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Saturday 11 January 2014

एक महफ़िल, दाग़ देहलवी और साहित्यिक चोरी

एक बार शहर की एक महफ़िल मे दाग़ ने ग़ज़ल पढ़ीः

                                 ख़ातिर से या लिहाज़ से मै मान तो गया

                                  झूठी क़सम से आपका ईमान तो गया

ज़बान का लुत़्फ, बंदिश की चुस्ती, मज़मून की शोख़ी, उस पर बेतकल्लुफ़ गुफ़्तगू के अंदाज़ मे मामलाबंदी, देहली वालों ने ये अदाएं सौदा और कायम के बाद देखी थीं. तारीफ़ और तहसीन का शोर हर तरफ़ से गर्म हुआ. बाद मे जो शेर दाग़ ने पढ़े वो भी अपनी मिसाल आप थे -

                                             अफ़्शा--राज़--इश्क़ मे गो ज़िल्लतें हुई

                                              लेकिन उसे जता तो दिया जान तो गया



                                                    दिल ले के मुफ़्त कहते हैं कुछ काम का नही

                                                     उल्टी शिकायतें हुईं अहसान तो गया

दाद के डोंगरों के बीच दाग़ ने मक़्ता पढ़ा -

                                                   होसो- हवासो- ताबो-तवां दाग़ जा चुके

                                                    अब हम भी जाने वाले हैं सामान तो गया

जब दाद का शोर कुछ थमा तो एक बुज़ुर्ग ने फ़रमाया, " सुभानल्लाह, यह उम्र और यह शेर !

एक और साहब ने हँस कर कहा, "साहबज़ादे, अभी तो नामे-ख़ुदा उठती जवानी है, अभी से यह मज़मून कहां से सूझ गया."

"
जी मै कुछ अर्ज़ करूं " ढलती उम्र के एक शख़्स ने. जो सूरत से किसी मदरसे के मौलवी मालूम होते थे. ज़रा बुलंद आवाज़ मे कहा.

"
ज़रूर, मौलवी साहब, ज़रूर फ़रमाएं" मजमे से आवाज़ें आईं.

मौलवी साहब ने खंखार कर कहा, " अजी हज़रत, यह मज़मून ख़ुदा--सुख़न मीर तक़ी मीर साहब का है." फिर उन्होने नीचे के शेर पढ़े -

                                          क्या फ़हम क्या फ़िरासत ज़ौक़े - बसर समाअत

                                          ताबो-तवानो-ताक़त ये कर गए सफ़र अब



                                                     मंज़िल को मर्ग की था आख़िर मुझे पहुँचना

                                                    भेजा है मैने अपना असबाब पेशतर सब

एक पल के लिए ख़ामोशी छा गई. फिर नवाब मुस्त़फा ख़ां शेफ़्ता ने फ़रमाया," भई, यह तो दुरुस्त है कि मीर साहब इस मज़मून को पहले बांध गए हैं लेकिन मियां दाग़ के मक़्ते मे एक बरजस्तगी है जो बहुत भली मालूम होती है..."

"
सरकार, बात काटना माफ़ हो," दाग़ ने खड़े होकर हाथ जोड़ते हुए कहा, "बंदे को बिल्कुल नही याद कि ख़ुदा--सुख़न के ये शेर कब मेरी नज़र से गुज़रे, और गुज़रे भी कि नही..."

"
सही चोरी," मौलवी साहब ने ज़रा तेज़ी से कहा. " मज़मून लड़ तो गया"

"
बेशक लड़ गया," दाग़ ने हल्की सी मुस्कुराहट के साथ कहा,. बंदा तो चोरी का इल्ज़ाम भी अपने सर लेने को तैयार है. लेकिन मै दो शेर पढ़ता हूँ, एक ख़ुदा--सुख़न मीर तक़ी मीर साहब का और एक उनसे पहले एक शायर गुज़रे हैं, अमीर मुइज़ी, उनका है. मौलवी साहब इन्हे सुनकर हुक्म फ़रमावें कि चोरी या मज़मून का लड़ना किससे हुआ."

मौलवी साहब थोड़ा गर्म होकर बोले, "अपनी बहस अपने ही शेर तक रखिए..."

मज्मे मे से कुछ आवाज़े आईं, " नही साहब, ज़रा वो शेर भी सुन लें."

