Followers

Wednesday 5 August 2020

पुस्तक चर्चा - खामोश अदालत ज़ारी है ( नाटक )


पुस्तक
चर्चा

पुस्तकखामोश अदालत जारी है.

विधानाटक

लेखकविजय तेन्दुलकर ( मूल मराठी नाटक, ‘शांतता कोर्ट चालू आहेका सरोजिनी वर्मा द्वारा हिंदी अनुवाद )

प्रकाशकराजकमल पेपरबैक्स

*********************************

“ … मेरा पुरुष दुम दबाकर भाग गया. इतना क्रोध आया उस पर कि जी चाहा सरे-बाज़ार खड़ा करके उसका मुँह तोड़ दूँ. थूक दूँ उसके मुँह पर ! पर उस समय मैं बहुत छोटी थी , कमजोर थी, अनजान थी. अपने को मृत्यु के हवाले करने के लिए घर के छज्जे से कूद पड़ी … “

*****************

“ … यह बीसवीं शताब्दी के सुसंस्कृत मानव के अवशेष हैं. देखो ये चेहरे कितने जंगली लग रहे हैं. होठों पर घिसे-पिटे खूबसूरत औपचारिक शब्द हैं, भीतर अतृप्त और विकृत वासनाएँ … “

********************

“ … और फिर बोली कि उस लड़की ने उस आदमी की बुद्धि पर श्रद्धा की थी, मगर उसे सिर्फ लड़की का शरीर ही नज़र आया … “

************************

ये कुछ संवाद हैं इस नाटक के जो इसके केन्द्रीय चरित्र, कुमारी बेड़ारे के हैं. इन संवादों से ही नाटक की विषय वस्तु का बहुत हद तक पता चल जाता है. नाटक समाज और उसमें भी पुरुष, की यौन कुण्ठा, स्त्री विरोधी मानसिकता और उसके यौन व्यवहार पर चटखारे लेने की प्रवृत्ति को उजागर करता है. स्त्री के साथ अगर यौनिक रूप से कुछ बुरा हो या उसका किसी पुरुष से कोई सम्बन्ध रहा हो / हो तो समाज मौक़ा मिलते ही उसकी परते उधेड़ता है, उसे नंगा करने की कोशिश करता है, यह और बात है कि इसमें उस स्त्री से अधिक वह ख़ुद ही नंगा होता है मगर उसकी नंगई समाज को ( वह लक्ष्य स्त्री समाज का अंग होते हुए भी उस समय समाज का अंग नही होती ) नंगई लगती ही नही. कितना ही सभ्य समाज हो, बल्कि सभ्य समाज ही अधिकतर, मौक़ा पाते ही अपनी सभ्यता का आवरण उतार देता हैयही कथ्य है इस नाटक का और नाटक इसे पेश करने में सफल है.

