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Friday 22 April 2022

रामजन्म का बखान राधेश्याम रामायण में


 

रामजन्म का बखान राधेश्याम रामायण में

तुलसीदास जी ने भी रामायण, रामचरित मानसलोक के लिए ही रची थी. इससे पहले भी रामायण थी किंतु वह  संस्कृत में थीवाल्मीकि रामायणसो स्वाभाविक ही उस पर पण्डितों / विद्वानों का कब्जा था. जनता को वह सुलभ न थी. जितना पण्डित जी कृपा कर सुना देते थे, वह ही जन सामान्य को पता था. पढ़ने का तो प्रश्न ही नहीं. पण्डितों ( ब्राह्मणोंके अलावा अन्य को छूने का अधिकार न था और धर्मग्रन्थ था सो साहित्य की भांति पठनपाठन / चर्चा न होती थी. यह उत्तर भारत या जिसे मिश्रित भाव सेहिंदी पट्टीकहा जाता हैउसकी स्थिति थी अन्यथा तो बांग्ला मेंकृतिवास रामायणतुलसी से पहले लिखी गयी, दक्षिण में, जैनियों मेंदेश भर में अनेक रामायण पाठ / कथा भेद के साथ थीं. यहाँहिंदी पट्टीके विचार से ही बात हो रही है.

                        तुलसीदास जी को अंतःप्रेरणा हुई / ईश्वर का भी परोक्ष आदेश मिला कि रामकथाभाषामें करो.  तुलसीदास जी पर अमृतलाल नागर जी कामानस का हंसभी  इन दिनों  समानांतर पढ़ रहा हूँ, उसमें भीभाषामें रचना करने की प्रेरणा का प्रसङ्ग है. चित्रकूट में तुलसीदास जी को स्वप्न में माता सीता के दर्शन हुए, उम्होंने अयोध्या जाने का आदेश दिया. फिर उन्हें साक्षात हनुमान जी दिखाई दिये, धरती से आकाश तक कनक भूधराकार शरीरा वली छवि में.  फिर वे सामान्य आकार में आ गये और सहसा बाल्मीकि जी बन गए – कपीश्वर के स्थान पर कवीश्वर. आदिकवि के रूप में हि निहोरा किया या आज्ञा की –

 “ भाषा में रामायण की रचना कर. इससे तेरा और लोक का कल्याण होगा. कवीश्वर फिर कपीश्वर के रूप में दिखलाई देते हैं. गगन स्वर गूंजता है – अयोध्या जा, रामायण की रचना कर … “

 तुलसी ने अवधी में रामायण लिखी जो रामचरित मानस नाम से विख्यात है. वह बाल्मीकि की रामायण के समान ही पूज्य और रामचरित का सर्वमान्य / प्रमाणिक आख्यान है. तुलसी ने न केवल भाषा में रचना की बल्कि जन जन में उसका प्रचार – प्रसार हो, इस आशय से काशी में उसका मञ्चन भी किया/कराया. जब संगीत के गायन, वादन, नृत्य, अभिनय आदि अंगों के साथ राम का चरित जीवंत हो उठा तो जन – जन में व्याप्ति हुई, लोगों ने सुना ही नहीं, देखा भी. जन में व्याप्ति जन के बीच उन्हीं की भाषा में जाने से होती है.

 इस तथ्य को बरेली के पण्डित राधेश्याम कथावाचक ने आत्मसात किया और इसे आगे ले गये. इन्होंने तुलसी के मानस को ही आधार बना कर ‘राधेश्याम रामायण’ की रचना की. कथावाचक तो थे ही, उसे गा –गाकर सुनाया. विशेष बात यह है कि राधेश्याम रामायण में लोकप्रिय तत्व हैं. तुलसी की अवधी बहुत से लोगों को सुग्राह्य न थी. रामलीला में  तब नाच – गाना, ढर्रे से हट कर चलताऊ धुनें , हास – परिहास, दोहा – चौपाई से हट कर गाने आदि की गुंजाईश न थी. मानस कथा भक्तिमय आयोजन था सो सरसता / मनोरंजन की चाह रखने वालों को उसमें उतना रस न मिलता था. राधेश्याम जी ने इस जनरुचि को पकड़ा और नौटंकी की धुन में, चालू भाषा और चटपते संवादों ( भले ही  गायन में ) के साथ रामायण रची. उसमें बीच – बीच में गाने भी थे . वह रामकथा तो है ही, नौटंकी का भी मज़ा देती है. पॉपुलर श्रेणी का काव्य है और रामकथा होने से उसमे जाना, सुनना कुछ वर्जनीय सा भी न रहा. उन होंने जनता की नब्ज़ खूब पहचानी और पकड़ ली. राधेश्याम रामायण चाहे मन ही मन में चाहे सस्वर गाकर पढ़िये तो आप ही आप हारमोनियम और नगड़िया जोड़ी बजती सी महसूस होगी. तो ऐसी है ‘राधेश्याम रामायण’

