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Tuesday 31 October 2023

पुस्तक चर्चाः बेगम अख़्तर का ज़िंदगीनामा – लेखकः अटल तिवारी

बेगम अख़्तर की ज़िंदगी के सफ़र को बयान करती हुई यह किताब आज पढ़ कर पूरी की. किताब बेगम अख़्तर के बिब्बी से अख़्तरी बाई और बेगम अख़्तर के गरिमामय स्थान तक पहुँचने का सफ़रनामा तो है ही, किताब भी विधा के रूप में विशेष है. विशेष इसलिए कि यह यह रेडियो रूपक है जो आकाशवाणी लखनऊ के 75 वर्ष पूरे होने पर 2011 में 13 एपीसोड के धारावाहिक के रूप में प्रसारित किया गया. रेडियो रूपक, वार्ता, साक्षात्कार व नाटक की स्क्रिप्ट होती तो है किंतु वह रेडियो या सम्बन्धित संस्था की सम्पत्ति होती है और बहुधा पुस्तक रूप में प्रकाशित नहीं होती. रेडियो नाटक के अलावा नाटक तो किताब के रूप में सामने आते हैं किंतु बहुधा वे नाटक जो पहले से हैं या क्लासिक श्रेणी के नाटक जो नाटक विधा के अंर्तगत लिखे गये, प्रकाशित हुए और बाद में उनका मञ्चन हुआ और अनेक निर्देशकों के निर्देशन में, अनेक संस्थाओं द्वारा, अलग-अलग टीम के साथ देश भर में कई बार उनका मञ्चन हुआ, आज तक हो रहा है किंतु ऐसा कम ही है कि मञ्चन के बाद कोई नाटक /स्क्रिप्ट किताब के रूप में प्रकाशित हुआ हो. यह किताब इस मामले में (सम्भवत ) पहली है कि रेडियो रूपक प्रसारित होने के 12 वर्षों बाद ज्यों की त्यों पूरी स्क्रिप्ट/ रूपक किताब के रूप में प्रकाशित हुई हो. इस अभिनव पहल के लिए आकाशवाणी लखनऊ, लेखक और प्रकाशक बधाई के पात्र हैं.

 रूपक प्रकाशित होने का प्रभाव है कि हम रेडियो के सुनहरे दौर में पहुँच जाते हैं जब रेडियो सुदूर गाँवों और सीमावर्ती क्षेत्रों सहित देश के घर-घर में सुना जाता था, मनोरञ्जन और सूचना का एक मात्र साधन था, जहाँ सूचना का कोई साधन नहीं था, वहाँ भी रेडियो की आवाज़ थी. उस दौर को हम किताब के पहले पन्ने से ही महसूस करने लगते हैं. किताब में तेरहों कड़ियों का प्रसारण क्रमबद्ध दिया है और शुरुआत ऐसे होती है –

    आकाशवाणी का यह लखनऊ केन्द्र है. श्रोताओं नमस्कार. प्रस्तुत है विशेष संगीत रूपक धारावाहिक का भाग … ‘कुछ नक़्श तेरी याद के.’ लेखक हैं अटल तिवारी.

                                                                    और इसके बाद शीर्षक गीत की कुछ पंक्तियां या किसी कड़ी में पूरा गीत दिया है –

                       कुछ नक़्श तेरी याद के, दिल में लिए हुए

                       चलता ही चला जाता हूँ, मिलने की आस में …

हर कड़ी के समापन पर यह –

         अभी आप सुन रहे थे यह विशेष संगीत रूपक ‘कुछ नक़्श तेरी याद के.’ लेखक थे – अटल तिवारी. श्रोताओं अब हमें आज्ञा दीजिए. अगले सप्ताह फिर हाज़िर होंगे. इसी समय. इसी ख़ास पेशकश के साथ. तब तक के लिए नमस्कार.

 किताब के इस ढंग से उन श्रोताओं को वह ज़माना याद आ गया होगा जब रेडियो पर ऐसे रूपकों का प्रसारण होता था, जो रेडियो सुना करते थे और जिन्होंने यह रूपक सुना होगा उनके सामने यह फिर कौंध गया होगा. हमारे नवयुवा साथी, जिन्होंने रेडियो का वह दौर नहीं देखा, जान सकेंगे कि रेडियो रूपक कैसे होते थे. इस मायने में यह किताब ख़ास है.

