बज्जिका लोक गीत और नहुष कथा
“ये क्या गुनगुना रहे हैं
महराज. भुन्न-भुन्न करके मुह ही मुह में गा रहे हैं कुछ समझ ही नहीं आ रहा. तनिक ज़ोर
से और सुर में गायें तो हम भी सुनें.”
“अरे एक लोक गीत है, सुनो
–
मगर मच्छ
से
भरल गगन
के
गंगा
में
इन्नर
के
नौका l
डूब
गेल
, छुछुआयल
सुरपति
सूअर बनल फिरल गुह खौका ll …”
“बस, बस ! महराज
! ये का गा रहे हैं और कौन भाषा है. आप तो जाने किस-किस भाषा में गाते रहते हैं और
आजकल लोक का बुखार चढ़ा है – कभी अवधी लोक गीत तो कभी भोजपुरी और पिछली दफा तो उड़िया
में राम के वनवासी जीवन के लोक गीत सुनाये थे. ये कौन सी भाषा है और क्या कथा है ?
ऐसी भाषा में सुनाईये कि हम भी समझ सकें और जो दस-बीस की भक्तमण्डली जुट जाती है, वो
भी समझे. ये मुह ही मुह में और अनजानी भाषा में गाना हो तो घर ही पे गाया करें.”
“भई, लोक का तो आलोक ही अद्भुत
है, जितना ही उसकी ओर जाओ अलौकिक आनन्द का प्रकाश गोचर होता है, जी जुड़ा जाता है.
यह ‘बज्जिका’ लोक गीत है. बज्जिका बिहार के तिरहुत प्रमण्डल में बोली जाती है, इसमें
बहुत लोक गीत हैं, गद्य में भी बहुत सामग्री है. इसे अभी भाषा का दर्जा नहीं मिला है
सो इसे बोली कह सकते हो. इस लोकगीत में राजा नहुष की कथा है.”
“राजा नहुष की कथा ! वो क्या
है ! हमें भी सुनाईये किन्तु बज्जिका में न सुनाइयेगा. “
“जैसी यजमान की इच्छा ! हिन्दी / खड़ी बोली में सुनो.
शाप
और पाप सबको लगता है चाहे वो मानव हों, दानव हों, देवता हों या स्वयं भगवान ही क्यों
न हों. देवराज इन्द्र को तो शाप मिलते ही रहे किन्तु यह कथा ऐसी है जिसमें पृथ्वी के
एक राजा नहुष को अजगर हो जाने का शाप मिला. देवराज इन्द्र ने दैत्यराज वृत्तासुर की
हत्या की थी. वह त्वष्टा ऋषि का पुत्र था, ब्राह्मण था सो इन्द्र को ब्रह्महत्या का
पाप लगा. अब पाप के निवारण के लिए इन्द्र को सबसे छुप कर एक हज़ार वर्ष तक घोर तप करना
था सो इन्द्र मानसरोवर में कमलनाल में कीड़े का रूप धर कर तपस्या करने लगे. अब एक हज़ार
साल के लिए तो इन्द्र पद खाली छोड़ा नही जा सकता था सो देव गुरु वृहस्पति ने पृथ्वी
के प्रतापी राजा, नहुष, (पुरुरवा के पौत्र, आयु के पुत्र ) से इन्द्र पद संभालने का
अनुरोध किया, वे मान गये और इन्द्र पद पर आसीन
हो गये. अब उन्हें इन्द्र की शक्तियां और ऐश्वर्य प्राप्त हुआ तो भोग-विलास
में डूब गये. एक दिन इन्द्र की पत्नी, शची, पर उनकी नज़र पड़ी तो मोहित हुए, लुब्ध
हुए, कामासक्त हुए और कैसे न कैसे उन्हें पाने की जुगत में लग गये. इन्द्र पद है ही
ऐसा कि जो भी इन्द्र होता है, वह कामी, दुष्चरित्र, लोभी, डरपोक, व्यभिचारी होता है.
