Followers

Monday 21 December 2020

सीता हरण और लक्ष्मण रेखा

 


सियाबर रामचन्द्र की जै ! पवनसुत हनूमान की जय ! बोलो सब सन्तन की जै !

सामने दरी पर बैठे लोगों ने दोनों हाथ उठा कर जयकारा लगाया. कुछ लोगों ने, जो इधर-उधर कुर्सी डाले बैठे थे, बुदबुदाते हुए जयकारा लगाया और जो घरों के अन्दर थे या खिड़कियों पर लटके हुए थे, उन्होनें वहीं से हाथ जोड़ लिये. टेण्ट के बाहर मूंगफली, पान-मसाला और चाय बेचने वालों ने भी वहीं से जयकार की कि भईया, जै तो ठीक मगर तुम्हारे लिये ही बैठे हैं पुड़िया लेते जाओ, मूंगफली ले लो और कहोगे तो अन्दर चाय दे जायेंगे. छोटा सा पण्डाल था. पण्डाल क्या, चार तखत जोड़ कर मञ्च बना था और तीन तरफ कनातें लगीं थीं, ऊपर तम्बू तना था. मञ्च पर राम दरबार की फ्रेम की हुई फोटो रखी थी जिस पर माला चढ़ी थी, साड़ियों की सजावट और एक चौकी पर फलों के ढेर में छुपे सिंहासनासीन शालिग्राम जी. एक-दो डब्बे मिठाई के और एक थाली में आरती का सामान और माईक के सामने धोती-कुर्ता, शाल-तिलकधारी, हारमोनियम के साथ बैठे पण्डित जी.

जयकारा आदि के बाद पण्डित जी बोले, “ हाँ तो भक्तों ! आज सीता-हरण प्रसंग की कथा होगी. सीता मैया ने एक हिरन देखा जिसकी खाल सोने की तरह चमक रही थी और उस पर रत्न जड़े हुए थे. जब वह कुलाचें भरते हुए पास से निकला तो देखा सोने की तरह क्या, वह सोने का ही हिरन था. फिर क्या था, मैया ललचा गयीं और राम जी से कहा, “  ऐ जी ! मुझे वो हिरन ला दो ना. हिरन न लाओ, उसका शिकार कर लाओ और उसकी खाल ले आओ.” राम जी बोले, “ हटो, तुम भी ना ! अरे कहीं सोने का हिरन होता है ! और अगर हो भी तो क्या वो जिन्दा होता है. अरे यह सब राक्षसी माया है, इसमें न फंसो” तो सीता जी बोलीं, “ नाथ, अलसा रहे हो कि डर रहे हो.  अब माया हो कि ब्रह्म ! हम तो सोने के हिरन की खाल लेंगे. अब जाओ ना शिकार करने.” अब सीता मैया हठ कर बैठीं औ तिरिया हठ तो अप सब जानतय हो, तो राम जी चले उसके पीछे और लछमन जी से कह गये कि देखे रहना, भाभी को छोड़ कर कहीं जाना नही. वन में बहुत राक्षस घूम रहे हैं. मैं इसका वध करके तुरन्त आया.

हे भक्तों ! भगवान तो सब जानते हैं. वे मनुज अवतार में थे सो लीला कर रहे थे वरना क्या वो जानते न थे कि यह रावण का फैलाया खटराग है. यह मारीच है जो कपट मृग बन कर आया है और मुझे दूर ले जाकर, लक्ष्मण को धोखे से बुलाकर सीता को हर ले जायेगा. यह मैया भी जानती थीं मगर लीला करनी थी. राम जी उधर चले, वह कभी प्रकट होता तो कभी छिप जाता. कभी लगता कि बस हाथ से पकड़ लेने की दूरी पर है तो अगले ही पल जैसे कोसों दूर. गोस्वामी जी ने बड़ा सुन्दर वर्णन किया है. यह कह कर पण्डित जी हारमोनियम बजा कर गाने लगे -

कबहुँ  निकट पुनि  दूर पराई। कबहुँक प्रगटइ कबहुँ  छुपाई॥

प्रगटत दुरत करत छल भूरी। एहि बिधि प्रभुहि गयउ लै दूरी॥

तब तकि राम कठिन सर मरा। धरनि परेउ करि घोर पुकारा॥

लछिमन कर प्रथमहि लै नामा। पाछें सुमिरेसि मन महुँ रामा॥

 

पहले तो वह दुष्ट राम जी को दूर ले गया और जब राम जी ने उसे तीर मारा तो उनकी आवाज़ में लछमन जी को पुकारा. हा लक्ष्मण ! हा सीते !! यह  कातर पुकार सीता जी के कान में पड़ी तो वे व्याकुल हो उठीं और बोलीं, “ देवर जी, इनके प्राण संकट में हैं और वे मदद के लिये तुम्हे पुकार रहे हैं. तुरन्त दौड़ो .”

