अभी कुछ दिनो पहले चन्द्रिका देवी जाना हुआ , अक्सर ही सपरिवार जाना होता रहता है . चन्द्रिका देवी लखनऊ से लगभग 27 किलोमीटर दूर ग्राम नबीकोट नंदना मे है . सीतापुर
रोड पर बख्शी का तालाब , संक्षिप्ताक्षरों मे BKT, से ज़रा सा आगे बायें मोड़ से लगभग 13 किलोमीटर अन्दर है . मन्दिर
प्राचीन है और पौराणिक सन्दर्भों से जुड़ा है . मन्दिर
के ज़रा पहले दायें एक बड़ा तालाब है जिसे 'सुधन्वा
कुण्ड ' कहते
हैं . मान्यतानुसार चन्द्रदेव को गुरुपत्नी से व्याभिचार करने पर शापवश कुष्ठ ( सफेद
दाग ) हो
गया था , जो
इसी कुण्ड मे स्नान करने पर ठीक हुए . अब
तो नही पता किन्तु बहुत काल तक सफेद दाग से मुक्ति के लिये इसमे स्नान करने की मान्यता थी . वैसे
भी , श्रद्धालु दर्शनार्थी इसमे स्नान के पश्चात ही मन्दिर जाते हैं , बाक़ी
आचमन आदि करके दर्शन करते हैं . अब
तो कुण्ड के तीन ओर घाट हैं व बीच मे एक ऊँचे मंच पर शिव जी की विशाल प्रतिमा है . मन्दिर
के पीछे बाग है व बायें यात्री विश्राम गृह है जिसमे अब भी बहुत से श्रद्धालु रात्रि मे ठहरते हैं और रात्रि आरती मे सम्मिलित होकर , प्रातः
आरती उपरान्त जाते हैं . मन्दिर
का मुख्य दिवस प्रतिमाह की अमावस्या है और दोनो नवरात्रियों मे तो विशाल मेला लगता है . अब
तालाब के दूसरी ओर हनुमान जी का विशाल मन्दिर भी है जिसमे पंचमुखी प्रतिमा स्थापित है . इसके
अतिरिक्त मन्दिर मे वार्षिकोत्सव पर प्राचीन शास्त्रीय वाद्यों का वादन भी होता है . प्रख्यात व दक्ष लेखक अमृतलाल नागर ने अपने उपन्यास "करवट
" मे इस तीर्थ का "चाँदको जी " नाम से विशद वर्णन किया है .
मन्दिर जाने
पर हमारे तो
अनेक
प्रयोजन पूरे होत्ते हैं
- दर्शन ( देवी
के भी और
उनके भी जो
दर्शनार्थ आते हैं ), पिकनिक
व खरीदारी . BKT से
मुड़ते ही प्रकृति अपनी
छटा
दिखाने
लगती
है
और
यह
छटा
मन्दिर
पहुँचने तक चारो तरफ
बिखरी
मिलती
है
. दोनो तरफ
खेत और आम
के बाग मौसम
के अनुसार चोला
ओढ़
लेते
हैं
. बसंत मे
सरसों
की
पीली
छटा
तो
गेहूँ
पकने
के
समय
सुनहरी
बालियां , गरमी मे
आम
से
लदे
पेड़
. अब तो
कई
फार्म
हाऊस
हैं
व
एक
स्टड
फार्म
( जिसमे घोड़े
तैयार
किये
जाते
हैं
) भी है.
रास्ते मे दोनो
तरफ विभिन्न मजरों
को
जाते
गलियारे और सड़क के
किनारे
थोड़ी
- थोड़ी दूरी
पर चाय - नाश्ता , मौसम
मे गन्ने के
रस
की
दुकाने
हैं
- शहर और गांव
का घुला - मिला
रूप . वैष्णो देवी
, पूर्णागिरि व
अन्य
देवी
स्थानों की तर्ज पर
रास्ते
के
दोनो
तरफ
सस्ते
खिलौनों , पूजन सामग्री , मूर्तियों , चूड़ी ,
बिन्दी
व
अन्य
सस्ते
/ लोकल / डुप्लीकेट सौन्दर्य प्रसाधन चुनरी
गोटा
से
सजी
, टी . वी .
पर
भजन
बजते
हुए
दुकाने
हैं
और
चाय
, चाट, कोल्डड्रिंक , पूड़ी -
सब्जी , एक चौथाई खोया + तीन
चौथाई चीनी की
मिठाई
भी
खूब
मिलती
है
. वैसे रास्ता व
माहौल
बदरंग
करने
की
शुरुआत
हो
चुकी
है
- एक इंजीनियरिंग / MBA कॉलेज
खुल चुका है
, कई तैयारी मे
हैं
, लड़के - लड़कियां भी
खूब आने लगे
हैं . वही सब
देखिये
जो
शॉपिंग
मॉल्स
मे
देख
कर
कुढ़ा
/ आँखें जुड़ाया करते
हैं
.
