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Wednesday 23 June 2021

लोक में राम – उड़िया लोक गीतों में वनवास काल में राम-सीता-लक्ष्मण

 



लोक में राम – उड़िया लोक गीतों में वनवास काल में राम-सीता-लक्ष्मण

राम जन-जन में व्याप्त हैं और जन-जन के हैं. राम कथा तो सब जगह कमोबेश एक सी ही है किन्तु राम को सबने अपने ढंग से पूजा, वर्णित किया और पाया. अधिकांश लोगों के मन में राम तुलसी के रामचरित मानस के चित्रण के अनुसार ही विराजमान हैं. उनका रहन-सहन, आचरण, लीला वैसी ही है जैसा तुलसी ने गायी. तुलसी जन कवि हैं, मानस को उन्होंने जन भाषा, अवधी, में गाया, लोगों के मन में उनकी छवि वही है जो तुलसी ने स्थापित की – मर्यादा पुरुषोत्तम की.  विष्णु के अवतार, साक्षात परमब्रह्म, जिन्हें शङ्कर भी पूजते हैं.

राम जी को चौदह वर्ष का वनवास मिला, उनके साथ सीता और लक्ष्मण भी गये. अब तीनों ही राजवंश के, राजसी सुख-सुविधा के साथ महल  में पले रहे.  सुकोमल थे, अभाव, भय और अनिश्चितता कि भोजन क्या होगा, मिलेगा या नहीं, रहेंगे कहाँ … आदि समस्या क्या, इन प्रश्नों से भी सामना न हुआ वे ही राम-लक्ष्मण-सीता वन-वन इन सबको झेलते हुए भटके. वनवास का वर्णन तुलसी ने मानस में किया तो है किन्तु किसी अभाव का नहीं. उन्हें इनका कुछ सामना ही न करना पड़ा. वाल्मीकि तथा तुलसीदास के राम वन में जाकर भी किसी राजा से कम नहीं रहे. पर्ण कुटी तैयार करने से लेकर कंद-मूल-फल की व्यवस्था और पहरेदारी लक्ष्मण करते थे. जहाँ भी कुछ ऐसी बात आयी कि ये भूमि पर सो रहे हैं या कुटी में रह रहे हैं या वन में मिलने वाला आहार कर रहे हैं तो इस वर्णन के साथ ही तुलसी याद दिला देते थे ये तो लीला कर रहे हैं. राम के अवतार / परमब्रह्म होने की बात तुलसी न कभी भूले और न ही श्रोताओं को भूलने दिया. जहाँ किसी कष्ट की बात आयी, दन्न से अगली ही चौपाई/ दोहा आदि में कि धोखे में न आ जाना कि भगवान को कष्ट हो रहा है, ये तो लीला है.

तुलसी वनवास दिखा कर भी वनवासी का जीवन न दिखा सके किन्तु लोक का तो मन भी अलग होता है और मान्यता भी. वो तो भगवान को भी अपने जैसा ही मानता है. उसके भगवान वैसा ही सोचते और करते हैं जैसा वह. उनके लिए वह वैसी ही चिंता करता है जैसे अपने स्तर के संगाती के प्रति. बरसात आती है तो उसे चिंता  होने लगती है –

“कौन बिरछ तर भीगत हुइहें राम-लखन दुहु भाई … “

सभी भाषाओं के लोक में राम सामान्य व्यक्ति हैं. वे सामान्य व्यक्तियों की सी ही तकलीफ उठाते हैं और वैसे ही खेती-किसानी भी करते हैं. तुलसी या वाल्मीकि के राम के वनवास की छोटी-छोटी बातों के लिए ह्रदय प्यासा ही रह जाता है. हम नहीं जान पाते कि राम-सीता-लक्ष्मण दिन में कितनी बार हँसते थे, रोते थे कि नहीं, उदास या चिन्तित भी होते थे, क्या खीझते और रूठते भी थे. कितना और कैसा मनोविनोद होता था, कंद-मूल-फल ही खाते थे कि रोटी भी खाते थे ? रोटी-दाल खाते थे तो आटा कहाँ से मिलता था और दाल-सब्जी मर्यादा पुरुषोत्तम की. कहाँ से ? दूध –दही का सेवन करते थे कि नहीं, गाय आदि पाली थी क्या ? दिन-प्रतिदिन के ये क्रिया-कलाप तुलसी या वाल्मीकि या राम को हर समय भगवान और मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप की याद दिलाने वाले/ लीला बताने वाले ग्रंथ इस विषय में मौन हैं. ये तो लोक ही बताता है. लोक के अलावा अन्य ग्रन्थों में, भले ही वह लोक भाषाअवधी का रामचरित मानस हो, ऐसा सहज चित्रण नहीं मिलता. आज देखें उड़िया लोक गीतों में वनवासी प्रभु का सरल / सामान्य जन का सा जीवन.

