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Wednesday 29 May 2013

" माया महा ठगिनी हम जानी ... " --- माता से बाज़ार तक !


 अभी कुछ दिनो पहले चन्द्रिका देवी जाना हुआ , अक्सर ही सपरिवार जाना होता रहता है . चन्द्रिका देवी लखनऊ से लगभग 27 किलोमीटर दूर ग्राम नबीकोट नंदना मे है . सीतापुर रोड पर ख्शी का तालाब , संक्षिप्ताक्षरों मे BKT, से ज़रा सा आगे बायें मोड़ से लगभग 13 किलोमीटर अन्दर है . मन्दिर प्राचीन है और पौराणिक सन्दर्भों से जुड़ा है . मन्दिर के ज़रा पहले दायें एक बड़ा तालाब है जिसे 'सुधन्वा कुण्ड ' कहते हैं . मान्यतानुसार चन्द्रदेव को गुरुपत्नी से व्याभिचार करने पर शापवश कुष्ठ ( सफेद दाग ) हो गया था , जो इसी कुण्ड मे स्नान करने पर ठीक हुए . अब तो नही पता किन्तु बहुत काल तक सफेद दाग से मुक्ति के लिये इसमे स्नान करने की मान्यता थी . वैसे भी , श्रद्धालु दर्शनार्थी इसमे स्नान के पश्चात ही मन्दिर जाते हैं , बाक़ी आचमन आदि करके दर्शन करते हैं . अब तो कुण्ड के तीन ओर घाट हैं बीच मे एक ऊँचे मंच पर शिव जी की विशाल प्रतिमा है . मन्दिर के पीछे बाग है बायें यात्री विश्राम गृह है जिसमे अब भी बहुत से श्रद्धालु रात्रि मे ठहरते हैं और रात्रि आरती मे सम्मिलित होकर , प्रातः आरती उपरान्त जाते हैं . मन्दिर का मुख्य दिवस प्रतिमाह की अमावस्या है और दोनो नवरात्रियों मे तो विशाल मेला लगता है . अब तालाब के दूसरी ओर हनुमान जी का विशाल मन्दिर भी है जिसमे पंचमुखी प्रतिमा स्थापित है . इसके अतिरिक्त मन्दिर मे वार्षिकोत्सव पर प्राचीन शास्त्रीय वाद्यों का वादन भी होता है . प्रख्यात दक्ष लेखक अमृतलाल नागर ने अपने उपन्यास "करवट " मे इस तीर्थ का "चाँदको जी " नाम से विशद वर्णन किया है .

मन्दिर जाने पर हमारे तो अनेक प्रयोजन पूरे होत्ते हैं - दर्शन ( देवी के भी और उनके भी जो दर्शनार्थ आते हैं ), पिकनिक खरीदारी . BKT से मुड़ते ही प्रकृति अपनी छटा दिखाने लगती है और यह छटा मन्दिर पहुँचने तक चारो तरफ बिखरी मिलती है . दोनो तरफ खेत और आम के बाग मौसम के अनुसार चोला ओढ़ लेते हैं . बसंत मे सरसों की पीली छटा तो गेहूँ पकने के समय सुनहरी बालियां , गरमी मे आम से लदे पेड़ . अब तो कई फार्म हाऊस हैं एक स्टड फार्म ( जिसमे घोड़े तैयार किये जाते हैं ) भी है. रास्ते मे दोनो तरफ विभिन्न मजरों को जाते गलियारे और सड़क के किनारे थोड़ी - थोड़ी दूरी पर चाय - नाश्ता , मौसम मे गन्ने के रस की दुकाने हैं - शहर और गांव का घुला - मिला रूप . वैष्‍णो देवी , पूर्णागिरि अन्य देवी स्थानों की तर्ज पर रास्ते के दोनो तरफ सस्ते खिलौनों , पूजन सामग्री , मूर्तियों , चूड़ी , बिन्दी अन्य सस्ते / लोकल / डुप्लीकेट सौन्दर्य प्रसाधन चुनरी गोटा से सजी , टी . वी . पर भजन बजते हुए दुकाने हैं और चाय , चाट, कोल्डड्रिंक , पूड़ी - सब्जी , एक चौथाई खोया + तीन चौथाई चीनी की मिठाई भी खूब मिलती है . वैसे रास्ता माहौल बदरंग करने की शुरुआत हो चुकी है - एक इंजीनियरिंग / MBA कॉलेज खुल चुका है , कई तैयारी मे हैं , लड़के - लड़कियां भी खूब आने लगे हैं . वही सब देखिये जो शॉपिंग मॉल्स मे देख कर कुढ़ा / आँखें जुड़ाया करते हैं .

