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Sunday 29 December 2013

हँस कैसे लेते हैं !


स्टेट बैंक ब्लॉग पर सक्रियता के दिनों की बात है एक साथी थे सुदीप्त मजूमदार. थे तो वे पुरुष किन्तु लोगों की अंग्रेजी समझ की बलिहारी, उन्हे कुछ साथी बहुत समय तक महिला समझते रहे – कारण कि, अपना नाम वे अंग्रेजी मे Sudipta लिखते थे जिसे वे लोग सुदीप्ता समझ कर उन्हे महिला मानते थे. अब स्टेट बैंक ब्लॉग पर अन्य फोटो तो पोस्ट की जाती थीं किन्तु अपनी फोटो पेस्ट करने का चलन नही था जो अब भी नही है. उनके महिला होने का भ्रम बहुत दिनों तक बना रहा. एक बार उन्होने बिना किसी विवरण / शीर्षक / सन्दर्भ के एक सुन्दर युवती की हँसती हुयी आकर्षक फोटो पेस्ट की जिस पर बहुत टिप्पणियां आयीं. लोगों ने उनकी ही तस्वीर समझा. उनमे से बस एक टिप्पणी. जो अब तक याद है. प्रस्तुत कर रहा हूँ –

“ अच्छा. तो  ये आप  हैं मैडम. लेकिन ये बताईये कि बैंक मे काम करते हुए भी आप इतनी खुश  कैसे रह लेती हैं ? “

उनको जो भ्रम था, उसे व्यक्त होता देखने और टूटने की अपेक्षा उनकी टिप्पणी के दूसरे अंश पर तरस आया, कुढ़न हुई और अन्ततः हँसी आयी. ऐसा ही एक वाकया अभी पिछले दिनों ( 11 अप्रैल, 2013 ) को पेश आया. स्टेट बैंक अकादमी. गुड़गांव मे ट्रेनिंग थी. उद्घाटन व परिचय सत्र मे महाप्रबन्धक महोदय ( श्री धर्मवीर प्रसाद ) सम्बोधित कर रहे थे. अब महाप्रबन्धक थे तो पकी आयु के थे ही किन्तु इतने उच्च पद पर होते हुए भी बड़े खुशमिज़ाज. ज़िन्दादिल औए सबसे सहज होकर हँसी – मज़ाक करते हुए बात कर रहे थे. लग ही नही रहा था कि गरिमामय अकादमी का गरिमामय प्रमुख उदघाटन भाषण दे रहा है बल्कि कोई अनुभवी और खुशमिज़ाज दोस्त बातें कर रहा हो, ऐसा लग रहा था. उन्होने फिल्मों की, त्योहारों की, किताबों की – कितनी ही औपचार्रिक बातें की – डायस से हट कर, टहलते हुए.

अधिकांश लोगों को उनका अंदाज अटपटा लग रहा था, कुढ़ भी रहे थे और इस अंदाज को हल्कापन मान रहे थे. आखिर रहा नही गया, एक प्रतिभागी ने ( वही यक्ष प्रश्‍न ) पूछ ही लिया, “ सर, आप बैंक मे इतने उच्च पद पर और इतने तनाव के बावजूद इतना खुश कैसे रह लेते हैं ? “ उन्होने एक ठहाका लगाया और बोले, “ क्यों ! क्या मेरा पद और काम मुझे ठीक से बोलने की मनाही करता है ?  काम का बोझ व तनाव होने के बाद भी जब मै खाता हूँ, नहाता - धोता हूँ, बीमार पड़ने या ज़रूरी कामों पर छुट्टी लेता हूँ, LFC पर या वैसे ही घूमने जाता हूँ तो क्या शाम को फिल्म देखने, बाज़ार घूमने, गाना सुनने, किताब पढ़ने और उस पर बात करने से क्या बैंक मना करता है ? ये तो हम ही हैं जो सोच लेते हैं कि नही, अब ये सब नही करना और करना भी तो गिल्टी फील करना और किसी से कहना तो कतई नही. और भी बहुत कुछ कहा.

