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Friday 7 December 2012

मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा



अभी कुछ दिन पहले एक मुशायरा मे गया ( समझ ही चुके होंगे, बतौर श्रोता ) एक तो समय से पहुँच गया दूसरे राज्यपाल समेत कई बड़े-बड़े लोग आने थे अतः मुशायरा अभी शुरू नही हो सका था, लोगों की आवाजाही ज़ारी थी. अकेले ही गया था सो सीट पर ज़मे रहना मजबूरी थी क्योंकि कुर्सी छोड़ी कि कुर्सी गयी. ऊब को दूसरी दिशा मे ढकेला और आने जाने वाले लोगों की निगहबीनी करने लगा. सच्चे श्रोताओं से लेकर शौक़ीन तक और एलीट तबके के लोगों की तवज्जो के लायक परीचेहरा ख़वातीन पर उड़ती नज़र डाली ही थी कि एक कद काठी, कपड़ों और अन्दाज से सबको आकर्षित कर लेने वाला मोटा कहे जाने लायक सरदार दाखिल हुआ. कपड़े फैशनेबल नही थे और वो बना-ठना भी नही था मगर सलीके के थे. उसके आते ही अगली कतारों मे सरगर्मी शुरू हो गयी.लोग उससे मिल रहे थे और वह लोगों से.  अगली कतारों मे लगभग हर कोई उसे जानता लगता था. शायद वह कोई बिजनेसमैन और उसमे भी कोई ठेकेदार या जनरल आर्डर सप्लायर टाईप का आदमी था जिसकी पहुँच ऊपर तक थी. यह सिलसिला चल ही रहा था कि राज्यपाल जी पधारे और मुशायरा शुरू होने के आसार बनने लगे. इधर –उधर देखने के बाद जब मंच की ओर देखा तो तमाम शायर तश्‍रीफ़फ़र्मा थे और हमारे सरदार जी भी उनमे शामिल थे. कुछ शोरा के कलाम पढ़ लेने के बाद जनाब खुशवीर सिंह ‘शाद’ को आवाज़ दी गयी और पाया कि वही सरदार जी ‘शाद’ साहब हैं. कोफ़्त हुई कि कपड़ों और हाव भाव से इनकी शख़्यियत का बतौर शायर अन्दाज़ ही नही लगा पाया और जब उन्होने मत्ला पढ़ा कि,

“ये सच है पहले कुछ देर तो बिस्मिल तड़पता है

 फिर उसके बाद सारी उम्र भर क़ातिल तड़पता है.

   तो तमाम महफिल वाह-वाह से गूंज उठी. मत्ला ही क्या पूरी ग़ज़ल ही काबिल-ए-दाद थी. बाद मे खोज कर उनका और कलाम पढ़ा, सारा का सारा उम्दा. यह भी पता चला कि शायर होने के अलावा रोज़ी-रोटी के लिये शाद साहब बिजनेस करते हैं (‘नवनीत प्रिंटर्स’, चन्दर नगर, लखनऊ ) अब वे सब कुछ बेच कर विदेश मे बस गये हैं.

मुशायरा मे और लौटने के बाद यही ख़्यालात आते रहे कि वो भी क्या दिन थे जब लोग पेशा, हुनर और शौक के हिसाब से कपड़े पहनते थे और हुलिया बना कर रखते थे. शायर टाईप का आदमी दूर से पहचाना जाता था. जिसका शायरी से उतना भी वास्ता होता था जितना कि सरदारों को सेविंग प्रोडक्ट्स से, वह भी हुलिया देख कर यकीन से कह सकता था कि ये शायर है. करीने से संवारी बढ़ी हुई दाढ़ी, ज़ुल्फें, टोपी, अचकन/ शेरवानी और पायजामा, मुह मे पान वगैरह शायर होने की चुगली कर देते थे. कोई गैर शायर ऐसे हुलिया मे रहता तो लोग ताना कसते कि क्या शायरों जैसी धजा बना रखी है. अब तो कुछ समझ ही नही आता. अच्छा खासा आदमी शायर निकलता है. अब कलाम पढ़ने पर ही पता चलता है कि आप शायर हैं वरना लोग कुछ और समझ कर तवज्जो ही नही देते. पैंट-शर्ट, सूट यहां तक कि जीन्स-टी शर्ट पहना हुआ शख़्स भी शायर निकलता है. इसी तरह कवियों का भी कुछ पता ही नही चलता, न वो कांधे तक लहराते बाल, न महीन चाल और बोली. न गांधी झोला न धोती-कुर्ता. कवियत्रियों / शायरा का तो और भी विचलित कर देने वाला हाल है. इतना सज-धज कर आती हैं कि पता ही नही चलता कि मुशायरा/ कवि सम्मेलन मे आयी हैं कि शादी मे या खुद की सगाई मे.

