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Friday 7 December 2012

मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा



अभी कुछ दिन पहले एक मुशायरा मे गया ( समझ ही चुके होंगे, बतौर श्रोता ) एक तो समय से पहुँच गया दूसरे राज्यपाल समेत कई बड़े-बड़े लोग आने थे अतः मुशायरा अभी शुरू नही हो सका था, लोगों की आवाजाही ज़ारी थी. अकेले ही गया था सो सीट पर ज़मे रहना मजबूरी थी क्योंकि कुर्सी छोड़ी कि कुर्सी गयी. ऊब को दूसरी दिशा मे ढकेला और आने जाने वाले लोगों की निगहबीनी करने लगा. सच्चे श्रोताओं से लेकर शौक़ीन तक और एलीट तबके के लोगों की तवज्जो के लायक परीचेहरा ख़वातीन पर उड़ती नज़र डाली ही थी कि एक कद काठी, कपड़ों और अन्दाज से सबको आकर्षित कर लेने वाला मोटा कहे जाने लायक सरदार दाखिल हुआ. कपड़े फैशनेबल नही थे और वो बना-ठना भी नही था मगर सलीके के थे. उसके आते ही अगली कतारों मे सरगर्मी शुरू हो गयी.लोग उससे मिल रहे थे और वह लोगों से.  अगली कतारों मे लगभग हर कोई उसे जानता लगता था. शायद वह कोई बिजनेसमैन और उसमे भी कोई ठेकेदार या जनरल आर्डर सप्लायर टाईप का आदमी था जिसकी पहुँच ऊपर तक थी. यह सिलसिला चल ही रहा था कि राज्यपाल जी पधारे और मुशायरा शुरू होने के आसार बनने लगे. इधर –उधर देखने के बाद जब मंच की ओर देखा तो तमाम शायर तश्‍रीफ़फ़र्मा थे और हमारे सरदार जी भी उनमे शामिल थे. कुछ शोरा के कलाम पढ़ लेने के बाद जनाब खुशवीर सिंह ‘शाद’ को आवाज़ दी गयी और पाया कि वही सरदार जी ‘शाद’ साहब हैं. कोफ़्त हुई कि कपड़ों और हाव भाव से इनकी शख़्यियत का बतौर शायर अन्दाज़ ही नही लगा पाया और जब उन्होने मत्ला पढ़ा कि,

“ये सच है पहले कुछ देर तो बिस्मिल तड़पता है

 फिर उसके बाद सारी उम्र भर क़ातिल तड़पता है.

   तो तमाम महफिल वाह-वाह से गूंज उठी. मत्ला ही क्या पूरी ग़ज़ल ही काबिल-ए-दाद थी. बाद मे खोज कर उनका और कलाम पढ़ा, सारा का सारा उम्दा. यह भी पता चला कि शायर होने के अलावा रोज़ी-रोटी के लिये शाद साहब बिजनेस करते हैं (‘नवनीत प्रिंटर्स’, चन्दर नगर, लखनऊ ) अब वे सब कुछ बेच कर विदेश मे बस गये हैं.

मुशायरा मे और लौटने के बाद यही ख़्यालात आते रहे कि वो भी क्या दिन थे जब लोग पेशा, हुनर और शौक के हिसाब से कपड़े पहनते थे और हुलिया बना कर रखते थे. शायर टाईप का आदमी दूर से पहचाना जाता था. जिसका शायरी से उतना भी वास्ता होता था जितना कि सरदारों को सेविंग प्रोडक्ट्स से, वह भी हुलिया देख कर यकीन से कह सकता था कि ये शायर है. करीने से संवारी बढ़ी हुई दाढ़ी, ज़ुल्फें, टोपी, अचकन/ शेरवानी और पायजामा, मुह मे पान वगैरह शायर होने की चुगली कर देते थे. कोई गैर शायर ऐसे हुलिया मे रहता तो लोग ताना कसते कि क्या शायरों जैसी धजा बना रखी है. अब तो कुछ समझ ही नही आता. अच्छा खासा आदमी शायर निकलता है. अब कलाम पढ़ने पर ही पता चलता है कि आप शायर हैं वरना लोग कुछ और समझ कर तवज्जो ही नही देते. पैंट-शर्ट, सूट यहां तक कि जीन्स-टी शर्ट पहना हुआ शख़्स भी शायर निकलता है. इसी तरह कवियों का भी कुछ पता ही नही चलता, न वो कांधे तक लहराते बाल, न महीन चाल और बोली. न गांधी झोला न धोती-कुर्ता. कवियत्रियों / शायरा का तो और भी विचलित कर देने वाला हाल है. इतना सज-धज कर आती हैं कि पता ही नही चलता कि मुशायरा/ कवि सम्मेलन मे आयी हैं कि शादी मे या खुद की सगाई मे.