वे बहुत कह चुके, आप वहां थे नही इसलिये मने यह वाकया बयान किया. मै अपनी तरफ से कुछ नही कहूँगा – आपको कुछ समझना हो तो समझें, नही तो मुह बिचका कर ‘हुंह’ कर दें.

राज नारायण

मुझे तो तेरी लत लग गयी, लग गयी… !


मुझे तो तेरी लत लग गयी, लग गयी… ! 

कुछ दिनों पहले मेरे एक साथी सेवानिवृत हुए. इस उपलक्ष्य मे एक पार्टी रखी गयी. हमारे प्रशासनिक कार्यालय , लखनऊ मे सेवानिवृत्ति पर एक पार्टी रखी जाती है जिसमे सेवा से विदा हो रहे साथी को बैंक की ओर से भेंट, यूनियन की ओर से भेंट, अन्य उपहार, माल्यार्पण, जलपान आदि होता है, अध्यक्षता उप महाप्रबन्धक महोदय करते हैं. प्रशासनिक कार्यालय मे लोग अधिक हैं अतः हर महीने के अन्तिम ऐसी पार्टी होती ही है, कभी – कभी तो एक साथ कई लोगों की विदाई पार्टी होती है.

इन पार्टियों मे कुछ साथी, लगभग सभी उच्चाधिकारी और समापन पर सेवानिवृत अधिकारी भी अपनी अनुभूतियों को व्यक्त करते हैं. इन भाषणों मे एक बात ज़रूर होती है कि ये अधिकारी हमेशा देर तक कार्य करते थे / आठ - नौ बजे से पहले तो कभी गये ही नही / एक वक्ता ने बताया कि एक बार सवा आठ बजे वे घर जाने को हुए तो इनसे भी घर चलने को कहा तो वे बोले कि आप चलें, मै तो अभी एक घण्टा और बैठूंगा. उनके सुबह जल्दी आने का भी ज़िक्र होता है कि लोग मज़ाक मे कहते थे, “ अरे ! कल घर नही गये क्या ? “ ऐसा इसलिये कि घर जाते समय वे बैठे मिलते थे और सुबह भी. यह भी कहा जाता है कि जब भी मै (वक्ता) इनके डिपार्टमेण्ट गया, इन्हे काम मे लगा ही पाया. ये सब बातें बड़े गर्व से कही जाती थीं और समापन भाषण मे सेवानिवृत साथी भी बड़े गर्व से इसकी पुष्टि करते हैं.

मुझे एक बात हमेशा सालती है कि यह प्रवृत्ति गर्व की है या शर्म की. मै तो इसे गर्व की नही शर्म की बात मानता हूँ कि आप घर – परिवार, यार- दोस्त, अपने शौक़, स्वास्थ्य, मनोरंजन, पारिवारिक व सामाजिक सम्बन्ध आदि सबकी बलि देकर यह कर रहे हैं. बैंक से बाहर कैसा मौसम है, कैसी रंगीनी है या बाहर क्या हो गया – इनसे कोई मतलब नही. ऑफिस से ठीक बाहर की घटना की जानकारी भी इन्हे अख़बार से व साथियों की बातचीत से मिलती है. अखबार मे भी ये मुखपृष्ठ की सुर्खियां ही देख पाते हैं क्योंकि टाईम ही नही मिलता. शाम या धुंधलका ( गोधूलि बेला तो शहरों मे होती नही ) तो इन्होने अर्से से देखा ही नही. कृश्न चन्दर की मशहूर “ गधा त्रयी “ ( ‘एक गधे की आत्मकथा’, ‘एक गधे की वापसी’ और ‘एक गधा नेफा मे’ ) के प्रथम उपन्यास, “एक गधे की आत्मकथा”, मे ज़िक्र है जब रामू धोबी यमुना मे घुटनों तक पानी मे खड़ा होकर कपड़े धो रहा होता है तब सूरज डूबने को हो रहा होता है. गधा यमुना मे डूबते सूरज के अप्रतिम सौन्दर्य को देख कर मुग्ध होता है किन्तु रामू बेचारा उस उस सौन्दर्य से विमुख कपड़े ही कूट रहा होता है. उसे मालूम ही नही होता कि उसके आस-पास सौन्दर्य का कितना भण्डार बिखरा है जो मुफ्त मे ही उपलब्ध है. हमारे ये ‘कर्मवीर’ बेचारे उसी रामू की तरह हैं जो गधे से बदतर है.

