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Saturday 13 November 2021

पउम चरिउ ( पद्म चरित्र )


 


“सीय राममय सब जग जानी। करौं प्रनाम जोरि जुग पानी॥“

“प्रणाम पण्डित जी ! सियाराम मय तो सब जग है ही, यह चौपाई गा रहे हैं तो लगता है आज राम जी का कोई प्रसङ्ग सुनायेंगे.”

“सुनाउँगा तो किन्तु आज राम जी का नहीं बल्कि रावण का एक प्रसङ्ग सुनाउँगा.”

“सुनाइये ! आप तो कुछ भी सुनायें, अच्छा ही होगा. रावण प्रसङ्ग में भी तो राम ही का गुणगान होता है.”

“यह तो भली कही. आज जो मन में आया, वह कुछ अलग लगेगा किन्तु उसे सुनते हुए बी्च में टोकना मत. यदि कोई शङ्का हुई तो कथा के अन्त में समाधान होगा.”

“शङ्का और समाधान तो तब होगा जब आप कथा प्रारम्भ करेंगे. भूमिका इतनी बांधते हैं कि कथा का आधा समय उसी में निकल जाता है.”

“तो सुनो –

आज रावण का अभिमान खण्डित होने, उसके पराजय की कथा सुनाता हूँ, साथ ही रहेगी देवकन्या, तनूदरा, की कथा जिसका रावण ने हरण किया, रावण की बहन, चन्द्रनखा ( जो सूर्पनखा के नाम से अधिक जानी जाती है ) का भी उल्लेख आयेगा किन्तु मुख्य कथा रावण और बालि के युद्ध की है जिसमें रावण पराजित हुआ.”

“क्या महराज ! ये सब तो अनेक बार सुना हुआ है.  हाँ तनूदरा की कथा नहीं सुनी है किन्तु ग्रंथों मे उल्लेख है कि रावण ने देव और गन्धर्व कन्याओं का हरण किया था, यह तनूदरा भी उन्हीं में से कोई होगी.”

“ तुम लोग सुनने से पहले ही टोकने लगे. कहा ना, वही कथाएं हैं किन्तु कम सुने या जैसा सुना, उससे भिन्न परिचय वाले चरित्रों के साथ.  तो धैर्यपूर्वक सुनों  -

रावण महाबलशाली और पराक्रमी था. वह विकट योद्धा था जिसने यम, इन्द्र आदि को भी पराजित किया था. शिव जी का तो वह भक्त ही था, किन्हीं कारणों से विष्णु जी उससे युद्ध से विरत थे और ब्रह्मा जी युद्धादि करते नहीं थे. अब त्रिदेवों का उससे युद्ध होना न था व अन्य सभी को वह परास्त कर चुका था तो उसमें अभिमान आना स्वाभाविक ही था. इतने युद्ध करके भी उसकी युद्ध लिप्सा मिटी न थी, वह ‘युद्धम्‍ देहि’ का घोष करता घूमता ही रहता था. ऐसा नहीं कि रावण की बराबरी के अथवा उससे भी अधिक वीर और बलशाली योद्धा नहीं थे – वे थे और रावण उनसे भी युद्ध करने गया. ये और बात है कि पराजित हुआ, बंदी हुआ और पिता की सिफारिश से छूटा या विजेता ने दया करके मुक्त कर दिया. सहस्त्रबाहु कार्तवीर्य अर्जुन और वानरराज बालि ऐसे ही वीर थे.

खर-दूषण से भी एक प्रकार से पराजित ही हुआ. एक बार रावण ने एक देवकन्या, तनूदरा, के सौन्दर्य की प्रशंसा सुनी तो उसका हरण करने देवलोक पर चढ़ाई कर दी. जब वह देवलोक में व्यस्त था तो राक्षस वंश के ही खर और दूषण नामक दो भाईयों ने लङ्का पर चढ़ाई करके रावण की बहन चन्द्रनखा का हरण कर लिया. तनूदरा का हरण करके जब वह लौटा तो उसे चन्द्रनखा के हरण की सूचना मिली तो वह उन्हें दण्डित करने व चन्द्रनखा को मुक्त कराने सेना लेकर चल दिया. जब मंदोदरी को यह सूचना मिली तो उसने पूरे रनिवास के साथ रावण को समझाया कि कि अपनी बहन व दूसरे की बहन एक जैसी सम्मानयोग्य हैं. आप तनूदरा का हरण कर लाये तो आपका यह कार्य वीरोचित और खर-दूषण का कार्य अपराध कैसे हुआ ? उचित यही है कि आप खर-दूषण को बुलाकर चन्द्रनखा का विवाह उनसे कर दें. पता नही क्या विचार करके रावण ने मंदोदरी की बात मान ली और चन्द्रनखा का विवाह खर से करा कर उसे पाताल-लङ्का का आधिपत्य दे दिया. “