 रामनवमी के संदर्भ में आलेख  शुरू किया था, भयङ्कर गर्मी और तापजनित आलस्य के कारण  विलंब होता गया. विलंब हुआ तो क्या, रामचरित और उसमें भी चारों भाईयों के जन्म का प्रसङ्ग   तो हर समय प्रासङ्गिक और आनंद देने वाला है. तो सुनिए पण्डित राधेश्याम कथावाचक जी ने किन शब्दों में रामजन्म का बखान किया है –

 वृक्षों मे पात नवीन खिले, सरयू तट  सुरसरि कूल हुए।

बागों में कलियों के गुच्छे, खिल उठे खिलकर फूल हुए॥

शीतल सुगंधियुक्त मन्द-मन्द, मलयानिल का  संचार हुआ।

त्रिभुवनपति के स्वागत को, जग ऋतुमति होकर तैयार हुआ॥

उपहार सजाती थी पृथ्वी,  बालियाँ  खेत में  ला – लाकर।

ग्रह – चक्र अवध पै वारी था, लंका पर चक्कर खा – खाकर॥

नक्षत्र, वार, तिथि, योग लग्न, मांगलिक भविष्य बताते थे।

छा गए विमानों पर सुरगण, नभ से जयकार सुनाते थे॥

वह चैत्रशुक्ल नवमी का दिन, अब भी त्योहार हमारा है।

साकेतधाम का दिव्य तेज, लेकर अवतार पधारा है॥

                 मण्डलेश्वर योग था, अभिजित समय ललाम।

                 कौशल्या के धाम में,  प्रकटे शोभाधाम॥

                            कैकेयी के भी हुआ, एक पुत्र उत्पन्न।

                            गोद सुमित्रा की हुई, दो सुत से संपन्न॥

चमके जब घर में चार चंद्र, चौगुना हर्ष आनन्द हुआ।

चौथेपन में चारों सुत पर, राजा को परमानंद हुआ॥

घर द्वार न था ऐसा कोई, जिसमें उस दिन त्योहार न हो।

परिवार न था ऐसा कोई, जिसमें उस दिन त्योहार न हो

बढ़ता विलोककर सुर्यवंश, भगवान सूर्य भी मुदित हुए।

हो गया महीने भर का दिन, इस भाँति दिवाकर चकित हुए॥

तीनों लोकों का गुप्त तेज, छाया उस समय अयोध्या में।

दर्शन करने को सुरदल भी, आया उस समय अयोध्या में

ब्रह्मा आनन्द देखने को, तब ब्रह्मभाट थे बने हुए।

शंकर भी बूढ़े बाबा बन, नृप के द्वारे थे खड़े हुए॥

अवलोका बहुत विराटरूप, देखा विकरालरूप प्रभु का।

अभिलाषा आज सुरों में थी, निरखेंगे बालरूप प्रभु का॥

                  किया नृपति ने जिस समय, ‘जात- कर्म संस्कार’।

                  वेदों ने तब सूत बन, की यों जय – जयकार॥

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 कुछ पण्डित राधेश्याम कथावाचक और  ‘राधेश्याम रामायण’ के बारे मेः

 पण्डित राधेश्याम कथावाचक का जन्म 25 नवम्बर, 1890 को बरेली में हुआ था. उनके पिता, पण्डित बांकेलाल भी भजन गाते थे, संभवतः उन्हीं से राधेश्याम जी मे कथावाचन के बीज पड़े होंगे.

 



1907-08 तक वयस्क होते-होते हिन्दी, उर्दू, अवधी और ब्रजभाषा के प्रचलित शब्दों के सहारे अपनी खास गायन शैली में उन्होंने जो राधेश्याम रामायणरची, वह शहरी-कस्बाई व ग्रामीण धार्मिक लोगों में इतनी लोकप्रिय हुई कि उनके जीवनकाल में ही उसकी हिन्दी-उर्दू में कुल मिलाकर पौने दो करोड़ से ज्यादा प्रतियां छप व बिक चुकी थीं। उनके निधन के वर्षों बाद भी यह सिलसिला थमा नहीं है। बाद में उन्होंने कृष्णायन’, ‘महाभारत’, ‘शिवचरितऔर  रुक्मिणी मंगलवगैरह की भी रचना की। यह बात और है कि उन्हें वैसी लोकप्रियता नहीं प्राप्त हो पायी।

