पथरा चौथ !
पथरा चौथ !
रतना- रतनावलि - विश्वनाथ सिंह
‘विकल गोंडवी’ “आधुनिक अवधी कविता” प्रतिनिधि चयनः 1850 से अब तक ( सम्पादकः अमरेन्द्र
नाथ त्रिपाठी) में संकलित
रामकथा के नारी पात्रों पर पर कम लिखा गया है जबकि रामकथा
में नारी पात्र कम नही हैं. मैथिली शरण गुप्त जी ने यह उपेक्षा अनुभव करके “साकेत”
लिखा जो ‘उर्मिला’ पर है, उसमें वनवास के बाद उर्मिला के उद्गार व्यक्त किये गये हैं.
मैथिली शरण गुप्त जी ने ‘यशोधरा’ काव्य भी लिखा. महानायकों के लीला गान में उनकी नायिकाएं
उपेक्षित सी रहीं सो उन्होनें इन नायिकाओं की उदात्तता का गान किया चाहे वो ‘साकेत’
में लक्ष्मण की उर्मिला हों या ‘यशोधरा’ में बुद्ध की यशोधरा. पण्डित अयोध्यासिंह उपाध्याय
‘ हरिऔध’ ने “प्रियप्रवास” में वर्णन तो कृष्ण की मथुरा यात्रा का किया है किन्तु इसमें
राधा को उनकी प्रेयसी और वियोगिनी नायिका से अलग ही रूप मे प्रस्तुत किया. लिखते समय
इस काव्य का नाम उन्होने ‘ब्रजांगना-विलाप’ रखा था किन्तु विलाप के स्वर के स्थान पर
लीला वर्णन होने से इसे “प्रियप्रवास” कर दिया.
बात रामकथा के नारी पात्रों की हो रही थी किन्तु महाआख्यानो
के नारी पात्रों की बात चल निकली, पुनः वहीं लौट चलते हैं. रामकथा के नारी पात्रों
पर ही जब काव्य में बहुत नही लिखा गया तो उस नारी पर क्या लिखा जाता जिसके उलाहने बल्कि
तिरस्कार से तुलसीदास रामकथा के अप्रतिम गायक बने, रामचरित मानस जैसा ग्रंथ लिखा. तुलसी
ने रत्नावली के तिरस्कार को प्रेरणा और ईश्वरीय आदेश के रूप मे ग्रहण किया,
“आधुनिक अवधी कविता” प्रतिनिधि चयनः 1850 से अब तक ( सम्पादकः
अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी, प्रकाशकः राजकमल पेपरबैक्स ) पढ़ते हुए विश्वनाथ सिंह ‘विकल गोंडवी’ के रत्नावली
से सम्बन्धित कुछ पदों को पढ़ा. तुलसी और रत्नावली प्रसङ्ग पर इनका मन खूब रमा है और
“रतना-तुलसी”
शीर्षक अवधी काव्य प्रकाशित हुआ है. इस संकलन में “रतना-रतनावलि” शीर्षक से
उनके कुछ पद हैं. तुलसी अवध के थे, रामचरित मानस अवधी में है और यह पद भी अवधी में
हैं जो मातृभाषा और लोकभाषा होने से और भी मीठी लगती है. आनन्द लें रतना-रतनावलि के
कुछ छन्दों का –
सगरो घर हेरि के हारि गये, रतना
न मिली तौ उदास भये ।
अति आकुल, व्याकुल, हाल, बेहालह्वै,
जाचक ह्वै पिय पास गये।
रतना हठ ठानिनि, एक न मानिनि,
रूठि गई तौ निरास भये।
जेतनै रतनावलि दूर भई वतनै तुलसी
प्रभु पास भये ॥
तुलसी ने सारे घर में रतना को
ढूँढा किन्तु वह न मिली तो उदास हो गये. उदास होकर रतना से मिलने को बहुत अकुलाये, व्याकुलता में हाल-बेहाल हो गया और याचक की तरह
प्रिया के पास गये किन्तु रतना ने उनकी यह व्याकुलता देख कर धिक्कारा, हठ ठान लिया,
उन्होने बहुत मनौना किया किन्तु उसने उनकी एक न सुनी. तुलसी निराश हो गये कि अब तो
रतना दूर हो गयी किन्तु रतना की दूरी ने उन्हे राम के पास कर दिया. जितना रतना उनसे
दूर हुई, उतना ही तुलसी प्रभु के पास हो गये. रतना दूर न होती तो तुलसी भोग-विलास,
घर-गृहस्थी, मोह-माया में पड़े रहते और कभी इस कोटि के भक्त और कवि न हुए होते.
काटि-कूटि फँसरी सकल मोह ममता
कै
तुलसी कै गटई छोड़ाय गई रतना ।
बिसय औ बासना कै बिस मन से निकारि
भगति कै भावना जगाय गई रतना।
जगत असार बीच एक राम नाम सार
गुप-चुप सब समझाय गई रतना ।
तुलसी कै जिनगी सँवारै खरतीं विकल
सब कुछ दाँव पर लगाय गई रतना ॥
रतना सम्भवतः तुलसी की भक्ति और
काव्य क्षमता को जानती थी और यह भी अनुभव करती थी कि मेरे मोह में पड़ कर ये बस ऐसे
ही रह जायेंगे सो उसने लोक हित में और उन्हे भक्ति की ओर उन्मुख करने के लिये जान-बूझ
कर कटु वचन कहे और धिक्कारा.
तुलसी रतना के मोह में
गले-गले तक डूबे हुए थे, उबरने में रतना जैसे गले का फंदा बन गयी थी सो सारी मोह माया
की फाँसी अपने कटु वचनों से काट कर तुलसी का गला छुड़ा गयी. अपनी धिक्कार से विषय-वासना
का विष उनके मन से निकाल कर भक्ति की भावना जगा दी. जो काम तमाम संतों का संग न कर
सका वह रतना की बातों ने कर दिया, उन्हे परोक्ष रूप से, गुप-चुप ढंग से समझा समझा दिया
कि संसार में कोई सार नही, राम में ही सार है. तुलसी की ज़िन्दगी सँवारने के लिये रतना
ने अपनी ज़िन्दगी दाँव पर लगा दी. वह अलग होकर तुलसी को राम के साथ कर गयी.