अब केवल कंद-मूल-फल खाकर तो नहीं रह सकते न ! वो भी चौदह बरस ! तो राम खेती भी करते हैं, हल चलाते हैं. लोकगीत में पहले तो किसी किसान के हल चलाने का वर्णन है किंतु गीत के बीच में ही किसान की जगह राम-सीता-लक्ष्मण शामिल हो जाते हैं. लोक अपने बीच वनवासी राम को मिला लेता है.

चलो चलो, बैल, देर न करो, थोड़ी देर में तुम्हे छुट्टी मिल जाएगी. खाने को ताज़ा घास मिलेगी, पीने को ठण्डा पानी. किसान बूढ़े बैलों को पसंद नहीं करता. राम हल चला रहे हैं, लक्ष्मण जी जुताई करेंगे, सीताजी के लिए और क्या काम है, वे बीज बो देंगी.

चालो-चालो बलद न करो भालोनी,

आऊरी घड़िए हेले पाईवो मेलानी,

खाईवो कंचा घास जे … पीईवो ठंडा पानी हो … ।

बूढ़ा बलूद कु जे हलिया मंगु नांई

राम बांधे हल लईखन देवे नामी,

आऊरी कि करिवे जे …

सीताया देवे रोई जे … ।

 

लोक के राम-लक्ष्मण में काम के बंटवारे को लेकर विवाद भी होता है (तुलसी की तरह नहीं कि लक्ष्मण बिना कहे ही सारा काम अपने ऊपर ले लें) राम ढेंकी में धान कूटते हैं और पान भी खाते हैं. ढेकी के पास हीरा-मणियों की तरह धान का ढेर लगा है, राम और लक्ष्मण में विवाद हो रहा है कि कौन धान डाले, कौन कूटे. राम ने कहा – लक्ष्मण, तुम धान डालो, मैं कूटूँगा. यह कह कर राम ढेकी पर बैठ गए और पान खाने लगे. दो में से एक पान राम नें खा लिया. धान कूटने का काम आनंद से चलता गया. चारो ओर महक फैल गयी.

 

हीरा मांणकर धान ढेंकी-रे अच्छी पनां

राम लईखन दुई हेले झींका टणां,

किए गो पेलिवो से धान, कहो मोते कि न जे … !

राम बोलति हे … सुनो लखईन

पेलीवो धान तुम्भे कुटिया मोर मन,

एते कहि ढेंकी ऊपरे बस्सी भांगे पान

दि खंडि पानरु खंडिए खाईले राम तो से … !

धान कूटा पेला चालीला केते रंगे रसे,

महकी ऊठूछी वासना की मीठा लागीवा से !

 

 

राम किसी काम से गये और उनको देर हो जाये तो सामान्य स्त्रियों की तरह सीता भी विचलित हो जाती है, चिन्ता करने लगती हैं. सीता की चिन्ता तो तुलसी ने मानस में भी व्यक्त की है. स्वर्ण मृग बन कर आये मारीच के पीछे जब राम जाते हैं तो वध के समय वह लक्ष्मण की सी बोली में कातर स्वर में, “हा लक्ष्मण !” पुकारता है तो अनिष्ट व संकट में पड़े होने की आशङ्का से सीता लक्ष्मण को जाने को कहती हैं और उनके आश्वस्त करने पर कटु वचन भी कहती हैं –

 