रामकथा वाचन की उनकी विशिष्ट शैली का प्रताप तो ऐसा था कि पंडित मोतीलाल नेहरू ने अपनी पत्नी स्वरूपरानी की बीमारी के दिनों में पत्र लिखकर उन्हें आनंद भवनबुलाया, चालीस दिनों तक कथा सुनी और बेशकीमती भेंटें आदि देकर विदा किया था। एक समय उनसे अभिभूत नेपाल नरेश ने उन्हें अपने सिंहासन से ऊंचे आसन, स्वर्णमुद्राओं की कई थैलियों और चार बाल्टियों में  भरे चांदी के सिक्कों के साथ कीर्तन कलानिधिकी उपाधि दी थी। साहित्यवाचस्पतिऔर कथाशिरोमणिजैसी उपाधियां भी उनके पास थीं।  अलवर नरेश ने महारानी के साथ उनकी कथा सुनी तो एक स्मृति पट्टिका प्रदान की, जिस पर लिखा था-समय समय पर भेजते संतों को श्रीराम, वाल्मीकि तुलसी हुए, तुलसी राधेश्याम! रावलपिंडी में तो उन्होंने बिना माइक के पचास हजार लोगों की भीड़ को शांत व एकाग्र रखकर कथा सुनाने का करिश्मा कर दिखाया था। 1922 में लाहौर में हुए विश्व धर्म सम्मेलन का श्रीगणेश पंडित राधेश्याम के गाये मंगलाचरण से हुआ और बौद्धगुरु दलाईलामा ने दुशाला, तलवार व वस्त्रादि भेंट करके उनका सम्मान किया था। लाहौर में ही हिंदी साहित्य सम्मेलन के बारहवें अधिवेशन में वर्तमान नाटक तथा बायस्कोप कंपनियों द्वारा हिंदी प्रचारविषय पर अपना बहुचर्चित व्याख्यान दिया था। लाहौर की एक सड़क को उनके नाम पर राधेश्याम कथावाचक मार्गकहा जाता था। तो ये था पण्डित राधेश्याम कथावाचक और  राधेश्याम रामायण’ का जलवा.

इसमें आठ काण्ड ( बाल काण्ड, अयोध्या काण्ड, अरण्य – काण्ड, किष्किंधा – काण्ड, सुन्दर काण्ड, लंका काण्ड, उत्तर – काण्ड और लव- कुश – काण्ड ) हैं. पूर्व के सात काण्ड रामचरित मानस में भी हैं किंतु लव- कुश काण्ड या लव कुश की कथा रामचरित मानस में नहीं है. इसके 25 भाग हैं जिनकी व्याप्ति इन्हीं आठों काण्डों में है. इसके मुद्रण और प्रकाशन का अधिकार रणधीर प्रकाशन, हरिद्वार के पास है. यह धार्मिक किताबें बेचने वालों, कुछ बुक स्टोर्स और अमेजन पर भी उपलब्ध है और नेट पर इसकी pdf भी उपलब्ध है. मेरा अनुरोध है कि इसे भी पढ़ें, और मुद्रित प्रति ही खरीद कर पढ़ें. इतना सरल काव्य है कि अर्थ समझने में कुछ कठिनाई न होगी और राम कथा तो है ही.

Friday 8 April 2022

रामचरित मानस व अन्य किताबों में शगुन - अशगुन संकेत

 

शगुन – अशगुन विचार




रामचरित मानस व अन्य किताबों  में शगुन - अशगुन संकेत

पिछली पोस्ट में ‘श्रीरामशलाका प्रश्नावली’ के माध्यम से भविष्य का संकेत पाने के लिए प्रश्न विचार पर चर्चा की गयी. प्रश्न विचार के अलावा स्वप्न फल और विभिन्न पशु –पक्षियों व व्यक्तियों के दर्शन व अन्य संकेतों से शगुन अशुगुन विचार की परिपाटी रही है और आज तक चली आ रही है. कार्य कारण का कोई स्पष्ट व तार्किक सम्बन्ध न होने पर भी पढ़े –लिखे व प्रगतिशील विचारों तक के बहुतेरे लोग भी इन पर विश्वास करते हैं और पालन करते हैं. विश्वास न करें / ऐसा कहें तो भी एक बार मन में शङ्का तो उत्पन्न हो ही जाती है. कहीं जाते समय किसी के छींक देने पर, बिल्ली के रास्ता काट जाने पर, काने व्यक्ति के दर्शन होने पर एक बार तो ठिठक ही जाते हैं व पानी पीकर या कुछ देर ठहर कर या रास्ता बदल कर अशगुन का निवारण करते हैं तो जल भरे पात्र के दिखने पर, दही – मछली के उच्चारण या दर्शन पर कार्य सिद्ध होने का भाव उत्पन्न होता है. शगुन – अशगुन की कोई तार्किकता नहीं, ये मनोवैज्ञानिक प्रभाव डालते हैं जिससे आचरण प्रभावित होता है और तद्नुरूप कार्य.

                                                     यहाँ इनकी तार्किकता पर चर्चा नहीं कर रहा हूँ अपितु श्रीरामचरित मानस व अन्य किताबों में जो शगुन – अशगुन वर्णित किये हैं, उन्हें दिखा रहा हूँ.

