भाव और प्रेम के बजाय हिंसक
लड़ाई करते, रक्तपात करते, पग – पग पर अपमानित करते. किसी ने शत्रुता करने जैसा कुछ किया
हो, युद्ध करने जा रहे हों तो जम कर लड़ें, प्रेमपूर्वक लड़ें किंतु यह क्या – जिसे प्रेम का नाता
जोड़ने जा रहे हैं उससे अकारण और छेड़ – छेड़ कर लड़ाई. वो लड़की, जो व्याह कर आती होगी, क्या इनसे प्रेम कर पाती होगी, सहज रह पाती होगी या सम्मान
करती होगी जिन्होंने उसके पिता, भाई व अन्य सम्बन्धियों से अकारण
/ दर्प में रक्तपात किया. या फिर वह भी ऐसी ही
हो चुकी होगी, सब ऐसे हो चुके होंगे कि लड़ाई के बिना आनंद ही
न आता होगा. लड़ासे तो ऐसे रहते थे और कुख्यात भी थे कि एक विवाह
में शर्त ही रख दी गयी कि सब निःशस्त्र आयेंगे. ये निहत्थे गये
भी किंतु जेवनार के समय बैठने के लिए दिये गये पीढ़ों से ही मार काट शुरू कर दी.
वैसे आल्हा वीरगाथा काल का लोक काव्य है जिसमें इतिहास के साथ अतिशयोक्ति
का भयंकर घालमेल है. ऐसी – ऐसी छोड़ी गयी
है कि लपेटते नहीं बनता, तिकल्ला क्या – गुल्ला और चरखी भी न लपेट पायें. युद्ध ही नहीं,
और कामों में भी महोबा वाले अजेय बताये गये हैं. एक बानगी देखें,
“भारी
चमचा गढ़ महुबे का जेहिमा नौ मन दाल समाय।
बड़े खवैया महुबे
वाले चमचा डेढ़ डेढ़ सौ खांय॥
बारात का बखान होते होते विषयांतर हो गया, बात बारात की रस्म एपनवारी से रूपन बारी की एपनवारी और विकट नेग तक फिर इस पर विमर्श तक पहुँची. अभी सहालग चल रही है, इस गाथा के पूर्वार्ध का अनुभव करना हो तो किसी शादी में लड़की वालों की तरफ से शामिल हों और बारात आने के पहले पहुँचें, और ‘आल्ह खण्ड’ काव्य में रुचि हो तो जगनिक लिखित इस काव्य का आस्वादन करें. इस पर टीका व सरल गद्य में अनुवाद भी मिल जायेगा (युनिवर्सल कपूरथला में ) और मूल ( संगीत नाटक अकादमी के पुस्तकालय में – खरीदने को नहीं, वहीं पढ़ने को ) भी मिल जायेगा. अन्य जगह भी मिल सकता है किंतु पक्की जानकारी मुझे इन्हीं दो जगहों की है.
अरे वाह ये तो यहाँ भी पढ़ने को मिला , धन्यवाद सर जी
ReplyDeleteधन्यवाद रजनीश. यहाँ आते रहेंगे तो रुचि का और भी पढ़ने को मिलता रहेगा.
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