मै या मेरी तरह सोचने वाला कोई भी कामचोरी को प्रोत्साहित नही कर रहा. यदि आप दिन मे योजनाबद्ध ढंग से, प्राथमिकताएं तय करके कार्य करें तो देर तक बैठने की कोई ज़रूरत नही. देर तक बैठने का यह कतई अर्थ नही कि आप बहुत अधिक कार्य कर रहे हैं बल्कि यह भी है कि आप कार्य को नियत कार्यकाल मे निपटाने के योग्य नही हैं. ऑडिट, लेखाबन्दी या कोई निर्धारित लक्ष्य जिसमे समय सीमा दी हो तो देर तक बैठना आपकी प्रतिबद्धता दर्शाता है किन्तु काम काज के सामान्य दिनों मे अक्षमता. यदि देर तक बैठने पर उस दिन या अगले दिन का सारा काम खत्म हो जाये तब तक ठीक है किन्तु इनका भी उतना ही बचा होता है जितना समय से जाने वाले का.

दरअसल ऐसे लोग अपनी संस्था या कार्य के लिये कार्य नही करते बल्कि अपनी आदत, जो कुछ दिन बाद लत बन चुकी होती है, से मजबूर होकर करते हैं. घर व घर के कामों, पत्नी और बच्चों से जी चुराते, ऑफिस और घर के बीच रेखा खींच कर सन्तुलन बैठाने वालों से ईर्ष्या (क्योंकि वे उनकी तरह सामंजस्य मे समर्थ नही होते ) करते हुए उन्हे हीन समझते हुए कब वे लत के शिकार हो जाते हैं, पता ही नही चलता. तमाम ट्रेनिंग और कार्यशालाओं मे यह सब बताया जाता है किन्तु ये स्वयं ही अपना इतना अनुकूलन ( Conditioning / Brainwash ) कर लेते हैं कि उन्हे और कुछ दिखाई ही नही देता.

विदाई पार्टी मे अन्तिम बार अपने कसीदे सुनने के बाद जब वे घर जाते हैं तो उन्हे समझ नही आता कि करें क्या ? पत्नी बच्चे इन्हे घास नही डालते. जब उन्हे इनकी ज़रूरत थी तब उन्होने उनकी उपेक्षा की. अब वे उनके बगैर काम चलाना सीख चुके होते हैं. दोस्त व रिश्तेदार भी अपने व्यवहार से प्रकट कर ही देते हैं कि पहले तो कभी हमे समय दिया नही, अब अपना समय काटने आये हो. उसी ऑफिस मे जायें तो कुछ ही देर बाद वे “गुजरा गवाह व लौटे बराती” से भी गया बीता हो जाते हैं.तब वे ज़माने को दोष देते हैं. मित्रों, इस दयनीय स्थिति के लिये आपकी संस्था या ज़माना नही आप स्वयं दोषी हैं. कोई भी यह नही कहता कि आप कार्य के पीछे इन सबको छोड़ दें किन्तु आपको तो सबसे जी चुराने व कार्य की लत लग चुकी होती है और लत चाहे अच्छी हो या बुरी – इसके दूरगामी परिणाम हमेशा ही बुरे होते हैं.  