आरत गिरा  सुनी  जब  सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥

जाहु बेगि  संकट  अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता॥

भृकुटि बिलास सृष्टि लय होई। सपनेहुँ   संकट  परइ  कि  सोई॥

मरम बचन  जब  सीता बोला। हरि प्रेरित  लछिमन  मन  डोला॥

-              अरण्य काण्ड, दोहा २७/३से ३ तक

 

उड़िया लोक गीत में राम खेत जोतने गये हैं कि मौसम खराब होने लगा. आकाश पर बादल छाये हैं और बिजली चमक रही है. अँधेरी कुटिया में बैठी सीता का मन आशङ्कित और उदास हो रहा है. कि राम अभी तक वापस नहीं आये, इतनी देर तक क्या कर रहे हैं. उन्होने कोठरी में दिया तक नहीं जलाया.  लक्ष्मण से कहती हैं, “हे लक्ष्मंण! दौड़ कर खेत को जाओ और राम को बुला लाओ”. लक्ष्मण जाते हैं. आगे आगे बैल हैं, पीछे लक्ष्मण और उनके पीछे राम ज़ल्दी-ज़ल्दी घर की ओर आ रहे हैं. राम को घर लौटते हुए देख कर उन्हें कितना आनन्द हुआ होगा.

 

मेघुया आकासे बिजला खेलछी,

मंगा कुड़िया रे सीताया भालछी महाप्रभु से।

पास सरि राम बाहुड़ी गहति,

एतो बेलो जाए किसो करिछन्ति महाप्रभु से।

जायो हे लईखन बेगे बिल कु,

आणी वाकु राम कु निज घर कु महाप्रभु से।पवन बहुछी मेघ गरजछी,

अंदार कुड़िया रे सीताया बस्सछी महाप्रभु से।

आग रे बलद पच्छ रे लईखन,

बेगे राम घर कु फेरी आछी महाप्रभु से।

 

वन में गृहस्थ जीवन का एक और रंग देखें. उड़ीसा में खजूर के वृक्ष बहुत होते हैं और खजूर से मदिरा (ताड़ी) भी निकाली जाती है जिसे प्रायः पुरुष पीते हैं. राम (सम्भवतः इसी आशय से) खजूर का रस निकालने जा रहे हैं तो सीता को मर्यादाबोध हुआ कि लक्ष्मण देखेगा तो क्या कहेगा, छोटे भाई को बरजने के स्थान पर बड़े भाई ताड़ी बनाने को रस निकालने जा रहे हैं. दूर से देख कर सीता दौड़ती हुई आयी और वर्जना के भाव से राम का हाथ पकड़ लिया .

 

छिड़ा लूंगा पिंधी राम जाऊधीले,

खजूरी गच्छ र रस काढ़ीवाकु मो बाईधन।

दूरु देखी सीता अईला धांइ,

धरि पकाईला राम र हस्तकु मो बाईधन।

कि पाई धांईछो खजूरी गच्छ कु,

लईखन ईहा देखी कि कहिबे तुम्भंकु।

 

लोक के राम ब्रह्म या राज परिवार के नहीं और न ही सर्वसमर्थ हैं कि उनके भ्रकुटि विलास से ही सब उपलब्ध हो जाये. वे साधारण मानव हैं, ग़रीब हैं और वे सारे कार्य करते हैं जो निर्धन वनवासी परिवार करता है. सामान्य जन की भांति उनकी छोटी-छोटी इच्छाएं हैं, रूठना, मनाना, रोना हँसना होता है और ऐसा करते हुए लोक यह नहीं कहता कि ये तो लीला कर रहे हैं. लोक के राम उनमें से एक हैं.

 

वनवासी जीवन के चित्र बहुत हैं, एक पोस्ट में बताने को अनुपयुक्त (विस्तार भय है ) और फिर पुस्तक चर्चा भी तो करनी है तो बस एक चित्र देखें और फिर पुस्तक चर्चा.

 

लक्ष्मण चटनी के बहुत शौक़ीन हैं. वे कच्चे आम लाये और सीता ने चटनी पीसी किन्तु सारी की सारी चटनी राम खा गये, लक्ष्मण कहते ही रह गये कि थोड़ी सी चटनी मुझे भी तो दो. चटनी खतम हो गयी तो लक्ष्मण रोने लगे.