रत राखतीं जौ निज मा रतना, सिरी
राम मा होते कभौ रत ना।
पकरावतीं जौ रतना पथ ना, तुलसी
कबहूँ पउते पथ ना।
कुछ होते न संत सिरोमनि होते,
न होते महान कबी यतना।
मन चूर न होत, न मानस कै, तुलसी
कबहूँ करते रचना॥
रतना ने तुलसी को राम की ओर मोड़ने
के लिये अपनी रति का त्याग किया. जो वह अपने ही में रत रखती तो तुलसी काभी भी श्रीराम
में रत न हो पाते. रतना जो उन्हे राम से प्रीति का पथ न दिखाती तो तुलसी कभी भी यह
भक्ति पथ न पा सकते थे. वह इस तरह उलाहना न देती तो तुलसी कुछ न बन पाते, न तो संत शिरोमणि हो पाते और न ही इतने महान कवि.
उनका मानस ऐसे चूर न होता तो तुलसी कभी भी मानस की रचना न कर पाते.
रतनावलि से दुइ आखर मा तुलसी गुरुमंतर
पाय गये।
घरनी घर बार सबै तजि कै, सिरी
राम के द्वार पै धाय गये।
मथि कै मन मानस माखन दै, सबके
हिय बीच समाय गये।
अपुना तरिगे सबके खरतीं सरगे तक
सीढ़ी लगाय गये॥
पत्नी परम गुरू होती है, रतना
भी तुलसी की परम गुरू साबित हुई. बहुत भक्ति करते रहे, बहुत सत्संग किया किन्तु तमाम
प्रवचनों से उन्हे मंत्र न मिला, रतना के दो कड़वे बोलों ने ही उनको गुरूमंत्र दे दिया.
तुलसी ने उस बात को ऐसा जी से लगाया कि घर बार सब छोड़ कर श्रीराम के द्वार पर दौड़
पड़े. तुलसी के मानस को उसने ऐसा मथा कि उससे रामचरित मानस रूपी माखन निकला और वो एक
रतना के ह्र्दय से निकल करे सबके ह्र्दय में समा गये. स्वयं तो तरे ही, सबके लिये स्वर्ग
की सीढ़ी लगा गये.
लाईब्रेरियन / लाईब्रेरी दिवस और हम !
12 अगस्त को लाईब्रेरियन दिवस था, कुछ लोगों ने इसे लाईब्रेरी
दिवस भी बताया, साथ में युवा दिवस भी था और
तीनों से हमारा ताल्लुक रहा है सो इस बारे में कुछ बातें की जायं. वय के हिसाब
से युवा हम थे, किन्तु उस अवस्था की बातें नहीं करते, लाईब्रेरी और लाईब्रेरियन से
हमारा सम्बन्ध रहा है सो इसकी कुछ यादें ताज़ा करते हैं और बात लाईब्रेरी की होगी तो
पढ़ने और किताबों की तो होगी ही और जब हम बात कर रहे हैं तो अपने शहर, लखनऊ, की ही
बात करेंगे.
पहले की, अर्थात हमारी किशोरावस्था / युवा काल की बात करे
तो बड़ी और प्रतिष्ठित लाईब्रेरियां तो थी हीं, उन किताबों की लाईब्रेरियां बहुतायत
से थीं जिन्हे लुगदी साहित्य कहा जाता है. जासूसी और सामाजिक ( सामाजिक कहने का आशय
रोमांटिक या पारिवारिक सम्बन्धों आदि पर उपन्यास से है. यह अर्थ न लगायें कि बाक़ी किताबें असामाजिक होती
थीं. सामाजिक से इतर किताबों से आशय जासूसी उपन्यासों से था ) किताबें दैनिक किराये
पर मिलती थीं.
पहले बात बड़े और प्रतिष्ठित पुस्तकालयों की ! हम अमीनाबाद
में रहते थे और घर से पैदल दूरी पर, झण्डावाला पार्क के एक तरफ जगत सिनेमा वाली रोड
पर “गङ्गा प्रसाद मेमोरियल पुस्तकालय और वाचनालय “ था. हम अपने एक मित्र के साथ लगभग
रोज ही शाम को वहां जाते थे. गेट पर सीने तक ऊँचाई वाली डेस्क पर एक रजिस्टर रखा रहता
था जिसमें नाम पता, आने का समय आदि लिख कर
अन्दर जाते थे. पुस्तकालय का उपयोग तो नही किया, वाचनालय का ही किया. वहाँ लगभग सभी
अख़बार और पत्रिकाएं रखी होती थीं और एक बड़ी ( करीब तीस लोगों के लायक, जैसी मीटिंग
हॉल में होती है ) मेज होती थी और कुर्सियां, जिन पर बैठ कर पढ़ते-लिखते थे. ऐसी व्यवस्था
लगभग सभी पुस्तकालयों में होती ही है. तो हम अख़बार और पत्रिकाएं पढ़ते थे. कई अख़बार
पढ़ कर ही जाना कि एक ही घटना का प्रस्तुतिकरण / अख़बार या सम्पादक का नज़रिया अलग-
अलग होता है. ख़बर देने के ढंग से उस अख़बार की विचारधारा पता चलती थी. साथ ही सम्पादकीय
ज़रुर पढ़ते थे और सम्पादकीय पृष्ठ के लेख भी. सम्पादकीय पढ़ते थे किन्तु तब भी रुचि
कथा साहित्य में ही थी, कथेतर में तो बाद में हुई. कभी-कभी कोर्स की व अन्य किताबें
भी वहीं बैठ कर पढ़ते थे. सदस्य बने नही तो निर्गत करा कर घर नही लाते थे. इसके अलावा
सूचना विभाग के पुस्तकालय, हिन्दी भवन के पुस्तकालय ( दोनों हज़रतगंज में ) जाना होता
था. मोतीमहल पुस्तकालय व नवचेतना पुस्तकालय भी जाते थे किन्तु पाठ्य पुस्तकों के लिये.
अमीरुद्दौला लाईब्रेरी भी जाना हुआ किन्तु कम. इनके अलावा हज़रतगंज में ‘ब्रिटिश लाईब्रेरी’
भी थी किन्तु वहाँ बस ऐसे ही, देखने के लिए जाना हुआ – काहे से वहाँ अंग्रेजी की किताबें
थीं और आप जानते ही हैं कि हमारी रुचि / क्षमता और प्राथमिकता हिन्दी की किताबों की
रही है, अंग्रेजी में हमने इण्टर और उसके बाद कोर्स की किताबें ही पढ़ीं या फिर विवशता
में अंग्रेजी के कुछ उपन्यास पढ़े क्योंकि उन्हे पढ़ने की इच्छा थी और हिन्दी अनुवाद
या तो हुआ नही या उपलब्ध न था.
