बस
मे बातें बनाम बस मे बातें बनाम मेरी बातें एवं कुछ बस प्रसंग
चिकित्सा अवकाश पर रहने के बाद ड्यूटी
पर लौंड़ी जा रहा था. वैसे तो रेल मार्ग भी है किन्तु पहुँचने का समय और उधर से वापसी
का समय ऐसा है जो मेरे लिये उपयुक्त नही है जबकि बस सेवा दिन भर उपलब्ध है सो अभी तक
बस से ही आया-गया हूँ, इस बार भी बस से जाना हुआ और संयोग यह कि घर से बस अड्डा (आलमबाग)
बहुधा आटो से जाना होता था, वह यात्रा भी सिटी बस से की. कुल मिला कर बस मे ही रहा.
रविवार होने से भीड़ इस समय कम थी,
साईड वाली सीट पर एक सज्जन बैठे थे उनके बगल भी एक, बाक़ी सीटों पर भी थे लेकिन मेरी
जद मे इतने ही थे. कुछ लोग इतने बातूनी होते हैं कि कोई मिला नही कि बातें शुरू. कई
बार तो ऐसा भी होता है कि ये बातवीर किसी को सम्बोधित न करके स्वगत कथन सा कुछ इतनी
ऊंची आवाज़ मे करते हैं कि कम से कम आस पास वाले तो सुन ही लें, तब भी कोई प्रतिक्रिया
न दे तो ये बाकायदा उसे सम्बोधित करके बात शुरु कर देते हैं. इस प्रकार के बातवीर देश
दुनिया के किसी भी विषय पर बात छेड़ सकते हैं, किसी सार्थक चर्चा या विमर्श का उद्देश्य
इनका होता नही और बहुधा नकारात्मक ही रहते हैं. मै यात्रा मे बहुधा सुनता ही हूँ, किसी
बातचीत मे बहुत कम ही शामिल होता हूँ. तो उन सज्जन ने बगल वाले को शामिल करते हुए बातें
शुरु कर दीं. वो बेचारा शामिल तो क्या था बस हां, हूं, ठीक कह रहे हैं, ऐसा हाल सब
जगह है… कहते हुए उन्हे सुन रहा था. इंजीनियरिंग कालेज से चारबाग के बीच उनकी बातों
मे से, सार संक्षेप रूप मे, कुछ सुनें-
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TET की मेरिट के बारे मे कुछ लोग केस
दायर कर दिये हैं. वो कह रहे हैं कि मेरिट केवल इस परीक्षा के आधार पर ही न बने बल्कि
उसमे हाईस्कूल, इण्टर और ग्रेजुएशन के मार्क्स भी जोड़ कर मेरिट निकाली जाय ताकि जिनके
मार्क्स अच्छे रहे हैं, उन्हे इसका फायदा मिले. अब बताओ, सब नकल करके अच्छे मार्क्स
ले आये हैं वही TET मे छा जायें.
इन्होने तो फैसला दे दिया कि जिसके भी अच्छे नम्बर
हैं, सब नकल करके आये हैं, गोया मेहनत से अच्छे नम्बर आ ही नही सकते. इन्हे तो नम्बर
और पढ़ाई – लिखाई मे कोई सम्बन्ध ही नही लगता या फिर मान बैठे हैं कि TET बिल्कुल पाक
– साफ तरीके से हुई है बाक़ी सब मे धांधली / नकल है. वैसे ये न TET की मेरिट के पक्ष
मे होंगे, न अन्य परीक्षाओं के अंक शामिल करके मेरिट बनाये जाने के मे. मेरा दावा है
कि अगर बगल वाले भाई साहब, जिन्हे सम्बोधित करके इन्होने एकालाप शुरू किया या कोई और,
केवल TET की ही मेरिट को आधार मानने की बात कहे होते तो ये इसी उत्साह से उन सब परीक्षाओं
के अंक शामिल किये जाने की वकालत कर रहे होते.
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नौकरी के लिये कई परीक्षायें आज होनी
थीं तो शहर मे कई लाख परीक्षार्थी आने थे. तकरीबन हर रविवार ही कोई न कोई परीक्षा होती
है तो यातायात व्यवस्था ध्वस्त हो जाती है. हमारे बातवीर का अगला विषय था. बोले, “बैठते
हैं पांच लाख तो नौकरी पाँच हज़ार को भी नही मिलती है, इतनी बेरोजगारी है. परीक्षा
पास भी कर लो तो भी बिना घूस दिये या बहुत ऊंची सिफारिश के नौकरी मिलती ही नही. बड़ी
खराब स्थिति है.
