बिरयानी वाले
बाबा
आज सुबह
-सुबह ऐसा लगा
कि कोई हौले
से हिला कर
जगा रहा है.
कच्ची नींद से
जगाये जाने पर
घबराहट और हड़बड़ाहट हुई
कि इतनी सुबह
कौन और क्यों
जगा रहा है
मगर उनींदा सा
जगा भी. सोवानीधीं मे
देखा तो पलंग
की दाहिनी साईड
पर कोई सफेद
चोगा सा पहने
खड़ा था, अब
तो झुंझलाहट डर
मे बदल गई,
गला खुश्क हो
गया, चिल्लाना चाहा
तो आवाज़ ही
नही निकली. बुरी
तरह डर गया
क्योंकि बगल मे श्रीमती जी
भी नही थीं
. डर मुझ पर
पूरी तरह हॉवी
हो चुका था
क्योंकि दरवाजा तो बन्द
था, यह आया
कैसे और है
कौन ? और श्रीमती जी
कहां गयीं ? बत्ती
बन्द करके सोया
था किन्तु अब
कमरे मे हल्का-हल्का उजाला और
भीनी - भीनी खुशबू
भी थी . अब
तो डर और
भी बढ़ गया
. घबराहट बढ़ी तो
पसीना भी निकलने
लगा और जो
पहले सोचा था
कि कोई चोर
होगा तो अब
ख्याल चोर से
हटकर भूत-प्रेत
पर बल्कि जिन्न
पर आ गया
क्योंकि बचपन मे सुनी
- पढ़ी कहानियों और
चैनलों के तमाम
भूतिया कार्यक्रमों के
अनुसार रोशनी और
खुश्बू जिन्नात के
आने पर ही
फैलती है. डर
के मारे घिग्घी
बंध गयी. मेरी
हालत को उसने
भांप लिया और
गम्भीर, मन्द - मधुर
किन्तु व्यंग्य मिश्रित वाणी
मे बोला, " बनते तो
बड़े सूरमा हो
और भूत-प्रेत,
जिन्नात वगैरह को मानते
ही नही हो
तो अब क्यों
डर रहे हो
! डरो मत, मै
कोई जिन्न नही,
फरिश्ता हूँ. यह देखो
मेरे सर के
ऊपर घूमता आभामण्डल ( Aura ) और पंख
" कहने
के साथ ही
उसने पंख फैला
कर दिखाये.
जब उसने
यह कहा तो
मेरी जान मे
जान आयी और
पता नही उसके
दैवीय प्रभाव मे
या फरिश्ता से
साक्षात होने के रोमांच
मे श्रीमती जी
के साथ मे
न होने की
ओर भी ध्यान
नही रहा. अब
फरिश्ता आया है तो
महज हाल - चाल
पूछने तो आया
नही होगा और
वैसे भी मै
कौन सा उसका
खास हूँ. ज़रूर
कोई इनायात करनी
होगी सो पूछा,
" किबला,
कैसे आये ?" वह शायद
चुहुल के मूड
मे था, बोला,
" नीचे
तक तो रेगुलर
शटल सर्विस से
आया. जन्नत से
हर आधे घण्टे
पर तुम लोगों
को न दिखाई
पड़ने वाली UFO चलती
हैं. जहां लैण्ड
किया वहां से
तुम्हारे घर तक उड़
कर और फिर
सीढ़ी चढ़ कर.
तुम तो जानते
ही होगे कि
कैसी भी दीवार
हम लोगों को
रोक नही सकती
है. " अब डर खत्म
हो चुका था
सो झुंझलाहट से
दांत पीसता हुआ
बोला, " मियां, साधन नही
पूछ रहा हूँ,
सबब बताईये."
"
तो ऐसा कहो
न ! वह भी
बताऊंगा, पहले कहो हाल-चाल कैसे हैं,
सब ठीक है
न ? " अब मेरी बारी
थी, बोला, " कहां ठीक
हैं. दो दिन
से पेट खराब
है, खांसी- जुकाम
तो है ही
ऊपर से स्पाण्डलाईटिस की
वजह से कमर
मे भी दर्द
हो रहा है,
दांत अलग दर्द
कर रहा है.
न कुछ खाते
बनता है न पीते. बस किसी
तरह पतली खिचड़ी
खा रहा हूँ."
"
हद है मियां.
हाल-चाल पूछने
का यह मतलब
थोड़े होता है
कि जवाब मे
कोई 'हेल्थ बुलेटिन' जारी
करने लगे. अरे
यह तो रस्मी
होता है. पूछने
और बताने वाला-
दोनो ही जानते
हैं कि जवाब
यही होगा कि
आपकी दुआ है,
अल्लाह का करम
है, सब ठीक
है... वगैरह, वगैरह
! कहलाते अदीब हो
मगर इतना अदब
नही."