 

अंब कसी तोली लईखन आणी

सीताया ठकुराणी चटनी बाटीले,

रघुमणी राम खाईछंति हलिया हे !

टिकिए चटनी मोते देयो आणी हो … सीताया ठकुराणी,

चटणी गल सरी लईखन कांदूछंति जे।

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अब पुस्तक चर्चाः

यह लोक गीत “देवेन्द्र सत्यार्थी लोक निबंध” पुस्तक से लिए हैं जिसका सम्पादन और संचयन प्रकाश मनु ने किया है. लोक सम्पदा तो विशद है और यह भारत के गाँवों में बिखरी पड़ी है. यह लोक सम्पदा गीतों के रूप में भी है और बड़े-बूढ़ों में कण्ठ दर कण्ठ, ह्रदय और स्मृति में है. लोक गीत बहुधा वाचिक/श्रुत परम्परा में पीढ़ी दर पीढ़ी अन्तरित होते आ रहे हैं. युवा पीढ़ी की लोक में रुचि कम है, वे लोक भाषा, बोली, रीति-रिवाज, गीत, नाट्य, देवी-देवता आदि से विमुख होते जा रहे हैं, उन्हें गँवारू मानते हैं सो इनके लुप्त होने का खतरा है. इसी को दृष्टिगत रखते हुए सुधी जन ने इस धरोहरों को संकलित करने और संजोने का काम किया. देवेन्द्र सत्यार्थी उन्हीं में से हैं. वे भारत के अनोखे लोकयात्री थे, जिन्होंने लोकगीतों की खोज में देश का चप्पा-चप्पा छान मारा और अलग-अलग अंचलों के तीन लाख से अधिक लोक गीत इकठ्ठा करके उन पर बहुत सुंदर और गवेषणापूर्ण लेख लिखे.

यह पुस्तक लोकगीतों पर आधारित सत्यार्थी जी के रस-रागपूर्ण लेखों का संचयन है जो लोक संस्कृति का इन्द्रधनुषी बिंब प्रस्तुत करता है. इस पुस्तक में भारत भर के लोकगीत हैं जो मूल भाषा में किन्तु देवनागरी लिपि में हैं और उनका हिन्दी अनुवाद भी दिया है, साथ में सरस भाव भूमि भी. लोक में रुचि रखने वालों के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण ग्रंथ है.

 

पुस्तक – देवेन्द्र सत्यार्थी लोक निबंध

लेखक - देवेन्द्र सत्यार्थी

संचयन व सम्पादन – प्रकाश मनु

विधा - कथेतर, लेख एवं लोकगीत

प्रकाशक – नेशनल बुक ट्रस्ट  

Tuesday 1 June 2021

संक्षिप्त रामायण

 

क्या महाराज ! लॉक डाउन है कि सुरसा के मुह की तरह बढ़ता ही जा रहा है, लोग भी निकल नहीं रहे तब भी आप पोथी-पत्रा लेकर आ गये मंदिर पर. “

 “आओ भाई ! अब तुम आये कि नहीं. अरे पूरी बाँह के कपड़े पहनों, सर्जिकल ग्लब्स पहन लो, डबल मास्क लगाओ, सेनेटाईजर का इस्तेमाल करो, और दो गज की दूरी रखो तो मंदिर आने में क्या दिक्कत. बस भीड़ न हो और बहुत देर न बैठें तो दिक्कत नहीं. और फिर वो व्हाट्स ऐप के मैसेज और फेसबुक पर घूम रही स्टोरी नहीं पढ़ी कि इन्द्र, जने शिव जी ने बारह साल तक वर्षा न करने व डमरू न बजाने का निर्णय किया फिर भी एक किसान खेत में काम करता रहा कि कहीं खेती –किसानी भूल न जाए. उधर पार्वती जी ने भी शिव जी को उकसाया कि कहीं आप डमरू बजाना भूल गये तो ! तो क्या, भोले भण्डारी आ गये पार्वती जी की बात में, डमरू बजाया और उधर झमाझम बरसात. तो मॉरल ऑफ द स्टोरी के मुताबिक मैं क्यों अपना काम छोड़ूँ !”