“हैं ! यह क्या सुना रहे हैं महराज ! खर-दूषण ने सूर्पणखा का हरण किया और रावण ने उन्हें दण्डित करने के स्थान पर खर से सूर्पणखा को  ब्याह दिया ! ऐसा तो हमने न कभी सुना, न पढ़ा और न ही गाँव-शहर की रामलीलाओं में देखा. अमीश के किसी उपन्यास से सुना रहे हैं क्या ?”

“ कहा न, जिज्ञासा का निवारण भी होगा किन्तु कथा के अन्त में. और हाँ, ये अमीश त्रिपाठी या किसी नये लेखक के उपन्यास से नहीं, शताब्दियों पुराने ग्रंथ से है. अब ऐसे ही टोकते रहोगे तो शेष कथा और जिज्ञासा शमन अगली कड़ी में ही हो सकेगा.”

“नहीं, नहीं महराज ! अगली कड़ी नहीं. आप तो कथा और शमन-वमन आज ही करें किन्तु संक्षेप में.”

“वमन तो न करूँगा, न अभिधा में, न व्यञ्जना में. खैर, संक्षेप में ही आगे सुनो -

एक बार रावण सभा में बैठा था कि बल का दर्प और युद्ध की इच्छा से उसने सभासदों से ऐसे वीर के बारे में पूछा जो उसके सम्मुख टिक सके. यदि कोई हो तो उसे पराजित करके अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करे. सभासद चाटुकार थे, डरते भी थे किन्तु रावण के बारम्बार आग्रह करने और अभयदान देने पर कई सभासदों ने विद्याधर चंद्रोधर, इक्षुख के पुत्र नल और नील व विद्याधरों के राजा, सूर्यख के पुत्र, महाबलशाली बालि के बारे में बताया. इनमें सबने एक स्वर से बालि को अतुलित बलशाली बताया. उन्होंने यह भी बताया कि बालि ने कैलाश पर्वत पर आदिनाथ ऋषभदेव की अभ्यर्थना के बाद ‘सम्यक्‍’ नामक व्रत धारण किया है जिसमें निश्चय किया है कि भगवान ऋषभदेव के अतिरिक्त किसी के सामने सर नहीं झुकायेगा, रावण यह जान कर जल-भुन गया. यद्यपि वानर साम्राज्य से उसकी 19 पीढ़ियों से मित्रता चली आ रही थी फिर भी उसने अपमानजनक संदेश भेजा कि या तो आधीनता स्वीकार करे अथवा युद्ध करे. जब बालि के पिता, सूर्यख, को रावण के इस निश्चय का भान हुआ तो भयभीत होकर उन्होंने संन्यास ले लिया.

बालि भी महाबलशाली था, उसने रावण की बात अस्वीकार करते हुए युद्ध की तैयारी की. युद्धभूमि में युद्ध के लिए सन्नद्ध  हुआ तो बालि के मंत्री, विपुलमति, ने प्रस्ताव किया कि सेनाओं को  लड़वाने से कोई लाभ नहीं, भयङ्कर जन हानि होगी. उचित होगा कि आप दोनों ही लड़ कर जय-पराजय का निर्णय कर लें, व्यर्थ ही सेना के निर्दोष वीरों की हत्या क्यों हो !