ब्रिटिश लाईब्रेरी को थी कहा, ये अब नही है ( दो दशक से ऊपर
हुआ बंद हुए ), बाक़ी अब भी हैं.
अब बात करें जासूसी और सामाजिक किताबों की व अन्य लाईब्रेरियों की. ये बहुतायत से थीं ( ये भी ‘थीं’, अब दिखती नहीं
) जिन दो के हम नियमित ग्राहक थे वे थीं, एक तो गणेशगंज में आहूजा लाईब्रेरी और दूसरी
गुईन रोड ( कल्लन की लाट की ओर जाने वाली गली के नुक्कड़ पर ( उसका नाम याद नही आ रहा
) सदस्यता नियम बहुत सरल – एक किताब लेनी हो तो एक का, दो लेनी हों तो दो का दाम जमा
करें. यह सेक्यूरिटी होती थी कि कोई किताब
लेकर वापस भी न करे तो लाईब्रेरी वाले / दुकानदार ( काम वही करते हुए भी वह “लाईब्रेरियन”
नही कहाता था ) का नुकसान न हो, सदस्यता छोड़ने पर यह वापस हो जाती थी.. किराया दैनिक
था, किताब ले जायें और जितने दिन बाद वापस करें उतने दिन का किराया देकर दूसरी किताबें
ले जायें. एक रजिस्टर में ‘लाईब्रेरियन’ नाम
पता, जमा रकम आदि लिखता था. जब सदस्य पुराने और नियमित हो जाते थे तो एक / दो किताबों
के दाम जमा होने पर भी कई किताबें ले जाते थे और किराया भी उधार हो जाता था. कई बार
तो ऐसा भी हुआ कि फिल्म देखास लगी और पैसे न हुए तो सदस्यता छोड़ कर जमा वापस ली, फिल्म
देखी और जब पैसे हुए तो फिर सदस्य बन गये. पुराने और नियमित ‘ग्राहकों’ को बिना सेक्यूरिटी
जमा किये भी किताबें मिल जाती थीं. ऐसी लाईब्रेरियों से हमने बहुत जासूसी किताबें पढ़ीं.
शायद ही कोई नयी-पुरानी किताब हमसे छूटी हो.
इनके अलावा कुछ और ऐसी लाईब्रेरियों का उल्लेख किये बिना लखनऊ की ऐसी लाईब्रेरियों की बात अधूरी ही रहेगी. एक लाईब्रेरी हज़रतगंज की प्रसिद्ध “लव लेन” ( वो जगह अब भी है किन्तु अब नाम “लव लेन” नही है ) में थी. लव लेन में “ज़ब्बार कॉफी हाउस” बहुत मशहूर था ( था इसलिए कि अब ये भी नही है ) गंजिंग करने वाले अधिकतर लोग वहाँ कॉफी पीते थे. उसी के ऊपर था, “हॉबी कॉर्नर” जिसे दो भाई चलाते थे. वहाँ कॉमिक्स और अंग्रेजी के लोकप्रिय नॉवल ( मिल्स एण्ड बून्स श्रेणी के ) व अन्य किताबें किराये पर मिलती थीं और गंजिंग करने वालों ( ‘गंजहे’ नही कह सकता, यह पदवी ‘शिवपाल गंज’ वालों के लिये एकाधिकृत है ) का अड्डा भी था. कालान्तर में जब लव लेन नही रही तो हॉबी कॉर्नर जनपथ में शिफ्ट हुआ, फिर वह भी ( शायद उनमें से एक भाई के निधन के बाद / कारण ) बन्द हुआ. जो भाई अभी हैं, वे अभी भी ‘लव लेन” ( भूतपूर्व ) के बारामदे में कुछ किताबें लगाकर बैठते हैं. जब मै लाईब्रेरियन रहा (उसकी बात अभी आयेगी) तो उनसे अंग्रेजी की किताबें खरीदीं – अधिकतर ‘मिल्स एण्ड बून्स’ श्रेणी की व कुछ साहित्यिक ( शायद पाइरेटेड प्रतियां ) खरीदीं. अब पता नही वे किराये पर भी देते हैं या केवल बेचते भी हैं.
हज़रतगंज में ही पुस्तक प्रेमियों की सुपरिचित/ सुप्रष्ठित
दुकान है, “युनिवर्सल”. वैसे तो ये किताबें, स्टेशनरी, गिफ्ट आईटम वगैरह बेचते हैं
किन्तु ये किराये पर भी किताबें देते थे. भूतल पर सीढ़ियों के दांयी ओर हिन्दी की किताबों
का खण्ड है जिसमें मुख्यतः साहित्यिक किताबें होत्ती हैं. उसी खण्ड में BOOKLIB
( Book Librery का संक्षिप्त रूप ) नाम से
दो रैक किताबों की थी जो किराये पर उपलब्ध थीं. कुछ सदस्यता शुल्क था जिसे जमा करने
पर सदस्य बना जा सकता था और किताबें किराये पर ली जा सकती थीं. “युनिवर्सल” तो अब भी
है बल्कि पहले से विस्तृत रूप में है किन्तु BOOKLIB नही है, ये सुविधा / व्यवस्था
दशकों पहले भङ्ग हो चुकी है.
एक और लाईब्रेरी का भी उल्लेख करना उचित होगा जो अपने प्रकार
की अनूठी ‘थी’. हमारे एक मित्र हैं, प्रमेश अग्रवाल. व्यापारी होने के अलावा ये साहित्यिक,
सांस्कृतिक व अन्य गतिविधियों में सक्रिय रहते हैं. कई साल पहले (एक दशक से अधिक ही)
इन्होने 300 Stories नाम से एक अभिनव शुरुआत की. इनके पास अंग्रेजी और हिन्दी
की उत्कृष्ट पुस्तकों का संग्रह था जिसे उन्होने किराये पर देने की व्यवस्था की. किराये
पर किताबें देना कोई अनूठी / अभिनव बात न थी, अनूठापन ये था कि 300
Stories सदस्यों को घर पर किताबें पहुँचाती थी और वापसी भी घर से ही लेती थी.
सदस्य को कहीं जाने का कष्ट नही उठाना होता था, घर बैठे ही उसे किताबें मिल जाती थीं
और बदल भी जाती थीं. सदस्यता शुल्क और किराया की व्यवस्था थी और यह ऑन लाइन जैसी थी.