 “बात तो आप सही कह रहे हैं. तो आज क्या सुनाने का विचार है ?”

 “और क्या सुनायेंगे ! रामकथा ! वैसे तो भगवान के सब रूपों में हमारी आस्था है, सबके चरित पावन और मनोहर हैं किन्तु हमारा मन रामकथा में अधिक रमता है और रमे भी क्यों ना ! देवों के देव महादेव भी तो रामरस प्रेमी हैं. उन्होनें रामचरित को मन में रखा सो वह संभु रचित रामचरितमानस हुआ –

                      रामचरितमानस मुनि  भावन। विरचेउ  संभु  सुहावन  पावन॥

                      रचि महेस निज मानस राखा। पाइ  सुसमउ सिवा सन भाषा॥

                      तातें    रामचरितमानस   बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर॥

 “ अति उत्तम ! किन्तु रामकथा तो बहुत बड़ी है, रामजन्म के पूर्व से लेकर राम-रावण युद्ध, रावण वध और अयोध्या लौटने तक की. मानस के उत्तरकाण्ड में और भी प्रसङ्ग हैं. अब इतना तो कई दिन का कार्यक्रम है. कोई शार्टकट नहीं है कि रामकथा भी हो जाय और समय भी अधिक न लगे, बस आज भर की बैठक में पूर्ण हो जाय ?”

 “ है क्यों नहीं ! शार्टकट चाहने वालों के लिए ‘एक श्लोकी रामायण’ है. सुनो -

 आदौ राम तपोवनादि गमनं, हत्वा मृगं कांचनम्‍।

 वैदेहीहरणं जटायुमरणं, सुग्रीवसंभाषणम्‍॥

 बालीनिर्दलनं समुद्रतरणं, लंकापुरीदाहनम्‍।

 पश्चाद्‍ रावण कुम्भकर्ण हननम्‍, एतद्वि रामायणम्‍॥“

 

(श्री राम वनवास गये, वहाँ उन्होनें स्वर्ण मृग का वध किया. रावण ने सीताजी का हरण किया, जटायु रावण के हाथों मारा गया. श्री राम और सुग्रीव की मित्रता हुई श्री राम ने बाली का वध किया. समुद्र पार किया. लंका का दहन किया. इसके बाद रावण और कुंभकर्ण का वध किया, यही रामायण है.)

और शार्ट चाहो तो एक और है ‘ एक रहे राम, एक रहे रावन्ना … ‘ करके ! किन्तु वो भाषा की दृष्टि से न रसपूर्ण है, न ही कोई भक्ति भाव जाग्रत होता है सो वह कहना उचित नहीं”

 “क्या महराज ! अब शार्टकट कहा तो इतना शार्ट पर उतर आये. अरे, रामकथा क्या इतनी सी ही है ! अरे भई, कुछ ऐसी नहीं है कि क्या गायन-वादन भी हो, कथा भी लगभग पूरी हो.”

 ‘है क्यों नहीं ! वो भी है. बाबा तुलसी ने बहुत ध्यान रखा है. वो भविष्यदर्शी थे. जानते थे कि ऐसा भी समय आयेगा कि लोगों के पास इतना समय न होगा कि पूरी रामकथा सुनें. समय भी होगा तो ऊबने लगेंगे. आधे से अधिक मोबाईल चलाते रहेंगे या फिर समानान्तर सास-बहू-पड़ोसन पुराण चलेगा. ‘अखण्ड रामायण’ के नाम पर चौबीस घण्टे में मानस का पाठ बैठा तो देते हैं किन्तु कहाँ बैठाने वाला उसमें बैठता है. पेशेवर मण्डली बुला ली और लाऊडस्पीकर लगा कर हुआ नई-पुरानी फिल्मी धुनों पर मानस गान. सच कहो ! उसमें रामरस मिलता है क्या ?”

 “सो तो है महराज ! मगर इतना समय इस सब में वेस्ट कर दिया, संक्षिप्त रामकथा, जिसमें रामरस मिले, वो कहिए ना !”