 किताब केवल विधा के मायने में ही ख़ास नहीं है बल्कि यह विषय वस्तु के साथ भी न्याय करती है. बेगम अख़्तर का सांगीतिक सफ़र, निजी ज़िंदगी और उनके व्यक्तित्व के पहलू तो बहुत हैं, उनमें से बहुत कुछ इस किताब में बयां किया है. वाचक तो बताते ही हैं, बेगम अख़्तर व अन्य बहुत से लोगों ने भी उनके जीवन और संगीत के विभिन्न पहलू उजागर किए हैं.

 हैदराबाद से बुलावा और वज़ीफ़ा की बात वाचक के स्वर में –

                        अख़्तरी बाई थियेटर से छुट्टी लेकर हैदराबाद चली गईं. हैदराबाद में अख़्तरी को एक ख़ुशख़बरी मिली. निज़ाम साहब ने फ़रमान ज़ारी किया कि अख़्तरी बाई को 100 रुपये महीना ता-नस्ल दिया जाए. उनकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहा कि निज़ाम सरकार से वज़ीफ़ा मिलेगा.

 उन्होंने गण्डा बांध कर शिष्य भी बनाए. उस समय तक केवल पुरुष उस्ताद या गुरु ही गण्डा बांध कर शिष्य बनाया करते थे, उन्होंने 1952 में गण्डा बांध कर उस्ताद का दर्ज़ा हासिल किया. पहली शिष्या शांति हीरानन्द और अंजलि बनर्जी थीं. इनके अलावा रीता गांगुली, ममता दास गुप्ता, रेखा सूर्या, शिप्रा बोस, महराज हुसैन निशात, सगीर ख़ां आदि उनके शिष्य हैं.

                                                                    रीता गांगुली का किस्सा तो बहुत दिलचस्प है. शादी से पहले वे बनारस की मशहूर गायिका, सिद्धेश्वरी देवी, से शिक्षा प्राप्त कर रही थीं किंतु शादी के बाद उनका गाना छूट गया. 1968 में उनके पति ग़ालिब समारोह के लिए बेगम अख़्तर को आमन्त्रित करने गए तो वे भी साथ थीं. बातों में उन्हें पता चला कि वे भी गाती थीं. पता करने का किस्सा भी बहुत दिलचस्प है जो यह बताता है कि वे कैसे नवोदितों को बढ़ावा देती थीं. बहरहाल उन्होंने शर्त रखी कि वे तभी इस समारोह में गायेंगी जब रीता गांगुली भी उनके साथ गायें. वे पीछे हट गयीं क्योंकि एक तो बहुत दिनों बाद और उनके साथ गाना दूसरे उनके पति को भी झिझक थी कि लोग कहते अपनी पत्नी को गवा दिया. वे नहीं बैठीं किंतु जब बेगम अख़्तर शर्त पर अड़ गयी तो वे यह सोच कर तानपुरा लेकर पीछे बैठीं कि वे गाने में मगन होकर भूल जायेंगी किंतु वे भूलीं नहीं. गाने के बीच रुक कर उन्होंने कहा, “ मैंने एक बच्ची तैयार की है. कैसे कोयल की तरह कुहकती है, आप सुनिए. “ अब तो उन्हें गाना पड़ा और खूब गाया.


ऐसे ही तमाम प्रसङ्ग हैं. आप किताब पढ़ें.

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किताब – ‘बेगम अख़्तर का ज़िंदगीनामा

लेखक – अटल तिवारी

विधा – रेडियो रूपक

प्रकाशक – प्रकाशन विभाग, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय, भारत सरकार