 

रामजी ने धनुष भङ्ग किया तो स्वतः ही सीता जीसे उनका विवाह हो गया किंतु वे साधारण लोग तो थे नहीं. एक तो दोनों पक्ष राजा, दूजे राम, लक्ष्मण, सीता अवतारी सो लौकिक विधि से भी तो उछाह के साथ भव्य विवाह होना था –

                  कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना॥

                  टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग विदित सब काहू॥

                                            तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु।

                                            बूझि बिप्र कुलबृद्ध गुर बेद बिदित आचारु॥

सो जनक ने दशरथ के पास दूत पठाए, बारात का निमंत्रण दिया और अयोध्या से बारात चली. अब यह अति शुभ कार्य था तो बारात प्रस्थान के समय शुभ शगुन होने ही थे. देखिए, तुलसीदास जी ने बारात प्रस्थान के समय कौन –कौन  शुभ शगुन गिनाये हैं –

 

बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुभदाता॥

चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई॥

दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहूँ पावा॥

सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बर नारी॥

लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा॥

मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई॥

छेमकरी कह छेम विसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी॥

सनमुख आययु दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना॥

              मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार।

              जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार॥

-         बालकाण्ड ३०२ / १ से ४

बारात ऐसी सजी है कि वर्णन करते नहीं बनता. ऐसे अवसर पर सब सुंदर शुभदायक शगुन होने लगे. चलते समय नीलकण्ठ पक्षी बायीं ओर चारा चुगते दिखा मानों संपूर्ण मङ्गल की सुचना दे रहा हो. दाहिनी ओर सुंदर खेत में कौआ शोभा पा रहा है तो सबको नेवले का दर्शन भी हुआ. त्रिविध ( शीतल, मन्द और सुगन्धित ) हवा अनुकूल दिशा में बह रही है तो सुहागिन स्त्रियां भी भरे हुए घड़े और गोद में बालक लिए आ रही हैं. लोमड़ी बार – बार दिख रही है तो गाय भी सामने खड़ी बछड़े को दूध पिलाती दिखी. हिरनों की टोली दाहिनी ओर से निकल कर गयी, मानो सभी मङ्गलों का समूह दिखायी दिया. क्षेमकरी (सफेद सर वाली चील)  बोल रही है मानों विशेष रूप से क्षेम ( कुशल ) कह रही हो. श्यामा चिड़िया बायीं ओर सुंदर पेड़ पर दिखायी पड़ी दही – मछली और दो विद्वान ब्राह्मण हाथ में पुस्तक लिए सामने से निकले. सभी मङ्गलमय कल्याणकारी फल देने वाले शगुन मानों सच्चे होने के लिए ही प्रकट हुए.

                                                                 प्रकारांतर से तुलसीदास जी ने बताया कि कहीं जाते समय  ये सब दिखना शुभ सङ्केत है, कार्य सिद्ध होगा.

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इसी प्रकार स्वप्न विचार द्वारा भी भावी का सङ्केत सुंदरकाण्ड में सीता – त्रिजटा संवाद में है. सीता को सांत्वना देते हुए त्रिजटा कहती है कि मैनें सपना देखा एक वानर ने लङ्का जला दी और राक्षसों की सारी सेना को मार डाला. रावण नग्न अवस्था में गधे पर बैठा दक्षिण दिशा (यम की दिशा में, मृत्यु की ओर ) जा रहा है. उसके सर मुंडे हुए हैं और बीसों भुजाएं कटी हुई हैं. इस विकराल व दयनीय्त अवस्था में वह दक्षिण दिशा में जा रहा है और विभीषण को लङ्का का राज्य मिल गया है.

                                              ऐसा स्वप्न रावण व उसके कुल के लिए अनिष्ट व सीता के लिए सौभाग्य का सूचक है.

त्रिजटा नाम राच्छसी एका। राम चरन रति निपुन बिबेका॥

सबन्हौ बोलि सुनाएसि सपना। सीतहि सेइ करहु हित अपना॥

सपने बानर लंका जारी। जातुधान सेना सब मारी॥

खर आरूढ़ नगन दससीसा। मुंडित सिर खंडित भुज बीसा॥

एहि बिधि सो दच्छिन दिसि जाई। लंका मनहुँ बिभीषन पाई॥

-         सुन्दरकाण्ड / १०/ १ से ३

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ऐसे ही जब रावण युद्ध करने चला तो अनेक अशगुन होने लगे किंतु उन्हें जान कर भी रावण अभिमानवश उन्हें किसी गिनती में नहीं ले रहा. आयुध अपने आप ही हाथ से गिर जा रहे हैं. रथ से योद्धा गिर जा रहे हैं और घोड़े – हाथी चिक्कारते हुए साथ छुड़ा कर भाग रहे हैं. सियार, गीध, कौए और गधे विकराल स्वर कर रहे हैं और कालदूत के समान उल्लू भयङ्कर शब्द कर रहे हैं.

                                                                    अर्थात युद्ध या किसी विजय यात्रा पर जाते समय हथियार हाथ से गिरे या स्वयं वाहन से गिर पड़े या वाहन खराब हो जाए ( साथ छोड़ दे ) अशगुनिए पशु – पक्षी बोलने लगें तो यह अनिष्ट का सूचक है.