पहले हर पेशे की तयशुदा पोशाक हुआ करती थी. आयोजनो मे आने वाले दर्शक/ श्रोता भी माकूल धज के साथ आते थे. अब नाच-नौटंकी वगैरह तो शहरों मे होता नही, अब तो संरक्षित किये जाने वाली विधा है मगर जब होता था तो देखकर ही मालूम पड़ जाता था कि चचा नाच या मुजरा मे जा रहे हैं. करीने से चुनी धोती या चूड़ीदार पायजामा, कलफ लगा और चुन्नट पड़ा कुर्ता, अंगौछा, जेब मे नोट, मुह मे पान, बायीं कलाई मे बेला का गजरा और आँखों से लेकर ज़ुबान तक खुमारी… सब मिला कर ऐसी महफिलों मे जाने की पोशाक हुआ करती थी. बाज लोग इन चीजों के अलावा वक़्त ज़रूरत के लिये या रुतबा दिखाने के लिये कट्टा / लाईसेंसी भी रखते थे. जब टेंट मे माल हो, नशे की खुमारी हो, कमर मे असलहा लगा हो और सामने वाला आपसे बढ़कर ज़बर न हो तो इसकी ज़रूरत अक्सर पड़ ही जाया करती थी. मंदिर जाने वाला अलग पहचाना जाता था और मयखाने जाने वाला अलग. अब तो एक्जिक्यूटिव सा दिखने वाला, ब्रीफकेस व लैपटाप से लैस आदमी मीटिंग/ सेमिनार जा रहा कि सत्संग मे, मंदिर मे या मॉडल शाप मे, पब या डिस्को मे – कोई ड्रेस देखकर नही कह सकता.

गुंडे- बदमाशों की अलग पोशाक थी तो डाकुओं की अलग और नेताओं की तो बगुला भगत की तरह सफेद खादी हुआ करती थी. फिल्मो मे भी हिरोईन की अलग तरह की पोशाक थी तो वैम्प और कैबरे डांसर की अलग. अब तो सारे किरदार एक ही तरह की पोशाक मे निभाये जाते हैं… वही वैम्प/ कैबरे डांसर की पोशाक मे. पूजा,शादी-बारात मे पण्डित जी अलग ही दिखते थे.धोती-कुर्ता, अंगौछा,माथे पर चन्दन तिलक, चोटी व कंठी माला के साथ पोथी-पत्रा का झोला बता देता था कि ये पंडित जी हैं. ऐसा शख़्स बारात मे दूर-दूर, नाचने वालों से बिल्कुल अलग और नाश्ता-खाना मे अग्रणी रहता था किन्तु अब पण्डित की भी वो छवि टूट रही है. मेरे एक घनिष्ठ मित्र की शादी थी. बारात दरवाजे लगने वाली थी और बारातियों का नाच चरम पर था कि बारात दरवाजे पर लगी और नाचते- नाचते अगला स्टेप लेकर एक नौजवान द्वारचार स्थल पर वर पक्ष के पण्डित के लिये रखे पीढ़े पर बैठ गया. कन्या पक्ष के पण्डित ने जब आँखे तरेरी तो उसने द्वारपूजा के मंत्र पढ़ने शुरु किये, पता चला कि वो वर पक्ष का पण्डित है.अब पोशाक ऐसा झमेला पैदा करती है.

