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Wednesday 5 August 2020

पुस्तक चर्चा

पुस्तक – रामराज्य

लेखक – आशुतोष राना

विधा/विषय – राम पर कथा और कथेतर का मिश्रण

प्रकाशक – कौटिल्य बुक्स, 20, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली

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“राम तुम्हारा वृत्त स्वयं ही काव्य है, कोई कवि बन जाय, सहज सम्भाव्य है ।”

 

                                        सचमुच, राम का उदार चरित्र है ही ऐसा कि उसे ह्र्दयङ्गम कर लेने पर हर  व्यक्ति, घटना और उसके कारण तथा परिणाम में सब शुभ ही दिखता है, सब मङ्गलकारी होता है और कोई चरित्र खल नही रह जाता. रामकथा में अनेक खल चरित्र हैं. सबसे बड़ा खल चरित्र रावण है, शूर्पणखा, कुम्भकर्ण आदि खल चरित्र हैं और राम पक्ष में   अपयश की पात्र, वनवास का कारण बनी कैकयी है और राम के चरित्र में भी बालि वध, सीता परित्याग और शम्बूक वध आदि ऐसे मोड़ हैं जो उनके चरित्र पर धब्बा से हैं किन्तु यह रामराज्य पुस्तक के लेखक, आशुतोष राना, की सम्यक्‍ दृष्टि, अध्ययन और अन्तर में पैठी सकारात्मकता है कि उन्होने इन खल चरित्रों और घटनाओं ( बालि वध तथा शम्बूक वध का विवेचन इस पुस्तक में नही किया गया है ) में भी उनका कल्याणकारी हेतु देखा और उनके चरित्र को सकारात्मक रूपो में प्रस्तुत किया. उन चरित्रों का बोधगम्य भाषा शैली में इतना विशद विवेचन किया है कि उनके उस खल व्यवहार के पीछे का कल्याणकारी कारण उपस्थित हो जाता है.  उन चरित्रों के दिखने में राम विरोधी कार्यों को किसी न किसी तरह औचित्य प्रमाणित करने की चेष्टा नही की बल्कि उनका ऐसा विश्लेषण किया कि उनके प्रति सहानुभूति नही बल्कि आदर का भाव उत्पन्न होता है. 

 पुस्तक में क्रमानुसार / अनवरत रूप से रामकथा नही है बल्कि पात्रों, स्थान व घटनाओं का विवेचन किया है, कथा से अधिक विवेचन है ( कहीं कहीं विशद विवेचन इस कथा को  कथारसिक पाठक के लिये बोझिल भी कर देता है )  इसी कारण मैने इसे कथा के साथ ‘कथेतर’ की श्रेणी में भी रखा.

 पुस्तक में 11 अध्याय हैं जिनमें पहला कैकेयी पर, दूसरा सुपर्णा- शूर्पणखा पर, पञ्चवटी पर दो अध्याय हैं. लङ्का नाम से दो अध्याय हैं, लङ्का पर तीन अध्याय हैं जिन्हे विजयपर्व नाम से दिया है, ये विजयपर्व युद्धकाल के हैं जो कुम्भकर्ण, विभीषण और रावण का विवेचन करते हैं और अन्तिम अध्याय सीता परित्याग है.

 कैकेयी ही राम के वनवास और प्रकान्तर से दशरथ की मृत्यु का कारण बनी. मन्थरा द्वारा भड़काये जाने पर कैकेयी ने राजतिलक की पूर्व रात्रि को दशरथ को वचनजाल में फंसा कर राम को चौदह वर्ष का वनवास और भरत को राजगद्दी का वर मांगा जिसे वचन हार चुके दशरथ ने पूरा किया. राम को वनवास मिला, उनके साथ सीता और लक्ष्मण भी वन को गये और राम का वियोग सह न पाने के कारण दशरथ ने प्राण त्याग दिये. भरत, जिनके लिये राज्य मांगा गया, उन्होने भी इसे स्वीकार न किया और अपनी माता की निन्दा की. इस प्रकार कैकेयी संसार की घृणा की पात्र बन गयी.