नाटक में आठ पात्र हैंछह पुरुष और दो स्त्रियां. पुरुष पात्र समाज के सामान्य से लेकर प्रतिष्ठित वर्ग तक से हैं, मुख्य पात्र, कुमारी बेड़ारे, एक शिक्षिका है. सभी लोग एक नाट्य दल के हैं, कुछ कलाकार हैं , एक सहायक और कुमारी बेड़ारे सहित शेष नाट्य रसिक संगी साथी. सब एक हॉल में आये हैं जहां शाम को नाटक का मञ्चन होना है. चूँकि मञ्चन में देर है सो समय बिताने और पूर्वाभ्यास के तौर पर यह तय होता है कि क्यों नाटक खेला जायशाम वाला नाटक नही बल्कि एक नकली नाटक, अदालत का एक सीन. कुछ ना नुकुर करते इस पर सहमति बनती है तो तय होता है कि जो जज, गवाह वगैरह बनेंगे वे तो वही पार्ट करें और अभियुक्त कुमारी बेड़ारे बने जिस पर मुकदमा चलाया जाय, गवाहियां हों तो नाटक का रंग जमे. अब कुमारी बेड़ारे पर आरोप होता है कि उसने भ्रूण हत्या की है और चूँकि वह अविवाहित है, शिक्षिका भी है तो उसका अपराध और भी जघन्य है. मिस बेड़ारे आपत्ति करती है किन्तु सभी, “नाटक ही तो है/ समय बिताने और मनोरंजन के लिये है … “ कह कर आपत्ति खारिज कर देते हैं और नाटक में नाटक शुरू हो जाता है और यहीं से उधड़ने लगती हैं सबकी परतें जो बहुत कुछ तो मुकदमा का विषय तय करते ही उधड़ गयी थी. अदालत उस पर अभियोग लगाती है और अपराध स्वीकार करने को कहती है. स्वाभाविक ही वह आरोप से इन्कार करती है, कई बार इस खेल में रुचि लेने और जाने की बात कहती है किन्तु उसकी कोई नही सुनता. गवाह आते हैं और उसके यौनिक चरित्र की बखिया उधेड़ने लगते हैं. उसके पुरुषों से सम्बन्ध के, गर्भवती होने के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं और उसे कुलटा / व्याभिचारिणी सिद्ध करने पर तुल जाते हैं. वह आपत्ति करती है, जाने को कहती है तो जाने नही देते किनाटक ही तो है, सचमुच थोड़े है, इस आरोप से नाटक में रोमाञ्च पैदा हो रहा हैकुछ देर तो लगता है कि नाटक ही है किन्तु शनैः शनैः यह स्पष्ट हो जाता है कि वे उसके वास्तविक जीवन की चीर फाड़ कर रहे हैं, उसमें रस ले रहे हैं. नाटक में शामिल हर व्यक्ति, यहां तक कि सहायक और दूसरी सम्भ्रान्त महिला भी उसके व्यक्तिगत जीवन की परतें खोलती है. यह भी पता चलता है कि जब वह चौदह वर्ष की थी तो उसके मामा ने उसका यौन शोषण किया था. उसमें भी उसकी ग़लती बतायी जाती है और चटखारे लिये जाते हैं. बाद में वह एक वृद्ध और बाल-बच्चों वाले प्रोफेसर के सम्पर्क में उनकी बौद्धिकता से प्रभावित होकर आयी, श्रद्धा शारीरिक सम्बन्ध में बदली, वह उनसे गर्भवती हुई और उन प्रोफेसर ने भी उसे दुत्कारा, कुलटा सिद्ध किया तब उसने भ्रूण हत्या की. जब इस नकली अदालत में भी सब उसे अपराधी साबित करके भर्तसना करते हैं तो वह टिक ट्वेण्टी ( ज़हर, जो उसके पर्स में था ) पीने का प्रयास करती है . सब उसे गिद्धों की तरह घेरे हुए होते हैं कि जैसे उसे इस अपमानजनक स्थिति से छुटकारा दिलाने बाहर से एक व्यक्ति झांक कर पूछता है, “ नाटक कै बजे शुरू होगा ? “ तो जैसे ट्रांस टूटता है और सब ( स्पष्ट है, कुमारी बेड़ारे के अलावा ) हँसते हुए सहज होकर इस नाटक में मज़ा आने कि कहते हैं. यहीं नाटक खत्म होता है.

नाटक में केवल कुमारी बेड़ारे के लिये ही नही बल्कि उस सम्भ्रान्त महिला के लिये भी हिकारत है जो कुमारी बेड़ारे के चरित्र हनन में सुख पा रही थीं, कई बार उनके पति उन्हे झिड़कते हुए उनका तिरस्कार करते हैं. नाटक की खूबी है कि धीरे धीरे ह्गी पाठक / दर्शक पर खुलासा होता है कि यह नकली मुकदमा नही बल्कि उसके निजी जीवन की बखिया उधेड़ी जा रही है.

प्रसिद्ध निर्देशकों के निर्देशन में नाटक के अनेक सफल मञ्चन हुए हैं. नाटक में मञ्च सज्जा कम से कम प्रॉप्स में और सादी है, वेशभूषा भी सामान्य है. नाटक विषय वस्तु और उसके सशक्त निर्वहन से कुछ देर बाद ही बांध लेता हैदर्शकों को भी और पाठकों को भी.



No comments:

Post a Comment