सदस्य को किताबों की सूची उपलब्ध करायी जाती थी, सदस्य फोन पर ऑर्डर देता था और किताबें
उस तक पहुँच जाती थीं. जब वापस करना होता तो वह सूचित करता और अगली खेप की किताबें
बता देता. इसी तरह सिलसिला चलता. पता नही क्यों 300 Stories बन्द हो गयी. प्रमेश
से भेंट तो कई बार हुई किन्तु इस विषय पर कोई बात न हुई, अब भेंट होगी तो चर्चा करूँगा.
ये पुरानी बातें हैं, अब एक पुस्तकालय निरालानगर में है,
“अनुराग पुस्तकालय” उनका संग्रह भी बहुत समृद्ध है और अन्य भी बहुत गतिविधियां होती
रहती हैं जो फिलहाल कोरोना के कारण ठप हैं, शहीद स्मारक के सामने गांधी भवन में भी
एक पुस्तकालय है. अन्य भी बहुत सी लाईब्रेरियां रही होंगी और अब भी होंगी जिन तक मैं
नही पहुँचा या मुझे जानकारी नही. स्कूल / कॉलेज और विभिन्न सरकारी / गैर सरकारी कार्यालयों
में भी पुस्तकालय हैं जिन्हे इस चर्चा में शामिल नही कर रहा हूँ. इसके अलावा लखनऊ में
अब प्रतियोगी परीक्षाओं व अकादमिक अध्ययन के लिये बहुत सी लाईब्रेरियां खुल गयी हैं
– मेरे निवास, जानकीपुरम, और इसके तीन-चार किलोमीटर की परिधि में ही पचीसों हैं – इनका
बस नाम लाईब्रेरी है, वस्तुतः ये स्टडी के लिये जगह / माहौल भर उपलब्ध कराती हैं. इनके
बारे में फिर कभी बात करूँगा.
हम लाईब्रेरियन भी रहे !
लाईब्रेरी दिवस की बातें तो हो गयीं, अब लाईब्रेरियन की भी
बात करें – अपनी ही बात करेंगे क्योंकि हम लाईब्रेरियन भी रहे. हम बैंक की नौकरी में
(1983 में) आ गये थे और स्थानीय प्रधान कार्यालय, लखनऊ ( हिन्दी भवन के बगल ) में तैनात थे. वहाँ करीब आठ सौ लोग सेवारत थे और दो पुस्तकालय
थे – एक ‘राजभाषा विभाग’ का और दूसरा ‘स्थानीय क्रियान्वयन समिति’ (यूनियन की समिति)
का – दोनों अब भी हैं. राजभाषा विभाग के पुस्तकालय में हिन्दी की साहित्यिक पुस्तकें
होती है जबकि स्थानीय क्रियान्वयन समिति में सभी तरह की – हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू
की व “लुगदी साहित्य” से लेकर साहित्यिक तक. इसमें पुस्तकालय सचिव यूनियन द्वारा मनोनीत
किया जाता है. हम करीब पाँच साल तक लाईब्रेरियन (पुस्तकालय सचिव) रहे. लाईब्रेरी जब
हमने संभाली तब किताबों की संख्या, स्तर और रख रखाव बस ऐसे ही / चलताऊ सा ही रहा. चूँकि
हम साहित्यिक अभिरुचि के रहे और किताबों के रख रखाव में भी रुचि है सो हमने इसे व्यवस्थित
किया. किताबें मिली जुली रखी थीं – साहित्यिक, जासूसी, सामाजिक सब मिली जुली और अंग्रेजी
व उर्दू की अलग आल्मारी में. हमने उन्हे अलग – अलग रखा - साहित्यिक अलग, जासूसी अलग
और सामाजिक अलग, अंग्रेजी और उर्दू तो पहले ही अलग थीं. किताबें एक रजिस्टर में चढ़ी
होती थीं और निर्गमन-वापसी भी रजिस्टर में नोट होती थी. हमने पुस्तकालय मानकों के अनुसार
‘बुक कार्ड’ व ‘सदस्य कार्ड’ का चलन प्रारम्भ
किया. हर किताब का ब्योरा बुक कार्ड में नोट होता था और हर किताब का कार्ड था. उसमें
निर्गम/ वापसीका ब्योरा ( जिसे निर्गत किया, उसका सदस्यता क्रमाङ्क, निर्गमन तिथि और
वापसी तिथि ) जब किताब पुस्तकालय में होती थी तो बुक कार्ड किताब में बने एक पॉकेट
में रखा रहता था, निर्गत होने पर ब्योरा दर्ज करके ड्राअर में रखा होता था. जब किताब
वापस होती तो वापसी तिथि दर्ज करके बुक कार्ड फिर किताब के पॉकेट में और किताब आलमारी
में. यह व्यवस्था हिन्दी- अंग्रेजी- उर्दू की साहित्यिक किताबों के लिये थी, जासूसी-
सामाजिक और पॉपुलर श्रेणी की किताबों के लिये नही. कार्ड सिस्टम से फायदा यह हुआ कि
चुटकियों में जाना जा सकता था कि कार्ड पात्रता वाली कितनी किताबें निर्गत हैं, किसे
निर्गत हैं और कितने दिन से या किताब आलमारी में है या निर्गत ( जिसका कार्ड ड्राअर
में नही, वो निश्चित ही आलमारी में होगी ) यह व्यवस्था तगादा करने में भी सहायक थी.
इसके अलावा नियमावली भी बनायी और पोस्टर के रूप मे लिख कर चिपकायी.
किताबों का स्तर भी सुधारा. सालाना बजट होता था जिसे हमने
किताबों के अनुसार आबंटित किया – 70% साहित्यिक किताबों के लिये, 10% जासूसी उपन्यासों
के लिये, 10% सामाजिक उपन्यासों के लिये और 10% उर्दू किताबों के लिये. उर्दू पढ़ने
वाले बहुत कम थे. साहित्यिक किताबें अपेक्षाकृत मंहगी होती हैं और “लुगदी साहित्य”
में साहित्यिक किताबों की एक किताब की अपेक्षा औसतन आठ से दस किताबें आ जाती थीं और
उन पर छूट भी अपेक्षाकृत अधिक थी सो बजट का यह विभाजन युक्तिसंगत था.
