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Sunday 29 December 2013

हँस कैसे लेते हैं !


स्टेट बैंक ब्लॉग पर सक्रियता के दिनों की बात है एक साथी थे सुदीप्त मजूमदार. थे तो वे पुरुष किन्तु लोगों की अंग्रेजी समझ की बलिहारी, उन्हे कुछ साथी बहुत समय तक महिला समझते रहे – कारण कि, अपना नाम वे अंग्रेजी मे Sudipta लिखते थे जिसे वे लोग सुदीप्ता समझ कर उन्हे महिला मानते थे. अब स्टेट बैंक ब्लॉग पर अन्य फोटो तो पोस्ट की जाती थीं किन्तु अपनी फोटो पेस्ट करने का चलन नही था जो अब भी नही है. उनके महिला होने का भ्रम बहुत दिनों तक बना रहा. एक बार उन्होने बिना किसी विवरण / शीर्षक / सन्दर्भ के एक सुन्दर युवती की हँसती हुयी आकर्षक फोटो पेस्ट की जिस पर बहुत टिप्पणियां आयीं. लोगों ने उनकी ही तस्वीर समझा. उनमे से बस एक टिप्पणी. जो अब तक याद है. प्रस्तुत कर रहा हूँ –

“ अच्छा. तो  ये आप  हैं मैडम. लेकिन ये बताईये कि बैंक मे काम करते हुए भी आप इतनी खुश  कैसे रह लेती हैं ? “

उनको जो भ्रम था, उसे व्यक्त होता देखने और टूटने की अपेक्षा उनकी टिप्पणी के दूसरे अंश पर तरस आया, कुढ़न हुई और अन्ततः हँसी आयी. ऐसा ही एक वाकया अभी पिछले दिनों ( 11 अप्रैल, 2013 ) को पेश आया. स्टेट बैंक अकादमी. गुड़गांव मे ट्रेनिंग थी. उद्घाटन व परिचय सत्र मे महाप्रबन्धक महोदय ( श्री धर्मवीर प्रसाद ) सम्बोधित कर रहे थे. अब महाप्रबन्धक थे तो पकी आयु के थे ही किन्तु इतने उच्च पद पर होते हुए भी बड़े खुशमिज़ाज. ज़िन्दादिल औए सबसे सहज होकर हँसी – मज़ाक करते हुए बात कर रहे थे. लग ही नही रहा था कि गरिमामय अकादमी का गरिमामय प्रमुख उदघाटन भाषण दे रहा है बल्कि कोई अनुभवी और खुशमिज़ाज दोस्त बातें कर रहा हो, ऐसा लग रहा था. उन्होने फिल्मों की, त्योहारों की, किताबों की – कितनी ही औपचार्रिक बातें की – डायस से हट कर, टहलते हुए.

अधिकांश लोगों को उनका अंदाज अटपटा लग रहा था, कुढ़ भी रहे थे और इस अंदाज को हल्कापन मान रहे थे. आखिर रहा नही गया, एक प्रतिभागी ने ( वही यक्ष प्रश्‍न ) पूछ ही लिया, “ सर, आप बैंक मे इतने उच्च पद पर और इतने तनाव के बावजूद इतना खुश कैसे रह लेते हैं ? “ उन्होने एक ठहाका लगाया और बोले, “ क्यों ! क्या मेरा पद और काम मुझे ठीक से बोलने की मनाही करता है ?  काम का बोझ व तनाव होने के बाद भी जब मै खाता हूँ, नहाता - धोता हूँ, बीमार पड़ने या ज़रूरी कामों पर छुट्टी लेता हूँ, LFC पर या वैसे ही घूमने जाता हूँ तो क्या शाम को फिल्म देखने, बाज़ार घूमने, गाना सुनने, किताब पढ़ने और उस पर बात करने से क्या बैंक मना करता है ? ये तो हम ही हैं जो सोच लेते हैं कि नही, अब ये सब नही करना और करना भी तो गिल्टी फील करना और किसी से कहना तो कतई नही. और भी बहुत कुछ कहा.