"क्यों, अब लगी
न ! कैसे आये
के जवाब मे
आपने जो कहा
वो ठीक और
मै जो बताऊं
वो बेअदबी !"
"अच्छा, छोड़ो यह
सब. ऊपर से
हुक्म हुआ है
कि तुम्हे एक
नायाब चीज दी
जाये जो सबके
भला करने मे
इस्तेमाल हो."
उसकी बात
पूरी होने से
पहले ही मै
बोल पड़ा, " मुझ पर
ही यह करम
क्यों ? "
"
तुम्हारी यह आदत ठीक
नही. सवाल बहुत
करते हो. कौन
सा मुझे या
ऊपर वालों को
वोट लेने हैं
जो कम्बल, लैपटाप,
मुआवजा, ओहदा बाटूं
व छुट्टी घोषित
करता फिरूं. अब
शांत रहते हो
कि ऊपर यह
रिपोर्ट दूं कि वह
लेना ही नही
चाहता. "
"
नही, नही. वो
तो यूं ही
आपके रंग मे रंग कर बोल गया. अब कहें. " अब दोनो ही
गम्भीर होकर गरीब
और गरीबनवाज़ की
भूमिका मे आ चुके थे. उसने
न मालूम कहां
से चांदी की
एक छोटी डिबिया
बरामद की, उसे
खोला. अन्दर हरे
रंग का सनील
का अस्तर लगा
था उसमे गुलाबी
रंग के पतंगी
कागज मे कोई
छोटी सी चीज
थी, उसे भी
खोला तो उम्दा
किस्म के चावल
का एक दाना
निकला, बोला, " यह गैबी
चावल है. इसकी
खासियत यह है
कि नहा धोकर,
मन पाक-साफ रखकर
किसी खाली देग मे यह
डिबिया खोल कर
धूनी दिखाने जैसा
फिराकर डिबिया बन्द
करके वापस अपने
पास हिफाजत से
रख लेना और
देग का मुह
उस पर तश्तरी
ढक कर गीले
मैदा से बन्द
कर देना. खबरदार,
यह सब बिल्कुल अकेले
मे हो, किसी
के भी , यहां
तक कि तुम्हारी बीवी
के भी , देखना
तो दूर कान
मे भनक तक
न पड़े कि
क्या हो रहा
है नही तो
सब गैबियत जाती
रहेगी. देग मे
ही यह करना
है, कुकर, भगौना
या किसी और
बरतन मे नही.
आधा घण्टा बाद
जब देग खोलोगे
तो उम्दा बिरयानी से
भरी होगी. ईंधन,
मसाला, गोश्त या
सब्जियां वगैरह की फिक़्र
मत करना , सब
उसी गैबी करम
से होगा जैसा
चावल मे प्रोग्राम फीड
है. उसी हिसाब
से चिकन, मटन
या वेज, जिसे
कुछ लोग पुलाव
मानते हैं - बिरयानी नही,
तैयार व मुहय्या होती
रहेगी. देग मे
चावल की धूनी
देने के दौरान
चावल उसमे या
बाहर ज़मीन पर
न गिरने पाये
और डिबिया कभी
नापाक जगह पर
न रखना और
न कभी बिना
गुसल किये छूना,
ऐसा होने पर
भी इसकी खूबी
जाती रहेगी. और
हाँ ! एक बात
की तरफ खास
तौर से आगाह
किये देता हूँ,
इस बिरयानी को
कभी बेचा या
किसी और तरीके
से पैसा कमाने
की कोशिश की
तो इस चावल
के साथ जो
कुछ तुम्हारे पास
भी है, वह
भी जाता रहेगा.
ये अमीर-गरीब,
अपने या दूसरे
महजब का, शाकाहारी या
मांसाहारी - गरज ये कि
सबके लिये है.
शाकाहारी भी ले सकें
इसी गरज से
इसमे हफ़्ता मे
तीन दिन शाकाहारी का
प्रोग्राम फीड है. जो
इसे तबर्रुक ( प्रसाद
) मान कर खायेगा,
उसे स्वाद के
साथ-साथ और
भी फायदे होंगे
और जो महज
बिरयानी समझ कर खायेगा,
उसे बस स्वाद
मिलेगा और पेट
भरेगा.