अब ये इन्द्र थे तो शची को येन केन प्रकारेण अपनी अङ्कशायिनी बनने को विवश कर सकते
थे. शची ने देवगुरु वृहस्पति को यह बताया तो उन्होंने अपने यहाँ शरण दी. अब तत्कालीन
इन्द्र, नहुष, देवगुरु का अतिक्रमण न कर सकते थे किन्तु उन्होंने शची को भय-प्रलोभन
देना ज़ारी रखा. देवगुरु ने इन्द्र को तलाशा और यज्ञादि करवा कर शाप मुक्त किया किन्तु
उन्हें पूर्ण शक्तियां प्राप्त न हुई थीं सो वे नहुष से युद्ध न कर सकते थे तब सबने
मिल कर एक चाल चली और नहुष को संदेशा भेजा कि वे सप्तऋषियों द्वारा ढोयी जाने वाली
पालकी में सवार होकर इन्द्राणी के पास आवें तो वे उनकी इच्छा पूरी करेंगी. नहुष ने
सप्तऋषियों को विवश किया और पालकी में इन्द्राणी के पास चले. अब ऋषियों को तो पालकी
ढोने का अभ्यास था नहीं, वे बड़े कष्ट से और धीरे-धीरे चल रहे थे जबकि नहुष उतावले
थे. वे बार-बार धृष्टतापूर्वक उनसे गति से चलने को कहते. उन्होंने ऋषि अगत्स्य को लात
मारी और कहा ‘सर्प-सर्प’ अर्थात गति से चलो. अब लात ऋषिवर सह न सके और उन्होंने नहुष
को शाप दिया कि जा तू सर्प हो जा. शाप तुरन्त फलीभूत हुआ और नहुष सर्प बन कर पालकी
से नीचे पृथ्वी पर नन्द बाबा के एक सूखे कुएं में गिर पड़े. इन्द्र को पुनः शक्तियां
और इन्द्र पद प्राप्त हुआ.
यह कथा संक्षेप में सुनाई किन्तु इससे भी संक्षेप में बज्जिका के लोक गीत में वर्णित है जो मैं गुनगुना
रहा था. वो भी सुनो और उसका अर्थ भी –
मगर मच्छ
से
भरल गगन
के
गंगा
में
इन्नर
के
नौका l
डूब
गेल
, छुछुआयल
सुरपति
सूअर बनल फिरल गुह खौका ll
भूप नहूस
बनल
देबिन्दर
सची
देइ
के
कनखी
मारल l
सप्तरसी
के
चढ़ल
पालकी
अजगर भेलन , लउकल लौका ll
मगरमच्छों
से भरी आकाशगङ्गा में इन्द्र की नाव तिर रही थी कि वह डूब गया. वह इधर-उधर छुछुवाने
वाला सुअर बना गुहखौका इन्द्र ( इन्द्र के प्रति तिरस्कार और उसकी लोलुप/कामी प्रवृत्ति
को देखते हुए उसे छुछुवाने वाला, अर्थात इधर-उधर मुह मारने वाला, गुहखौका अर्थात मल
खाने वाला, सुअर, कहा है ) उसी आकाशगङ्गा में छुपा था.
इन्द्रपद खाली न
रहे इसलिए राजा नहुष को इन्द्र बना दिया गया. वह शची को देख कर कनखी मारने लगा ( आँख
मार कर भद्दे इशारे करने लगा ) शची की शर्त के अनुसार वह सप्तऋषियों द्वारा ढोयी जाने
वाली पालकी पर चढ़ करे आया और शापवश अजगर होकर भूमि पर नण्द बाबा के कूप में गिरा.
“ सही हुआ महराज ! दुष्चरित्र
और पद का दुरुपयोग करने वाले नहुष को उचित दण्ड मिला. यह वृत्तासुर वही न जिनका वध
दधीचि की अस्थियों से बने वज्र से किया गया था ?”
“हाँ, वही! वृत्तासुर की
कथा रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत व अन्य ग्रंथों में वर्णित है और एक कथा में वृत्तासुर
का वध समुद्र के फेन से किया गया वर्णित है. आज की बैठकी में इस लोकगीत के सन्दर्भ
में नहुष की कथा सुनाई सो वृत्तासुर की कथा को विस्तार नहीं दिया. आगे कभी संयोग बना
तो अन्यान्य कथाएं भी कहेंगे.
अब
कथा हो गयी, आरती-प्रसाद आदि की व्यवस्था हो तो कथा का विधिवत समापन हो.”
“जो इच्छा महराज ! कथा का
प्रतीक्षित फल तो प्रसाद ही है, बहुत से लोग तो इसी के लिए बैठे रहते हैं. सब व्यवस्था
है, अभी सब हुआ जाता है.”