केवल चित्रकार और रंगकर्मी ही ऐसे बचे हैं जो पोशाक और हुलिया की प्रतिबद्धता अभी भी निबाह रहे हैं. नही पूरी धज होगी तो भी बाल , दाढ़ी, जीन्स पर कुर्ता और कुछ साजो सामान और कुछ देर बात करें तो पता चल ही जाता है कि बन्दा या बन्दी चित्रकला या रंगकर्म से गों ताल्लुक रखता है. पुलिस वालों की तो पेशे के प्रति ऐसी निष्‍ठा है कि वे वर्दी मे न हों तो भी शरीफ आदमी भी ताड़ लेता है कि ये पुलिसिया है.
पोशाक - व्यक्तित्व,पेशा और शौक़ को लेकर कबीर ने कहा था, “मन न रंगाए,रंगाए जोगी कपड़ा… “ यह उन लोगों पर व्यंग्य था जो बाहरी आडम्बर तो खूब करते हैं किन्तु अन्दर से वैसे नही होते जैसा वेश बनाए रखते हैं. उनका क्षेत्र अध्यात्म था अतः यह व्यंग्य उन लोगों पर था जो साधुओं का सा वेश धरे रहते हैं, गेरूआ पहनते व जटा, दाढ़ी बढ़ाये रहते हैं किन्तु अन्दर से वही माया-मोह, राग-द्वेश व छल-कपट मे लिप्त रहते हैं. आज के लोग उन लोगों से अलग हैं. शायद अधिक सच्चे जो कपड़ों की अनिवार्यता को नकार कर जो हैं उसके लिये वैसा हुलिया और पोशाक मे नही काम मे यकीन रखते हैं. आज का शायर शायरी पर ध्यान देता है न कि शायर जैसी पोशाक और हुलिया पर. लेख की शुरूआत ‘शाद’ जी के कपड़ो / हुलिया को देख कर झटका लगने से की थी मगर यह झटका भर्तसना का नही था बल्कि सराहना का भाव उदित हुआ कि मुख्य काम / शौक़ है… पोशाक नही. आज का आदमी मन रंगाए है, कपड़ा नही.
राज नारायण
 

               

 

Monday 3 December 2012

"हाय, हुसैन हम न हुये“



“या हुसैन, या हुसैन ! हाय, हुसैन हम न हुये“
अपने घर से थोड़ी ही दूर टेढ़ी पुलिया चौराहा ( जानकीपुरम् लखनऊ ) से गुज़रते समय जब यह सदा कान मे पड़ी तो निगाह उस तरफ घूमी और निगाह के साथ कदम भी खुद ब खुद रुक गये. मोहर्रम का जलूस निकल रहा था. लोग ठेलों पर ताज़िया रखे, मातम करते हुये कर्बला की ओर ताज़िया दफ़्न करने जा रहे थे. तमाम लोग थे – बच्चे, नौज़वान, बूढ़े, नन्हे बच्चों को गोद मे उठाये औरतें. बड़ी और ऊंची ताज़िया ठेलों पर, कुछ साईकिलों पर तो छोटी ताज़िया हाथों पर लिये लोग थे. जुलूस मे सबसे आगे नौज़वानों का झुंड था जो मातम करते चल रहे थे. चौराहा जैसी खुली जगह पर रुक कर मातम करते. यह चौराहा था सो यहां रुक कर मातम हो रहा था. अब तो मातम अधिकतर छाती व पीठ पर दुहत्थड़ मारते हुए व ट्यूब लाईटों से होता है. मातम मे लोग नंगे बदन छाती व पीठ पर दुहत्थड़ मारते हैं व छाती व पीठ पर ट्यूब लाईट मार कर फोड़ते हैं. डण्डो से पटेबाज़ी ( तलवारबाज़ी की तरह का खेल ) कर रहे थे. मुझे करीब चालीस साल पहले का ज़माना याद आ गया जब मै अमीनाबाद मे रहता थ, हवा इतनी खराब न हुई थी और अमीनाबाद, कैसरबाग और पुराना लखनऊ की तमाम जगहों से अलम, मेंहदी, ताबूत के जुलूस बिना किसी आशंका के निकलते थे. ट्यूब लाईट वगैरह से नही बल्कि जंजीर, छुरियों वगैरह से मातम होता था. बच्चे, नौज़वान ही नही पकी उम्र वाले और बुजुर्ग भी मातम करते थे. दोहत्थड़ों, जंजीर व छुरी आदि से सीना व पीठ खूनमखूम हो जाता था. या हुसैन, या हुसैन की सदा जोश को बढ़ाती थी. ताज़िया दफ़्न करने वाले दिन ( मोहर्रम की दसवीं तारीख़ ) को सजा हुआ “दुलदुल” ( हुसैन का सफेद घोड़ा ) निकलता था. श्रद्धालु औरतें अपने बच्चों को उसके नीचे से निकालती थीं. लखनऊ सोगवार रहता था, नौहाख़्वानी, मर्सियाख़्वानी की मज़लिसें आम थी. अब भी यह सब होता है… मगर पुराना लखनऊ मे और इमामबाड़ों मे. नयी कालोनियों मे यह सब कहां. वो तो जानकीपुरम गावों के बीच व गांव जानकीपुरम के बीच बसा है तो ये दिख गया.