 

असगुन अमित होहिं तेहि काला। गनइ न भुजबल गर्ब बिसाला॥

               अति गर्ब गनइ न सगुन असगुन स्रवहिं आयुध हाथ ते।

               भट गिरत रथ ते बाजि गज चिक्करत भाजहिं साथ ते॥

               गोमाय गीध कराल खर रव स्वान बोलहिं अति घने।

               जनु कालदूत उलूक बोलहिं बचन परम भयावने॥

-         लङ्काकाण्ड ७७/५

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राम जी जब रावण का वध करने को उद्वत होते हैं, 31 बाणों का सन्धान करते हैं तो रावण के लिए अनेक अशगुन होने लगे मानों रावण को चेतावनी दे रहे हों. गधे , सियार और कुत्ते रोने लगे ( यह तो आज भी अशगुन माना जाता है ) नाना प्रकार के पक्षी एकत्र होकर आर्त शब्द करने लगे और दिन में ही तारे और धूमकेतु दिखने लगे. दसों दिशाओं में आग लगी दिखने लगी और पत्थर की प्रतिमाएं भी आंसू बहाने लगीं. धरती हिलने सी लगी और आकाश से रक्त – मांस गिरने लगा.

                                                    यह सब तो भीषण युद्ध और जनहानि के लक्षण हैं ही.  

सुनत विभीषन बचन कृपाला। हरषि गहे कर बान कराला॥

असुभ होन लागे तब नाना। रोवहिं खर सृकाल बहु स्वाना॥

बोलहिं खग जग आरति हेतू। प्रगट भए नभ जहँ तहँ केतू॥

दस दिसि दाह होन अति भारी। प्रतिमा स्रवहिं नयन मग बारी॥

                           प्रतिमा रुदहिं पबिपात नभ अति बात बह डोलति मही।

                           बरषहिं बलाहक रुधिर कच रज असुभ अति सक को कही॥

                           उतपात अमित बिलोकि नभ सुर बिकल बोलहिं जय जए।

                           सुर सभय जानि कृपाल रघुपति चाप सर जोरत भए॥

-         लङ्काकाण्ड / १०१/ ३ से ५

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ये तो मानस में शगुन -अशगुन और अमङ्गल के सङ्केत हैं, कई उपन्यासों में भी ऐसे सङ्केत और शगुन विचार मिलता है. अब होते हैं या नहीं किंतु यह लोकव्याप्ति है. भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ में एक पात्र चीलें मंडराती देख कर अनिष्ट की आशङ्का से ग्रस्त होता है जो सही भी सिद्ध होती है.

 

अशगुन / अमङ्गल सङ्केतों की चर्चा बहुत हो ली, यह शुभ नहीं. तो अब चर्चा करें शगुन विचारने की एक प्रणाली की जिसका वर्णन शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी के वृहद उपन्यास, “ कई चांद थे सरे – आसमां” के एक प्रसङ्ग में है . कुछ नाम या इस आशय की पवित्र किताब को औचक खोल कर पन्ने पर लिखे के अनुसार भविष्य / प्रश्न के संकेत ग्रहण किया जाता है. इसे ‘रमल’ भी कहते थे, ‘फाल’ निकालना भी.

 

उपन्यास में एक प्रमुख पात्र है, वज़ीर. जीवनयापन, केवल जीवनयापन भर नहीं बल्कि विलासिता पूर्ण जीवनशैली, के लिए वह वेश्यावृत्ति अपनाती है किन्तु साधारण वेश्याओं की तरह जिस-तिस के लिए नहीं बल्कि शासक ( नवाब ) की रखैल बनने का. इसके लिए वह उच्च वर्ग की महफ़िलों में पैठ बनाती है और नवाब से शारीरिक संपर्क कर लेती है किन्तु उसे संशय रहता है कि यह एक् दो बार / कभी-कभी का सिलसिला होगा या नवाब साहब उसे ‘रख लेंगे’. ऊहापोह में वह ‘फाल निकलवाने’ का आसरा लेती है और इसके निष्णात हैं पण्डित नन्द किशोर.

 

पण्डित जी आते हैं. आव भगत आदि के बाद पण्डित जी कहते हैं –

“ अच्छा, किसी फूल का नाम लो.” उन्होंने कहा.

“जूही,” उसके मुंह से बेइख़ित्यार निकला.

पण्डित नंद किशोर ने आंखें बंद कर लीं. तस्बीह के कुछ दाने फिराए, फिर एक पल बाद बोले, “ देहली के उत्तर-पश्चिम में , यहां से बहुत दूर भी नहीं, नवाबी रियासत है, रियासत के मालिक का नाम, … “उन्होंने कुछ पल ख़ामोशी रखी, “ … शम्सुद्दीन अहमद ख़ां है.”

वज़ीर का चेहरा शर्म से गुलाबी हो गया. वो सिर झुकाए – झुकाए बोली, “ सरकार के लिए ज़ाहिर का बयान क्या, लेकिन मेरा जी बहुत डरता है कि … “

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“ … कि इस वक़्त क्या किया जाए ? क्यों, ऐसा ही है न ? नवाब की तरफ से सिलसिला शुरू होने का इंतज़ार कर रही हो ?”

“ जी, वो तो हो चुका. लेकिन इसके बाद अब मैं क्या करूं ? और इंतज़ार करूं या उनके क़दम पर क़दम बढ़ाऊं, मेरी तो अक़्ल काम नहीं कर रही. “ यह कहते हुए वज़ीर की आंखों में आंसू छलक आए.