लछमन जी बोले, “माता, भैया राम को कौन संकट में डाल सकता है. यह उस दुष्ट की चाल है कि मैं उधर जाऊँ और इधर आप अकेली हों तो आपका कुछ अनिष्ट हो. भैया ने पहले ही कहा था कि ये सोने का हिरन नही, किसी राक्षस की माया है. मैं आपको छोड़ कर कहीं नही जाने वाला.” तब सीता मैया ने लछमन को कुछ लगने वाले बातें कहीं  कि तुम्हारे मन में खोट आ गया है.

जाहु बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता॥

भ्रूकटि बिलास सृटि लय होई। सपनेहुँ  संकट  परै  कि  सोई॥

मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला॥

 

हे भक्तों ! भला माता सीता लछमन को ऐसे कह सकती हैं. यह भी लीला थी जो दोनों मिल कर खेल रहे थे. रावन समझ रहा था कि उसने राम जी को माया में फंसा लिया मगर प्रभु उसे फंसा कर मरन की ओर ले जा रहे थे. अब जब सीता जी बारम्बार कहने लगीं, उन्हे लांछित भी किया तो लछमन जी ने धनुष की नोक से कुटिया के सामने भूमि पर एक रेखा खींच दी और कहा, “ माता, इसे मत लांघना. इसके अन्दर आप सुरक्षित हैं. यह कह कर वे चले. इधर रावन निशंक होकर आया और बड़े दर्प से कि अब तो सीता अकेली है, कुटिया की तरफ बढ़ा. लेकिन ये क्या ! एक बिजली सी कौंधी, उसे झटका लगा और वह सहम कर पीछे हट गया. फिर उसने संभल कर धीरे से एक पैर बढ़ाया तो आग की लपट उठी और उसने पैर वापस खींच लिया. अब उसने ध्यान लगाया तो देखा कि एक अर्धवृत्त जैसी रेखा खिंची है जिसे पार किये बिना कुटिया में जाया नही जा सकता और पार करने में जान जा सकती है यह तो वो देख ही चुका था सो उसने माया से जोगी का भेस बनाया और  भिक्षाम्‍ देहि ! का घोष किया. अब गृहणी के द्वारे कोई भिक्षुक आये तो वह कैसे खाली हाथ जाने दे सो सीता मैया अन्न-फल लेकर चलीं. अब उन्हे तो मालूम था कि लक्ष्मण ने रेखा खींची है जिसे लांघना नही है सो उन्होनें कहा, “ महराज, द्वार पर आकर भिक्षा ले लीजिए” अब रावन कैसे जाता तो उसने दुर्वासा सा अभिनय किया. चेहरा तमतमा उठा, जटा फटकार कर गुस्से में बोला, “ देवी ! हम जोगी हैं, गृहस्थ के द्वार नही जाते. भिक्षा देना है तो यहां आकर दो नही तो आज भूखे ही सो रहेंगे.” अब मैया कैसे किसी को अपने द्वारे से भूखा और असन्तुष्ट जाने देतीं, ऊपर से जोगी-जती को, धर्म भी जाता है और कहीं श्राप दे दे तो क्या न अनिष्ट हो जाय. गृहस्थ और जोगी का मान रखने को सीता मैया कुटिया से बाहर निकलीं. अब जगत्माता को लक्ष्मण रेखा क्या व्यापती, निःशंक होकर रेखा पार की. ज्यों ही मैया ने रेखा पार की, रावण ने कपट वेश त्यागा और उन्हे उठा कर आकाश मार्ग से ले भागा. वैसे रावण भी जानता था राम और सीता की महिमा को और यह भी जानता था कि उसकी मुक्ति राम जी द्वारा वधे जाने में ही है तभी उसने मन ही मन मैया सीता के चरणों की वन्दना की. गोस्वामी जी कहते हैं –