पृष्ठ – 127. दाम -135/-, पेपरबैक एडिशन    

Monday 30 October 2023

“दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे … “

 दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे … “

                                 बहज़ाद लखनवी की यह ग़ज़ल जब बेगम अख़्तर ने रिकॉर्ड करवाई ( 1924-25 में ) तो इस ग़ज़ल ने लोगों को वाकई दीवाना बना दिया, इस ग़ज़ल ने या बेगम अख़्तर की आवाज़ ने. वैसे दोनों का मेल थाकॉरिंथियन थियेटर में काम करने के दौरान जब तीनचार रिकॉर्ड जो उनके तैयार हुए वो सब एक एक कर फ्लॉप होते गये. ऐसे में कम्पनी को घाटा लगा और कम्पनी से उन्हें छुट्टी दे दी गयी तो उनकी अम्मी (तब बेगम अख़्तर बमुश्किल 10-11 साल की किशोरी थीं ) के सामने फिर आर्थिक दिक्कतें सर उठाने लगीं तो वे उन्हें कलकत्ते से लेकर सीधे अपने पीरमुर्शिद बरेली शरीफ़ की दरगाह तक गयीं. रो-रोकर अपनी हालत बयां की तो पीर साहब ने अख़्तरी बाई को देख कर कहा –“बेटा जो किताब तू लेकर आयी है, उसे खोल ! हम हाथ रखते हैं. जब अख़्तरी ने पन्ना खोला, तो वही पन्ना खुला, जिस पर बहज़ाद लखनवी की अम्मी के हाथ से लिखी हुई ग़ज़ल, ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना देमौजूद थी. पीर साहब ने उस पर हाथ रखा और कहा- ले बरेली शरीफ़ हाथ रखता है, जा कामयाब हो.इतना कहने के बाद पीर साहब ने अख़्तरी से कहा- जा इस ग़ज़ल को रिकॉर्ड कर बेटा. शोहरत और दौलत तेरी बाँदी बनकर रहेगी और दुनिया तेरे पीछे दीवानों की तरह पागल होगी.इसके बाद उन्होंने मुश्तरीबाई से कहा मुश्तरी सीधे जाओ और इसी को रिकॉर्ड करवाओ. घर मत जाना, सीधे कलकत्ते जाकर पहले जाकर गाना रिकॉर्ड करवाओ.

                                 इसके बाद तो वही हुआ जो पीर साहब ने कहा था लेकिन पीर साहब की दुआ के साथ बात बेगम अख़्तर की आवाज़ में भी थी. वो आवाज़ ही है जिसने आज तक लोगों को दीवाना बना रखा है. क्या ख़ूबी है इस आवाज़ में ! यह ख़ूबी के साथ-साथ खामी भी है, बल्कि यह खामी ही ख़ूबी बन गयी है.

उनकी आवाज़ जो एक सीमा पर जाकर फट सी जाती है ( महीन आवाज़ के लिहाज़ से कहें तो बेसुरी ) वही उनकी आवाज़ की ख़ूबी है, सब उसी के दीवाने हैं. अगर उनकी आवाज़ पतली / महीन / लरज़ती सी होती तो शायद वे तमाम अच्छा गाने वालों में से एक होतीं, आवाज़ की यह विकृति ही उन्हें खास बनाती है. यह बड़े उस्तादों का भी कहना है.

उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ां साहब फरमाते हैं – “बेगम अख़्तर के में एक अजीब कशिश थी. जिसको कहते हैं ‘अकार की तान’ उसमें ‘अ’ करने पर उनका गला कुछ फट जाता था, और यही उनकी ख़ूबी थी. मगर शास्त्रीय संगीत में यह दोष माना जाता है. एक बार हमने कहा कि “बाई कुछ कहो, ज़रा कुछ सुनाओ.” वे बोलीं, “अमाँ क्या कहें, का सुनायें.” हमने कहा कुछ भी. बेगम गाने लगीं, “निराला बनरा दीवाना बना दे.” एक दफे, दो दफे कहने के बाद जब उनका गला खिंचा, तो हमने कहा, “अहा, यही तो सितम है तेरी आवाज़ का.” वो जो गला दुगुन-तिगुन के समय लहरा के मोटा हो जाता था, वही तो कमाल था बेगम अख़्तर में.”

इतिहासकार सलीम किदवई बताते हैं कि “यह कोई नहीं जानता था कि बेगम अख़्तर की अदायगी में वह स्थिति एकदम निश्चित तौर पर कब श्रोता महसूस करेंगे, मगर इतना अवश्य है कि ऐसा कोई जतन बेगम जानबूझकर नहीं करती थीं.”

                         उनके गले की आवाज़ का विशेष अन्दाज़ चूँकि नैसर्गिक और लगभग अप्रत्याशित था – शायद इसी कारण उस ज़माने से लेकर आज तक बेगम की ग़ज़लों को सुन-सुनकर जवान होती पीढ़ी में उस अप्रत्याशित विद्रूप की खनक बसी हुई है. कुदरत से पायी हुई यह विकृति ही, बेगम अख़्तर की गायकी का अलंकार बन गयी है. फिर चाहे वह ‘दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे’ सुनकर कोई महसूस करे, चाहे ‘ज़रा धीरे से बोलो, कोई सुन लेगा’ और ‘हमरी अटरिया पे आओ संवरिया’ जैसे दादरे सुनकर; सभी कुछ उनके अन्दाज़े-बयाँ में बिल्कुल अनूठा था, जिसकी नकल सम्भव नहीं थी.