“ तो इसमें घबराने की क्या बात है ? बीबी, बात तो सामने की है लेकिन चलो, तुम्हारे इत्मीनान के लिए ख़्वाजा साहब से पूछ लेते हैं.”

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इसके बाद ख़्वाजा साहब  से पूछने का उपक्रम हुआ जो ‘श्रीरामशलाका प्रश्नावली’ जैसा ही है. ‘दीवाने – हाफ़िज’ को मंगवाया गया. मगर ठहरें, मंगवाने से पहले माहौल बनाया गया – कमरा फिर से ख़ुशबू, इतर, लोबान वगैरह से पाक किया गया,  ‘पाक – साफ़ हाथों’ से पाक काग़ज का एक ताव, पाक रोशनाई की दवात, नए नरकुल का एक टुकड़ा मंगाया गया. ‘दीवाने – हाफ़िज’ की एक प्रति को अख़रोट की लकड़ी के नक़्क़ाशीदार रिहल पर रख कर लाया गया, दरवाज़े सब बंद कराए गए और लिसानुल – ग़ैब ( ग़ैबी आवाज़, ख़्वाजा हाफ़िज – जिनका इंतक़ाल सदियों पहले हो चुका था – का ध्यान करने को कहा गया. फाल निकालने के ग्रह – नक्षत्रों की दिशा- दशा विचारी गयी, जब दूसरा पहर लग गया तो पण्डित जी ने ख़्वाजा साहब के सामने सवाल मन में  रख कर दीवान का पन्ना ( कोई भी ) खोला और एक हर्फ़ पर उंगली रखी. यह हर्फ़ था ‘दाल’ ( उर्दू में ‘द’ )  बीबी से काग़ज पर दाल लिखने को कहा. फिर कुछ गिनतियां कीं और कहा, अब लिखो ‘रे’, फिर गणना के बाद आया’अलिफ़’ , फिर ‘छोटी हे’ … वज़ीर  निर्देशानुसार लिखती गयी तो दीवान में मजूद ग़ज़ल का मतला बना –

                                    ऐ पै के – रास्तां ख़बरे – सर्वे – मा बिगो

                                    अहवाले – गुल ब – बुलबुले – दस्तां सरा बिगो.

( ग़ज़ल फारसी में है, इस मतला का अर्थ हुआ, ‘ ऐ सच्ची ख़बरें देने वाले, हमारे सरों की ख़बर कह, गुलाब के फूल का हाल चहचाती हुई बुलबुल से कह )

इसका संकेत पण्डित जी ने ऐसे बताया –

उन्होंने मज़े की हालत में ज़ानूं पर हाथ मारा औरर फ़रमाया, “ख़्वाजा – ए- शीराज़ ने तुम्हें बादशाह और उन्हें भिखारी ठहराया है. सिर्फ़ यही नहीं कि तुम उनसे बातचीत करो, बल्कि यूं बातचीत करो जिस तरह दुनिया के बादशाह अपनी चौखट पर आए भिखारियों से बात करते हैं. तुम चाहने वाली नहीं, चाही जाने वाली हो. अल्लाह मुबारक करे.

 

 इस भविष्यफल के बाद वज़ीर का मनोबल खूब बढ़ा, उसने वो मुकाम हासिल किया जो वह चाहती थी.

( उपन्यास का यह प्रसङ्ग भी कई पेजों में फैला है. शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी की शैली किस्सागोई / दास्तानगोई की है जिसमें सब कुछ इतने विस्तार से बयान किया जाता है कि तस्वीर सी खिंच जाती है. विस्तार भय से मैंने किताब में लिखा हू ब हू बहुत ही कम बयान किया है, छोड़ – छोड़ कर और अपने शब्दों में, संक्षेप में बताया है )

 

 

 

 

Saturday 2 April 2022

श्रीरामशलाका प्रश्नावली

 

श्रीरामशलाका प्रश्नावली

भविष्य या कर्मफल के प्रति शङ्का और जिज्ञासा अधिकांश लोगों में होती है, यह न भी हो तो भी एक बार तो मन में यह विचार आता ही है कि सम्पादित किया जा रहा कार्य सफल होगा कि नहीं. कभी – कभी कार्य प्रारम्भ करने से पूर्व ही अगर – मगर या ऐसे ही प्रश्न उपस्थित हो जाते हैं कि ये कार्य करना उचित है या नहीं, फलदायी होगा या नहीं और यदि कार्य प्रारंभ कर दिया गया तो उसमें विघ्न – बाधा तो न आयेगी, यदि आयेगी तो उनका शमन हो सकेगा अथवा नही या उसे छोड़ देना ही ठीक होगा.

                               






                            कार्य के अलावा भी कुछ अप्रत्याशित घटनाएं हो जाती हैं जिनमें हानि/ अमङ्गल  की आशङ्का या अनिश्चितता होती है, उनके बारे में चित्त विकल रहता है और कुछ जानने की उत्कट इच्छा होती है. इन सबके समाधान के लिए व्यक्ति शगुनिया / सगुनिया के पास जाता है या ज्योतिषियों के पास जाता है या करने – धरने वालों के पास जाता है. इनसे लाभ होना या उमड़ रहे प्रश्नों का उत्तर पूरी तरह विश्वास का मामला है.