इस तरह के विचार तो हर एक के ही होते हैं. बेरोज़गारी है भी किन्तु यह छद्म
बेरोजगारी है. “ छद्म बेरोज़गारी “ की व्याख्या अर्थशास्त्र मे की गयी है. यह वह स्थिति
होती है जब कोई अपना / अपनी क्षमता का रोजगार न करके कोई विशेष रोजगार ही ढूंढता है
और अन्य कोई विकल्प आजमाता ही नही. अब जैसे हर कोई सिर्फ सरकारी नौकरी या कुछ विशेष
संस्थाओं मे नौकरी को ही रोजगार मानता है, किसी अन्य कार्य या प्रोफेशन (पेशा तो अब
एक निन्दित वृत्ति के लिये प्रयुक्त किया जाने लगा है, प्रोफेशन व प्रोफेशनर से जो
भान होता है, उसी कार्य मे लगे होने पर भी पेशा व पेशेवर कहने पर सम्मान / सामाजिक
स्वीकृति का वो भाव पैदा नही होता ) मे लगे होने पर उसे रोजगार नही मानता. कोई दुकान
कर रहा है या बीमा या अन्य कोई एजेन्सी लिये है या पुश्तैनी काम कर रहा है तो भी अपने
को बेरोजगार कहता है. जब रोजगार का मतलब सिर्फ सरकारी या कुछ खास जगहों की नौकरी से
ही लगाया जायगा तब तो भयंकर बेरोजगारी है ही. आप या कोई, “बच्चू, बैंक मे लगे हो तो
यह सब कह लो !” कह कर भले ही इस सिद्धान्त को खारिज कर दे किन्तु है यह सत्यता ही.
जहां तक घूस और पहुँच
से नौकरी पाने का सवाल है तो यह अंतिम सत्य नही है. होता है ऐसा भी किन्तु सारी नौकरियों
मे नही. मुझे तीस साल बैंक मे हो गये, इस बीच नौकरी पाये तमाम लोगों मे अनेक परिचित
भी रहे किन्तु अभी तक नही सुना कि घूस/पहुँच से नौकरी मिली हो. मल्टीनेशनल कम्पनियों
की नौकरियों मे भी ऐसा नही. तीन परिचित PCS J करके जज हैं, एक मित्र की पत्नी, साली
और साला सरकारी स्कूल मे टीचर बने, साढ़ू के दामाद रेलवे मे इंजीनियर हैं --- किसी
ने भी न घूस दी, न सिफारिश लगवाई. एक दूसरा उदाहरण भी है. एक सम्बन्धी हैं जो ऐसे विभाग
मे रहे हैं जहां पर छींकने – खासने मे भी घूस / पहुँच की बात जगप्रसिद्ध है. उनका इसी
सिस्टम पर विश्वास है किन्तु नौकरी की शुरुआत से ही उनकी पत्नी लखनऊ से बाहर पोस्ट
रही हैं और वे अपने छोटे भाई की चतुर्थ श्रेणी की नौकरी के लिये आज से करीब पाँच साल
पहले दो लाख लेकर घूम रहे थे – उनकी पत्नी आज भी लखनऊ से बाहर हैं और भाई की नौकरी
नही लगी. नौकरी सिर्फ इसी से मिलती है, ऐसा मानने वाले ही ठगे जाते हैं. कोई दिन नही
जाता जब यह ख़बर न छपती हो, “नौकरी / प्रवेश के नाम पर लाखों ठगे “ तो यह धारणा सत्य
तो हो सकती है किन्तु एकमात्र सत्य नही.
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“ आपको मालूम है, मुलायम सिंह ने यम.
पी. मे जिसे टिकट दिया है उसने TET की लिस्ट थमा दी है कि इनका तो होना ही है”
इनकी तरह के कई बातवीर
हैं जो नेताओं, अफसरों और माफिया के बारे मे, उनके कामों, फैसलों आदि के बारे मे इतने
विश्वास से बताते हैं जैसे वे उनके रनिवास से लेकर गुप्त मीटिंग्स तक सबमे शामिल रहते
हों और हर निर्णय उनसे पूछ कर नही तो सलाह लेकर ही किये जाते हों. ये उनकी “अन्दर की
बात” इतना जानते हैं जितना अपने अन्दर की न जानते होंगे. जब वे “ये अन्दर की बात है”
या “ सच्ची बात हमसे सुनो” टाईप की टिप्पणी करें तो पूछ लें कि आपको किसने बताया या
क्या आपके सामने यह बात हुई, बस पूछा हुआ तो न बतायेंगे, जो बताने जा रहे होंगे वह
भी नही बतायेंगे. “ जब आपको विश्वास ही नही तो क्या फायदा बताने का “
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इन्ही का एक बस एक प्रसंग और. खाली
सीटों पर धूल थी. एक लड़का बैठने को हुआ किन्तु धूल देख कर ठिठक गया. आप बोले, “ बैठ
जाओ, धूल मे बैठने वाले ही ऊपर उठते हैं.”