पहले हर पेशे की तयशुदा पोशाक हुआ करती थी. आयोजनो मे आने वाले दर्शक/ श्रोता भी माकूल धज के साथ आते थे. अब नाच-नौटंकी वगैरह तो शहरों मे होता नही, अब तो संरक्षित किये जाने वाली विधा है मगर जब होता था तो देखकर ही मालूम पड़ जाता था कि चचा नाच या मुजरा मे जा रहे हैं. करीने से चुनी धोती या चूड़ीदार पायजामा, कलफ लगा और चुन्नट पड़ा कुर्ता, अंगौछा, जेब मे नोट, मुह मे पान, बायीं कलाई मे बेला का गजरा और आँखों से लेकर ज़ुबान तक खुमारी… सब मिला कर ऐसी महफिलों मे जाने की पोशाक हुआ करती थी. बाज लोग इन चीजों के अलावा वक़्त ज़रूरत के लिये या रुतबा दिखाने के लिये कट्टा / लाईसेंसी भी रखते थे. जब टेंट मे माल हो, नशे की खुमारी हो, कमर मे असलहा लगा हो और सामने वाला आपसे बढ़कर ज़बर न हो तो इसकी ज़रूरत अक्सर पड़ ही जाया करती थी. मंदिर जाने वाला अलग पहचाना जाता था और मयखाने जाने वाला अलग. अब तो एक्जिक्यूटिव सा दिखने वाला, ब्रीफकेस व लैपटाप से लैस आदमी मीटिंग/ सेमिनार जा रहा कि सत्संग मे, मंदिर मे या मॉडल शाप मे, पब या डिस्को मे – कोई ड्रेस देखकर नही कह सकता.

गुंडे- बदमाशों की अलग पोशाक थी तो डाकुओं की अलग और नेताओं की तो बगुला भगत की तरह सफेद खादी हुआ करती थी. फिल्मो मे भी हिरोईन की अलग तरह की पोशाक थी तो वैम्प और कैबरे डांसर की अलग. अब तो सारे किरदार एक ही तरह की पोशाक मे निभाये जाते हैं… वही वैम्प/ कैबरे डांसर की पोशाक मे. पूजा,शादी-बारात मे पण्डित जी अलग ही दिखते थे.धोती-कुर्ता, अंगौछा,माथे पर चन्दन तिलक, चोटी व कंठी माला के साथ पोथी-पत्रा का झोला बता देता था कि ये पंडित जी हैं. ऐसा शख़्स बारात मे दूर-दूर, नाचने वालों से बिल्कुल अलग और नाश्ता-खाना मे अग्रणी रहता था किन्तु अब पण्डित की भी वो छवि टूट रही है. मेरे एक घनिष्ठ मित्र की शादी थी. बारात दरवाजे लगने वाली थी और बारातियों का नाच चरम पर था कि बारात दरवाजे पर लगी और नाचते- नाचते अगला स्टेप लेकर एक नौजवान द्वारचार स्थल पर वर पक्ष के पण्डित के लिये रखे पीढ़े पर बैठ गया. कन्या पक्ष के पण्डित ने जब आँखे तरेरी तो उसने द्वारपूजा के मंत्र पढ़ने शुरु किये, पता चला कि वो वर पक्ष का पण्डित है.अब पोशाक ऐसा झमेला पैदा करती है.

केवल चित्रकार और रंगकर्मी ही ऐसे बचे हैं जो पोशाक और हुलिया की प्रतिबद्धता अभी भी निबाह रहे हैं. नही पूरी धज होगी तो भी बाल , दाढ़ी, जीन्स पर कुर्ता और कुछ साजो सामान और कुछ देर बात करें तो पता चल ही जाता है कि बन्दा या बन्दी चित्रकला या रंगकर्म से गों ताल्लुक रखता है. पुलिस वालों की तो पेशे के प्रति ऐसी निष्‍ठा है कि वे वर्दी मे न हों तो भी शरीफ आदमी भी ताड़ लेता है कि ये पुलिसिया है.
पोशाक - व्यक्तित्व,पेशा और शौक़ को लेकर कबीर ने कहा था, “मन न रंगाए,रंगाए जोगी कपड़ा… “ यह उन लोगों पर व्यंग्य था जो बाहरी आडम्बर तो खूब करते हैं किन्तु अन्दर से वैसे नही होते जैसा वेश बनाए रखते हैं. उनका क्षेत्र अध्यात्म था अतः यह व्यंग्य उन लोगों पर था जो साधुओं का सा वेश धरे रहते हैं, गेरूआ पहनते व जटा, दाढ़ी बढ़ाये रहते हैं किन्तु अन्दर से वही माया-मोह, राग-द्वेश व छल-कपट मे लिप्त रहते हैं. आज के लोग उन लोगों से अलग हैं. शायद अधिक सच्चे जो कपड़ों की अनिवार्यता को नकार कर जो हैं उसके लिये वैसा हुलिया और पोशाक मे नही काम मे यकीन रखते हैं. आज का शायर शायरी पर ध्यान देता है न कि शायर जैसी पोशाक और हुलिया पर. लेख की शुरूआत ‘शाद’ जी के कपड़ो / हुलिया को देख कर झटका लगने से की थी मगर यह झटका भर्तसना का नही था बल्कि सराहना का भाव उदित हुआ कि मुख्य काम / शौक़ है… पोशाक नही. आज का आदमी मन रंगाए है, कपड़ा नही.
राज नारायण
 