इन्ही सबको ध्यान में रख कर तुलसीदास जी ने ‘श्रीरामशलाका प्रश्नावली’ की रचना की. यह जो चित्र में आप यंत्र ( यंत्र रूढ़ अर्थ में केवल कोई मशीन / उपकरण नहीं होता अपितु कागज पर गणना के आधार पर अथवा ईष्ट देव की स्तुति, स्वस्ति आदि के कुछ अक्षर / शब्द / वाक्य अथवा अङ्क लिखे होते हैं, उन्हें भी यंत्र कहते हैं. तंत्र शास्त्र में विविध प्रकार के यंत्रों का बहुत महत्व है )  / वर्ग पहेली जैसा देख रहे हैं, वह गोस्वामी तुलसीदास रचित श्रीरामशलाका प्रश्नावली है जिसकी सहायता से उपरोक्त प्रश्नों का उत्तर मिलता है जो ऊपर वर्णित हैं. यह पूरी तरह विश्वास/ श्रद्धा पर फलदायी होते हैं. श्रीरामशलाका प्रश्नावली’ श्रीरामचरित मानस में दी होती है.

इससे प्रश्न का समाधान पाने का तरीका बहुत सरल है, बस मन में श्रद्धा और इस पर विश्वास हो. सबसे पहले मन में श्रीराम जी का ध्यान करें, फिर मन में प्रश्न का विचार करें, फिर एक शलाका ( सींक या शलाख ) लेकर उसे किसी भी खाने में रख दें. ( शलाका के प्रयोग के कारण इसमे शलाका जुड़ा है. उंगली भी रखी जा सकती है किन्तु उंगली खानों से बड़ी होगी और दो या अधिक वर्ग ढक जाएंगे अतः शलाका का प्रयोग उपयुक्त होगा ) अब जिस अक्षर पर शलाका रखी है उसे कागज पर लिख लें. फिर उससे नवें वर्ग में जो अक्षर पड़े, उसे लिख लें. इसी प्रकार नवें वर्ग का अक्षर तब तक लिखें जब तक कि पूरी प्रश्नावली का चक्कर न लगा लें. उंगली प्रश्नावली के बीच में पड़े ( जैसा कि उदाहरण में बताया है ) तो अंत पर पहुँच कर वहाँ से तब तक गिनें जब तक कि उस अक्षर पर न पहुँच जायें जिस पर सबसे पहले उंगली रखी थी. जैसे प्रश्नावली की अंतिम पंक्ति में पहूँचे और नवें अक्षर के बाद तीन वर्ग बचे हैं और पूरी प्रश्नावली का चक्कर नही लगा तो वे तीन वर्ग और ऊपर से छठा वर्ग … इस प्रकार चक्कर पूरा करें.

चक्कर पूरा होने पर देखेंगे कि लिखे हुए अक्षरों से एक चौपाई बन गयी है जो मानस में है. मानस की अनेक चौपाईयां सूत्र रूप में भी हैं अर्थात वे कथा प्रसङ्ग को तो आगे बढ़ाती ही हैं, स्वतंत्र रूप में नीति की कोई बात कहती हैं. उस चौपाई का गोस्वामी जी ने संदर्भ बताया है और उससे आधार पर फलाफल की घोषणा की है.

इसमें जो उदाहरण दिया है उसमें प्रश्नावली के जिस वर्ग पर शलाका पड़ी उसमें ‘म’ अक्षर अङ्कित है ( इसे * से चिन्हित किया गया है ) अब इसे कागज पर लिखा और फिर नवां अक्षर लिखा तो यह रचना मिली –

म र चि रा खा को क रि त र्क ब ढ़ा वै सा खा हो इ हि सो इ जो रा

अब मानस का पारायण करने वाले जान ही लेंगे कि इन अक्षरों से यह चौपाई बनती है –

होइहि सोइ जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा॥

यह चौपाई बालकाण्ड में शिव पार्वती संवाद के अंर्तगत है. आशय यह निकालना चाहिये कि कार्य पूर्ण होने में संदेह है अतः उसे या तो न करे या फल की चिंता किये बिना भगवान पर छोड़ दे. जो होगा,  देखा जायेगा.

नवें अक्षर को गणना में  लिया गया है अतः कुल नौ चौपाईयां बनती हैं जिनका अलग – अलग फल है. शलाका श्रीरामचरित मानस में ही मिलेगी, अलग से नहीं.

इस पोस्ट का आशय ज्योतिष अथवा किसी अन्य प्रकार से फलादेश की गणना या शगुन विचारना या इस व इस जैसी पद्धति का महिमामण्डन या प्रचार – प्रसार नहीं, यह श्रद्धा व विश्वास का मामला है और मेरा आशय जानकारी देना / साहित्यिक है.

