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Thursday 20 August 2020

रतना- रतनावलि


 

रतना- रतनावलि - विश्वनाथ सिंह ‘विकल गोंडवी’ “आधुनिक अवधी कविता” प्रतिनिधि चयनः 1850 से अब तक ( सम्पादकः अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी) में संकलित

रामकथा के नारी पात्रों पर पर कम लिखा गया है जबकि रामकथा में नारी पात्र कम नही हैं. मैथिली शरण गुप्त जी ने यह उपेक्षा अनुभव करके “साकेत” लिखा जो ‘उर्मिला’ पर है, उसमें वनवास के बाद उर्मिला के उद्गार व्यक्त किये गये हैं. मैथिली शरण गुप्त जी ने ‘यशोधरा’ काव्य भी लिखा. महानायकों के लीला गान में उनकी नायिकाएं उपेक्षित सी रहीं सो उन्होनें इन नायिकाओं की उदात्तता का गान किया चाहे वो ‘साकेत’ में लक्ष्मण की उर्मिला हों या ‘यशोधरा’ में बुद्ध की यशोधरा. पण्डित अयोध्यासिंह उपाध्याय ‘ हरिऔध’ ने “प्रियप्रवास” में वर्णन तो कृष्ण की मथुरा यात्रा का किया है किन्तु इसमें राधा को उनकी प्रेयसी और वियोगिनी नायिका से अलग ही रूप मे प्रस्तुत किया. लिखते समय इस काव्य का नाम उन्होने ‘ब्रजांगना-विलाप’ रखा था किन्तु विलाप के स्वर के स्थान पर लीला वर्णन होने से इसे “प्रियप्रवास” कर दिया.

बात रामकथा के नारी पात्रों की हो रही थी किन्तु महाआख्यानो के नारी पात्रों की बात चल निकली, पुनः वहीं लौट चलते हैं. रामकथा के नारी पात्रों पर ही जब काव्य में बहुत नही लिखा गया तो उस नारी पर क्या लिखा जाता जिसके उलाहने बल्कि तिरस्कार से तुलसीदास रामकथा के अप्रतिम गायक बने, रामचरित मानस जैसा ग्रंथ लिखा. तुलसी ने रत्नावली के तिरस्कार को प्रेरणा और ईश्वरीय आदेश के रूप मे ग्रहण किया,

“आधुनिक अवधी कविता” प्रतिनिधि चयनः 1850 से अब तक ( सम्पादकः अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी, प्रकाशकः राजकमल पेपरबैक्स ) पढ़ते हुए विश्वनाथ सिंह ‘विकल गोंडवी’ के रत्नावली से सम्बन्धित कुछ पदों को पढ़ा. तुलसी और रत्नावली प्रसङ्ग पर इनका मन खूब रमा है और “रतना-तुलसी” शीर्षक अवधी काव्य प्रकाशित हुआ है. इस संकलन में “रतना-रतनावलि” शीर्षक से उनके कुछ पद हैं. तुलसी अवध के थे, रामचरित मानस अवधी में है और यह पद भी अवधी में हैं जो मातृभाषा और लोकभाषा होने से और भी मीठी लगती है. आनन्द लें रतना-रतनावलि के कुछ छन्दों का –

सगरो घर हेरि के हारि गये, रतना न मिली तौ उदास भये ।

अति आकुल, व्याकुल, हाल, बेहालह्वै, जाचक ह्वै पिय पास गये।

रतना हठ ठानिनि, एक न मानिनि, रूठि गई तौ निरास भये।

जेतनै रतनावलि दूर भई वतनै तुलसी प्रभु पास भये ॥

 

तुलसी ने सारे घर में रतना को ढूँढा किन्तु वह न मिली तो उदास हो गये. उदास होकर रतना से मिलने को बहुत अकुलाये,  व्याकुलता में हाल-बेहाल हो गया और याचक की तरह प्रिया के पास गये किन्तु रतना ने उनकी यह व्याकुलता देख कर धिक्कारा, हठ ठान लिया, उन्होने बहुत मनौना किया किन्तु उसने उनकी एक न सुनी. तुलसी निराश हो गये कि अब तो रतना दूर हो गयी किन्तु रतना की दूरी ने उन्हे राम के पास कर दिया. जितना रतना उनसे दूर हुई, उतना ही तुलसी प्रभु के पास हो गये. रतना दूर न होती तो तुलसी भोग-विलास, घर-गृहस्थी, मोह-माया में पड़े रहते और कभी इस कोटि के भक्त और कवि न हुए होते.