तब रावन निज रूप देखावा। भई सभय  जब नाम सुनावा॥

कह सीता धरु धीरजु गाढ़ा। आइ गयउ प्रभु रहु खल ठाढ़ा॥

जिमि हरिबधुहि छुद्र सस चाहा। भएसि काल बस निसिचर नाहा॥

सुनत  बचन  दससीस रिसाना। मन  महुँ  चरन बंदि  सुख माना॥

 

              क्रोधवंत  तब  रावन  लीन्हिसि  रथ  बैठाइ।

             चला गगनपथ आतुर भयँ रथ हाँकि न जाइ॥

 

“ठहरिये पण्डित जी ! एक शङ्का है ! “

“बैठ शंकालु कहीं के ! हर बात में मीन-मेख, हर जगह शंका ! राम कथा में भी शंका उठाता है. अरे जब विश्वास ही नही तो कथा में आया क्यों और जब आ ही गया है तो चुपचाप बैठ कर सुनता क्यों नही.”

“ अरे भाई शंकाधर ! कोई लघु या दीर्घ किस्म की शंका हो तो जाओ और दीवार के पास समाधान कर आओ. यह कोई  स्कूल की क्लास है कि पण्डित जी से पूछ कर ही जाना हो. “

“हँसी ठट्ठा मत करो कथा में. यह चार किताबें क्या पढ़ गया है कि हर बात में शंका उठाता है. याद नही, सावन में जब भागवत बैठी थी तब भी इसने ऐसे ही भम्भट किया था. भगाओ इसे !”

“शांत-शांत !  उत्तेजित न हों , झगड़ें नही और इसकी बात भी सुन लें. शंका है तो उसका समाधान भी किया जायेगा.” हाँ तो बेटा ! क्या शंका है तुम्हारी !”

“पण्डित जी ! आप कथा में चौपाईयां और दोहे तो रामचरित मानस के सुना रहे हैं, आप ही नही , सारे ही लोग राम कथा के लिए रामचरित मानस को आधार मानते हैं किन्तु मानस में तो ‘लक्ष्मण रेखा’ का ज़िक्र ही नही. बाबा तुलसी ने कहीं भी नही लिखा कि राम की सहायता को जाते समय सीता की सुरक्षा के लिए उन्होनें लक्ष्मण रेखा खींची थी जिसे सीता जी के अलावा कोई पार नही कर सकता था फिर ये आप कहां से लक्ष्मण रेखा ले आये. आप ही नही, तमाम रामलीलाओं में, फिल्मों में, सीरियलों में लक्ष्मण रेखा दिखायी जाती है, यहाँ तक कि असम्भव सा लक्ष्य पार करने के लिए या मर्यादा के लिए लक्ष्मण रेखा जैसा मुहावरा भी बन गया. कहाँ से हांकी यह लन्तरानी. कहाँ पढ़ा लक्ष्मण रेखा के बारे में. राम चरित के लिए वाल्मीकि रामायण प्रमाणिक माना जाता है, उसमें भी लक्ष्मण रेखा का कोई उल्लेख नही, फिर कहाँ से निकल पड़ी लक्ष्मण रेखा ?”

“बैठ- बैठ“ “निकल बाहर अधर्मी, नास्तिक कहीं का !” “पूज्य धर्मग्रन्थों और पण्डित जी पर शंका करता है ! “ “ कह तो ऐसे रहा है जैसे इसने सारे धर्मग्रन्थ पढ़ रखे हैं ! “  चारो तरफ कौआरोर मच गया.

“ हाँ ! पढ़ रखें हैं ! सारे नही तो कुछ तो पढ़ ही रखे हैं, ये देखिये रामचरित मानस में ही
मरम बचन जब सीता बोला। हरि प्रेरित लछिमन मन डोला॥ के तुरन्त बाद अर्धाली है –

बन दिसि देब सौंपि सब काहू। चले जहाँ रावन ससि राहू॥

लक्ष्मण जी वन और दिशाओं के देवताओं को सौंप कर चले. कहीं रेखा खींचने की बात नही और कुछ दूर जाने के बाद लौट पड़े हों और रेखा खींची हो, ऐसा भी कुछ नही. रावण भी जब आया तो कहीं भी  लक्ष्मण रेखा लांघने की बात नहीं और न ही उसने ऐसा कुछ कहा कि बाहर आकर भिक्षा दो. गोस्वामी जी लिखते हैं –