किताबों के स्तर की दिशा में उर्दू किताबों के लिए अमीनाबाद
की मशहूर दुकान, “दानिश महल” जाकर किताबें खरीदीं. मैं उर्दू लिपि पढ़ना-लिखना नही
जानता किन्तु बहुधा किताबों के अन्दर अंग्रेजी में भी किताब के बारे में आवश्यक जानकारी
रहती है और अख़बारों व साहित्यिक पत्रिकाओं की समीक्षा / चर्चा आदि से जानकारी तो रहती
ही है सो चयन में सुविधा रही. इसके अलावा दुकान के मालिक से भी मदद लेता था. हिन्दी
की कुछ किताबें प्रकाशक और थोक विक्रेता (बहुधा ‘भारत बुक सेन्टर’ अशोक मार्ग) से,
पुस्तक मेलों व अन्य प्रदर्शनियों आदि से खरीदारी करता था.
उस समय लगभग सभी सदस्यों के नाम और कार्ड नम्बर मुझे याद
थे और यह भी मालूम रहता था कि कौन सी किताब आलमारी में है या निर्गत है, आलमारी में
है तो कहां रखी है. बहुत से सुधार किये और लाईब्रेरी का संचालन अच्छे से किया. स्वयं
बहुत बताना आत्मश्लाघा होगी किन्तु अब भी (मुझे लाईब्रेरी छोड़े पच्चीस साल से अधिक
हो गया ) LHO के साथी लाईब्रेरी के सन्दर्भ में मुझे याद करते हैं. उनमे से बहुत से
साथी फेसबुक पर भी हैं, वे इसकी पुष्टि कर सकते हैं.
पोस्ट बहुत बड़ी हो गयी है, उबाने की सीमा तक. मैने तो कह
दिया अब आपकी बारी है. अनुरोध है, लाईब्रेरियों के बारे में और लखनऊ की लाईब्रेरियों
के बारे में अपनी यादें साझा करें.
( तस्वीर 'अनुराग पुस्तकालय' की है, एक कार्यक्रम में हम भी मौजूद थे )
ज्येष्ठ
माह के तीसरे बड़े मङ्गल पर हनुमान जी के ज्ञानवन्त रुप को प्रणाम !
तुलसीदास जी ने सुन्दरकाण्ड
के मङ्गलाचरण के तीसरे श्लोक में हनुमान जी के गुणों का वर्णन करते हुए अतुलितबलशाली
के साथ उन्हे ‘ज्ञानियों में अग्रगण्य’ और सम्पूर्ण गुणों के निधान कह कर नमन किया
है.
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहमं
दनुजवकृशानुं ज्ञानिनामग्रण्यम्
।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि
॥
अतुलबल के धाम, सुमेरु ( सोने के पर्वत ) के समान
कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्यरूप वन के लिये अग्नि के समान, ज्ञानियों में अग्रण्य,
समस्त गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्रीहनुमान
जी को मैं प्रणाम करता हूँ.
हनुमान जी के राम भक्त और अतुलितबलशाली पराक्रमी
रुप के ही दर्शन होते हैं. वे ज्ञानवान थे किन्तु सामान्य वर्णन के अतिरिक्त उनके ज्ञानी
/ अध्येता रुप का परिचय प्रायः नही मिलता, तुलसीक्रुत रामचरित मानस में तो नही मिलता
किन्तु वाल्मीकि रामायण में उनके अध्येता रूप का वर्णन है और प्रभु श्रीराम जी ने कुछ
ही पल सम्भाषण से ही उनके इस रूप का भान किया और इसे विभिन्न लक्षणों के आधार पर पुष्ट
भी किया.
किष्किन्धाकाण्ड के तृतीय
सर्ग में जब शबरी की प्रेरणा से श्रीराम-लक्ष्मण ऋष्यमूक पर्वत की ओर आते हैं तो बालि
के भय से अपने दल सहित उस पर निवास कर रहे सुग्रीव आशंकित हो उठते हैं और उन दोनों
का परिचय और इधर आने का प्रयोजन जानने के आशय से हनुमान जी को भेजते हैं. हनुमान जी
वानर रूप का त्याग करके भिक्षु रूप में जाकर परिचय पूछते हैं. राम जी उनके सम्भाषण
से समझ जाते हैं कि ये कोई सामान्य भिक्षु नही बल्कि सुग्रीव के सचिव हैं और वे लक्ष्मण
को अपनी ओर से उनसे बात करने की आज्ञा देते हैं. इस प्रसङ्ग में रामजी हनुमान जी की
दोषरहित सम्भाषण की प्रशंसा करते हुए कहते हैं –
“ लक्ष्मण ! इन शत्रुदमन
सुग्रीवसचिव कपिवर हनुमान् से, जो बात के मर्म को समझने वाले हैं, तुम स्नेहपूर्वक
मीठी वाणी में बात करो .”
तमभ्यभाष सौमित्रे सुग्रीवसचिवं
कपिम् । वाक्यज्ञं मधुरैर्वाक्यैः स्नेहयुक्तमरिंदमम् ॥
“ जिसे ऋगवेद की शिक्षा नही
मिली, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नही किया तथा जो सामवेद का विद्वान नही है, वह इस प्रकार
सुन्दर भाषा में वार्तालाप नही कर सकता “
( नानृग्वेद्विनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः
। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम् ॥ )
“ निश्चय ही इन्होने समूचे
व्याकरण का अनेक बार स्वाध्याय किया है; क्योंकि बहुत सी बातें बोल जाने पर भी इनके
मुँह से कोई अशुद्धि / अपशब्द नही निकला. “
( नूनं व्याकरणं कृतस्तमनेन
बहुधा श्रुतम् । बहु व्याहरतातेन न किञ्चिद्पशब्दितम् ॥ )
“ सम्भाषण के समय इनके मुख,
नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अङ्गों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नही हुआ.
