एक चटपटी प्रेम कहानी देखें
/ सुनें. संवाद अवधी में हैं. अवधी न समझने
वालों को बहुत थोड़ी सी दिक्कत होगी मगर समझ जायेंगे और अवधी जानने वालों को प्रेम
के साथ माटी की महक महसूस होगी
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"पायो जी मैने, प्रेम रतन धन पायो"
" अरे का भवा ! काहे मार डीजल जनरेटर कस भकभकाय रहे हो ! घंटा खांड़ लेट हुई जाय तो मासूका से अईसे बोला जात है का ! ई तो नाय कि पूछौ के कईसे लेट हुई गई, रस्ता मा कौनौ दिक्कत भई का कि घर से निकरे मा कुछ असलेट हुई गै. ऊ सब तो नाही औ अउतय मार फायर हई गएव. जाय रहे हन हमहु."
"अरे सुनौ तो. तुम तो तनिके मा रिसाय जाती हो. सही कहिन लोग कि मासूका औ बिजली का कौनौ भरोसा नाही, कब आवै, कब जाय. आवै तो झलक दिखाय के चली जाय तो घन्टन न आय. कबहु एतना हाई वोल्टेज कि मार टी.वी. , फ्रिज सब फूंक दे तो कभौ इतना डिम कि जुगनुऔ जादा रोसनी दे."
" अच्छा! तो अब हम बिजली हुई गयेन. हाय रे मोर बच्चा ! मोर मजनू ! मोर जानू ! मोर बेबी ! गुस्सा मा कितना स्वीट लागत है, जी करत है अईसन गुस्सात रहै औ हम देखत रही. अच्छा, अब मान जाव, गाड प्रामिस, अब कबहु लेट न करब . अब बताव, काहे एतना लाल हौ."
कार्तिक पूर्णिमा की शाम को गोमती की महा आरती का आयोजन था. वैसे तो मुझे पता न चलता मगर भतीजे की शादी के सिलसिले मे मुझे आडिट और ऐसा भयंकर, महामूडी आडिटर
के चलते
भी लखनऊ आना पड़ा
अब आया तो जगह-जगह गोमती की महाआरती के होर्डिंग्स लगे थे और सुबह अख़बार मे भी था कि आटा के दीप बना कर गोमती मे तैराये जायेंगे, गोमती भी प्रदूषित न होगी और मछलियों/ कछुओं का भला होगा क्योंकि उन्हे वो खा जायेंगे. चित्रकूट मे मन्दाकिनी ( पयस्विनी ) के तट पर आरती देखी है और बनारस तथा हरिद्वार मे भी तो जब मौजूद था तो अपने शहर की कैसे चूक जाता. कुड़ियाघाट पहुँचा, महाआरती का दृश्य आंखों मे संजोया और कुछ देर घाट के ऊपर बनी पार्क मे बैठा. कुछ देर बाद एक निहायत ज़रूरी और स्थगित न किये जा सकने वाले कार्य से झाड़ियों के पीछे गया तो ये संवाद सुनाई पड़े. अब दूसरों की बातें सुनना तो शिष्टाचार के विरुद्ध है मगर जब कान मे पड़ गयीं तो पड़ गयीं और बातें सरस थीं तो पता चल ही गया कि मान-मनौव्वल चल रही है तो थोड़ा अशिष्ट भी हो ही गया, असहिष्णु होने से तो बेहतर है ना ! बस इतना अशिष्ट नही हुआ कि प्रेमलीला को देखूं भी. पार्क के अंधेरे हिस्से का लाभ उठा कर कुछ अंतरंग व्यापार भी सम्पन्न होने की अवसरानुकूल सम्भावना थी ( होता ही रहता है ऐसे उपयुक्त स्थानों पर ) अर्सा ए फिराक़ के बाद शाम ए विसाल तो होना ही माकूल था, मौका और माहौल दोनो मुनासिब था सो उनकी लीला
मे व्यवधान न हो और कोई मुझे ऐसा करता न देखे - इतनी सावधानी बरतते हुए बातें सुनने लगा. शुरुआती हिस्सा तो सुन ही चुके हैं, अब आगे का भी सुनिये.
" अब का बताई ! कहां तो रोजै मिलब होत रहे कहां इत्ते दिन सन्नाटा खींच दिहो. ना कौनौ खबर, न काल. काल तो छोड़ौ, मिस्ड कालौ नही. एसेमेसौ न किहो, व्हाट्सेपौ पर कुछौ नाही. हमार करि-करि के उंगली घिस गई, घड़ी-घड़ी मोबाईल देखी, मार देखत-देखत बैटरिऔ डाउन हुई जाय, तुमरी तरफ से
निल बटा सन्नाटा.