मै तो यादों मे खो गया. चन्द तस्वीरें खींची जिनमे से एक यहां आपके लिये चस्पा कर रहा हूँ.जो साहित्यप्रेमी साथी हैं वे ‘शानी’ की “कालाजल” और ‘राही मासूम रज़ा’ की “आधा गांव” मे मोहर्रम का विशद् वर्णन पढ़ सकते हैं.
(25 नवम्बर'12 को 'फेसबुक' पर लिखा गया.)

Saturday 27 October 2012

घर की वर्षगांठ



(विजयादशमी को 'फेसबुक' पर लिखा था) 


आज हमारे घर की वर्षगांठ है. वर्ष 2003 मे दशहरा के दिन ही यह मकान हमारे घर के रूप मे परिवर्तित हुआ था, हमने गृह पूजन करके ‘गृह प्रवेश’ किया था अतः इसी दिवस को हम घर की वर्षगांठ मानते हैं अन्यथा यह अस्तित्व मे तो इससे पहले आ चुका था, भौतिक रूप से अस्तित्व मे आने से पूर्व हमारे मानस मे… बल्कि मुझसे भी पहले गृहणी, मेरी पत्नी के मानस मे. उनकी ही प्रेरणा और सक्रिय योगदान से यह आकार ले सका अन्यथा मै तो 
ज़मीन-जायदाद का विरोध ही करता था. मेरा योगदान बस इसे क्रय करने और इसका पुर्ननिर्माण कराने हेतु आवश्यक धन ( स्पष्ट ही, ऋण से ) की व्यवस्था करने से अधिक नही रहा. डिजाईन से लेकर खड़े होकर बनवाने तक --- सब उनका ही रहा. इस हेतु मै व घर उनका ऋणी है ( मै तो बैंक का भी ऋणी हूँ ) सम्भवतः अधिकांश मध्यवर्गीय लोगों के घरों के होने मे गृहणी का ही योगदान होता है. घर का नाम भी तभी सोच लिया था, जब इसने आकार लेना प्रारम्भ किया. इसका नाम “पुनर्नवा” रखा जो एक औषधीय पौधा भी है, आचार्य हजारी प्रसाद जी के एक उपन्यास का शीर्षक भी है और इसका यह अर्थ है – जो फिर से नया हुआ हो. यह अर्थ की दृष्टि से अपने नाम को चरितार्थ भी करता है क्योंकि इसका वर्तमान रूप उससे भिन्न हो चुका है जिस रूप मे यह LDA से मिला था. इसके लिये जो नाम सोचे गये थे, उनमे मेरी पहली पसन्द था “इदन्नमम्” जिसका अर्थ है—‘यह मेरा नही है’. यह शब्द अग्निहोत्र मन्त्रों मे आता है जिनमे विभिन्न देवों के नाम आहुति देते हुए कहते हैं, “ इदन्नमम्, इदम् अमुक देवाय् … “ अर्थात यह मेरा नही, अमुक ( देव का नाम लेकर ) देव का है. जो भी अल्प सम्पदा मेरे पास है, उसे अपने नाम से होने के बावजूद मेरे मन मे यही भाव रहता है, “इदन्नमम्”. इस नाम का मेरे अलावा सबने विरोध किया क्योंकि इसकी पूरी सम्भावना थी कि इस नाम का अर्थ पूछा जाता. बताने पर लोग कहते कि आपका नही तो किसका है और यदि आपका नही तो क्यों अपने नाम से रखे हैं. व्याख्या करने पर मुह बिचका कर कहते , “… हर चीज मे दार्शनिकता / विद्वता झाड़ना ज़ुरूरी है क्या ? “ तमाम वितण्डा होता, सो यह नाम भी न हुआ. अब जो भी है, घर की वर्षगांठ पर आपके साथ साझा किया, आज ही खींचा हुआ चित्र भी चस्पा है – कृपया देखें.