नाना बिधि करि कथा सुहाई। राजनीति भय प्रीति देखाई॥

कह सीता सुनु जती गोसाई।  बोलेहु बचन  दुष्ट  की  नाई॥

तब रावन निज् रूप देखावा। भई सभय जब नाम सुनावा॥

इसके बाद की चौपाईयां तो आप सुना ही चुके हैं कि कैसे उसने रथ पर बैठा लिया और गागनपथ से उड़ चला. इसमें कहीं भी लक्ष्मण रेखा की बात नही.

वाल्मीकि रामायण में भी ‘अरण्यकाण्ड’ के ४५वें सर्ग में मारीच के आर्तनाद और सीता का व्याकुल होना, लक्ष्मण को जाने को कहना, न जाने पर उन्हे कटु वचन कहना एवं लक्ष्मण का जाना है. वहाँ भी लक्ष्मण के बिना कोई रेखा-वेखा खींचे प्रणाम करके चले जाने की बात है. ४६ से ५०वें सर्ग तक  रावण द्वारा सीता की प्रशंसा, उन्हे बहकाना और सीता का वनवास दिये जाने की कथा सुनाना है. ५१वें सर्ग में सीताहरण है. १७वें श्लोक में यह वर्णन है कि रावण ने कैसे सीता को उठाया, श्लोक नही पढ़ूँगा, भक्तगणों की भावनाएं आहत हो जायेंगी. आपको शङ्का हो तो पढ़ लें और इन लोगों को बता दें, इनमें कहीं भी लक्ष्मण रेखा की बत नही है. दोनों ग्रंथ मैं साथ लाया हूँ कि सीताहरण प्रसङ्ग में लक्ष्मण रेखा की बात होगी ही होगी तो मैं इस शङ्का को उठाऊँगा. अब निवारण करें कि लक्ष्मण रेखा की बात ग्रन्थों में न होते हुए भी जनमानस में कैसे व्याप्त हो गयी.”

“ उचित शंका उठायी युवक ! देखो, रामायण यही दो नहीं, बहुत हैं. तुलसी बाबा ने भी कहा है “… रामायन सत कोटि अपारा… “ अब सौ करोड़ तरह की तो नही सौ प्रकार कहो. विद्वान बतते हैं कि तीन सौ से अधिक रामायण देश के विभिन्न भागों और विदेश में प्रचलित हैं.  कथा भेद भी है, अनेक संस्करण हैं कथा के. सीता को रावण की पुत्री भी कुछ राम कथाओं में बताया है तो कहीं राम सीता भाई-बहन बताये गये हैं तो किन्ही ग्रन्थों में लक्ष्मण रेखा का उल्लेख होना सम्भव है किन्तु समस्त देश और उत्तर भारत में विशेष रूप से लक्ष्मण रेखा का प्रचलित होना उन रामायणों के कारण नहीं. “

“ फिर किस कारण है पण्डित जी, लक्ष्मण रेखा कैसे चलन में आयी ?”

