ज्येष्ठ
माह के तीसरे बड़े मङ्गल पर हनुमान जी के ज्ञानवन्त रुप को प्रणाम !
तुलसीदास जी ने सुन्दरकाण्ड
के मङ्गलाचरण के तीसरे श्लोक में हनुमान जी के गुणों का वर्णन करते हुए अतुलितबलशाली
के साथ उन्हे ‘ज्ञानियों में अग्रगण्य’ और सम्पूर्ण गुणों के निधान कह कर नमन किया
है.
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहमं
दनुजवकृशानुं ज्ञानिनामग्रण्यम्
।
सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं
रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि
॥
अतुलबल के धाम, सुमेरु ( सोने के पर्वत ) के समान
कान्तियुक्त शरीर वाले, दैत्यरूप वन के लिये अग्नि के समान, ज्ञानियों में अग्रण्य,
समस्त गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, रघुनाथजी के प्रिय भक्त पवनपुत्र श्रीहनुमान
जी को मैं प्रणाम करता हूँ.
हनुमान जी के राम भक्त और अतुलितबलशाली पराक्रमी
रुप के ही दर्शन होते हैं. वे ज्ञानवान थे किन्तु सामान्य वर्णन के अतिरिक्त उनके ज्ञानी
/ अध्येता रुप का परिचय प्रायः नही मिलता, तुलसीक्रुत रामचरित मानस में तो नही मिलता
किन्तु वाल्मीकि रामायण में उनके अध्येता रूप का वर्णन है और प्रभु श्रीराम जी ने कुछ
ही पल सम्भाषण से ही उनके इस रूप का भान किया और इसे विभिन्न लक्षणों के आधार पर पुष्ट
भी किया.
किष्किन्धाकाण्ड के तृतीय
सर्ग में जब शबरी की प्रेरणा से श्रीराम-लक्ष्मण ऋष्यमूक पर्वत की ओर आते हैं तो बालि
के भय से अपने दल सहित उस पर निवास कर रहे सुग्रीव आशंकित हो उठते हैं और उन दोनों
का परिचय और इधर आने का प्रयोजन जानने के आशय से हनुमान जी को भेजते हैं. हनुमान जी
वानर रूप का त्याग करके भिक्षु रूप में जाकर परिचय पूछते हैं. राम जी उनके सम्भाषण
से समझ जाते हैं कि ये कोई सामान्य भिक्षु नही बल्कि सुग्रीव के सचिव हैं और वे लक्ष्मण
को अपनी ओर से उनसे बात करने की आज्ञा देते हैं. इस प्रसङ्ग में रामजी हनुमान जी की
दोषरहित सम्भाषण की प्रशंसा करते हुए कहते हैं –
“ लक्ष्मण ! इन शत्रुदमन
सुग्रीवसचिव कपिवर हनुमान् से, जो बात के मर्म को समझने वाले हैं, तुम स्नेहपूर्वक
मीठी वाणी में बात करो .”
तमभ्यभाष सौमित्रे सुग्रीवसचिवं
कपिम् । वाक्यज्ञं मधुरैर्वाक्यैः स्नेहयुक्तमरिंदमम् ॥
“ जिसे ऋगवेद की शिक्षा नही
मिली, जिसने यजुर्वेद का अभ्यास नही किया तथा जो सामवेद का विद्वान नही है, वह इस प्रकार
सुन्दर भाषा में वार्तालाप नही कर सकता “
( नानृग्वेद्विनीतस्य नायजुर्वेदधारिणः
। नासामवेदविदुषः शक्यमेवं विभाषितुम् ॥ )
“ निश्चय ही इन्होने समूचे
व्याकरण का अनेक बार स्वाध्याय किया है; क्योंकि बहुत सी बातें बोल जाने पर भी इनके
मुँह से कोई अशुद्धि / अपशब्द नही निकला. “
( नूनं व्याकरणं कृतस्तमनेन
बहुधा श्रुतम् । बहु व्याहरतातेन न किञ्चिद्पशब्दितम् ॥ )
“ सम्भाषण के समय इनके मुख,
नेत्र, ललाट, भौंह तथा अन्य सब अङ्गों से भी कोई दोष प्रकट हुआ हो, ऐसा कहीं ज्ञात नही हुआ.
“
( न मुखे नेत्रयोश्चापि ललाटे
च भ्रुवोस्तथा । अन्येष्वपि च सर्वेषु दोषः संविदितः क्वचित ॥ )
“ इन्होने थोड़े में ही बड़ी
स्पष्टता से अपना अभिप्राय निवेदन किया है. उसे समझने में कहीं भी कोई सन्देह नही हुआ
है. रुक-रुक कर या शब्दों या अक्षरों को तोड़-मरोड़कर किसी ऐसे वाक्य का उच्चारण नही
किया है, जो सुनने में कर्णकटु हो. इनकी वाणी ह्र्दय में मध्यमारूप से स्थित है और
कण्ठ से वैखरी रूप में प्रकट होति है, अतः बोलते समय इनकी आवाज़ न बहुत धीमी रही है,
न बहुत ऊँची. मध्यम स्वर में ही इन्होने सब बातें कही हैं. “
( अविस्तरमसंदिग्धम्विलम्बितमव्यथम्
। उरः स्थं कण्ठगं वाक्यं वर्तते मध्यमस्वरम् ॥ )
“ ये संस्कार और क्रम से
सम्पन्न, अद्भुत, अविलम्बित तथा ह्र्दय को आनन्द प्रदान करने वाली कल्याणमयी वाणी का
उच्चारण करते हैं. “
( संस्कारक्रमसम्पन्नामद्भुतामविलम्बिताम्
। उच्चारयति कल्याणीं वाचं ह्र्दयहर्षिणीम् ॥ )
“ ह्र्दय, कण्ठ, और मूर्धा
– इन तीनों स्थानोंद्वारा स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त होने वाली इनकी इस विचित्र वाणी
को सुनकर किसका चित्त प्रसन्न न होगा. वध करने के लिये तलवार उठाये हुए शत्रु का ह्र्दय
भी इस अद्भुत वाणी से बदल सकता है. “
( अनया चित्रया वाचा त्रिस्थानव्यञ्जनस्थया
। कस्य नाराध्यते चित्तमुड्यतासेरेरपि ॥ )
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मित्रों ! हनुमानजी के इस
वाग्मी रूप का वर्णन वाल्मीकि जी ने किया. बड़े मङ्गल के अवसर पर हनुमानजी के ज्ञानिनामग्रण्यम्
रुप का ध्यान करें . वाणी से जो कार्य सिद्ध होते हैं, बहुत बार वे बल से नही हो पाते,
नही हो पाते क्या बिगड़ जाने की आशंका भी होती है.
हनुमान जी के मिस वाल्मीकि
जी ने यह बताया है कि प्रभावी सम्भाषण कैसा होना चाहिये.
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