-         यतीन्द्र मिश्र की किताब अख़्तरी-सोज़ और साज़ का अफ़सानामें यतीन्द्र मिश्र के लेख ‘अख़्तरीनामा – ज़िन्दगी और संगीत सफ़र के अँधेरे उजाले’ से.

बेगम अख़्तर की आवाज़ में एक अलग सप्तक में प्रवेश है, जो सुगम है और जहाँ से ऊपर उठ कर सुर टूटता है और उस टूटने में ही लुत्फ़ आता है. इस ‘पत्ती’ या आवाज़ टूटने का इन्तज़ार सभी करते.

-         यतीन्द्र मिश्र की किताब ‘अख़्तरी-सोज़ और साज़ का अफ़साना’ में डॉ. प्रवीण झा के लेख ‘बेगम की आवाज़’ से.







आवाज़ की दुनिया की मलिका की आज, ३० अक्टूबर, को पुण्यतिथि है. इस अवसर पर उनकी आवाज़ की इस ख़ूबी को याद करते हुए नमन.

Saturday 28 October 2023

वंस मोर

 




अख़्तरी बाई का पहला नाटक था मुंशी दिल का लिखा- ‘नई दुल्हन’. इसमें एकएक गाने पर सात-सात, आठ-आठ बारवंस मोरहुआ था. यह नाटक तीन साल चला. उस समय नाटक सप्ताह में तीन दिन होते थेबुधवार, शनिवार और इतवार. इस नाटक के बाद अख़्तरी बाई का लखनऊ आना-जाना लगा रहा

-          अटल तिवारी की किताबबेगम अख़्तर का ज़िदगीनामासे.

 

इस वाकये मेंवंस मोरनाटकों में पुरानी परम्परा की याद दिलाता है जो दर्शकों, उनमें भी कला रसिक और सम्पन्न वर्ग के दर्शकों, द्वारा शुरू की गयी और संगीत प्रधान नाटकों के सुनहरे दौर तक जीवित रही. पुराने दौर में नाटक मण्डलियां, जिन्हें कम्पनी/थियेटर कम्पनी कहा जाता था, ऐसे नाटक करती थीं जिनमें गीत-संगीत-नृत्य की प्रधानता होती थी. पार्श्व गायन का रिवाज़ न था. मुख्य अभिनेता अभिनय के साथ गाने में प्रवीण होता था और लोग नाटक से अधिक उसका गाना सुनने आया करते थे. ये नाटक रात-रात भर, बल्कि भोर पहर तक, चलते थे. नाटक में जब गीत लोगों को पसन्द आता था तो शोर सा उठता था, ‘वंस मोरअर्थात इस गीत की एक बार और प्रस्तुति की जाए. अभिनेता ( बहुधा स्त्री पात्र पुरुष निभाते थे ) फिर से वही गीत गाता था. फिर-फिरवंस मोरका शोर उठता और अभिनेता फिर-फिर वही गीत गाता. सात-सात, आठ-आठ बार वंस मोरहोता और नाटक के बजाय वही गीत चलता रहता. इस पर खूब इनाम-इकराम आता. जब बहुत बार ऐसा हो चुकता तो कम्पनी का मैनेजर स्टेज पर आता और हाथ जोड़ कर रसिक दर्शकों से नाटक आगे बढ़ाने की विनती करता. तब कहीं नाटक आगे बढ़ता. रसिक दर्शक दूसरे-तीसरे दिन भी नाटक देखने आते, गाना सुनने के लिए बारबार नाटक देखते. गाना ही नहीं किसीकिसी दृश्य विशेष पर भीवंमोरहोता और अभिनेता फिर से इन्ट्री लेता, वही दृश्य / संवाद बार-बार होता.

नाटक में गानों में ही नहीं बल्कि प्रवेश करने, भङ्गिमा विशेष और पहले ही दृश्य पर ‘वंस मोर’ खूब हुआ है, यह हुआ है जीवन काल में ही किवदन्ती बन चुके, मराठी नाट्य गायक और अभिनेता, ‘बाल गन्धर्व’ ( मूल नाम नारायण श्रीपाद राजहंस – जीवनकाल 1888 से 1967 तक  ) के नाटकों में. उन्होंने नाटकों में स्त्री पात्र निभाया. स्त्री पात्र के रूप में वे इतने पटु थे कि अपनी क्षमता की परख के लिए सम्भ्रांत घरों में माङ्गलिक उत्सव में स्त्री वेष में चले जाते थे और कोई उन्हें पहचान नहीं पाता था. मेजबान स्त्रियां उन्हें कोई सम्भ्रांत अतिथि समझ कर मान देती थीं, उनके वैभव, सौंदर्य और पात्र के निर्वाह के कारण कोई उनसे परिचय भी नहीं पूछता था. वे सोचती थीं कि वे पहचान नही रही हैं और परिचय पूछने पर ये बुरा न मान जाए. तो ऐसा होता था पात्र को जीना !