राज नारायण‌

Saturday 8 June 2013

बिरयानी वाले बाबा


बिरयानी वाले बाबा

आज सुबह -सुबह ऐसा लगा कि कोई हौले से हिला कर जगा रहा है. कच्ची नींद से जगाये जाने पर घबराहट और हड़बड़ाहट हुई कि इतनी सुबह कौन और क्यों जगा रहा है मगर उनींदा सा जगा भी. सोवानीधीं मे देखा तो पलंग की दाहिनी साईड पर कोई सफेद चोगा सा पहने खड़ा था, अब तो झुंझलाहट डर मे बदल गई, गला खुश्क हो गया, चिल्लाना चाहा तो आवाज़ ही नही निकली. बुरी तरह डर गया क्योंकि बगल मे श्रीमती जी भी नही थीं . डर मुझ पर पूरी तरह हॉवी हो चुका था क्योंकि दरवाजा तो बन्द था, यह आया कैसे और है कौन ? और श्रीमती जी कहां गयीं ? बत्ती बन्द करके सोया था किन्तु अब कमरे मे हल्का-हल्का उजाला और भीनी - भीनी खुशबू भी थी . अब तो डर और भी बढ़ गया . घबराहट बढ़ी तो पसीना भी निकलने लगा और जो पहले सोचा था कि कोई चोर होगा तो अब ख्याल चोर से हटकर भूत-प्रेत पर बल्कि जिन्न पर गया क्योंकि बचपन मे सुनी - पढ़ी कहानियों और चैनलों के तमाम भूतिया कार्यक्रमों के अनुसार रोशनी और खुश्बू जिन्नात के आने पर ही फैलती है. डर के मारे घिग्घी बंध गयी. मेरी हालत को उसने भांप लिया और गम्भीर, मन्द - मधुर किन्तु व्यंग्य मिश्रित वाणी मे बोला, " बनते तो बड़े सूरमा हो और भूत-प्रेत, जिन्नात वगैरह को मानते ही नही हो तो अब क्यों डर रहे हो ! डरो मत, मै कोई जिन्न नही, फरिश्ता हूँ. यह देखो मेरे सर के ऊपर घूमता आभामण्डल ( Aura ) और पंख " कहने के साथ ही उसने पंख फैला कर दिखाये.

जब उसने यह कहा तो मेरी जान मे जान आयी और पता नही उसके दैवीय प्रभाव मे या फरिश्ता से साक्षात होने के रोमांच मे श्रीमती जी के साथ मे होने की ओर भी ध्यान नही रहा. अब फरिश्ता आया है तो महज हाल - चाल पूछने तो आया नही होगा और वैसे भी मै कौन सा उसका खास हूँ. ज़रूर कोई इनायात करनी होगी सो पूछा, " किबला, कैसे आये ?" वह शायद चुहुल के मूड मे था, बोला, " नीचे तक तो रेगुलर शटल सर्विस से आया. जन्नत से हर आधे घण्टे पर तुम लोगों को दिखाई पड़ने वाली UFO चलती हैं. जहां लैण्ड किया वहां से तुम्हारे घर तक उड़ कर और फिर सीढ़ी चढ़ कर. तुम तो जानते ही होगे कि कैसी भी दीवार हम लोगों को रोक नही सकती है. " अब डर खत्म हो चुका था सो झुंझलाहट से दांत पीसता हुआ बोला, " मियां, साधन नही पूछ रहा हूँ, सबब बताईये."

" तो ऐसा कहो ! वह भी बताऊंगा, पहले कहो हाल-चाल कैसे हैं, सब ठीक है ? " अब मेरी बारी थी, बोला, " कहां ठीक हैं. दो दिन से पेट खराब है, खांसी- जुकाम तो है ही ऊपर से स्पाण्डलाईटिस की वजह से कमर मे भी दर्द हो रहा है, दांत अलग दर्द कर रहा है. कुछ खाते बनता है पीते. बस किसी तरह पतली खिचड़ी खा रहा हूँ."

" हद है मियां. हाल-चाल पूछने का यह मतलब थोड़े होता है कि जवाब मे कोई 'हेल्थ बुलेटिन' जारी करने लगे. अरे यह तो रस्मी होता है. पूछने और बताने वाला- दोनो ही जानते हैं कि जवाब यही होगा कि आपकी दुआ है, अल्लाह का करम है, सब ठीक है... वगैरह, वगैरह ! कहलाते अदीब हो मगर इतना अदब नही."

"क्यों, अब लगी ! कैसे आये के जवाब मे आपने जो कहा वो ठीक और मै जो बताऊं वो बेअदबी !"

