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Wednesday 5 August 2020

एक फिल्म-एक किताब रंगरसिया – Raja Ravi Varma

महान चित्रकार, राजा रवि वर्मा, के जीवन पर आधारित केतन मेहता की एक फिल्म है, “रंगरसिया” जब फिल्म की घोषणा हुई तब से ही इस फिल्म को देखने की आस संजोये था, घोषणा के तीन साल के बाद फिल्म बनी किन्तु जाने कब रिलीज हुई, कहां लगी, लगी कि नही लगी या मै बाहर तैनात रहा ... किस्सा कोताह ये कि फिल्म न देख सका, हसरत रह गयी थी सो इस लॉक डाउन में पूरी हुई और डेस्क टॉप पर यू ट्यूब की मेहरबानी से आख़िरकार देख ही ली यह फिल्म. यह फिल्म रणजीत देसाई के उपन्यास “राजा रवि वर्मा” पर आधारित है. यह फिल्म अंग्रेजी में  Color of Poisons नाम से बनी है.

अब राजा रवि वर्मा की पेण्टिंग्स देख कर उनके जीवन के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई या उनके बारे में पढ़ कर उनकी पेण्टिंग्स  ढूंढ- ढूंढ कर ( कहीं जाकर नही भई, सब नेट पर मौजूद है ) देखी या किताब पढ़ कर जिज्ञासा बढ़ी – सब गड्ड मड्ड है. बहरहाल, किताब 2016 में पढ़ी. किताब मराठी में है और अंग्रेजी में अनुवाद विक्रान्त पाण्डेय् ने किया है. मज़बूरी में किताब अंग्रेजी में पढ़नी पड़ी क्योंकि उसका हिन्दी अनुवाद तलाश करने पर भी नही मिला. अब फिल्म देखी तो लगभग पूरी किताब फिर से पढ़ डाली. फिल्म देखी और किताब से भी गुज़रा तो दोनों के बारे में तुलनात्मक जैसा कुछ प्रस्तुत करने का विचार आया . अब तुलनात्मक विवरण जैसा कुछ है या चूँ-चूँ का मुरब्बा बन पड़ा है – जो कुछ है हाज़िर है.

फिल्म और किताब की तकनीक में बहुत अन्तर होता है. किसी फिल्म पर किताब बहुत कम लिखी गयी हैं किन्तु किताबों पर बहुत सी फिल्में बनी हैं. किताब पर फिल्म या सीरियल बनाने में बहुत सी बातें / प्रसंग छोड़ दिये जाते हैं तो व्यावसायिक और दृश्य माध्यम होने के नाते रचनात्मक छूट लेते हुए कुछ नये प्रसंग शामिल किये जाते हैं जो किताब में नही होते या किताब के प्रसंगों को बदल कर प्रस्तुत किया जाता है – ऐसा इस फिल्म में भी है. बहुत से  ब्योरे किताब में बहुत विस्तार से और प्रभावी ढंग से वर्णित किये होते हैं तो किताब के कई सपाट और सूचनात्मक विवरणों को फिल्मकार बड़े सजीव और रोचक ढंग से फिल्मांकित करता है. इन दोनों माध्यमों की खूबी और खामी का अनुभव वे नही कर सकेंगे जिन्होने केवल आलोच्य किताब पढ़ी, फिल्म नही देखी या फिल्म तो देखी है किन्तु किताब नही पढ़ी. एक माध्यम से साक्षात करने वालों से अनुरोध है कि दूसरे माध्यम से भी होकर गुज़रें तो पूरा आनन्द आयेगा. जिन्होने किताब भी पढ़ी और फिल्म भी देखी है, वे अवश्य ही इस बात की तस्दीक करेंगे.   

 फिल्म के क्रेडिट्स में बता दिया गया है कि यह फिल्म इस किताब पर आधारित है अतः आधार किताब को ही मान रहा हूँ वैसे किताब भी प्रमाणिक जीवनी नही बल्कि राजा रवि वर्मा के जीवन पर आधारित उपन्यास है अतः हो सकता है लेखक ने भी वैसी रचनात्मक छूटें ली हों जैसी कि फिल्म में ली गयी हैं.    