वे बहुत कह चुके, आप वहां थे नही इसलिये मने यह वाकया बयान किया. मै अपनी तरफ से कुछ नही कहूँगा – आपको कुछ समझना हो तो समझें, नही तो मुह बिचका कर ‘हुंह’ कर दें.

राज नारायण

मुझे तो तेरी लत लग गयी, लग गयी… !


मुझे तो तेरी लत लग गयी, लग गयी… ! 

कुछ दिनों पहले मेरे एक साथी सेवानिवृत हुए. इस उपलक्ष्य मे एक पार्टी रखी गयी. हमारे प्रशासनिक कार्यालय , लखनऊ मे सेवानिवृत्ति पर एक पार्टी रखी जाती है जिसमे सेवा से विदा हो रहे साथी को बैंक की ओर से भेंट, यूनियन की ओर से भेंट, अन्य उपहार, माल्यार्पण, जलपान आदि होता है, अध्यक्षता उप महाप्रबन्धक महोदय करते हैं. प्रशासनिक कार्यालय मे लोग अधिक हैं अतः हर महीने के अन्तिम ऐसी पार्टी होती ही है, कभी – कभी तो एक साथ कई लोगों की विदाई पार्टी होती है.

इन पार्टियों मे कुछ साथी, लगभग सभी उच्चाधिकारी और समापन पर सेवानिवृत अधिकारी भी अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करते हैं. इन भाषणों मे एक बात ज़रूर होती है कि ये अधिकारी हमेशा देर तक कार्य करते थे / आठ - नौ बजे से पहले तो कभी गये ही नही / एक वक्ता ने बताया कि एक बार सवा आठ बजे वे घर जाने को हुए तो इनसे भी घर चलने को कहा तो वे बोले कि आप चलें, मै तो अभी एक घण्टा और बैठूंगा. उनके सुबह जल्दी आने का भी ज़िक्र होता है कि लोग मज़ाक मे कहते थे, “ अरे ! कल घर नही गये क्या ? “ ऐसा इसलिये कि घर जाते समय वे बैठे मिलते थे और सुबह भी. यह भी कहा जाता है कि जब भी मै (वक्ता) इनके डिपार्टमेण्ट गया, इन्हे काम मे लगा ही पाया. ये सब बातें बड़े गर्व से कही जाती थीं और समापन भाषण मे सेवानिवृत साथी भी बड़े गर्व से इसकी पुष्टि करते हैं.

मुझे एक बात हमेशा सालती है कि यह प्रवृत्ति गर्व की है या शर्म की. मै तो इसे गर्व की नही शर्म की बात मानता हूँ कि आप घर – परिवार, यार- दोस्त, अपने शौक़, स्वास्थ्य, मनोरंजन, पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्ध आदि सबकी बलि देकर यह कर रहे हैं. बैंक से बाहर कैसा मौसम है, कैसी रंगीनी है या बाहर क्या हो गया – इनसे कोई मतलब नही. ऑफिस से ठीक बाहर की घटना की जानकारी भी इन्हे अख़बार से व साथियों की बातचीत से मिलती है. अखबार मे भी ये मुखपृष्ठ की सुर्खियां ही देख पाते हैं क्योंकि टाईम ही नही मिलता. शाम या धुंधलका ( गोधूलि बेला तो शहरों मे होती नही ) तो इन्होने अर्से से देखा ही नही. कृश्न चन्दर की मशहूर “ गधा त्रयी “ ( ‘एक गधे की आत्मकथा’, ‘एक गधे की वापसी’ और ‘एक गधा नेफा मे’ ) के प्रथम उपन्यास, “एक गधे की आत्मकथा”, मे ज़िक्र है जब रामू धोबी यमुना मे घुटनों तक पानी मे खड़ा होकर कपड़े धो रहा होता है तब सूरज डूबने को हो रहा होता है. गधा यमुना मे डूबते सूरज के अप्रतिम सौन्दर्य को देख कर मुग्ध होता है किन्तु रामू बेचारा उस उस सौन्दर्य से विमुख कपड़े ही कूट रहा होता है. उसे मालूम ही नही होता कि उसके आस-पास सौन्दर्य का कितना भण्डार बिखरा है जो मुफ्त मे ही उपलब्ध है. हमारे ये ‘कर्मवीर’ बेचारे उसी रामू की तरह हैं जो गधे से बदतर है.