“देखो ! मानस की रचना प्रक्रिया और उसमें आये व्यवधान के बारे में तो पढ़ा ही होगा. वाल्मीकि रामायण संस्कृत में है जिसे पढ़ने का न सबको अधिकार था और न सब लोग पढ़ सकते थे सो गुसाई जी ने लोक भाषा अवधी में रामचरित मानस की रचना की. अधिक से अधिक लोग जानें रामायण और रामचरित को सो उन्होनें जगह-जगह इसका मंचन किया, रामलीला आरम्भ कीं. गा-बजा कर नाटक की तरह रामलीला खेली जाती. अब जब सड़क पर खेल हो रहा हो तो उसमें केवल श्रद्धालु भक्त ही थोड़े न आयेंगे, हर तरह के लोग आयेंगे. कुछ रस लेने वाले, कुछ नाच-गाने के रसिया, कुछ ‘भगवान की गाथा है तो चमत्कार तो होंगे ही’ के भाव से, तो कुछ उपद्रव करने वाले. अब तुलसी बाबा को तो सबको साधना था, जितने लोग जुड़ें आखिर होगा तो राम कथा का प्रचार-प्रसार ही सो उन्होनें कभी मंचन में लक्ष्मण रेखा जोड़ दी होगी कि लोगों को लगे कि रावण कैसे जगज्जनी सीता मैया को ले जा सकता है, क्या कोई  बाधा न आयी होगी सो लक्ष्मण रेखा जोड़ दी गयी. लोगों को इसमें आनन्द आया, कुछ ने लक्ष्मण रेखा में नारी की मर्यादा रेखा देखी और यह भी कि मर्यादा तोड़ने वाले को दुष्परिणाम भगतना पड़ता है, चाहे वह सीता जी ही क्यों न हों. यह प्रसंग चमत्कारिक था सो चल निकला और जब एक बार चल निकला तो इसे सीताहरण से हटाया ही नही जा सकता था, जनता चिल्लाने लगती. फिर तो बाद के राम कथा ग्रंथों में बाकायदा यह प्रसंग शामिल कर लिया गया और फिल्मों सीरियलों में भी. वैसे तुलसी बाबा ने सीता हरण प्रसंग में तो कुछ नही जोड़ा और न ही  क्षेपककारों ने इसे प्रक्षिप्त किया किन्तु तुलसी बाबा के मन में यह प्रसंग घर कर गया और उन्होनें मानस के ही लंकाकाण्ड में मन्दोदरी द्वारा रावण को समझाने में इसका उल्लेख कर ही दिया कि लक्ष्मण रेखा खींची गयी थी –

कंत समुझि मन तजहु कुमतिही। सोह न समर तुम्हहि रघुपतिही॥

रामानुज   लघु   रेख   खचाई।  सो  नहिं  नाघेहु  असि  मनुसाई॥

 

अब समझे कि लक्ष्मण रेखा वाल्मीकि रामायण और मानस में न होते हुए भी कैसे और क्यों जनमानस में व्याप्त हो गयी.”

“समझ गया पण्डित जी, जान गया और मान भी गया. मगर पण्डित जी, जो आपने कहा कि बाद के राम कथा ग्रंथों में लक्ष्मण रेखा प्रसंग है, तो बताईये किसमें है !”

“हाँ, हाँ ! क्यों नही ! सुनों ! पण्डित राधेश्याम कथावाचक बड़े मशहूर हुए हैं और उनसे भी अधिक मशहूर हुई है उनकी ‘राधेश्याम रामायण’ चालू भाषा में लिखी और नौटंकी शैली में नगड़िया और पिपहरी के साथ जब उसका गायन होता है तो अंग-अंग फड़क उठता है. सीता हरण के लक्ष्मण रेखा प्रसंग पर बात उठी तो सब भक्तजन उसका यह प्रसंग सुनें –

      आज्ञावश अब विवश थे, लक्ष्मण आज्ञावन्त।

      जाने   को   प्रस्तुत  हुए, कहने लगे  तुरन्त॥

 

पवनदेव,  तुम साक्षी हो,  हे पक्षीगणों, गवाह  तुम्ही।

मेरी इस धर्म नाव के अब, हे सूर्यदेव! मल्लाह तुम्ही॥

आज्ञा-पालन करता हूँ मैं, बस इतना है सन्तोष मुझे।

रघुराई अगर उलहना दें, तुम कह देना निर्दोष मुझे॥

 

       जाते-जाते भी उन्हें, इतना रहा विवेक।

       सीता के चारों तरफ, रेखा खींची एक॥

 

फिर बोले – जाता हूँ माँ, अब तुम सावधान होकर रहना।

आज्ञा के भीतर  दास रहा, तुम  रेखा के भीतर  रहना॥

इस रेखा का  उल्लंघन कर,  जो  पर्णकुटी  में  आएगा।

है आन उसे यह लक्ष्मण की, वह वहीं भस्म हो जाएगा॥“

 

वाह पण्डित जी वाह ! मज़ा आ गया ! सचमुच  बहुत ओजपूर्ण है ! नगड़िया-पिपहरी होती तो और मज़ा आता. पण्डित जी ! अब कल से नगड़िया-पिपहरी वालों का इन्तजाम करके इसी राधेश्याम रामायण का पाठ हो.

प्रेम से दोनों भुजा उठा कर जोर से बोलिये, ‘राजा राम चन्द्र की जै’