"अच्छा, छोड़ो यह सब. ऊपर से हुक्म हुआ है कि तुम्हे एक नायाब चीज दी जाये जो सबके भला करने मे इस्तेमाल हो."

उसकी बात पूरी होने से पहले ही मै बोल पड़ा, " मुझ पर ही यह करम क्यों ? "

" तुम्हारी यह आदत ठीक नही. सवाल बहुत करते हो. कौन सा मुझे या ऊपर वालों को वोट लेने हैं जो कम्बल, लैपटाप, मुआवजा, ओहदा बाटूं छुट्टी घोषित करता फिरूं. अब शांत रहते हो कि ऊपर यह रिपोर्ट दूं कि वह लेना ही नही चाहता. "

" नही, नही. वो तो यूं ही आपके रंग मे रंग कर बोल गया. अब कहें. "  अब दोनो ही गम्भीर होकर गरीब और गरीबनवाज़ की भूमिका मे चुके थे. उसने मालूम कहां से चांदी की एक छोटी डिबिया बरामद की, उसे खोला. अन्दर हरे रंग का सनील का अस्तर लगा था उसमे गुलाबी रंग के पतंगी कागज मे कोई छोटी सी चीज थी, उसे भी खोला तो उम्दा किस्म के चावल का एक दाना निकला, बोला, " यह गैबी चावल है. इसकी खासियत यह है कि नहा धोकर, मन पाक-साफ रखकर किसी खाली देग मे यह डिबिया खोल कर धूनी दिखाने जैसा फिराकर डिबिया बन्द करके वापस अपने पास हिफाजत से रख लेना और देग का मुह उस पर तश्तरी ढक कर गीले मैदा से बन्द कर देना. खबरदार, यह सब बिल्कुल अकेले मे हो, किसी के भी , यहां तक कि तुम्हारी बीवी के भी , देखना तो दूर कान मे भनक तक पड़े कि क्या हो रहा है नही तो सब गैबियत जाती रहेगी. देग मे ही यह करना है, कुकर, भगौना या किसी और बरतन मे नही. आधा घण्टा बाद जब देग खोलोगे तो उम्दा बिरयानी से भरी होगी. ईंधन, मसाला, गोश्त या सब्जियां वगैरह की फिक़्र मत करना , सब उसी गैबी करम से होगा जैसा चावल मे प्रोग्राम फीड है. उसी हिसाब से चिकन, मटन या वेज, जिसे कुछ लोग पुलाव मानते हैं - बिरयानी नही, तैयार मुहय्या होती रहेगी. देग मे चावल की धूनी देने के दौरान चावल उसमे या बाहर ज़मीन पर गिरने पाये और डिबिया कभी नापाक जगह पर रखना और कभी बिना गुसल किये छूना, ऐसा होने पर भी इसकी खूबी जाती रहेगी. और हाँ ! एक बात की तरफ खास तौर से आगाह किये देता हूँ, इस बिरयानी को कभी बेचा या किसी और तरीके से पैसा कमाने की कोशिश की तो इस चावल के साथ जो कुछ तुम्हारे पास भी है, वह भी जाता रहेगा. ये अमीर-गरीब, अपने या दूसरे महजब का, शाकाहारी या मांसाहारी - गरज ये कि सबके लिये है. शाकाहारी भी ले सकें इसी गरज से इसमे हफ़्ता मे तीन दिन शाकाहारी का प्रोग्राम फीड है. जो इसे तबर्रुक ( प्रसाद ) मान कर खायेगा, उसे स्वाद के साथ-साथ और भी फायदे होंगे और जो महज बिरयानी समझ कर खायेगा, उसे बस स्वाद मिलेगा और पेट भरेगा.