ऐसा बताने
के बाद उसने
मुझे वो डिबिया
दी.मैने भी
दामन मे लेकर
दोनों आँखों से
लगाया, आँख खोली
तो फरिश्ता गायब
था. अब कोई
आश्चर्य न करते हुए
डिबिया को पूजा
वाली जगह पर
रख दिया. ये
बाद मे ख़्याल
आया कि अमूमन
मै जांघिया - बनियान
पहन कर सोता
हूँ तो दामन
कहां से आ गया जिसमे डिबिया
ली, बनियान मे
तो वैसा दामन
होता नही. खैर
, सोचना शुरू कर
दिया क्योंकि यही
एक काम ऐसा
है जिसमे कुछ
लगता नही - न आपका पैसा, न टैक्स. टाईम भी
वैसा नही लगता.
आप और काम
करते हुए भी
सोच सकते हैं
और सोचने का
समय भी दस
से पाँच या
आठ से आठ
नही तय है.
आप इस समय
सीमा मे या
इसके पहले / बाद
भी सोच सकते
हैं. सबसे पहले
तो इस दिक्कत
की तरफ ध्यान
गया कि देग
तो घर मे
है ही नही.
अब देग खरीदूँ
तो दो - ढाई
हजार से क्या
कम की आयेगी,
और फिर फरिश्ते ने
पत्नी को भी
बताने से मना
किया है. अब
घर मे देग
लाऊं तो ताना
सुनूं कि तमाम
चीजें कहती रहती
हूँ वो तो
लाते नही, ये
देग क्यों उठा
लाये, इसका होगा
क्या ? मान लो
रात - बिरात या
उनके मायके वगैरह
जाने पर लाऊं
भी तो पड़ोसिने बता
देंगी कि आंटी
/ भाभी जी, आज
अंकल / भाई साहब
देग लाये थे,
उसका क्या करेंगी.
इसके अलावा वह
एकांत कहां नसीब
होगा जिसमे बिरयानी प्रक्रिया सम्पन्न होगी.
यह किस झंझट
मे डाल दिया
इस फरिश्ते के
बच्चे ने ! और
किसकी प्रेरणा से
इसने मुझे इस
इनायत के लिये
चुना ?... आदि, इत्यादि तमाम
सवालात और दिक्कतों के
बावजूद मै उस
गैबी चावल से
नाता रखना चाह
रहा था क्योंकि उसकी
कमाई न करने
की चेतावनी के
बाद भी इसमे
कमाई और शोहरत
के बहुत रास्ते
नज़र आ रहे
थे. सोचा कि
घर पर कुछ
दिन बहाना करूं
कि ऑफिस मे
बहुत काम है
अतः कुछ दिन
देर से आना
होगा और ऑफिस
मे कि कुछ
घरेलू काम हैं
तो कुछ दिन
ज़ल्दी जाऊंगा. ऑफिस
और घर के
बीच एक बड़ी
सी खाली जगह
पड़ती है जिस
पर करील का
जंगल सा है,
वह सेना की
ज़मीन है सो
उस पर कोई
अतिक्रमण भी नही है.
वही झाड़ियों के
बीच एक मज़ार
और कोठरी सी
भी है, वहीं
यह सब करने
का सोचा. चूंकि
मामला गैबी था
तो धज भी
वैसी ही धारने की
सोची. पहली ज़रूरत
दाढ़ी की थी
और दाढ़ी सफेद
हो तो और
भी अच्छा. मेरी
दाढ़ी सफेद है
भी तो ख़िजाब
की जगह व्हाइटनर लगाने
का भी झंझट
नही. पहले सोचा
"बकर
दाढ़ी" ( इसे अधिकांश लोग
'फ्रेंच कट' कहते
हैं ) रख लूं
मगर तुरन्त ही
इसे खारिज कर
दिया. सफेद बकर
दाढ़ी मे आदमी
खामख़्वाह अपने को अमिताभ
बच्चन, विजय माल्या,
मुजफ्फर अली, अज्ञेय जैसे
लुक का समझने
लगता है और
इस तरह की
दाढ़ी मे पीर-फकीर- औलिया जैसा
लुक नही आता
तो पूरी दाढ़ी
रखने का तय
हुआ. दाढ़ी के
बाद कपड़ों का
सोचा. इस स्वांग
मे तो चोगा
ही फबता है.