 फिल्म फ्लैशबैक दर फ्लैशबैक है. फिल्म मुम्बई में आयोजित एक नीलामी से शुरू होती है. एक हॉल में राजा रवि वर्मा की पेण्टिंग्स की नीलामी हो रही है, नीलामी में राजा रवि वर्मा की ‘विश्वामित्र-मेनका’, उर्वशी-पुरुरवा’ जैसी बहुचर्चित पेण्टिंग्स हैं. इधर नीलामी हो रही है तो बाहर उग्र भीड़ है जो इस नीलामी का विरोध कर रही. विरोध का कारण वही पुराना है जो राजा रवि वर्मा के जीवनकाल (1848 से 1906 तक ) में था –  देवी-देवताओं और पौराणिक व मिथकीय चरित्रों व घटनाओं का नग्न/ अश्लील / कामुकतापूर्ण चित्रण और  पूज्य देवी-देवताओं और भगवान को मन्दिरों से निकाल कर जन साधारण के बीच ले आना, उनकी बिक्री करना. उस समय भी उन पर मुकदमा चला था. बड़ोदा के महाराज, सयाजी राव गायकवाड़, ने उन्हे सराहा और हर प्रकार से सुविधा दी, जन सामान्य ने उनकी पेण्टिंग्स को खूब सराहा व श्रद्धा से देखा तो ब्र्ह्मज्ञान मण्डल के प्रमुख वेदशिरोमणि चिन्तामणि शास्त्री ने इन्ही बातों को लेकर उन पर मुकदमा कर दिया जिसमें राजा रवि वर्मा के तर्क सुनने ( उन्होने मुकदमा ख़ुद लड़ा था, वकील नही किया था क्योंकि उनके अनुसार वकील केवल कानून, सबूत, गवाही आदि जानते हैं कला के बारे में नही और यह मुकदमा कला पर है ) मुकदमे में राजा रवि वर्मा और उनकी कला को निर्दोष मानते हुए बरी कर दिया गया. किताब या वास्तव में तो उनके चित्र सराहे गये, उन्हे नुकसान नही पहुँचाया गया किन्तु फिल्म में जब बोली सात करोड़ पर फाईनल हो रही थी, पुलिस की सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद उग्र भीड़ हॉल में घुस आयी और उनके चित्रों को फाड़ डाला, जला दिया. कला, जो कुछ विवादित रही हो, उसका यही हश्र होता आया है. राजा रवि वर्मा से लेकर हुसैन तक ने यह झेला.

फिल्म और किताब – दोनों में उनकी कला यात्रा को दिखाया गया है – फिल्म में बहुत संक्षेप में, किताब मे विस्तृत ब्योरों के साथ. देवी देवताओं को साकार करने वाले, उन्हे चेहरा/ मानवीय रुप देने वाले से आगे बढ़कर कला जगत्‍ में राजा रवि वर्मा का एक और विशद योगदान रहा है, पेण्टिंग्स को प्रिण्ट करने का, एक पेण्टिंग के हज़ारों प्रिण्ट निकालने का. प्रिण्ट के द्वारा ही उनके चित्र घर-घर तक पहुँचे. प्रिण्ट न किये जाते तो उनके चित्र बडोदरा स्थित लक्ष्मी विलास पैलेस ( जहाँ उनके अधिकांश चित्र प्रदर्शित हैं ) और आर्ट गैलरियों में ही रह जाते या धनकुबेरों के यहां ही होते. आम जनता उन्हे देख भी न पाती खरीदना तो दूर ( अब भी पेण्टिंग्स सब लोग नही खरीदते – बहुधा दाम के कारण ) जर्मनी में पेण्टिंग्स को प्रिण्ट करने की तकनीक थी. राजा रवि वर्मा ने जर्मनी से मशीनें आयात कीं और तकनीशियन बुलाये ( प्रमुख तकनीशियन Schleicher – नाम का सही उच्चारण मुझे नही मालूम ) और प्रिण्ट शुरू किया.

किताब में तो और भी बहुत कुछ है क्किन्तु फिल्म मुख्य रूप से राजा रवि वर्मा की कला यात्रा में उनकी प्रेमिका और तमाम पेण्टिंग्स की मॉडल, सुगन्धा, मुकदमे और प्रिण्टिंग प्रेस पर है. 

बात लम्बी हो रही है सो अब कुछ बातें किताब और फिल्म में अन्तर पर –

-         उर्वशी-पुरुरवा पेण्टिंग की रचना प्रक्रिया फिल्म में एक दृश्य मॅं निपटा दी गयी है जबकि किताब में एक कलाकार की लगन को भली भांति वर्णित किया गया है. पौराणिक कथा के अनुसार उर्वशी और पुरुरवा उस समय नग्नावस्था में थे और उन्होने उस अवस्था में एक दूसरे को देख लिया था सो शर्त के अनुसार उर्वशी उन्हे छोड़ कर स्वर्ग को उड़ गयी. पेण्टिंग में उर्वशी ( या मॉडल, सुगन्धा ) का वक्ष अनावृत्त है. अब इस अवस्था में ( वक्ष पर से कपड़ा हटा होने पर ) कलाकार को मॉडल के चेहरे पर क्षोभ, विस्मय, क्रोध, आघात, लज्जा .... के वो भाव नही मिल रहे थे जो वह चाहता था. कई दिन इसी में बीते, सुगन्धा अनावृत्त खड़ी होती किन्तु वे चित्र न बनाते. एक दिन उसके सब्र का बांध टूट गया और क्रोधित हो उठी कि चित्र तो बहाना है तुम बस मुझे नग्न देखना चाहते हो मैं जा रही हूँ. अब क्षोभ,  क्रोध, आघात, लज्जा आदि के वही भाव सुगन्धा के मुख पर थे जिनकी वह उर्वशी के मुख पर कल्पना कर रहा था. तब उन्होने उसे फ्रीज़ करके पेण्ट करना शुरू किया. फिल्म में इतना विस्तार किया जाता तो शायद वास्तव में वही घटित होता जो फिल्म के अन्त में है – इसे पोर्न ठहराया जाता,