                                    आशुतोष जी ने इस अध्याय में बताया है कि इन वरदानों को मांगने के पीछे कैकेयी की भरत के निष्कण्टक राज्य की लिप्सा नही थी अपितु राम जी ने ही उनसे यह प्रार्थना की थी. राम केवल अयोध्या तक सीमित न रह कर जन के बीच जाकर उनके कष्ट निवारण करना चाहते थे. वे राजा नही जननायक के रूप में लोगों को साथ जोड़ना चाहते थे. अयोध्या के राजा के रूप में यदि रावण एवं उसके अनुचरों के विरुद्ध युद्ध छेड़ते तो यह राज्य विस्तार लिप्सा होती. कैकेयी के समझाने पर भी उन्होने उन्हे सहमत कर ही लिया और राम का आग्रह व जन कल्याण को ध्यान में रख कर वे युगों तक रहने वाले इस लाञ्छन को स्वीकार करने को तैयार हो गयीं. यब बात राम और कैकेयी के अतिरिक्त किसी को नही पता थी.

                              कैकेयी के देव / जन कार्य में सहायक होने को लगभग सभी ग्रन्थकारों ने माना है. तुलसी ने मानस में इसे सरस्वती द्वारा बुद्धि फेर कर देव और जनहित साधना बताया. राम के प्रति कैकेयी का अनन्य प्रेम और राम का उनके प्रति आदर और विश्वास मानस में भी है, मैथिलीशरण गुप्त के “साकेत” में भी और बाद के कई उपन्यासों ( शलभ अग्निहोत्री की रामकथा सीरीज, मदनमोहन शर्मा ‘शाही’ का उपन्यास, “ लङ्केश्वर’ व कई अन्य ) में है किन्तु इस किताब में जैसा सहज और विद्वतापूर्ण निरूपण है, वैसा अन्य में नही. पुस्तक परिचय में इससे अधिक बताया भी नही जा सकता, उचित होगा कि पढ़ॅं. कैकेयी ( व अन्य खल पात्रों के ) बारे में आपकी धारणा बदल जायेगी.

इसी प्रकार सुपर्णा-शूर्पणखा अध्याय में शूर्पणखा  और राम का परिचय, सम्भाषण, राम और शूर्पणखा की सौजन्यता आदि मोहित करने वाली और विश्वासयोग्य है. शूर्पणखा ने रावण के उद्वार के आशय से अपने पिता, विश्रवा, की प्रेरणा से यह प्रसंग सम्पादित किया.

इसी प्रकार वन में सीता को अग्नि को समर्पित करके उनकी छाया को सामने लाने का प्रसंग लाक्षणिक है. वस्तुतः राम सीता को आसन्न संकटों के लिये प्रशिक्षित कर रहे थे, उन्हे कठोर प्रशिक्षण की अग्नि में तपा कर सीता का नया निखरा रूप तैयार कर रहे थे.

 

कैकेयी, शूर्पणखा, सीता ही क्यों – हर चरित्र की बहुत विशद और सकारात्मक विवेचना है जिसका भान पढ़ने पर ही होगा.

                                     पुस्तक हार्डबाउण्ड है, चिकने और मोटे कागज पर है, छपाई बढ़िया और त्रुटिहीन है और कठिन शब्दों के अर्थ भी दिये हैं. इन विशेषताओं को देखते हुए इसका मूल्य ( पाँच सौ रुपया ) अधिक होते हुए भी अधिक नही है. मूल्य के अतिरिक्त एक और बात कथारसिकों के लिये बाधक हो सकती है. चरित्रों  का निरूपण करने की प्रक्रिया में संवाद / स्वकथन बहुधा लम्बे, गरिष्ठ और दर्शन से हो गये हैं – ऐसा लग सकता है कि सरस रामकथा नही, प्रवचन सुन रहे हैं किन्तु खल पात्रों की सकारात्मकता को उभारने के लिये यह आवश्यक था, इस दृष्टि से यह दोष नही, गुण है.

                 हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता । कहहिं सुनहिं बहु विधि सब संता ॥


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