 “और दस-बारह लोग भी दिख रहे हैं. धूप-दीप करके हारमोनियम बजाता हूँ, ले तो आओ सामने के घर से. जब लहरा बजेगा, शंख बजेगा, मौसम बनेगा तो और लोग भी जुटेंगे.

                                                            अब ये सब हुआ तो लोग आने लगे. मतलब भर के श्रद्धालु श्रोता जुट गये.

 तो भक्तों, तुलसीदास जी ने मानस के उत्तरकाण्ड में दोहा ६३/४ से दोहा६७/४ तक काकभुसण्डि – गरुण संवाद में संक्षिप्त रामायण कही है. गरुण को मोह हुआ. मानस में सती, नारद और गरुण के मोह प्रसङ्ग हैं. मोह किसी के प्रति नहीं बल्कि प्रभु की माया से ग्रस्त होकर इन्होनें राम के ब्रह्म या अवतार होने पर शङ्का की सो उनका मोह निवारण भी किया गया. गरुण को मोह हुआ तो वे कई लोगों के पास गये, अन्ततः शिवजी के पास भेजे गये, शिव जी ने उन्हें काकभुसण्डि जी (कौआ रूप में एक परम भक्त ) के पास भेजा. काकभुसण्डि जी ने उनके मोह का निवारण तो किया ही, जिज्ञासा पर अन्य प्रसङ्ग भी सुनाये. उसी में राम कथा भी संक्षेप में सुनायी, सुनो -    

            

प्रथमहिं अति अनुराग भवानी। रामचरित सर कहेसि बखानी॥

पुनि नारद कर  मोह अपारा। कहेसि  बहुरि रा वन अवतारा॥

 प्रभु अवतार कथा पुनि गाई। तब सिसु चरित कहेसि मन लाई॥

                              बालचरित कहि बिबिधि बिधि मन मँह परम उछाह।

                              रिषि  आगवन   कहेसि   पुनि   श्रीरघुबीर  बिबाह॥

 बहुरि  राम  अभिषेक  प्रसंगा। पुनि नृप  बचन राज रस भंगा॥

पुरबासिन्ह कर बिरह बिषादा। कहेसि राम लछिमन संबादा॥


 बिपिन  गवन  केवट  अनुरागा। सुरसरि उतरि निवास प्रयागा॥

बालमीकि प्रभु मिलन बखाना। चित्रकूट  जिमि बसे भगवाना॥


 सचिवागवन  नगर नृप मरना। भरतागवन   प्रेम  बहु  बरना॥

करि नृप क्रिया संग पुरबासी। भरत गए जहँ प्रभु सुख रासी॥


 पुनि रघुपति  बहुबिधि  समुझाए। लै   पादुका   अवधपुर   आए॥

भरत रहनि सुरपति सुत करनी। प्रभु अरु अत्रि भेंट पुनि बरनी॥

 

                     कहि  बिराध बध  जेहि बिधि  देह तजी  सरभंग।

                     बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग॥

 

कहि  दंडक  बन  पावनताई। गीध  मइत्री  पुनि   तेहिं  गाई॥

पुनि प्रभु पंचबटी कृत बासा। भंजी सकल मिनिह्न की त्रासा॥

 

पुनि लछिमन उपदेस अनूपा। सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा॥

खर दूषन बध बहुरि बखाना। जिमि सब मरमु दसानन जाना॥

 

दसकंधर  मारीच  बतकही। जेहि बिधि भई सो सब तेहिं कही।

पुनि माया सीता कर हरना। श्रीरघुबीर   बिरह   कछु   बरना॥

 

पुनि प्रभु  गीध क्रिया जिमि कीन्ही। बधि कबंध सबरिहि गति दीन्ही॥

बहुरि    बिरह   बरनत   रघुबीरा। जेहि   बिधि   गए  सरोबर  तीरा॥

 

                       प्रभु नारद संबाद कहि मारुति मिलन प्रसंग।

                       पुनि  सुग्रीव  मिताई  बालि  प्रान  कर भंग॥

                                      कपिहि तिलक करि प्रभु कृत सैल प्रबरसन बास।

                                      बरनन  बर्षा  सरद  अरु  राम  रोष  कपि  त्रास॥

 