दोनों ने मान लिया. बालि ने रावण को पहले प्रहार करने का अवसर दिया. रावण ने अनेक दिव्यास्त्र छोड़े जिन्हें बाली ने निष्फल कर दिया. रावण की ‘महोदरी सर्पिणी’ विद्या को बाली ने ‘अहिनाशिनी’ विद्या से काट दिया. तब रावण ने बाली की अहिनाशिनी, ‘गारुणी विद्या’, के जवाब में प्रबल ‘नारायणी शक्ति’ छोड़ी  तो नारायणी से विष्णु गारुणी के ऊपर बैठ गये. गरुण तो उनका वाहन ही है सो गारुणी विद्या निष्प्रभावी हो गयी. तब बाली ने ‘माहेश्वर विद्या’ का प्रहार किया. विकराल कङ्काल और त्रिशूल से युक्त माहेश्वरी विद्या शशि, गौरी, गङ्गा और कार्तिकेय को धारण किये हुए आयी तो रावण के पास उसकी काट न थी, उसे पराजय स्वीकार करनी पड़ी.  महाप्रतापी बाली ने लङ्काधिपति रावण को विमान और चन्द्रहास तलवार सहित हथेली में उठा लिया और सौ बार घुमा कर फेंक दिया.

बाली उदार वीर था. उसने छोटे भाई सुग्रीव को बुला कर उसे वानरराज घोषित कर दिया, रावण से मित्रता और आधीनता की सलाह दी और तीनों लोकों के अधिपति भगवान आदिनाथ ऋषभदेव की शरण में चला गया.

रावण को भी माहेश्वरी विद्या सिद्ध थी किन्तु अभिमान और अधैर्य के कारण उसने पहले प्रहार का आमन्त्रण स्वीकार किया. यदि वह कुशल नीतिकार होता तो दिव्यास्त्रों का यह क्रम बाली से शुरू होता और रावण अन्त में माहेश्वरी विद्या का प्रयोग करता जिसकी काट बाली के भी पास न थी. यह बाली के धैर्य की जीत थी. “

“ कथा समाप्त हो गयी महराज कि अभी कुछ और बाक़ी है, हो तो वह भी सुना डालिए तो उसके बाद हम कुछ कहें.”

“कथा कभी समाप्त होती है क्या, और फिर हरि कथा ! ‘हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता, कहहिं सनहिं बहुविधि सब संता’. हाँ यह कथा समाप्त हुई. जानता हूँ, मार उबल रहे होंगे, कहें अब आप लोग.”

“महराज ! आज क्या विचित्र बातें बता गये, सूर्पणखा का हरण खर-दूषण ने किया और फिर रावण ने खर से सूर्पनखा का विवाह कर दिया और वह भी मंदोदरी के समझाने पर ! अरे ! जब मंदोदरी ने कितना समझाया कि सीता को ससम्मान लौटा दीजिये, राम से युद्ध न कीजिए, वे नर नहीं, नारायण हैं, कुल का नाश हो जायेगा … तब वह नहीं माना और और उस समय बहन का हरण करने वाले से ही उसका विवाह कर दिया !

और यह क्या ! बाली जैन था और आदिनाथ ऋषभदेव का भक्त था, बाली के पिता ने संन्यास ले लिया था, बाली ने सुग्रीव को राजतिलक करके राज-पाट दे दिया और ‘तीनों लोकों के अधिपति’ भगवान आदिनाथ ऋषभदेव की शरण में चला गया ! ये सब तो न सुना, न पढ़ा. न मानस में, न वाल्मीकि रामायण में, और तो और राधेश्याम रामायण में भी ऐसा नहीं है और न ही किसी रामलीला या नाटक मण्डली में देखा. क्या लन्तरानी हाँक दिये महराज !” 