 

काटि-कूटि फँसरी सकल मोह ममता कै

तुलसी कै गटई छोड़ाय गई रतना ।

बिसय औ बासना कै बिस मन से निकारि

भगति कै भावना जगाय गई रतना।

जगत असार बीच एक राम नाम सार

गुप-चुप सब समझाय गई रतना ।

तुलसी कै जिनगी सँवारै खरतीं विकल

सब कुछ दाँव पर लगाय गई रतना ॥

 

रतना सम्भवतः तुलसी की भक्ति और काव्य क्षमता को जानती थी और यह भी अनुभव करती थी कि मेरे मोह में पड़ कर ये बस ऐसे ही रह जायेंगे सो उसने लोक हित में और उन्हे भक्ति की ओर उन्मुख करने के लिये जान-बूझ कर कटु वचन कहे और धिक्कारा.

                           तुलसी रतना के मोह में गले-गले तक डूबे हुए थे, उबरने में रतना जैसे गले का फंदा बन गयी थी सो सारी मोह माया की फाँसी अपने कटु वचनों से काट कर तुलसी का गला छुड़ा गयी. अपनी धिक्कार से विषय-वासना का विष उनके मन से निकाल कर भक्ति की भावना जगा दी. जो काम तमाम संतों का संग न कर सका वह रतना की बातों ने कर दिया, उन्हे परोक्ष रूप से, गुप-चुप ढंग से समझा समझा दिया कि संसार में कोई सार नही, राम में ही सार है. तुलसी की ज़िन्दगी सँवारने के लिये रतना ने अपनी ज़िन्दगी दाँव पर लगा दी. वह अलग होकर तुलसी को राम के साथ कर गयी.

 

रत राखतीं जौ निज मा रतना, सिरी राम मा होते कभौ रत ना।

पकरावतीं जौ रतना पथ ना, तुलसी कबहूँ पउते पथ ना।

कुछ होते न संत सिरोमनि होते, न होते महान कबी यतना।

मन चूर न होत, न मानस कै, तुलसी कबहूँ करते रचना॥

 

रतना ने तुलसी को राम की ओर मोड़ने के लिये अपनी रति का त्याग किया. जो वह अपने ही में रत रखती तो तुलसी काभी भी श्रीराम में रत न हो पाते. रतना जो उन्हे राम से प्रीति का पथ न दिखाती तो तुलसी कभी भी यह भक्ति पथ न पा सकते थे. वह इस तरह उलाहना न देती तो तुलसी कुछ न बन पाते,  न तो संत शिरोमणि हो पाते और न ही इतने महान कवि. उनका मानस ऐसे चूर न होता तो तुलसी कभी भी मानस की रचना न कर पाते.

 

रतनावलि से दुइ आखर मा तुलसी गुरुमंतर पाय गये।

घरनी घर बार सबै तजि कै, सिरी राम के द्वार पै धाय गये।

मथि कै मन मानस माखन दै, सबके हिय बीच समाय गये।

अपुना तरिगे सबके खरतीं सरगे तक सीढ़ी लगाय गये॥

 

पत्नी परम गुरू होती है, रतना भी तुलसी की परम गुरू साबित हुई. बहुत भक्ति करते रहे, बहुत सत्संग किया किन्तु तमाम प्रवचनों से उन्हे मंत्र न मिला, रतना के दो कड़वे बोलों ने ही उनको गुरूमंत्र दे दिया. तुलसी ने उस बात को ऐसा जी से लगाया कि घर बार सब छोड़ कर श्रीराम के द्वार पर दौड़ पड़े. तुलसी के मानस को उसने ऐसा मथा कि उससे रामचरित मानस रूपी माखन निकला और वो एक रतना के ह्र्दय से निकल करे सबके ह्र्दय में समा गये. स्वयं तो तरे ही, सबके लिये स्वर्ग की सीढ़ी लगा गये.

 

 

 

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