चोगा का रंग
कौन सा हो
-- सोचा
कि बिरयानी सभी
जाति- धर्म वालों
के लिये है
तो चोगा भी
बहुरंगी हो. अब अनेक
रंगों का तो
क्या बनवाता, हिन्दुओं को
प्रिय भगवा, मुसलमानों का
हरा और सूफी
भी इधर पॉपुलर
हो रहा है
तो सफेद - इन
तीन रंगों का
सोचा मगर फिर
याद आया कि
यह तो अपने
राष्ट्रीय ध्वज के रंग
हैं. इन्हे पहनने
पर कोई न कोई राष्ट्र ध्वज
के अपमान की
याचिका दायर कर
देगा तो फसन्त
होगी तो रंग
सलेटी ठहरा - किसी
धर्म का नही
और मैला भी
ज़ल्दी न होगा.
बिरयानी तो
जब बनती तब
बनती मगर सब
तय हो जाने
के बाद ख़्याली पुलाव
पकने लगे. आँखें
बन्द करके बैठा
तो तन्द्रा सी
आने लगी. जागता
हुआ सा, कुछ
ख़्वाब सा देखा.
उस मज़ार से सटे एक तख़्त
पर मै तयशुदा
धज मे आँखे
बन्द किये ( मगर
कनखियों से सब देखता
हुआ ) ध्यानमग्न सा
बैठा हूँ. नौकरी
से कब का
एक्जिट ले लिया
है, अब तो
जनकल्याण ही मेरा और
पूरे कुनबे का
ध्येय है. अब
मै "बिरयानी वाले बाबा " के नाम
से मशहूर हूँ.
"बिरयानी वाले
बाबा " की वेबसाईट भी
है. आस- पास
के जिलों से
भी लोग आते
हैं. अभी कल
ही मुलायम सिंह,
अखिलेश यादव और
आजम खां भी
आये थे. जायरीनों की
भीड़ जमा है
जिन्हे खिदमतगार बिरयानी दे
रहे हैं. जगह
गुलजार हो गयी
है. झाड़ियां साफ
करके कार / मोटरसाईकिल स्टैंड
बना दिया है
जिस पर रात
के आठ बजे
भी सौ के
आस पास गाड़ियां होंगी.
लोग अपनी श्रद्धा से
ही चढ़ावा चढ़ा
रहे हैं जिन्हे
मै छूता भी
नही हूँ. खिदमतगार उसे
गिन कर एक
रजिस्टर मे चढ़ाते हैं
और हर दिन
सुबह साढ़े दस
बजे उसे बैंक
मे "बिरयानी वाले बाबा ट्रस्ट"
के नाम से
खुले खाता मे
जमा कर देते
हैं जिसका संरक्षक मै,
अध्यक्ष मेरी पत्नी, सचिव
मेरा साला और
कोषाध्यक्ष भतीजा है.
खिदमतगारों मे
से कुछ लोग
चढ़ावा की रकम
मे हेरा- फेरी
करने लगे हैं
कुछ तो जायरीनों को
पटा कर लाते
हैं कि बाबा
के हाथ से
बिरयानी दिलवा देंगे, इसके
लिये वे अच्छी
खासी रकम लेते
हैं जिसका रजिस्टर मे
कोई इन्दराज नही
होता. बिरयानी वही
है मगर लोग
समझते हैं कि
मेरे हाथ से
मिलेगी तो फायदा
अधिक और शर्तिया होगा.
मै भी उनका
दिल नही तोड़ता.
आज तो हद
ही हो गयी.
ये खिदमतगार पैसे
से मजबूत किसी
बेवा और उसकी
जवान लड़की को
पटा कर लाये
जो बेचारी बीमार
थी और इसी
से उसकी शादी
नही हो रही
थी. इन लोगों
ने उसे बहकाया
जब सब चले
जायेंगे तो रात के
एक बजे बाबा
एकांत मे खास
उपाय करेंगे. उनका
इरादा ग़लत ही
था मगर अंधश्रद्धा मे
डूबी वे दोनो
उनके कुत्सित इरादे
भांप नही पा
रही थीं. मै
पैसा - कौड़ी से
भले ही भ्रष्ट
हो चुका था
मगर इस हद
तक नही गिरा
था और न ही यह सब
अपनी आँखों के
सामने और अपने
तकिया पर नही
होने दे सकता
था. मैने तख़्त
पर रखी अपनी
छड़ी ( जिसे मुकद्दस का
दर्जा मिल चुका
था ) उठायी और
उस कमीने को
पीटने के साथ
चिल्लाया, " मरदूद, यह सब
यहां नही चलेगा.
"
मेरी आवाज़
से मेरी पत्नी
की नींद खुली,
उसने पहले तो
मोबाईल मे टाईम
देखा तो और
झुंझलाहट हुई कि अभी
तो 3:56 ही हुआ
था, बोली , "क्या हुआ,
क्या नही चलेगा
?" अब
मै क्या बताता
!
राज नारायण