मै या मेरी तरह सोचने वाला कोई भी कामचोरी को प्रोत्साहित नही कर रहा. यदि आप दिन मे योजनाबद्ध ढंग से, प्राथमिकताएं तय करके कार्य करें तो देर तक बैठने की कोई ज़रूरत नही. देर तक बैठने का यह कतई अर्थ नही कि आप बहुत अधिक कार्य कर रहे हैं बल्कि यह भी है कि आप कार्य को नियत कार्यकाल मे निपटाने के योग्य नही हैं. ऑडिट, लेखाबन्दी या कोई निर्धारित लक्ष्य जिसमे समय सीमा दी हो तो देर तक बैठना आपकी प्रतिबद्धता दर्शाता है किन्तु काम काज के सामान्य दिनों मे अक्षमता. यदि देर तक बैठने पर उस दिन या अगले दिन का सारा काम खत्म हो जाये तब तक ठीक है किन्तु इनका भी उतना ही बचा होता है जितना समय से जाने वाले का.

दरअसल ऐसे लोग अपनी संस्था या कार्य के लिये कार्य नही करते बल्कि अपनी आदत, जो कुछ दिन बाद लत बन चुकी होती है, से मजबूर होकर करते हैं. घर व घर के कामों, पत्नी और बच्चों से जी चुराते, ऑफिस और घर के बीच रेखा खींच कर सन्तुलन बैठाने वालों से ईर्ष्या (क्योंकि वे उनकी तरह सामंजस्य मे समर्थ नही होते ) करते हुए उन्हे हीन समझते हुए कब वे लत के शिकार हो जाते हैं, पता ही नही चलता. तमाम ट्रेनिंग और कार्यशालाओं मे यह सब बताया जाता है किन्तु ये स्वयं ही अपना इतना अनुकूलन ( Conditioning / Brainwash ) कर लेते हैं कि उन्हे और कुछ दिखाई ही नही देता.

विदाई पार्टी मे अन्तिम बार अपने कसीदे सुनने के बाद जब वे घर जाते हैं तो उन्हे समझ नही आता कि करें क्या ? पत्नी बच्चे इन्हे घास नही डालते. जब उन्हे इनकी ज़रूरत थी तब उन्होने उनकी उपेक्षा की. अब वे उनके बगैर काम चलाना सीख चुके होते हैं. दोस्त व रिश्तेदार भी अपने व्यवहार से प्रकट कर ही देते हैं कि पहले तो कभी हमे समय दिया नही, अब अपना समय काटने आये हो. उसी ऑफिस मे जायें तो कुछ ही देर बाद वे “गुजरा गवाह व लौटे बराती” से भी गया बीता हो जाते हैं.तब वे ज़माने को दोष देते हैं. मित्रों, इस दयनीय स्थिति के लिये आपकी संस्था या ज़माना नही आप स्वयं दोषी हैं. कोई भी यह नही कहता कि आप कार्य के पीछे इन सबको छोड़ दें किन्तु आपको तो सबसे जी चुराने व कार्य की लत लग चुकी होती है और लत चाहे अच्छी हो या बुरी – इसके दूरगामी परिणाम हमेशा ही बुरे होते हैं.  

राज नारायण‌