मेरे लिये
वहां का सबसे
बड़ा आकर्षण गांव
की चीजें , मसाले ,
शहर
मे
न
मिलने
वाले
जंगली
फल
, चूरन आदि
हैं
. रास्ते मे
सिंगड़ी ( जंगल जलेबी )
बेचते बच्चे मिलते हैं . यह स्वादिष्ट फल
शहर
मे
आसानी
से
नही
मिलता
. वहां तरह
- तरह के
चूरन खूब मिलते
हैं . खट्टे - मीठे
चूरन , बालम खीरा
का चूरन , और
भी कई स्वाद व रंग
के
चूरन
, गीला चूरन
. मुझे चूरन
इतना
पसन्द
है
कि
किसी
का
भी
यह
भ्रम
टूट
सकता
है
कि
चूरन
व
खट्टी
चीजों
पर
लड़कियों / औरतों का
ही अधिकार है
. मै तो
खाता
भी
हूँ
और
लेकर
भी
आता
हूँ
- पाचक गुण
से अधिक स्वाद
के लिये . मै
तो बिना जाली
पड़ी
अंबिया
( कैरी या
कच्चा आम ) भी
बिना छीले - काटे
सीधे बंदर की
तरह दांत से
काट कर खा
लेता हूँ . खा
मै रहा होता
हूँ
और
देख
कर
तरह
- तरह के
मुह पत्नी और
बच्चे
बनाते
हैं
. कैथा , कमरख और
हल्दी
- नमक लगी
कली खटाई , कच्ची हल्दी आदि
अनेक
मसाले
और
फल
जो
शहर
क्या
पुराने
मोहल्लों मे भी नही
मिल
पाते
- सब यहं
देवी दर्शन से
पहले ही रास्ते से दर्शन
देना
शुरू
कर
देते
हैं
, वो भी
शुद्ध
और
सस्ते
. शाम को
लौटना
हो
तो
सब्जी
और
मछली
भी
मिलती
है
. सस्ता होने
और
शहर
मे
न
मिलने
का
यह
मतलब
नही
कि
मोल
भाव
न
किया
जाय
. मोल भाव
होता
है
और खूब होता है. जितने पर
बताया
, उससे कम
पर
न
लिया
तो
क्या
मज़ा
रहा
. अभी जब
गया
था
तो
जूतों
की
भी
दुकान
थी
- दुकान माने
, ज़मीन
पर
पॉलीथीन बिछा कर माल
सजा
दिया
बस
हो
गयी
दुकान
. यह भी
एक
कारण
है
सस्ता
होने
का
. न मंहगा
किराया
न
नौकर
, बिजली , सजावट , विज्ञापन आदि
का
खर्च
और
न
ही
बिचौलिये . माल सीधा
उत्पादक से उपभोक्ता तक
, बहुत हुआ
तो
बीच
मे
बस
एक
कड़ी
और
. 'एलीट '
कहलाने
वाला
वर्ग
भी
आता
और
मोल
भाव
करके
खरीदारी भी करता है
. हमने भी
चार
जोड़ा
( एक अपने
और तीन तीनो
बच्चों के लिये
) नागरा खरीदा . कुछ अनगढ़ से
थे
, चमड़ा भी
कुछ
कड़ा
था
किन्तु
बाटा
आदि
से
लगभग
1/8
और गांधी आश्रम
से
1/4 कीमत पर
( साढ़े चार
सौ मे चार
जोड़ा
). एक और
बात थी जो
शहर / मॉल्स मे
दुर्लभ
है
-- बिटिया , भैया
, अम्मा
, दीदी का
सहज
सम्बोधन . मॉल्स मे
तो
खैर
सवाल
ही
नही
, शहरों मे
विशेषतः महिलाओं के
सामान
की
दुकानों मे दुकानदार / सेल्समैन - गर्ल्स दीदी भाभी
कहते
हैं
किन्तु
अम्मा
क्या
आंटी
कहने
का
भी
रिस्क
कोई
दुकानदार नही लेता . पहले जो दीदी
कहे
जाने
की
अवस्था
पार
चुकी
होती
थीं
और
माता
जी
कहे
जाने
से
दूर
थीं
उन्हे
भाभी
जी
कहने
का
चलन
हुआ
. अब तो
यह
सब
लुप्त
होकर
' मैम / मैडम
' रह गया
है
और
भाई
साहब
' सर ' हैं
. ' सर'
कहें या ' मैम
/ मैडम '
- कहने व सुनने
वाला
जानता
है
कि
यह
बस
मार्केट मंत्र हैं जबकि
गांव
वाला
भले
ही
चालू
हो
चुका
हो
और
रिश्तेदारी न जोड़ रहा
हो
फिर
भी
उसका
बिटिया
, भैया कृत्रिम नही लगता . यह सब गांव
की
बाज़ारों मे ही मिल
सकता
है
.वहां खरीदारी मे भी रस
है
. एक बूढ़े
दादा
थे
. वे डलिया
की
दुकान
लगाये
थे
. एक से
एक
सुन्दर
, गठी , मज़बूत व कई
साईज
मे
डलिया
. तीन डलिया
भी
लीं
. मोल भाव
के
अलावा
रस
इसका
भी
था
कि
उन्हे
हिसाब
कई
बार
मे
समझा
सका
.