काल करो तो कभौ अउटाफ रीच बतावै तो कभौ स्विचाफ. बड़ी मुसकिल से कलुआ का पटाय के संदेसा भिजवायन, अब आई हौ तो इत्ता तरसावै के बाद. मुला एक बात है ! बड़ी कातिल लग रही हो, मारै डरिहो का. "
" हटौ ! बेसरम कहीं के ! अइसी बात करत हो कि हमरे मन मा गुदगुदी होय लगत है औ सरमौ आवत है. अच्छा जाव, कुछ आइसक्रीम - वाइसक्रीम लै आव तो बईठ के जी भर के बातें कर लिहो."
" बस बातै करब का !"
" धत बेसरम ! ऐकै बात सूझत है ! अब जाव."
इसके बाद धौल मारने जैसी आवाज़ आई और आशिक़ को बेंच से उठते देखा. मै भी लापरवाही से टहलते हुए मूंगफली लेने चल दिया. ये सब ऊपर बंधे पर मिलता है. हमारा नायक एक चुस्त जीन्स पहने था जिसमे तमाम लटके-झटके लगे थे, फैशन के हिसाब से जांघों पर फेडेड, घुटनों पर फटी और लो वेस्ट. जूते भी स्पोर्ट्स और ऊपर एक मस्त प्रिण्टेड टी- शर्ट और
रे बैन ( डुप्लीकेट ) चश्मा, जो कि शीशे के कोने पर मय लेबल के दबंग स्टाईल मे कॉलर के पीछे लटका था. कमर मे टैब से कुछ छोटा मोबाईल खोंसा हुआ था - कुल मिला कर आशिक़ होने को डिजर्व करता था, माशूक़ को मैने देखा नही. उसने दो सॉफ्टी लीं और मैने सौ ग्राम मूंगफली बढ़िया हरी चटनी के साथ. पहले वो चला और उसके थोड़ी देर बाद मै, कि कहीं वो ताड़ न ले कि ये बुढ़ऊ हम लोगों को ताड़ रहे हैं. वह अपनी पोजीशन ले चुका था और जब मैने अपनी पोजीशन ली तो ये संवाद चल रहा था,
"अब खाव ना आईसक्रीम ! हमका टुकुर-टुकुर का देख रही हो औ ई मुस्की काहे मार रही हौ !"
" अरे मोरे सलमान ! ऊ तो तुम हमका नदीदन तरा देख रहे रहो औ तुमार साफटी पिघल के तुमरी टी सर्ट पर गिर के भारत का नक्सा बनाय रही है. यही बेखुदी देखि के मार हँसी आय रही है. अरे टी सर्टौ खराब किहो औ साफ्टिओ बरबाद किहो. खाय लेतिव तब देखतिव, पहिले कबहु देखेव नाही का हमका, कि हम कहूं भागे जाय रहे हन."
"अरे बाबा ! ई तो नई टी सर्टौ बरबाद हुई गई, पता नही दाग छूटी कि नाही. बताय नही सकती रहो ! "
इसके बाद कुछ लप्पा-झप्पी और खिलखिला कर हँसने की आवाज़ें आयीं. कुछ भाग-दौड़ भी दिखाई
पड़ी और फिर दोनों के हँसते हुए बेंच पर बैठने का आभास हुआ. बड़े मधुर और प्रेम को प्रगाढ़ करने वाले होते हैं ये हँसी-मज़ाक के क्षण, मगर मुझे देखना कहां था, केवल सुनना था और बातचीत शुरू होने ही वाली थी. मुझे भी रस आ रहा था, उत्सुकता भी हो रही थी कि रांझे की हीर आख़िर इतने दिन मिलने क्यों नही आई. उनकी बातें
बनावट से दूर थीं, उनमे वह प्रेम दिख रहा था जो इस तरह के उन बहुतेरे प्रेम सम्बन्धों से अलग था जो औपचारिकताओं, दिखावा, पैसे के दम पर प्रभावित करने की कोशिश, सोफिस्टिकेशन, फ्लर्ट आदि श्रेणी के होते हैं. यह कृत्रिमता से दूर उन्मुक्त प्रेम था. ऐसा जीवन्त प्रेम, जो चाहे परवान चढ़े या न चढ़े, उस पल को पूरी तरह जी ले रहा था. ऐसा प्रेम पढ़े-लिखों और अभिजात्यों मे तो मिलता ही नही. इसमे भले ही छिछोरापन दिख रहा हो मगर ये उन प्रेम सम्बन्धों से तो अच्छा था जिनमें सामाजिक रिश्तों की आड़ मे वास्तव मे छिछोरापन और घृणित
व्यापार होता है. बहुत हो गया मेरा दर्शन, अब आगे के संवाद सुनें,
"अरे दाग का का ! देखेव नाही टी वी मा एरियल केर एडवरटिजमेंट जीसे सारे दाग छूट जात हैं औ कपड़ा नये से अच्छा हुई जात है ! वहै से धोय लिहो."
"ऊ तो कर लेब, ई बताव तुम रहिव कहां इत्ते दिन ! हम तुमरी गली के चक्कर मारी, कहूं कोई से कहलाई कहूं कोई से, मार कामौ का हरजा होय और तुम पता नही काहे मा बिजी रहो कि एको व्हाट्सेपौ न किहो. का देखेव नाई हमार तमाम व्हाट्सेप."