ऐसा बताने के बाद उसने मुझे वो डिबिया दी.मैने भी दामन मे लेकर दोनों आँखों से लगाया, आँख खोली तो फरिश्ता गायब था. अब कोई आश्‍चर्य करते हुए डिबिया को पूजा वाली जगह पर रख दिया. ये बाद मे ख़्याल आया कि अमूमन मै जांघिया - बनियान पहन कर सोता हूँ तो दामन कहां से गया जिसमे डिबिया ली, बनियान मे तो वैसा दामन होता नही. खैर , सोचना शुरू कर दिया क्योंकि यही एक काम ऐसा है जिसमे कुछ लगता नही - आपका पैसा, टैक्स. टाईम भी वैसा नही लगता. आप और काम करते हुए भी सोच सकते हैं और सोचने का समय भी दस से पाँच या आठ से आठ नही तय है. आप इस समय सीमा मे या इसके पहले / बाद भी सोच सकते हैं. सबसे पहले तो इस दिक्कत की तरफ ध्यान गया कि देग तो घर मे है ही नही. अब देग खरीदूँ तो दो - ढाई हजार से क्या कम की आयेगी, और फिर फरिश्ते ने पत्‍नी को भी बताने से मना किया है. अब घर मे देग लाऊं तो ताना सुनूं कि तमाम चीजें कहती रहती हूँ वो तो लाते नही, ये देग क्यों उठा लाये, इसका होगा क्या ? मान लो रात - बिरात या उनके मायके वगैरह जाने पर लाऊं भी तो पड़ोसिने बता देंगी कि आंटी / भाभी जी, आज अंकल / भाई साहब देग लाये थे, उसका क्या करेंगी. इसके अलावा वह एकांत कहां नसीब होगा जिसमे बिरयानी प्रक्रिया सम्पन्न होगी. यह किस झंझट मे डाल दिया इस फरिश्ते के बच्चे ने ! और किसकी प्रेरणा से इसने मुझे इस इनायत के लिये चुना ?... आदि, इत्यादि तमाम सवालात और दिक्कतों के बावजूद मै उस गैबी चावल से नाता रखना चाह रहा था क्योंकि उसकी कमाई करने की चेतावनी के बाद भी इसमे कमाई और शोहरत के बहुत रास्ते नज़र रहे थे. सोचा कि घर पर कुछ दिन बहाना करूं कि ऑफिस मे बहुत काम है अतः कुछ दिन देर से आना होगा और ऑफिस मे कि कुछ घरेलू काम हैं तो कुछ दिन ज़ल्दी जाऊंगा. ऑफिस और घर के बीच एक बड़ी सी खाली जगह पड़ती है जिस पर करील का जंगल सा है, वह सेना की ज़मीन है सो उस पर कोई अतिक्रमण भी नही है. वही झाड़ियों के बीच एक मज़ार और कोठरी सी भी है, वहीं यह सब करने का सोचा. चूंकि मामला गैबी था तो धज भी वैसी ही धारने की सोची. पहली ज़रूरत दाढ़ी की थी और दाढ़ी सफेद हो तो और भी अच्छा. मेरी दाढ़ी सफेद है भी तो ख़िजाब की जगह व्हाइटनर लगाने का भी झंझट नही. पहले सोचा "बकर दाढ़ी" ( इसे अधिकांश लोग 'फ्रेंच कट' कहते हैं ) रख लूं मगर तुरन्त ही इसे खारिज कर दिया. सफेद बकर दाढ़ी मे आदमी खामख़्वाह अपने को अमिताभ बच्चन, विजय माल्या, मुजफ्फर अली, अज्ञेय जैसे लुक का समझने लगता है और इस तरह की दाढ़ी मे पीर-फकीर- औलिया जैसा लुक नही आता तो पूरी दाढ़ी रखने का तय हुआ. दाढ़ी के बाद कपड़ों का सोचा. इस स्वांग मे तो चोगा ही फबता है. चोगा का रंग कौन सा हो -- सोचा कि बिरयानी सभी जाति- धर्म वालों के लिये है तो चोगा भी बहुरंगी हो. अब अनेक रंगों का तो क्या बनवाता, हिन्दुओं को प्रिय भगवा, मुसलमानों का हरा और सूफी भी इधर पॉपुलर हो रहा है तो सफेद - इन तीन रंगों का सोचा मगर फिर याद आया कि यह तो अपने राष्‍ट्रीय ध्वज के रंग हैं. इन्हे पहनने पर कोई कोई राष्‍ट्र ध्वज के अपमान की याचिका दायर कर देगा तो फसन्त होगी तो रंग सलेटी ठहरा - किसी धर्म का नही और मैला भी ज़ल्दी होगा.