दाग़ ने कहा, "बहुत ख़ूब , हाज़िर करता हूँ." यह कह कर उसने पहले मुइज़ी का शेर पढ़ा, फिर हज़रत मीर तक़ी साहब काः

                                                       हमीं गोई कि बा तू इत्तहादेस्त

                                                       बिगो ज़ालिम कि मारा एतमादेस्त

(
          (तू कहता हैः तेरे साथ मेरा मेल-मिलाप है. ज़ालिम, यह बात तू कहे जा, कि हमे तुझ पर पूरा भरोसा है)

शेर पर वाह-वाह ख़त्म हुई तो दाग़ ने पढ़ा-

                                          कहते हो इत्तहाद है हमको

                                          हां कहो एतमाद है हमको

लोग एक पल चुप रहे,

फिर किसी ने कहा, "अगर मुइज़ी पहले हैं तो यह सरासर चोरी है मीर साहब मरहूम की"

(...
(...इसके बाद मुइज़ी और मीर साहब की पैदाईश की तारीख का ज़िक्र है जिससे मालूम हुआ कि मुइज़ी मीर साहब से सात सौ बरस पहले के हैं ... )

"
तो गोया मीर साहब ने चोरी की" एक साहब बोले.

"
नही, चोरी और मज़मून के क़ायदे बहुत पेचीदा हैं." इमाम अब्दुल क़ाहिर ज़ुरजानी तो चोरी के वजूद से तक़रीबन इंकार ही करते हैं" मौलाना सहबाई ने कहा,

"
फ़िदवी की अर्ज़ यह है कि जनाब चोरी हो या टकराव, सभी से सरज़द हो सकता है. यह वह गुनाह है जो आपके शहर के लोग भी करते हैं," दाग़ ने कहा जो अब तक पहले की ही तरह महफ़िल के बीच मे खड़ा था.

"
मुमकिन है मीर साहब ने अमीर मुइज़ी का अनुवाद किया हो. यह भी एक फ़न है." मौलाना सहबाई ने फ़रमाया.

"
बेशक, लेकिन बड़ाई तो पहले आने वाले की है ही," नवाब मुस्त़फा ख़ां ने जवाब दिया.

"
जी हां, इसी ऐतबार से बंदा भी ख़ुदा--सुख़न की बड़ाई को दिलो-जान से तस्लीम करता है," दाग़ ने झुककर दोनो बुज़ुर्गों को सलाम करते हुए अर्ज़ किया.

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मित्रों, शम्सुर्रहमान फ़ारुक़ी के उपन्यास "कई चांद थे सरे-आसमां" का यह टुकड़ा ( पृष्ठ 716 से 718 )
प्रस्तुत करने के अनेक उद्देश्य हैं, जिनमे से कुछ हैं - इस उपन्यास के प्रति रुचि जाग्रत करना, देहली की महफ़िलों के तौर-तरीकों की एक झलक देना और इस बहाने एक ऐसे आरोप पर चर्चा जिस पर दो बड़ी मुश्किल से ही एकमत होते हैं - एक तो वह जिस पर यह लगाया जाता है और दूसरे, जो इसे लगाते हैं. इस प्रसंग मे यह बखूबी देखा जा सकता है.

देहली कि इस महफ़िल मे दाग़ देहलवी पर साहित्यिक चोरी तो नही किन्तु ज़मीन उड़ाने का आरोप तो लगा ही
. दाग़ भी बदस्तूर तिलमिलाये और अपने को बेदाग़ साबित करने के लिये बासबूत यह कहा कि फिर तो मीर साहब भी चोर हैं क्योंकि उनका एक शेर उनसे सात सौ बरस पहले के शायर मुइज़ी की जमीन से मेल खाता है.

इस प्रसंग से यह तो साफ है कि विचार साम्य चाहे संयोग से हो या फिर उड़ाया हुआ
-- इसे अच्छा नही माना जाता, यह भी कि साहित्यिक जगत्मे मौलिक जैसा कुछ होता ही नही या दुर्लभतम से दुर्लभ होता है. तुलसी के काव्य मे भी अनेक पद वाल्मीकि से इस सीमा तक साम्य रखते हैं कि उन्हे अनुवाद कहा जा सकता है, तो संस्कृत कवि भी भाव साम्य से अछूते नही हैं. समकालीन साहित्य मे भी अनेक उदाहरण हैं, एक देखें -उदय प्रकाश की प्रसिद्ध कहानी "पीली छतरी वाली लड़की" का 'तितली प्रसंग' एक और प्रसिद्ध ( जापानी, या शायद चीनी ) कहानी के प्रसंग की हूबहू नकल कहा गया है.

   आज जब साहित्य , फिल्म व कला के हर क्षेत्र मे पूरे के पूरे फ्रेम, दृश्य, प्रसंग आदि हूबहू टीपे जा रहे हैं और उन्हे इंगित किये जाने पर लोग पूरी बेशर्मी व ढिठाई से कुतर्क करते हैं तो ऐसे मे इस प्रसंग की प्रासंगिकता और भी बढ़ जाती है.

राज नारायण

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