सबहि नचावत राम गुंसाई..... नृत्य-गान पर दो शब्द चित्र / चित्र 1- विद्रूप का उत्सव या उत्सव का विद्रूप


पिछले साल की बात है. 25 मई को विवाह गीतों पर आधारित लोक गीतों की एक नृत्य-संगीत संध्या मेबतौर दर्शक/श्रोता शामिल होने का अवसर मिला.उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ मे (जोमेरी जन्मभूमि हैघर भी है  सम्प्रति वहीं नियुक्ति  निवास भी हैचिनहट से थोड़ा आगेइंदिरा नहर के किनारे एक लोक  ग्राम्य कला तथा परिवेश को समाहित किये हुए एकपर परिसर है - "कलागांव." एक बड़े परिसर मे गांव को साकार किया गया है - वही कच्चे छप्पर वाले घरतालाब , नहरबैलगाड़ी, चौपाललोक/श्रम गीतलोक/ग्राम्य कला,ग्राम्य पहनावे में कर्मचारी --- संक्षेप मे वह सब कुछ कि लगे कि हम गांव में हैंयद्यपि सबकृत्रिम है (वातानुकूलित झोपड़ियां भी हैंफिर भी, कर्मचारियों का व्यवहार  भाषा कृत्रिमव्यवसायिक नही है और हमारी नयी पीढ़ी के लिये तो एक कौतूहल  सौगात ही है . (जिन्हे 'कलागांवके बारे मे अधिक उत्सुकता होवे कृपया www.kalagaon.com देखें )
जानकारी देने के चक्कर मे विषयान्तर हो गयाखैरमूल विषय पर आता हूँ.विवाह एक विशद उत्सव ही है और जहां उत्सव हो वहां नाच-गानाढोलक की थाप,छेड़-छाड़रूठनामनानाहर्ष-उल्लास , मान-अभिमाननत होना  आंखॅ नम होना तोहोगा हीअब तो लोग (विशेषतः किशोर वय तक के शहरी/महानगरीय बच्चेतो इन सबके नाम पर बस जो सीरियलों मे होता है-- उसी को ही विवाह गीतरस्मों आदि के रूप मेजानते हैंऐसे में पुरानीगांव की रस्मों  गीतों से युक्त एक शाम तो मनोरंजन से अधिकअपनी विरासत से मुलाकात थी.
पूरा कार्यक्रम एक विवाह की भांति था . विवाह गीतों मे रस्मों/रीति-रिवाजों को याविवाह रस्मों मे गीतों/नृत्य - संगीत को पिरोया गया थाशुरु से जब कन्या का पिता वरदेखने जाता हैतभी से मां-बाप के मन मे कैसी हूक उठती हैएक तरफ तो यह तत्परता कि कन्या के लिये उपयुक्त वर मिले तो दूसरी ओर बेटी के बिछोह का दुःखइस भाव कोवही ठीक-ठीक समझ सकते हैं जो विवाह योग्य कन्या के मां-बाप हों (साथ ही साथसंस्कारी भी होंअति आधुनिक नहीं कि यह सब महसूस भी  कर सकें या थोड़ा-बहुतमहसूस भी करें तो इसे कस्बाई/गंवई मानसिकता मान कर छुपाएं). खुशी और घबराहटदोनो होती हैमां-बाप का यह हाल होता है तो कन्या के मन मे मायका छूटने के दुःख केसाथ भावी घर-वर के प्रति आशंका  उमंग दोनो हीकन्या के छोटे भाई-बहनोंसहेलियोंकी अलग ही खुशी  छेड़-छाड़इन सबको एक सुन्दर/मार्मिक गीत  नृत्य के साथ विवाहके उपयुक्त परिधानों मे सजी महिलाओं/बालिकाओं ने पेश कियापूरा वातावरण सजीव होउठा-- और क्यों  हो ... आकाशवाणी / दूरदर्शन के कलाकार , दूरदर्शन के उदघोषक औरसोने पर सुहागा यह कि श्री योगेश प्रवीन ( इनके नाम से लखनऊ के सुधी जन भली-भांतिपरिचित हैं , अन्य लोगों को बता दूं कि वे इतिहासविदलेखक  लोक जीवन के मर्मज्ञ हैं -उमराव जान समेत अनेक फिल्मों मे भी उनका योगदान हैलखनऊ पर उनकी कईकिताबें हैं और मुझे उनके संसर्ग का सौभाग्य मिला जब मै लखनऊ के विद्यांत कॉलेज मेपढ़ता था जहां वे अध्यापक थेकी परिकल्पना  आलेख से सजी संध्या "अवध कीअमराई " थी.