लड़का बाद मे ऊपर उठने के आश्वासन पर अभी अपनी पैंट गंदी करने को तैयार न हुआ,
देख - दाख कर कम गंदी सीट को हाथ से झाड़ कर ऊपर उठने का मौका गंवा दिया. फिर वही कि
इनकी बात सत्य तो हो सकती है, एकमात्र सत्य नही. इनकी बात मे “ही” का तड़का न होता
तो बात का वज़न न घटता.
इस
तरह के बातवीरों के बस मे सिर्फ बातें ही होती हैं और बातों पर कोई टैक्स तो लगता नही
तो कोई शामिल हो न हो – छौंके जाओ बातें.
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चारबाग तक इतना ही सत्संग रहा. आगे
भी बस से जाना हुआ, तो हाज़िर हैं हमीरपुर से महोबा तक के दो प्रसंग –
प्रसंग
एकः शेखी
परिचालक
(अभी
चढ़े यात्री से) - “टिकट?”
यात्री
- “पहचानते नही हो क्या, नये हो ? तीन साल
से चल रहे हैं, MST है.”
परिचालक
- “MST है तो दिखाओ न “
यात्री ने एहसान सा करते दिखायी, फोटो पुरानी
लगी थी.
परिचालक
– “ फोटो तो नही मिल रही ? “
यात्री
– “तो मिलाओ न, पुरानी फोटो है,
तुम शकल नही मिला पा रहे हो तो
हम क्या करें. ”
परिचालक ने “कौन उलझे ऐसों से” के भाव
से MST वापस की.
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प्रसंग दोः कुतर्क
यात्री
ने टिकट मांगा और सौ का नोट दिया. परिचालक ने हस्बे मामूल टिकट के पीछे बकाया रकम लिख
दी, बस शुरू हो गया यात्री – परिचालक संवादः
यात्री
– हमसे तो पैसे पहले ले लिये और बकाया
लौटाओगे बाद मे. टूटे
लेकर चला करो.
परिचालक
- कोई नयी बात है क्या ? हमेशा से ही ऐसा
होता है. इतनी ही
ज़ल्दी हो तो टूटे दिया करो. बकाया लिख
तो दिया है, ले
लेना उतरने से पहले.
यात्री
- अभी दो, जब तुम्हे हम पर भरोसा नही
तो हमे भी नही.
एक अन्य यात्री ने बीच – बचाव जैसा करते हुये
कहा, “ अरे, ले लेना बाद मे, इन लोगों को हिसाब रखना पड़ता है. कहीं चेकिंग – वेकिंग
हो गयी तो फंस जायेगा.
मित्रों, ये यात्री न तो पहली
बार बस यात्रा कर रहे थे और न ही यह पहला वाकया था. मुझे तो लगा कि ये लोग इस पंक्ति
को चरितार्थ कर रहे थे,
“बड़े लड़ैया महुबे वाले, जिनसे हार गयी तरवार”
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कुछ वर्तनी प्रसंगः
-
चारबाग
के एक होटल के तीन तरफ बोर्ड लगे हैं –
एक पहलू
पर लिखा है – होटल आर्शीवाद,
दूसरी तरफ
- होटल आशीर्वाद,
और
तीसरे पर
- होटल आर्शिवाद.
( लो भईया, हमे
जितनी स्पेलिंग्स आती थीं, सब लिख दीं, अब छांट लो
जो तुम्हे ठीक लगे )
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रास्ते मे एक नेता जी की कई होर्डिंग्स लगी हैं जिन
पर लिखा है –
क्रिसमस, नववर्ष एवं गणतन्त्रता दिवस की बधाई.
अब यह चलन हो गया है कि नेता
(बहुधा सत्ताधारी दल के) ऐसे ही होर्डिंग लगवा कर कई पर्वों की बधाई एक साथ दे देते
हैं. राम भी खुश, रमज़ानी भी, रजिन्दर सिंह भी और रिचर्ड भी. उम्मीद है जुलाई – अगस्त
मे “गणतन्त्रता दिवस” की तर्ज पर लिखा
होगा,
“ रक्षाबन्धन और स्वतन्त्र दिवस की बधाई
“
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एक दुकान के बोर्ड पर लिखा देखा,
“ कृण्णा सर्विस सेन्टर “
कृष्ण को कृष्णा, किशना, किश्ना,
किसना, क्रिशना, क्रिसना…. तमाम तरह से लिखा जाता है तो इसी पर हाय – तोबा क्यों ?
हरि अनन्त. हरि कथा अनन्ता.
“इति बस प्रसंग सम्पन्न”
राज नारायण