               

 

Monday 3 December 2012

"हाय, हुसैन हम न हुये“



“या हुसैन, या हुसैन ! हाय, हुसैन हम न हुये“
अपने घर से थोड़ी ही दूर टेढ़ी पुलिया चौराहा ( जानकीपुरम् लखनऊ ) से गुज़रते समय जब यह सदा कान मे पड़ी तो निगाह उस तरफ घूमी और निगाह के साथ कदम भी खुद ब खुद रुक गये. मोहर्रम का जलूस निकल रहा था. लोग ठेलों पर ताज़िया रखे, मातम करते हुये कर्बला की ओर ताज़िया दफ़्न करने जा रहे थे. तमाम लोग थे – बच्चे, नौज़वान, बूढ़े, नन्हे बच्चों को गोद मे उठाये औरतें. बड़ी और ऊंची ताज़िया ठेलों पर, कुछ साईकिलों पर तो छोटी ताज़िया हाथों पर लिये लोग थे. जुलूस मे सबसे आगे नौज़वानों का झुंड था जो मातम करते चल रहे थे. चौराहा जैसी खुली जगह पर रुक कर मातम करते. यह चौराहा था सो यहां रुक कर मातम हो रहा था. अब तो मातम अधिकतर छाती व पीठ पर दुहत्थड़ मारते हुए व ट्यूब लाईटों से होता है. मातम मे लोग नंगे बदन छाती व पीठ पर दुहत्थड़ मारते हैं व छाती व पीठ पर ट्यूब लाईट मार कर फोड़ते हैं. डण्डो से पटेबाज़ी ( तलवारबाज़ी की तरह का खेल ) कर रहे थे. मुझे करीब चालीस साल पहले का ज़माना याद आ गया जब मै अमीनाबाद मे रहता थ, हवा इतनी खराब न हुई थी और अमीनाबाद, कैसरबाग और पुराना लखनऊ की तमाम जगहों से अलम, मेंहदी, ताबूत के जुलूस बिना किसी आशंका के निकलते थे. ट्यूब लाईट वगैरह से नही बल्कि जंजीर, छुरियों वगैरह से मातम होता था. बच्चे, नौज़वान ही नही पकी उम्र वाले और बुजुर्ग भी मातम करते थे. दोहत्थड़ों, जंजीर व छुरी आदि से सीना व पीठ खूनमखूम हो जाता था. या हुसैन, या हुसैन की सदा जोश को बढ़ाती थी. ताज़िया दफ़्न करने वाले दिन ( मोहर्रम की दसवीं तारीख़ ) को सजा हुआ “दुलदुल” ( हुसैन का सफेद घोड़ा ) निकलता था. श्रद्धालु औरतें अपने बच्चों को उसके नीचे से निकालती थीं. लखनऊ सोगवार रहता था, नौहाख़्वानी, मर्सियाख़्वानी की मज़लिसें आम थी. अब भी यह सब होता है… मगर पुराना लखनऊ मे और इमामबाड़ों मे. नयी कालोनियों मे यह सब कहां. वो तो जानकीपुरम गावों के बीच व गांव जानकीपुरम के बीच बसा है तो ये दिख गया.

मै तो यादों मे खो गया. चन्द तस्वीरें खींची जिनमे से एक यहां आपके लिये चस्पा कर रहा हूँ.जो साहित्यप्रेमी साथी हैं वे ‘शानी’ की “कालाजल” और ‘राही मासूम रज़ा’ की “आधा गांव” मे मोहर्रम का विशद् वर्णन पढ़ सकते हैं.
(25 नवम्बर'12 को 'फेसबुक' पर लिखा गया.)