“
( न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे
च भ्रुवोस्तथा । अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित ॥ )
“ इन्होने थोड़े में ही बड़ी
स्पष्टता से अपना अभिप्राय निवेदन किया है. उसे समझने में कहीं भी कोई सन्देह नही हुआ
है. रुक-रुक कर या शब्दों या अक्षरों को तोड़-मरोड़कर किसी ऐसे वाक्य का उच्चारण नही
किया है, जो सुनने में कर्णकटु हो. इनकी वाणी ह्र्दय में मध्यमारूप से स्थित है और
कण्ठ से वैखरी रूप में प्रकट होति है, अतः बोलते समय इनकी आवाज़ न बहुत धीमी रही है,
न बहुत ऊँची. मध्यम स्वर में ही इन्होने सब बातें कही हैं. “
( अविस्तरमसंदिग्धम्विलम्बितमव्यथम्
। उरः स्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमस्वरम् ॥ )
“ ये संस्कार और क्रम से
सम्पन्न, अद्भुत, अविलम्बित तथा ह्र्दय को आनन्द प्रदान करने वाली कल्याणमयी वाणी का
उच्चारण करते हैं. “
( संस्कारक्रमसम्पन्नामद्भुतामविलम्बिताम्
। उच्चारयति कल्याणीं वाचं ह्र्दयहर्षिणीम् ॥ )
“ ह्र्दय, कण्ठ, और मूर्धा
– इन तीनों स्थानोंद्वारा स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होने वाली इनकी इस विचित्र वाणी
को सुनकर किसका चित्त प्रसन्न न होगा. वध करने के लिये तलवार उठाये हुए शत्रु का ह्र्दय
भी इस अद्भुत वाणी से बदल सकता है. “
( अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया
। कस्य नाराध्यते चित्तमुड्यतासेरेरपि ॥ )
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मित्रों ! हनुमानजी के इस
वाग्मी रूप का वर्णन वाल्मीकि जी ने किया. बड़े मङ्गल के अवसर पर हनुमानजी के ज्ञानिनामग्रण्यम्
रुप का ध्यान करें . वाणी से जो कार्य सिद्ध होते हैं, बहुत बार वे बल से नही हो पाते,
नही हो पाते क्या बिगड़ जाने की आशंका भी होती है.
हनुमान जी के मिस वाल्मीकि
जी ने यह बताया है कि प्रभावी सम्भाषण कैसा होना चाहिये.
‘सुवर्चला
हनुमत कल्याण’
“विद्यावान गुणी अति चातुर
। रामकाज करिबे को आतुर ॥“
हनुमान जी विद्यावान हैं,
गुणी हैं अति चतुर हैं और राम के अनन्य भक्त हैं. वे राम जी का कोई भी कार्य सिद्ध
करने के लिये सदा तत्पर ही नही अपितु आतुर रहते हैं. राम जी की तरह ही हनुमान जी के भी अपार चरित्र हैं अनेक कवियों
ने जिनका गान विभिन्न ग्रन्थों में किया है. उत्तर भारत में राम कथा और हनुमत कथा का
मुख्य स्रोत तुलसीदास जी हैं जिनके रामचरित मानस एवं अन्य ग्रन्थों के माध्यम से राम
चरित के साथ ही हनुमत चरित का भी भान करते हैं. ‘हनुमान चालीसा’, ‘हनुमान बाहुक’ ,
‘हनुमान्नाटक’, ‘बजरंग बाण’ आदि के मध्यम से हनुमान जी के चरित और प्रभाव के दर्शन
होते हैं. इन सभी में वर्णित हनुमान जी के रूप, गुण आदि में हनुमान जी के ब्र्ह्मचारी
होने की बात कही गयी है, हम सब हनुमान जी को ब्र्ह्मचारी के रूप में जानते हैं किन्तु
हनुमत चरित का गान केवल उत्तर भारत में ही नही अपितु सम्पुर्ण देश और देश ही नही, अखिल
विश्व में किया गया है. राम और हनुमान अखिल विश्व की थाती हैं तो अनेक ग्रन्थों में
हनुमत चरित का गान किया गया है.
“पाराशर संहिता”, जो हनुमत
विवेचना का प्रामाणिक ग्रन्थ है, में हनुमान जी को विवाहित बताया गया है, देवी सुवर्चला,
जो सुर्य देव की पुत्री हैं, से हनुमान जी का विवाह हुआ अस्तु हनुमान जी गृहस्थ हैं
किन्तु ग्रहस्थ होते हुए भी वे और उनकी पत्नी, सुवर्चला, ब्रह्मचारी ही हैं. सुवर्चला
के जन्म के समय ही यह निर्धारित कर दिया गया था कि आञ्जनेय हनुमान जी ही सुवर्चला के
पति होंगे.
मित्रों, हनुमान जी के विवाहित
होने के प्रसंग का उल्लेख करने का आशय उनके ब्रह्मचारी होने का खण्डन कदापि नही है
अपितु हनुमत चरित का गान करना ही है. जैसे “हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता “ है वैसे ही
हरि के अभिन्न अङ्ग, हर अर्थात शिव जी के अंशावतार, हनुमान जी के चरित भी अपार हैं.
राम के चरित के साथ हनुमान जी का चरित अविच्छिन्न है. जितनी रामायण / रामकथा उतने ही
रामचरित और उतने ही हनुमत चरित. तुलसी भी रामचरित मानस में कहते हैं –
रामकथा कै मिति जग नाहीं । अस प्रतीति तिन्ह के
मन माही ॥
नाना भाँति
राम अवतारा । रामायन
सत कोटि अपारा ॥
-
बालकाण्द, दोहा संख्या 32 की चौपाई संख्या 3.
‘सतकोटि’ अर्थात सौ करोड़
तो महाकाव्यात्मक कथन है जिसका आशय यही है कि अनेक रामायण हैं जिनमें अनेक प्रकार रामचरित
( और उनके साथ हनुमत चरित ) का बखान किया गया है. विद्वानों ने 300 से अधिक रामायण
बतायी हैं, कुछ विद्वानों के अनुसार 1000 से अधिक रामायण हैं जो देश के विभिन्न भूभागों
में प्रचलित हैं. मुख्य पात्र और घटनाएं एक ही हैं किन्तु देशकाल और लोक मान्यता के
प्रभाव से घटनाओं के निर्वहन में भेद होना स्वाभाविक है, कुछ पात्र भी बढ़ जाते हैं
और कुछ को अधिक मान्यता मिल जाती है – इसी भाव को ग्रहण करते हुए हनुमान जी के विवाहित
रूप का स्मरण करें.
‘पाराशर संहिता’ में ऋषि
मैत्रेय ने अपने पिता महर्षि पाराशर से हनुमान जी के जन्म और बाद का उनका वृत्त पूछा.
पाराशर जी ने बताया कि शिव, अग्नि और वायु देव की कृपा और उद्यम से माता अञ्जना के
गर्भ से हनुमान जी का जन्म हुआ. उसी ग्रन्थ में सुवर्चला की कथा भी है जो सूर्य की
प्रखर किरणों के समूह से उत्पन्न हुयी थी. उस कन्या के अपूर्व सौन्दर्य, दिव्य वस्तुओं
और अस्त्र-शस्त्र धारण करने तथा उन पर वर्चस्व के कारण उसका ‘सुवर्चला’ नामकरण किया
गया. देवताओं ने जिज्ञासा की कि इस अपूर्व सुन्दरी कन्या का पति कौन होगा तो ब्रह्मा
जी ने कहा कि सूर्यदेव को फल की भाँति निगल जाने वाले, स्वयं ईश्वर के अंश हनुमान जी
ही इस कन्या के पति होंगे. तो सुवर्चला के जन्म के साथ ही हनुमान जी का विवाह उनके
साथ निर्धारित हो गया था.