“ सही कहते हो. न सुना, न पढ़ा और न देखा ! किन्तु प्रश्न यह है कि आप सबने जितना पढ़ा-सुना-देखा … क्या बस उतना ही है ? इससे अधिक और अलग कुछ और नहीं है क्या ? तुलसीदास जी ने स्वीकारा है कि ‘रामायन सत कोटि अपारा !’  रामायण या राम कथा बहुत हैं. तुलसी के पहले भी देश में ही अनेक कवियों ने राम कथा का गान किया. सत कोटि अपारा अर्थात सैकड़ों तरह की रामायण देश-विदेश में हैं और उतनी ही पूज्य और मान्य हैं जितनी कि वाल्मीकि रामायण या तुलसी बाबा की मानस.  उत्तर और मध्य भारत बस राम कथा के इन दो ग्रंथों से अधिक परिचित है तो बस इन्हीं में लिखे को अन्तिम सत्य मानता है जबकि राम कथा के विविध रूप हैं. दशरथ जातक आदि पर तो उत्तर भारत में बवाल हो गया था कि एक प्रदर्शनी में उससे कुछ उद्वारण प्रस्तुत किये हये थे. राम केवल उत्तर व मध्य भारत के ही नहीं हैं व केवल हिन्दू धर्मावलम्बियों के ही नहीं. दक्षिण के भक्त भी हिन्दू ही हैं, नेपाल के भी. उड़िया में भी राम हैं, जैनियों के भी और लोक के भी. वनवासियों के भी और जनजातियों, आदिवासियों के भी. लोक के राम को तो लोक जैसा ही चित्रित किया जायेगा ना ! यह कथा जैन ग्रंथ, “पउम चरिउ” से ली गयी है.”

“ पउम चरिउ !  हमने तो इस ग्रंथ का नाम नहीं सुना ! और हम इसमें वर्णित कथा को क्यों मानें !”

“ वही तो ! तुमने नाम नहीं सुना तो क्या वह ग्रंथ है नहीं. कूपमण्डूक केवल कहानी में नहीं होते ! चलो, नहीं मालूम तो यह कोई बड़ी बात नहीं. सबको सब कुछ कहाँ मालूम होता है, बताने पर भी न मानों तो भी कोई बात नहीं किन्तु देख-परख कर पुष्टि तो कर सकते हैं कि लन्तरानी हाँकी जा रही है या ऐसे भी ग्रंथ हैं जिनमें राम कथा उससे भिन्न स्वरूप में है जो आपने पढ़ी-सुनी. और कुछ नहीं तो साहित्य ही मान कर ग्रहण करें.”

“हाँ ! साहित्य वाली और राम कथा के विविध रूप वाली बात तो मानने वाली है. महराज ! केवल नाम ही बतायेंगे या और भी बतायेंगे जैन ग्रंथ, “पउम चरिउके बारे में !

“अवश्य बतायेंगे ! यह पूर्वग्रह, कि राम कथा बस उतनी ही है जितनी हमें मालूम है,  त्याग कर सुनें.

पउमचरिउ रामकथा पर आधारित अपभ्रंश का एक महाकाव्य है। इसके रचयिता जैन कवि स्वयंभू (सत्यभूदेव) हैं। इसमें बारह हज़ार पद हैं।

जैन धर्म में राजा राम के लिए 'पद्म' शब्द का प्रयोग होता है, इसलिए स्वयंभू की रामायण को 'पद्म चरित' (पउम चरिउ) कहा गया। इसकी रचना छह वर्ष तीन मास ग्यारह दिन में पूरी हुई। मूलरूप से इस रामायण में कुल 92 सर्ग थे, जिनमें स्वयंभू के पुत्र त्रिभुवन ने अपनी ओर से 16 सर्ग और जोड़े। गोस्वामी तुलसीदास के 'रामचरित मानस' पर महाकवि स्वयंभू रचित 'पउम चरिउ' का प्रभाव  दिखलाई पड़ता है।

यह सन् 965 में पूर्ण हुआ था। अतएव स्वयंभू का रचनाकाल इसी के आस-पास होना चाहिये, तुलसी के पूर्व.  अभी तक इनकी तीन रचनाएँ उपलब्ध हुई हैं - पउमचरिउ (पद्मचरित), रिट्ठणेमिचरिउ (अरिष्ट नेमिचरित या हरिवंश पुराण) और स्वयंभू छंदस्। इनमें की प्रथम दो रचनाएँ काव्यात्मक तथा तीसरी प्राकृत-अपभ्रंश छंदशास्त्रविषयक है। यह ग्रंथ प्रतिष्ठित प्रकाशन, “ भारतीय ज्ञानपीठ” द्वारा प्रकाशित है.

अब बहुत बता दिया. कथावाचक को भोजन इत्यादि आप लोग तो करायेंगे नहीं,  वो तो घर जाकर ही करना होगा और  अब विलम्ब किया तो घर पर भी न मिलेगा, लंघन ही करना होगा. अतः मुझे चलने दें व अधिक जिज्ञासा हो तो 'पउम चरिउ' पढ़ें.”

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