मेरे लिये वहां का सबसे बड़ा आकर्षण गांव की चीजें , मसाले , शहर मे मिलने वाले जंगली फल , चूरन आदि हैं . रास्ते मे सिंगड़ी ( जंगल जलेबी ) बेचते बच्चे मिलते हैं . यह स्वादिष्ट फल शहर मे आसानी से नही मिलता . वहां तरह - तरह के चूरन खूब मिलते हैं . खट्टे - मीठे चूरन , बालम खीरा का चूरन , और भी कई स्वाद रंग के चूरन , गीला चूरन . मुझे चूरन इतना पसन्द है कि किसी का भी यह भ्रम टूट सकता है कि चूरन खट्टी चीजों पर लड़कियों / औरतों का ही अधिकार है . मै तो खाता भी हूँ और लेकर भी आता हूँ - पाचक गुण से अधिक स्वाद के लिये . मै तो बिना जाली पड़ी अंबिया ( कैरी या कच्चा आम ) भी बिना छीले - काटे सीधे बंदर की तरह दांत से काट कर खा लेता हूँ . खा मै रहा होता हूँ और देख कर तरह - तरह के मुह पत्‍नी और बच्चे बनाते हैं . कैथा , कमरख और हल्दी - नमक लगी कली खटाई , कच्ची हल्दी आदि अनेक मसाले और फल जो शहर क्या पुराने मोहल्लों मे भी नही मिल पाते - सब यहं देवी दर्शन से पहले ही रास्ते से दर्शन देना शुरू कर देते हैं , वो भी शुद्ध और सस्ते . शाम को लौटना हो तो सब्जी और मछली भी मिलती है . सस्ता होने और शहर मे मिलने का यह मतलब नही कि मोल भाव किया जाय . मोल भाव होता है और खूब होता है. जितने पर बताया , उससे कम पर लिया तो क्या मज़ा रहा . अभी जब गया था तो जूतों की भी दुकान थी - दुकान माने , ज़मीन पर पॉलीथीन बिछा कर माल सजा दिया बस हो गयी दुकान . यह भी एक कारण है सस्ता होने का . मंहगा किराया नौकर , बिजली , सजावट , विज्ञापन आदि का खर्च और ही बिचौलिये . माल सीधा उत्पादक से उपभोक्ता तक , बहुत हुआ तो बीच मे बस एक कड़ी और . 'एलीट ' कहलाने वाला वर्ग भी आता और मोल भाव करके खरीदारी भी करता है . हमने भी चार जोड़ा ( एक अपने और तीन तीनो बच्चों के लिये ) नागरा खरीदा . कुछ अनगढ़ से थे , चमड़ा भी कुछ कड़ा था किन्तु बाटा आदि से लगभग 1/8 और गांधी आश्रम से 1/4 कीमत पर ( साढ़े चार सौ मे चार जोड़ा ). एक और बात थी जो शहर / मॉल्स मे दुर्लभ है -- बिटिया , भैया , अम्मा , दीदी का सहज सम्बोधन . मॉल्स मे तो खैर सवाल ही नही , शहरों मे विशेषतः महिलाओं के सामान की दुकानों मे दुकानदार / सेल्समैन - गर्ल्स दीदी भाभी कहते हैं किन्तु अम्मा क्या आंटी कहने का भी रिस्क कोई दुकानदार नही लेता . पहले जो दीदी कहे जाने की अवस्था पार चुकी होती थीं और माता जी कहे जाने से दूर थीं उन्हे भाभी जी कहने का चलन हुआ . अब तो यह सब लुप्त होकर ' मैम / मैडम ' रह गया है और भाई साहब ' सर ' हैं . ' सर' कहें या ' मैम / मैडम ' - कहने सुनने वाला जानता है कि यह बस मार्केट मंत्र हैं जबकि गांव वाला भले ही चालू हो चुका हो और रिश्तेदारी जोड़ रहा हो फिर भी उसका बिटिया , भैया कृत्रिम नही लगता . यह सब गांव की बाज़ारों मे ही मिल सकता है .वहां खरीदारी मे भी रस है . एक बूढ़े दादा थे . वे डलिया की दुकान लगाये थे . एक से एक सुन्दर , गठी , मज़बूत कई साईज मे डलिया . तीन डलिया भी लीं . मोल भाव के अलावा रस इसका भी था कि उन्हे हिसाब कई बार मे समझा सका .