कालान्तर में हनुमान जी विद्या
ग्रहण करने सूर्यदेव के पास गये. वे सूर्यदेव के पास रह कर ही विद्या ग्रहण कर रहे
थे. सुवर्चला हनुमान जी के दिव्य रूप और निष्ठा को देख कर उनसे प्रभावित होती गयी और
मन ही मन हनुमान जी को पति रूप में पाने की इच्छा करने लगी. हनुमान जी को पति रूप में
वरण करने का संकल्प उसने सखियों के समक्ष प्रकट किया और सखियों ने सूर्यदेव को बताया.
सूर्यदेव ने एकान्त में सुवर्चला से इस विषय में उसका मनोभाव पूछा . सुवर्चला का संकल्प
जान कर सूर्यदेव ने विश्वकर्मा से परामर्श किया और उनकी सम्मति से “ सुवर्चला हनुमत
कल्याण” अर्थात सुवर्चला का विवाह हनुमान के साथ करने का निश्चय किया. हनुमान जी ने
विद्याध्ययन सन्पन्न होने पर घर जाने की अनुमति मांगी और गुरुदक्षिणा का आग्रह किया. सूर्यदेव ने गुरुदक्षिणा के रूप
में सुवर्चला से विवाह करने का अनुरोध किया. हनुमान जी ने ब्रह्म्चर्य व्रत लिया था,
उधर सुवर्चला ने भी ब्रह्म्चर्य व्रत धारण किया था अतः उन्होने व्रत भङ्ग होने की शङ्का
व्यक्त की तब सूर्यदेव ने उनकी शंङ्का निवारण करते हुए बताया कि सुवर्चला अयोनिजा
( जो किसी स्त्री के गर्भ से उत्पन्न न हो ) है अतः उससे विवाह पर ब्रह्म्चर्य भङ्ग
न होगा. इसके अतिरिक्त उन्होने वेदों में वर्णित चार प्रकार के ब्रह्मचारियों –
-
गायत्री ब्रह्मचारी,
-
प्रजापात्य ब्रह्मचारी,
-
वैदिक ब्रह्म्चारी, एवं
-
नैष्ठिक ब्रह्मचारी.
का उल्लेख किया. विवाह के
पश्चात धर्म और शास्त्रों के अनुसार निश्चित और उचित समय पर ही समागम करने वाले दम्पति
ब्रह्मचारी ( नैष्ठिक ब्रह्मचारी ) ही माने
जाते हैं अतः यह विवाह करने और विधि अनुसार दाम्पत्य का पालन करने पर वे ब्रह्मचारी ही रहेंगे. शङ्का का समाधान
होने पर हनुमान जी सहमत हुए और केसरी-अञ्जना की सम्मति और सब देवगणों की साक्षी में
ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को विधि विधान सहित “ सुवर्चला हनुमत कल्याण” सम्पन्न हुआ. विवाह
के उपरान्त माता अञ्जना ने यथा रीति वधू प्रवेश आदि सम्पन्न किया.
कथा के अन्य रूप के अनुसार
एक विद्या ऐसी थी जिसका ज्ञान विवाहित को ही दिया जा सकता था. हनुमान जी विद्याव्यसनी
तो थे ही, सूर्यदेव ने भी निदान निकाला और अपनी पुत्री सुवर्चला से हनुमान जी का विवाह
सम्पन्न किया और विवाहित हनुमान जी को उस विद्या का भी ज्ञान कराया.
‘पाराशर संहिता’ के अतिरिक्त
‘वानर गीता’, ‘श्री हनुमत पूजा कल्प’, ‘श्री हनुमत सुप्रभातम् , ‘श्री नील मेखला
स्तुति’, ‘अमरकोश’ आदि में भी मन्त्र/ स्तुति हैं जिनमें हनुमान जी का आह्वान सुवर्चला
पति के रूप में / सुवर्चला सहित किया गया है.
ज्येष्ठ माह के चतुर्थ बड़े
मङ्गल के अवसर पर हनुमान जी के इस विवाहित मङ्गलमय रूप का ध्यान करते हुए उनके श्रीचरणों
में प्रणाम.
(हनुमत श्रीचरणों में इस
स्मरण का आधार स्मृति, लोककथाओं और इन्दिरानगर लखनऊ से प्रकाशित त्रैमासिक, “हनुमत
कृपा संदेश” के अप्रैल-जून 2007 के अङ्क में प्रकाशित इस पत्रिका के सम्पादक, श्री
सुनील गोम्बर, का आलेख “सुवर्चला हनुमत कल्याण’ लेख है. सम्पूर्ण आलेख उक्त पत्रिका
में पढ़ा जा सकता है )
पुस्तक – खामोश
अदालत जारी
है.
विधा – नाटक
लेखक – विजय
तेन्दुलकर ( मूल मराठी नाटक, ‘शांतता
कोर्ट चालू
आहे’ का सरोजिनी वर्मा द्वारा
हिंदी अनुवाद
)
प्रकाशक – राजकमल
पेपरबैक्स
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“ … मेरा पुरुष दुम दबाकर भाग गया. इतना क्रोध आया उस पर कि जी चाहा सरे-बाज़ार खड़ा करके उसका मुँह तोड़ दूँ. थूक दूँ उसके मुँह पर ! पर उस समय मैं बहुत छोटी थी , कमजोर थी, अनजान थी. अपने को मृत्यु के हवाले करने के लिए घर के छज्जे से कूद पड़ी … “
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“ … यह बीसवीं शताब्दी के सुसंस्कृत मानव के अवशेष हैं. देखो ये चेहरे कितने जंगली लग रहे हैं. होठों पर घिसे-पिटे खूबसूरत औपचारिक शब्द हैं, भीतर अतृप्त और विकृत वासनाएँ … “
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“ … और फिर बोली कि उस लड़की ने उस आदमी की बुद्धि पर श्रद्धा की थी, मगर उसे सिर्फ लड़की का शरीर ही नज़र आया … “
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ये कुछ संवाद हैं इस नाटक के जो इसके केन्द्रीय चरित्र, कुमारी बेड़ारे के हैं. इन संवादों से ही नाटक की विषय वस्तु का बहुत हद तक पता चल जाता है. नाटक समाज और उसमें भी पुरुष, की यौन कुण्ठा, स्त्री विरोधी मानसिकता और उसके यौन व्यवहार पर चटखारे लेने की प्रवृत्ति को उजागर करता है. स्त्री के साथ अगर यौनिक रूप से कुछ बुरा हो या उसका किसी पुरुष से कोई सम्बन्ध रहा हो / हो तो समाज मौक़ा मिलते ही उसकी परते उधेड़ता है, उसे नंगा करने की कोशिश करता है, यह और बात है कि इसमें उस स्त्री से अधिक वह ख़ुद ही नंगा होता है मगर उसकी नंगई समाज को ( वह लक्ष्य स्त्री समाज का अंग होते हुए भी उस समय समाज का अंग नही होती ) नंगई लगती ही नही. कितना ही सभ्य समाज हो, बल्कि सभ्य समाज ही अधिकतर, मौक़ा पाते ही अपनी सभ्यता का आवरण उतार देता है – यही कथ्य है इस नाटक का और नाटक इसे पेश करने में सफल है.