मेला इतनी
ज़ल्दी खत्म नही
होता मगर यहां
चार घंटा थोड़े ही लगाऊंगा . अब वह
बात
जिसकी
फोटो
मंदिर
के
बजाय
चस्पा
की
है
. यहां लोहे
की
कड़ाही
और
तवा
खूब
मिलती
है
, बल्कि यहीं
या
पुराने
बाज़ारों मे मिल पाती
है
. यह सब
छोटे
/ घरेलू कारखानों मे
बनता
है
. अब बाज़ार
की
चाल
देखिये
. इन्हे बिल्कुल चलन से बाहर
सा
कर
दिया
. इनने मार्जिन नही है और
ये
आकर्षक
भी
नही
. साफ करने
मे
भी
समय
व
मेहनत
बहुत
है
. काम वाली
भी
नखरे
करती
है
मगर
मुख्य
बात
कि
इसमे
मार्जिन नही .
फिर
ये
असंगठित बाज़ार व कम
पूंजी
का
काम
है
जबकि
पूंजीपतियों का साफ - सुथरा ,
हल्का
उत्पाद
. हिंडालियम , स्टील ,
तांबा
की
तली
, नॉन स्टिक
, इण्डक्शन वाले
शो
- पीस जैसे
बर्तन
हैं
. वे लागत
से
कई
गुना
पर
बिकते
हैं
. ब्रांडेड की
बाजीगरी भी है . अब जब लोहे
की
कढ़ाही
और
तवा
आदि
मॉल्स
मे
, शो रूम्स
मे
या
शहर
की
किसी
दुकान
मे
मिलेंगे ही नही तो
कोई
खरीदेगा कैसे .
हो
गयी
न
मांग
कम
से
ठप
तक
और
कुटीर
उद्योग
का
सफाया
. अब जिस
लुहार
को
कट्टा
बनाना
नही
आता
/ बनाता नही
... वह
थोड़ा
बना
कर
इन्ही
बाज़ारों मे आयेगा . मॉल्स /
शहर मे उसका
माल घुस ही
नही पायेगा तो
बिकेगा
क्या
. बाज़ार के
इन्ही
हथकंडों से पहले मलमल
के
बुनकर
खत्म
हुए
और
अब
तमाम
कलायें
व
कारीगर
, छोटे पेशे
खत्म
हो
रहे
हैं
. अब बाज़ार
मे
क्या
किताबों मे ही 'ठ '
से
'ठठेरा ' नही मिलता और
न
ही
बर्तनों पर कहीं कलई
होती
है
. '
सनतकदा ' 'दिल्ली हाट
' सूरजकुण्ड ' जैसे अभिजात्य मेलों
/ बाज़ारों मे
यह
सब
मिलता
है
-- कौतूहल के
शमन के लिये
दस गुने से
अधिक पर .
बात लोहे
की
कढ़ाही
की
हो
रही
थी
, लोहे पर
बाज़ार
की
एक
और
चाल
देखिये
. कुटीर उद्योग
/ छोटे कारखानों मे
बनने वाला उस्तरा गांवों तक
के
नाईयों
की
दुकानों से भी दशकों
पहले
ही
गायब
हो
चुका
है
. खुद दाढ़ी
बनाने
वालों
के
लिये
ट्विन
से
लेकर
पाँच
तक
वाले
ब्लेड
आ
गये
किन्तु
रेज़र
तो
कुटीर
उद्योग
/ छोटे कारखानों मे
बनता नही था
. वो तो उद्योगपति ही
बनाते
थे
. अब रेज़र
आ
गये
( ये भी
उन्ही बड़ों का
उत्पाद
है
) तो ब्लेड
बनाने की मशीनों व कच्चा
माल
को
बेकार
कैसे
जाने
देते
. जो माल
बन
चुका
था
, उसका क्या
होता
? बाज़ार ने
तरीका
निकाला
. उस्तरा का
शेप
वैसा
ही
रहने
दिया
मगर
उसमे
फल
नही
रखा
. ऐसा बनाया
जिसमे
ब्लेड
का
आधा
हिस्सा
लगाया
जाता
है
. ये उस्तरा
भी
कुटीर उद्योग / छोटे
कारखानों मे नही बनता
. लो हो गया
बाज़ार
का
काम
. नाई को
बहलाया
कि
हमने
दिन
मे
कई
बार
उस्तरा
पर
धार
करने
के
झंझट
से
बचाया
- लो नये
तरीके का उस्तरा .
वास्तव
मे
यह
अपने
ब्लेड
खपाने
का
तरीका
था
. न बना
स्टॉक
खराब
हुआ
, न मशीनें
बल्कि
आगे
भी
उत्पादन की खपत की
गारण्टी .
बाज़ार बहुत
मायावी
है
. गया था
चन्द्रिका देवी के दर्शन
को
, बघारने लगा
बाज़ार
का
दर्शन
. देवी का
रूप
मां
ही
नही
, माया और
महामाया का भी है
और
हम
तो
अब
जाने
... कबीर तो
बहुत पहले ही
जान चुके थे
- " माया
महा ठगिनी हम
जानी ... "
राज नारायण
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