इसी प्रकार आगे बढ़ते हुए सगाई (बरीक्षा या छेदना), तिलक, बन्ना-बन्नी, हल्दी,नकटा (हँसी - मज़ाक से भरपूर छेड़-छाड़ के गीत), गारी, (प्रेमपूर्ण गालियां - जो कन्या पक्षकी महिलाएं विवाह के दूसरे दिन कलेवा/भात के समय वर पक्ष के लोगों को लक्ष्य करके,नाम ले-लेकर गाती हैं .. कभीकभी ये गालियां फूहड़अश्‍लील  दैहिक सम्बन्धों कोभदेस भाषा मे उजागर करती हुई होती हैं किन्तु कोई बुरा नही मानता.. सब मज़ा लेते हैं. ..... अब भात तो होता नही सो गारी भी नही और अब तो बहुत ही कम महिलाओं को यहआता है , जिन्हें आता है उनकी कोई सुनता नहींअब तो  इन सबके लिये टाईम है बोधअब तो यह सब फूहड़  गवांरपन माना जाएगा भले ही लोग टी.वीपर "लॉफ्टर शो"मे परिवार के साथ इससे भी फूहड़अश्‍लील क्यों  देख रहे होंसुहागविदाई आदि केगीत नृत्य-अभिनय सहित पेश किये गये.
विवाह के हर अवसर पर गीत हैं जिनमे से अधिकांश के साथ नृत्य भी होता हैवहसब अपने मूल रूप मे सजीव हो उठाबारात पर वर पक्ष को उलाहना देते हुए 'बिन बजनीपायल लाए बने ... अपनी दादी नचावत आए बने ... अपनी भाभी/चाची .... नचावत आएबनेगीत हो या ननदोई को छेडते हुए 'सरौता कहां भूल आए प्यारे ननदोईयाहो सबनेसमा बांध दियाजब विदाई की बारी आई तो कन्या का भाई  बाप से लिपट कर रोना "काहे को ब्याही विदेश" गीत सबकी आखें नम कर गयाऔर यह सब सायास अभिनयनही था... इतनी सजीव प्रस्तुति थी... माहौल ऐसा भारी हो गया था कि अभिनय कर रहेकलाकारों समेत सबकी आंखे नम हो गयींबड़ी यादगार  सफल प्रस्तुति रही.
इस शानदार प्रस्तुति के बाद गोरखपुर के किसी (नाम याद नहीगांव से आए ठेठगंवई लोगों द्वारा "कहरवा" (एक पिछड़ी/श्रमिक जातिजो गांवों मे बहुधा बड़ी गरीबी काजीवन बिताती हैद्वारा रचित  गाये जाने वाले लोक गीत  नाचप्रस्तुत करने कीघोषणा की गई  दर्शकों/श्रोताओं से अपेक्षा की गई कि वे इसका भी आनन्द उठाएंगे कलाकारों का उत्साहवर्धन करेंगेविडम्बना यह कि इन सबकी अपेक्षा दर्शकों से ही थी, 'अवध की अमराईकार्यक्रम के कलाकार, उद्‍घोषकसाजिन्दे वगैरह सब मंच तो छोड़ हीचुके थे-- उन्होने थोड़ी देर बैठना भी गंवारा  किया तो दर्शक भी उठने लगे थेखैर"कहरवाशुरू हुआकहां तो इससे तुरन्त पहले ही प्रशिक्षित/व्यवसायिक कलाकारों द्वाराचमक-दमक से भरपूर सधा हुआ कार्यक्रम और कहां ये गांव के लोगइनकी वेशभूषा भीअति साधारण ही थीवही रोज पहनी जानी वाली धोती  बनियान... वह भी झक सफेदनहीबस धुली  बिना प्रेस कीउस पर बनियान को साफ दिखाने के चक्कर मे इतनी नीललगाई थी कि वह खराब लग रही थीगांव अपने वास्तविक/नग्न रूप मे था लेकिन बसयहीं तक हीनता/कमी थी.... जब गाना/पारम्परिक वाद्य (हुड़ुक जोड़ी,ढप  खड़तालशुरूहुए  खुली आवाज मे गाना शुरु हुआ तो