नाटक में आठ पात्र हैं – छह पुरुष और दो स्त्रियां. पुरुष पात्र समाज के सामान्य से लेकर प्रतिष्ठित वर्ग तक से हैं, मुख्य पात्र, कुमारी बेड़ारे, एक शिक्षिका है. सभी लोग एक नाट्य
दल के हैं, कुछ कलाकार हैं , एक सहायक और कुमारी बेड़ारे सहित शेष नाट्य रसिक संगी साथी. सब एक हॉल में आये हैं जहां शाम को नाटक का मञ्चन होना है. चूँकि मञ्चन में देर है सो समय बिताने और पूर्वाभ्यास के तौर पर यह तय होता है कि क्यों न नाटक खेला जाय – शाम वाला नाटक नही बल्कि एक नकली नाटक, अदालत का एक सीन. कुछ ना नुकुर करते इस पर सहमति बनती है तो तय होता है कि जो जज, गवाह वगैरह बनेंगे वे तो वही पार्ट करें और अभियुक्त कुमारी बेड़ारे बने जिस पर मुकदमा चलाया जाय, गवाहियां हों तो नाटक का रंग जमे. अब कुमारी बेड़ारे पर
आरोप होता है कि उसने भ्रूण हत्या की है और चूँकि वह अविवाहित है, शिक्षिका भी है तो उसका अपराध और भी जघन्य है. मिस बेड़ारे आपत्ति करती है किन्तु सभी, “नाटक ही तो है/ समय बिताने और मनोरंजन के लिये है … “ कह कर आपत्ति खारिज कर देते हैं और नाटक में नाटक शुरू हो जाता है और यहीं से उधड़ने लगती हैं सबकी परतें जो बहुत कुछ तो मुकदमा का विषय तय करते ही उधड़ गयी थी. अदालत उस पर अभियोग लगाती है और अपराध स्वीकार करने को कहती है. स्वाभाविक ही वह आरोप से इन्कार करती है, कई बार इस खेल में रुचि न लेने और जाने की बात कहती है
किन्तु उसकी कोई नही सुनता. गवाह आते हैं और उसके यौनिक चरित्र की बखिया उधेड़ने लगते हैं. उसके पुरुषों से सम्बन्ध के, गर्भवती होने के साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं और उसे कुलटा / व्याभिचारिणी सिद्ध करने पर तुल जाते हैं. वह आपत्ति करती है, जाने को कहती है तो जाने नही देते कि “ नाटक ही तो है, सचमुच थोड़े न है, इस आरोप से नाटक में रोमाञ्च पैदा हो रहा है” कुछ देर तो लगता है कि नाटक ही है किन्तु शनैः शनैः यह स्पष्ट हो जाता है कि वे उसके वास्तविक जीवन की चीर फाड़ कर रहे हैं, उसमें रस ले रहे हैं. नाटक में शामिल हर व्यक्ति, यहां तक कि सहायक और दूसरी सम्भ्रान्त महिला भी उसके व्यक्तिगत जीवन की परतें खोलती है. यह भी पता चलता है कि जब वह चौदह वर्ष की थी तो उसके मामा ने उसका यौन शोषण किया था. उसमें भी उसकी ग़लती बतायी जाती है और चटखारे लिये जाते हैं. बाद में वह एक वृद्ध और बाल-बच्चों वाले प्रोफेसर के सम्पर्क में उनकी बौद्धिकता से प्रभावित होकर आयी, श्रद्धा शारीरिक सम्बन्ध में बदली, वह उनसे गर्भवती हुई और उन प्रोफेसर ने भी उसे दुत्कारा, कुलटा सिद्ध किया तब उसने भ्रूण हत्या की. जब इस नकली अदालत में भी सब उसे अपराधी साबित करके भर्तसना करते हैं तो वह टिक ट्वेण्टी ( ज़हर, जो उसके पर्स में था ) पीने का प्रयास करती है . सब उसे गिद्धों की तरह घेरे हुए होते हैं कि जैसे उसे इस अपमानजनक स्थिति से छुटकारा दिलाने बाहर से एक व्यक्ति झांक कर पूछता है, “ नाटक कै बजे शुरू होगा ? “ तो जैसे ट्रांस टूटता है और सब ( स्पष्ट है, कुमारी बेड़ारे के अलावा ) हँसते हुए सहज होकर इस नाटक में मज़ा आने कि कहते हैं. यहीं नाटक खत्म होता है.
नाटक में केवल कुमारी बेड़ारे के लिये ही नही बल्कि उस सम्भ्रान्त महिला के लिये भी हिकारत है जो कुमारी बेड़ारे के चरित्र हनन में सुख पा रही थीं, कई बार उनके पति उन्हे झिड़कते हुए उनका तिरस्कार करते हैं. नाटक की खूबी है कि धीरे धीरे ह्गी पाठक / दर्शक पर खुलासा होता है कि यह नकली मुकदमा नही बल्कि उसके निजी जीवन की बखिया उधेड़ी जा रही है.
प्रसिद्ध निर्देशकों के निर्देशन में नाटक के
अनेक सफल मञ्चन हुए हैं. नाटक में मञ्च सज्जा कम से कम प्रॉप्स में और सादी है, वेशभूषा भी सामान्य है. नाटक विषय वस्तु और उसके सशक्त निर्वहन से कुछ देर बाद ही बांध लेता है – दर्शकों को भी और पाठकों को भी.