जेहि बिधि कपिपति कीस पठाए। सीता खोज सकल दिसि धाए॥

बिबर  प्रबेस  कीन्ह  जेहि भाँती। कपिन्ह  बहोरि  मिला संपाती॥

 

सुनि  सब कथा  समीर कुमारा। नाघत   भयउ  पयोधि  अपारा॥

लंकाँ कपि प्रबेस जिमि कीन्हा। पुनि सितहि धीरजु जिमि दीन्हा॥

 

बन उजारि रावनहि प्रबोधी। पुर दहि नाघेउ बहुरि पयोधी॥

आए कपि सब जँह रघुराई। बैदेही   की   कुसल   सुनाई॥

 

सेन    समेति     जथा    रघुबीरा। उतरे जाइ बारिनिधि तीरा॥

मिला बिभीषन जेहि बिधि आई। सागर निग्रह कथा सुनाई॥

 

                       सेतु बाँधि कपि सेन जिमि उतरी सागर पार।

                       गयउ बसीठी बीरबर जेहि बिधि बालिकुमार॥

                                           निसिचर कीस लराई बरनिसि बिबिध प्रकार।

                                           कुंभकरन  घननाद  कर बल  पौरुष  संघार॥

                           

निसिचर निकर मरन बिधि नाना। रघुपति रावन समर बखाना॥

रावन    बध    मंदोदरि    सोका। राज  बिभीषन  देव असोका॥

 

सीता   रघुपति    मिलन   बहोरी। सुरन्ह कीन्हि अस्तुति कर जोरी॥

पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन्ह समेता। अवध  चले   प्रभु  कृपा  निकेता॥

 

जेहि बिधि राम नगर निज आए। बायस बिसद चरित सब गाए॥

कहेसि बहोरि  राम अभिषेका। पुर  बरनत  नृपनीति  अनेका॥

 

कथा   समस्त  भुसुंड  बखानी। जो  मैं तुम्ह सन कही भवानी॥

सुनि सब राम कथा खगनाहा। कहत बचन मन परम उछाहा॥

 

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कहो ! बहुत कठिन तो नहीं अर्थ समझना कि अर्थ भी करके बताऊँ ?”

 “नहीं, नहीं ! अब इतना कठिन भी नही फिर भी जिन्हें कठिन लग रहा होगा तो कल की सभा ( यहाँ पर टिप्पणियों में ) पूछेंगे, तब सरलार्थ भी कर दीजिएगा.”

 “ यही मेरा भी विचार है. अब संक्षेप वाली बात है तो अर्थ करने में बहुत विस्तार हो जाएगा / पोस्ट बड़ी हो जाएगी सो अर्थ पूछने पर.”

 “ जय हो ! अब एक बात और बताईये. ये हाथ में क्या लिए हैं मानस के अलावा ? ये तो कुछ चित्र से लगते हैं. चित्र भी नहीं, पाण्डुलिपि के पृष्ठ लगते हैं. क्या हैं ये, ज़रा दिखाईये और बताईये इनके बारे में. “

 




“अनुमान सही भी है और ग़लत भी. फेसबुक पर एक पेज है, FOUNTAIN PEN CLUB INDIA. उसमें फाउण्टेन पेन के प्रेमी जन पेन, इंक आदि की चर्चा करते हैं, फोटो पोस्ट करते हैं और लिखावट भी. इन्ही में से एक, अनुपम गोस्वामी,  ने पाण्डुलिपि शैली में उत्तरकाण्ड की संक्षिप्त राम कथा लिखी. बहुत ही सुन्दर लिखावट है. वो पृष्ठ इस पोस्ट की प्रेरणा भी बने. आप सब भी देखें इतनी अच्छी लिखावट. अन्य वितरण इस प्रकार हैं –

 

                        My first attempt at a traditional looking manuscript.  

                        Paper: handmade paper by Ayush Surana

                        Pen: RC Devanagari by Rajeev Chauhan

                        Inks: krishna IG black and MB Corn Poppy red

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