" देखेन काहे नाही औ तुम जिनसे कहलाये रहो, उहौ बताईन मुला टाईमै न मिला."
" अच्छा ! तुमका टाइम न मिला औ हम फालतू हन का ! हियां तो कामौ का बोझ, रोज अठ्ठारा किलोमीटर की आवा जाही अलग से औ तुमका इत्ता टाइम नही मिला कि मिस्ड कालै देतिव. हम मार छटपटाय के रहि जाई औ तुमका हमरे लिये टाइम नही मिला. हमरी जान जाय तुमरी अदा ठहरी. जरा बताव तो, काहे मा अइसी बिजी रहो, कि हमसे मन उकताय गवा है."
" अरे तुम तो नाहक खफा हुइ रहे हो. जानत नही कि हमरी दीदी की सादी रहे, उहै मा मार बिजी रहन. एक जान, सौ बवाल. सबै काम तो हमरे जिम्मे रहें. जरा सा मोबाइल लै के बइठी कि पुकार लग जाय. ऐसेमेस औ व्हाट्सेप, बस देखे भर का बखत मिला. हम तुमसे दूर रहि सकित है का ! बस अपनी न हांकौ, हमरिऔ मजबूरी समझौ."
" अब बातें न बनाव ! हमका सब पता है. बाकी सब काम तो बरब्बर कर रही रहो, बजारौ रोजै जाना होत रहे औ ब्यूटी पारलरौ खूब जाना होत रहे. हमका सब खबर मिलत रही. कभौ प्रिन्स तो कभौ अहमद, रोजै बतावैं कि भैया, भाभी आज बजार मा दिखी रहें. कसम से, का लग रही रहें. आधा
दिन हम देखत रहेन, कभौ ई दुकान तो कभौ ऊ दुकान. जब ब्यूटी पारलर मा घुस गईं तो हम लौट आयेन कि पारलर मा घुसै वाली का कौनौ भरोसा नही कि कब निकले. एक दिन तो पप्पू बताईन कि आज तो भाभी हद्द कर दिहिन. मार हँस हँस के ठेला पर बतासा खाय रही रहें. हँसत जांय औ खात जांय. का बताई भईया ! पाँच पत्ता खाय गईं औ दुई पत्ता टिक्की पहिलेन खाय चुकी रहें. ऊ तो साथ वाली टोकिस कि बतासय खाय के पेट भर लेहो तो जो घर पर खाना बन रहा है, ऊ का फेका जाई, तब बस किहिन ! हंसी-ठठ्ठा करे का, बजार जाय का, ब्यूटी पारलर जाय का, चाट खाय का टैम है औ हमरे लिये एक मिनट नही. औ ई बताव ! तुम कित्ती खबोड़ हो ! पाँच पत्ता बतासा खाय लिहो, हमसे तो एक पत्तओ पूरा न खावा जाय."
" अच्छा ! तो अब हमरे घूमे-फिरे, खाये-पिये पर नजर रक्खी जाय रही है. औ तुमरे निठल्ले दोस्त, यहै काम है कि हमरी जासूसी करें, हमरे
खाये-पिये की एक की अठ्ठारा लगावें, मिलैं अबकी ! औ ई ब्यूटी पारलर का हम अपने लिये जाइत है, इ तुमरे लिये जाइत है. हमरी मजबूरी की नही, बस अपनी पड़ी है. जाव, हम नही बात करित तुमसे."
इसके बाद सिसकने की सी आवाज़ आई. हमारे आशिक़ भाई के तो औसान खता हो गये होंगे, सोच रहा होगा कि कुछ ज़्यादा हो गया. कहीं ऐसा न हो कि रूठ जाये तो माने ही नही. ज़रूर ऐसा ही सोच रहा होगा तभी ये संवाद सुनाई पड़े,
" अरे ! ये का ! तुम तो नाराज हुई गई. अरे हमरा इ मतलब थोड़ो रहे ! हम तुमका नराज कर सकित है का ! अरे, ओफ्फो ! देखो, हमरी कसम !
मान जाव. सारी, हजार बार सारी. ऊ तो हम तुमका इतना चहित है कि इत्ते दिनन की जुदाई मा कुछ अंट संट निकल गवा. देखो, अब हँस देव. ऐ, ऐ
! हँसी ! हाँ अब अच्छी लग रही हो."
"तो तुम अइसी बाते करत काहे हो कि हमका रुलाई आवे ! "
अरे ! घड़ी पर नज़र पड़ी तो झटका सा लगा कि इतना वक़्त हो गया. बातें ही ऐसी थीं कि समय का कुछ पता ही नही चला. अब मामला भी सम पर आता दिख रहा था. हृदय से आशीर्वाद फूटा किन्तु ज़ोर से कुछ कहना मुनासिब न था. अक्षत-वक्षत पास न थे, बस प्रतीकात्मक अक्षत फेंके और मन मे
कहा, "जैसे इनके दिन फिरे, वैसे सबके दिन फिरें"
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