मेला इतनी ज़ल्दी खत्म नही होता मगर यहां चार घंटा थोड़े ही लगाऊंगा . अब वह बात जिसकी फोटो मंदिर के बजाय चस्पा की है . यहां लोहे की कड़ाही और तवा खूब मिलती है , बल्कि यहीं या पुराने बाज़ारों मे मिल पाती है . यह सब छोटे / घरेलू कारखानों मे बनता है . अब बाज़ार की चाल देखिये . इन्हे बिल्कुल चलन से बाहर सा कर दिया . इनने मार्जिन नही है और ये आकर्षक भी नही . साफ करने मे भी समय मेहनत बहुत है . काम वाली भी नखरे करती है मगर मुख्य बात कि इसमे मार्जिन नही . फिर ये असंगठित बाज़ार कम पूंजी का काम है जबकि पूंजीपतियों का साफ - सुथरा , हल्का उत्पाद . हिंडालियम , स्टील , तांबा की तली , नॉन स्टिक , इण्डक्शन वाले शो - पीस जैसे बर्तन हैं . वे लागत से कई गुना पर बिकते हैं . ब्रांडेड की बाजीगरी भी है . अब जब लोहे की कढ़ाही और तवा आदि मॉल्स मे , शो रूम्स मे या शहर की किसी दुकान मे मिलेंगे ही नही तो कोई खरीदेगा कैसे . हो गयी मांग कम से ठप तक और कुटीर उद्योग का सफाया . अब जिस लुहार को कट्टा बनाना नही आता / बनाता नही ... वह थोड़ा बना कर इन्ही बाज़ारों मे आयेगा . मॉल्स / शहर मे उसका माल घुस ही नही पायेगा तो बिकेगा क्या . बाज़ार के इन्ही हथकंडों से पहले मलमल के बुनकर खत्म हुए और अब तमाम कलायें कारीगर , छोटे पेशे खत्म हो रहे हैं . अब बाज़ार मे क्या किताबों मे ही ' ' से 'ठठेरा ' नही मिलता और ही बर्तनों पर कहीं कलई होती है . ' सनतकदा ' 'दिल्ली हाट ' सूरजकुण्ड ' जैसे अभिजात्य मेलों / बाज़ारों मे यह सब मिलता है -- कौतूहल के शमन के लिये दस गुने से अधिक पर .

बात लोहे की कढ़ाही की हो रही थी , लोहे पर बाज़ार की एक और चाल देखिये . कुटीर उद्योग / छोटे कारखानों मे बनने वाला उस्तरा गांवों तक के नाईयों की दुकानों से भी दशकों पहले ही गायब हो चुका है . खुद दाढ़ी बनाने वालों के लिये ट्विन से लेकर पाँच तक वाले ब्लेड गये किन्तु रेज़र तो कुटीर उद्योग / छोटे कारखानों मे बनता नही था . वो तो उद्योगपति ही बनाते थे . अब रेज़र गये ( ये भी उन्ही बड़ों का उत्पाद है ) तो ब्लेड बनाने की मशीनों कच्चा माल को बेकार कैसे जाने देते . जो माल बन चुका था , उसका क्या होता ? बाज़ार ने तरीका निकाला . उस्तरा का शेप वैसा ही रहने दिया मगर उसमे फल नही रखा . ऐसा बनाया जिसमे ब्लेड का आधा हिस्सा लगाया जाता है . ये उस्तरा भी कुटीर उद्योग / छोटे कारखानों मे नही बनता . लो हो गया बाज़ार का काम . नाई को बहलाया कि हमने दिन मे कई बार उस्तरा पर धार करने के झंझट से बचाया - लो नये तरीके का उस्तरा . वास्तव मे यह अपने ब्लेड खपाने का तरीका था . बना स्टॉक खराब हुआ , मशीनें बल्कि आगे भी उत्पादन की खपत की गारण्टी .

बाज़ार बहुत मायावी है . गया था चन्द्रिका देवी के दर्शन को , बघारने लगा बाज़ार का दर्शन . देवी का रूप मां ही नही , माया और महामाया का भी है और हम तो अब जाने ... कबीर तो बहुत पहले ही जान चुके थे - " माया महा ठगिनी हम जानी ... "

राज नारायण



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