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यह बनाना निश्चित ही बहुत कौशल का कार्य और श्रमसाध्य रहा होगा. ऐसे ही नहीं 15X15 के खाने बना कर उनमें कोई भी अक्षर / संयुक्ताक्षर रख दिये गये बल्कि यह सुनिश्चित किया कि कहीं पर भी शलाका रखी जाए, उसे और नवें अक्षर को गिनने पर आये अक्षरों से चौपाई बने और उन्हीं चौपाईयों में से बने जो फलादेश हेतु सोच रखी हैं. इस आशय से किन्ही खानों में संयुक्ताक्षर और किन्हीं में दो अक्षर और किसी में केवल मात्रा (T) लिखी गयी. यह तुलसीदास जी एवं तत्कालीन कवियों की बहुमुखी प्रतिभा को बताता है. तुलसीदास जी केवल भक्त और कवि ही नही थे अपितु ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान भी थे.

मैंने मानस के अलावा और कहीं तुलसीदास जी की जीवनी नहीं पढ़ी अतः उनके भक्त कवि होने के अलावा अन्य आयामों के बारे में नही पढ़ा किंतु अमृतलाल नागर जी ने “मानस का हंस” में उनके जीवन के विविध आयाम उजागर किये हैं. इस उपन्यास को नितांत काल्पनिक नहीं कह सकते क्योंकि उन्होंने विभिन्न राजाओं और संस्थाओं के अभिलेखागार में रखी अनेक जीवनियों के आधार पर उपन्यास लिखा. इस उपन्यास में तुलसीदास के ज्योतिष और शगुन विचार में प्रवीण होने का उल्लेख और कई प्रसङ्ग हैं. रत्नावली के मायके में तो यह आजीविका का साधन ही था. तुलसीदास जी के ससुर और साला इस कार्य को करते रहे, रत्नावली भी इसमें प्रवीण थीं और स्वयं तुलसीदास जी ने भी शौक़िया इसे किया ( इसमें धन लाभ भी हुआ जो उन्होंने दान कर दिया)

मानस का हंस में ‘श्रीरामशलाका प्रश्नावली’ बनाने का प्रसङ्ग है. तब तुलसी का विवाह हो चुका था. तुलसीदास जी काशी में निवास कर रहे अपने मित्र, गङ्गाराम से भेंट करने गये. वे भी ज्योतिषी थे. काशी नरेश के पुत्र कहीं चले गये थे और उनका कोई पता नहीं चल रहा था. राजा चिंतित थे और उन्होंने युवराज का पता बताने वाले को एक लाख रुपये देने की घोषणा की. पण्डित लोग विचारने में लगे किन्तु कोई ठीक न बता पाया. गङ्गाराम भी आधा – अधूरा ही विचार पाये. मित्र की सहायता और मान रक्षा के लिए तुलसीदास जी ने रात भर में यह शलाका बनायी और युवराज के सवा पहर दिन चढ़ने तक सकुशल लौट आने की घोषणा की, साथ ही इस बारे में अपना नाम न आने का वचन लिया. गङ्गाराम जी राजा के पास गये, भविष्यकथन बताया और युवराज के लौट आने पर लाख के बजाय सवा लाख रुपयों से पुरस्कृत होकर लौटे. बहुत मनुहार के बाद तुलसीदास जी ने घोषित पुरस्कार से ऊपर का पच्चीस हज़ार ही लेना स्वीकार किया और उसमें से भी तीन चौथाई दान कर दिया. यह ‘श्रीरामशलाका प्रश्नावली’ वही है जो तुलसीदास जी ने रात भर में तैयार की.

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इस प्रकार की प्रश्नावली और भी होंगी, एक तो मुझे स्मरण है. बहुत पहले, किशोरावस्था में,  कृष्णलीला पर एक काव्य पढ़ा था “कृष्णायन” उसमें भी ऐसी प्रश्नावली थी. उसमें हर बारहवें अक्षर को जोड़ कर चौपाई ( कृष्णायन की ) बनती थी. उसमें बारह चौपाईयां बनती थीं और इसी प्रकार उनके फलादेश थे.

वह ग्रंथ अब मेरे पास नहीं है, किसी मित्र के पास हो तो कृपया देखें और उसकी प्रश्नावली के बारे में लिखें. इतना मालूम है कि यह द्वारिका प्रसाद मिश्र की रचना है जो उन्होंने 1942 में जेल में रहते लिखी थी, वे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी भी थे. अन्य ग्रंथों में भी ऐसी प्रश्नावली होगी. सुधी साथी कृपया उन्हें साझा करें.

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तुलसी ने श्रीरामचरित मानस में राम विवाह और राम – रावण युद्ध के प्रसङ्ग में कुछ शगुन – अपशुगनों की चर्चा की है.  अन्य अनेक प्रकार से ( सुगंध के आधार पर, फूल, फल, सब्जी आदि का नाम पूछ कर, प्रश्न विचार से पूर्व आहार, स्वप्न आदि के आधार पर भी शगुन / भविष्यफल विचारा जाता है. शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी के वृहद उपन्यास, ‘कई चांद थे सरे –आसमां’ में भी प्रश्न विचार का प्रसङ्ग है.   

पोस्ट लंबी हो रही है अन्यथा उनको भी देता. आपकी रुचि हो तो उनकी पृथक पोस्ट में चर्चा करूँ.