 

फिलहाल बात ‘वंस मोर’ की ! दो वर्णन देखें –

              … उन्हें एहसास हुआ कि वे रुक्मिणी बनते जा रहे हैं. फिर वे रंगमंच के पास आए और उन्होंने मंच पर प्रवेश किया. मानों अपने आप उनके मुख से शब्द फूट पड़े, “भैया, वे आ गए ?” रुक्मिणी का पहला ही वाक्य. उस वाक्य में छिपी गंधर्व की अधीरता, शालीनता, सौंदर्य और शान … वाक्य खत्म भी नहीं हुआ था कि ऐसी तालियों की गड़गड़ाहट शुरू हुई कि रुकने का नाम नहीं. गंधर्व कुछ पल रुके कि फिर वही वाक्य बोलकर आगे कुछ कहेंगे, पर फिर तालियां … फिर गंधर्व ने वह वाक्य बोल और फिर तालियां … फिर तालियां. ज़िंदगी में पहली बार गंधर्व ने पहले वाक्य पर तालियां और वंस मोर लिया था …

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… “सखि अनसूया, प्रियंवदे …” और उसके हाव-भावों ने दर्शाया कि एक भ्रमर उसके पीछे पड़ा है. दर्शक स्तब्ध. अनाघ्रात सौंदर्य का अनुपम अविष्कार ! और अचानक शकुन्तला थम गयी. अरे, इसका तो पल्लू फँस गया है कटसरैया की टहनी में. उसने उसे निकाला. उसका धड़कता हुआ सीना … और हौले से हूक उठने का भाव चेहरे पर. शकुन्तला ने अपना भार एक पैर पर तौलते हुए दूसरा पैर धीमे से उठाया. तलुवे में गड़ा काँटा आहिस्ता-आहिस्ता निकाला और मिरज का प्रेक्षागृह तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठा …

-         बाल गंधर्व के जीवन पर आधारित मराठी उपन्यासकार, अभिराम भडकमकर, ( हिंदी अनुवाद गोरख थोरात द्वारा ) के उपन्यास,  ‘बाल गंधर्व’ से.

                   

अब तो नाटकों में ( या किसी कंसर्ट में भी ) ‘वंस मोरकी कल्पना ही नहीं कि जा सकती. न वैसे रसिक दर्शक / श्रोता हैं और न ही वैसे निर्देशक/ प्रबन्धक/ अभिनेता जो उसी प्रदर्शन में दृश्य / गीत / नृत्य आदि दोहराएं. समयबद्ध प्रस्तुति से बंधे प्रदर्शन में ऐसा होना सम्भव नहीं. समय के साथ परम्परा बदलती है ही.  

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बेगम अख़्तर अभिनीत नाटक “नई दुल्हन” मुंशी दिल लखनवी द्वारा लिखा गया है. इस नाटक का नाम  शरीफ़ दुल्हन उर्फ़ घर की लक्ष्मी” है. उस समय नाटकों के उर्फ़ के साथ कई शीर्षक हुआ करते थे. सम्भव है यह यही नाटक हो जो लखनऊ में “नई दुल्हन” नाम से खेला गया क्योंकि मुंशी दिल लखनवी के जो नाटक मिलते हैं उनमें “नई दुल्हन” नाम का कोई नाटक नहीं है, “शरीफ़ दुल्हन उर्फ़ घर की लक्ष्मी” नामक नाटक अलबत्ता है. यह नाटक उर्दू में हैं और जे. एस. संत सिंह एण्ड सन्स ताजिरान-ए-कुतुब, लाहौर द्वारा प्रकाशित किए गये हैं. ये नाटक ‘रेख़्ता’ वेबसाइट पर भी उर्दू में उपलब्ध हैं. नाटक का कवर पेज और मुंशी दिल लखनवी की फोटो भी उसी साइट से ली गयी है.

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