बिरयानी तो जब बनती तब बनती मगर सब तय हो जाने के बाद ख़्याली पुलाव पकने लगे. आँखें बन्द करके बैठा तो तन्द्रा सी आने लगी. जागता हुआ सा, कुछ ख़्वाब सा देखा. उस मज़ार से सटे एक तख़्त पर मै तयशुदा धज मे आँखे बन्द किये ( मगर कनखियों से सब देखता हुआ ) ध्यानमग्न सा बैठा हूँ. नौकरी से कब का एक्जिट ले लिया है, अब तो जनकल्याण ही मेरा और पूरे कुनबे का ध्येय है. अब मै "बिरयानी वाले बाबा " के नाम से मशहूर हूँ. "बिरयानी वाले बाबा " की वेबसाईट भी है. आस- पास के जिलों से भी लोग आते हैं. अभी कल ही मुलायम सिंह, अखिलेश यादव और आजम खां भी आये थे. जायरीनों की भीड़ जमा है जिन्हे खिदमतगार बिरयानी दे रहे हैं. जगह गुलजार हो गयी है. झाड़ियां साफ करके कार / मोटरसाईकिल स्टैंड बना दिया है जिस पर रात के आठ बजे भी सौ के आस पास गाड़ियां होंगी. लोग अपनी श्रद्धा से ही चढ़ावा चढ़ा रहे हैं जिन्हे मै छूता भी नही हूँ. खिदमतगार उसे गिन कर एक रजिस्टर मे चढ़ाते हैं और हर दिन सुबह साढ़े दस बजे उसे बैंक मे "बिरयानी वाले बाबा ट्रस्ट" के नाम से खुले खाता मे जमा कर देते हैं जिसका संरक्षक मै, अध्यक्ष मेरी पत्‍नी, सचिव मेरा साला और कोषाध्यक्ष भतीजा है.

खिदमतगारों मे से कुछ लोग चढ़ावा की रकम मे हेरा- फेरी करने लगे हैं कुछ तो जायरीनों को पटा कर लाते हैं कि बाबा के हाथ से बिरयानी दिलवा देंगे, इसके लिये वे अच्छी खासी रकम लेते हैं जिसका रजिस्टर मे कोई इन्दराज नही होता. बिरयानी वही है मगर लोग समझते हैं कि मेरे हाथ से मिलेगी तो फायदा अधिक और शर्तिया होगा. मै भी उनका दिल नही तोड़ता. आज तो हद ही हो गयी. ये खिदमतगार पैसे से मजबूत किसी बेवा और उसकी जवान लड़की को पटा कर लाये जो बेचारी बीमार थी और इसी से उसकी शादी नही हो रही थी. इन लोगों ने उसे बहकाया जब सब चले जायेंगे तो रात के एक बजे बाबा एकांत मे खास उपाय करेंगे. उनका इरादा ग़लत ही था मगर अंधश्रद्धा मे डूबी वे दोनो उनके कुत्सित इरादे भांप नही पा रही थीं. मै पैसा - कौड़ी से भले ही भ्रष्ट हो चुका था मगर इस हद तक नही गिरा था और ही यह सब अपनी आँखों के सामने और अपने तकिया पर नही होने दे सकता था. मैने तख़्त पर रखी अपनी छड़ी ( जिसे मुकद्दस का दर्जा मिल चुका था ) उठायी और उस कमीने को पीटने के साथ चिल्लाया, " मरदूद, यह सब यहां नही चलेगा. "

मेरी आवाज़ से मेरी पत्‍नी की नींद खुली, उसने पहले तो मोबाईल मे टाईम देखा तो और झुंझलाहट हुई कि अभी तो 3:56 ही हुआ था, बोली , "क्या हुआ, क्या नही चलेगा ?" अब मै क्या बताता !

राज नारायण