-        मुकदमें में नाटकीयता के लिये चित्रकार के राजा होने का मखौल बनाते हुए पूछा गया है कि वे कहां के राजा हैं, उनका भौतिक राज्य कहां है तब फ्लैशबैक में वह घटना है जब उन्हे राजा की उपाधि दी गयी. किताब में मुकदमा सीधे मुद्दे पर आता है, इस बात का ज़िक्र नही होता,

-        सबसे बड़ा अन्तर  यह है कि फिल्म में सुगन्धा की गवाही भी दिखायी गयी है जबकि किताब में सुगन्धा क्या, किसी की गवाही नही है. फिल्म एक दृश्य माध्यम है और ऐसा करने से फिल्म अधिक नाटकीय होती सो उसकी गवाही डाल दी,

-        मुकदमें में राजा रवि वर्मा को सजा होने की आशंका से सुगन्धा ने आत्महत्या कर ली. किताब मे उसने ज़हर खाया और राजा रवि वर्मा की गोद में दम तोड़ा जबकि फिल्म में उसे फांसी लगा कर आत्महत्या करना दिखाया है और कलाकार के आने से पहले वह मर चुकी थी. फांसी शायद अधिक ‘ग्लैमरस’ या नाटकीय होती,

-        इसी प्रकार प्रिण्टिंग प्रेस और Schleicher के बारे में है. फिल्म में कलाकार की Schleicher से भेंट एक कैसीनो में होती है जहां वो नकली नोट ( प्रिण्ट किया हुआ ) चलाने की कोशिश में है जो बिल्कुल असली लगता है. यहीं से राजा को आईडिया मिला कि जब नोट का असली  जैसा प्रिण्ट बन सकता है तो पेण्टिंग्स का भी. किताब में महाराज बड़ौदा विदेश में पेण्टिंग्स के प्रिण्ट और यह तकनीक देख कर आये थे और उन्होने ही इसके लिये प्रोत्साहित किया.  Schleicher उन चार तकनीशियन में प्रमुख था जो मशीनों के साथ जर्मनी से आये,

-        फिल्म में दादा साहब फाल्के से दो बार उनकी भेंट दिखायी है, प्रेस बेचने पर उन्होने ऋण चुकाने के बाद  बची राशि दादा साहब फाल्के को देने को कहा जबकि किताब में उनसे भेंट का या ऐसा कोई प्रसंग नही है बल्कि स्वामी विवेकानन्द जी से भेंट का एक चैप्टर है जो कि फिल्म में नही दिख्गया.


अन्तर और तुलना बहुत है किन्तु वैसे ही पोस्ट बोर करने लायक लम्बी हो रही है सो फिल्म देखें, किताब पढ़ें, बेहतर होगा – दोनों करें.

    

फिल्म और किताब से इतर कुछ बातें कर लूँ. विश्व की सबसे मँहगी साड़ी ( ४० लाख ) पर राजा रवि वर्मा के चित्रों की नकल है, इस साड़ी में  बेशकीमती १२ रत्न और सोने की ज़री का भी इस्तेमाल किया गया है.

                                    राजा रवि वर्मा के व्यक्तित्व और कृतित्व में रुचि जाग्रत करने का श्रेय मुम्बई के क्युरेटर, Sachin Kaluskar, को है. कई साल पहले लखनऊ की कलास्रोत आर्ट गैलरी में राजा रवि वर्मा के लिथोग्राफ्स की प्रदर्शनी लेकर आये. वहीं उनसे भेंट हुई, बातचीत हुई, रुचि बढ़ी और काफी कुछ जानकारी हुई. वे फेसबुक पर भी मेरे मित्र हैं, उनका आभार.

फिल्म                                                           किताब

रंगरसिया                                                       Raja Ravi Varma





निर्देशकः केतन मेह्ता                                     लेखकः रणजीत देसाई ( मराठी में )

मुख्य पात्रः रणदीप हुड्डा ( राजा रवि वर्मा )           अनुवादकः विक्रान्त पाण्डेय्‍ ( अंग्रेजी )

                नन्दना सेन ( सुगन्धा )                      प्रकाशकः Harper Perennial

                परेश रावल ( सेठ गोवर्धन दास )

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