जो कला रसिक/मर्मज्ञ थे उन्हे तो भरपूर रसमिलने लगाउन्होने "भरथरी" ( महाराज भृर्तहरि की कथा जो कतिपय कारणों सेजोगी/विरक्त हो गये थे  संस्कृत मे श्रंगार शतकमनीति शतकम  वैराग्य शतकम कीरचना कीशुरू किया... "भिक्षा मांगे राजा भरथरी महरानी < FONT size=3>से." एकबारगी तो लोग रुके मगर  तो बहुत सांगीतिक वाद्य साज-सज्जा और भाषा/बोली भीशहरी लोगों के लिये अनजानी-अबूझ सीउस पर तुर्रा यह कि पहले के कार्यक्रम मे तो सबस्पष्‍ट होते हुए भी दूरदर्शन के प्रशिक्षित उद्‍घोषक थे जो गीत सार बताते चल रहे थे औरकहां यह लोग जिनके पास  तो उद्‍घोषक था और खुद भी कथासार बताने जैसा कुछ नहीकर रहे थे . या तो वे इसमे सक्षम नही थे या उपेक्षा  अन्य कारणों से हीन भावना मे थे,नही तो ये वही लोग थे जो गांव मे रात भर भारी भीड़ के बीच सफल प्रस्तुति देते थेअबतक तो रिकार्डिंग वाले भी सामान समेटने लगे थे जो अप्रत्यक्ष संकेत था कि भैय्यातुमलोग भी समेटोउन लोक कलाकारोंजो सचमुच के लोक कलाकार थेलोक कला काप्रशिक्षण पाये हुए शहरी कलाकार नहीके प्रति सबकी यह उदासीनता यह सोचने परविवश कर रही थी कि यह अभी थोड़ी देर पहले सम्पन्न हुए उत्सव का विद्रूप था या फिरइन कलाकारों के विद्रूप का उत्सव था.
इस सबके बावजूद भी उनकी लगन, उनके खुले गले से निकलती पाटदार आवाज,उनकी मस्तीघोर जिजीविषाउनका नृत्य -गीत-संगीत.... कुल मिलाकर सब कुछ ऐसाथा जो कहीं  कहीं पहले की प्रस्तुति से कमतर नही था और यही कारण था कि वे अपनाकार्यक्रम प्रस्तुत कर रहे थे और कुछ श्रोता अभी तक जमे हुए थे... किन्तु कब तक!धीरे-धीरे लोग कम होने लगेयहां तक कि स्थिति यह आई कि मंच पर केवल कलाकारऔर श्रोताओं मे केवल हम दोनो अर्थात मै और मेरी पत्नी ही बचे थे (बच्चे भी ऊब कर"गांवभ्रमण करने गये थे  जो स्थान पहले श्रोताओं से भरा थावे श्रोतागण भी चले नहीगये थे अपितु गांव भ्रमण/खान-पान मे व्यस्त थेअब तो स्थिति बड़ी असमंजस की हो गयी थीन हमें उठते बनता था न उन्हें कार्यक्रम समाप्त करते बनता थावेकार्यक्रम करनेसंचालन व बंद करने के मंचीय रंग-ढंग से अपरिचित-से लग रहे थेहम उनके लिहाज में और वे हमारे लिहाज में बैठे थेमैने ही बीड़ा उठायाजैसे ही उन्होने गीत समाप्त कियालपक कर मैं मुख्य गायक के पास पहुंचा और प्रशंसा के साथ बधाई दी (झूठी प्रंशसा नही थीलटके-झटके न होते हुए भी वे इसके हकदार थेऔर कार्यक्रम समाप्त हुआ. यही थोड़ी देर पहले के उत्सव का विद्रूप था कि ठेठ ग्राम्य कला के विद्रूप का उत्सव या फिर दोनो ही .
तो सुधीजनोंयह थी उक्त कार्यक्रम की रिपोर्टिंग और कला के दो पहलुओं पर नज़रएक तरफ कला/संस्कृति के साथ-साथ तौर -तरीकेपेशेवराना अन्दाज ( Profesionalism / Perfaction ) व संरक्षण सब कुछ था तो दूसरी ओर सिर्फ कला व संस्कृति थीकलाकार गांव से बाहर लाकर सीधे पेशेवर ( Professionals ) लोगों के बीच छोड़ दिये गये थेफिर भी उन्होने अपनी कला के साथ कोई समझौता नही किया.