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Sunday 7 December 2014

पुस्तक चर्चाः “उपसंहार” – काशीनाथ सिंह


पुस्तक चर्चाः “उपसंहार” – काशीनाथ सिंह

पौराणिक चरित्र और उन पर आधारित महाकाव्य सदा से ही अबूझ आकर्षण का केन्द्र रहे हैं. उन चरित्रों का फलक इतना विस्तृत है कि लोग एक बार मे पूरा देख ही नही पाते और कार्य इतने अतिमानवीय कि वे चरित्र श्रद्धा से देखे जाते - जाते अपने जीवनकाल मे ही ईश्वर हो जाते हैं और वे महाकाव्य धर्मग्रन्थों का दर्जा प्राप्त कर लेते हैं. इस दर्जे को प्राप्त होने पर उन चरित्रों व उनके हर कार्य का निरूपण और विश्लेषण उसी नज़रिया से किया जाता है जैसा मूल ग्रन्थ मे है. उससे अलग व्याख्या का जोखिम प्रायः कोई उठाता नही किन्तु समर्थ साहित्यकार उनके कार्यों की निर्मम चीर फाड़ करते हैं और उनके अन्तर को मानवीय संवेगों के अनुसार टटोलते हैं. वे उन प्रश्नों से मुठभेड़ करते हैं जो कभी न कभी हर अध्येता के मन मे उठे होते हैं. महाभारत ऐसा ही महाकाव्य है और उसमे कृष्ण का चरित्र अगम - अगाध है. कृष्ण के मन के ऐसे ही झञ्झावात को पकड़ा है काशीनाथ सिंह ने सितम्बर, २०१४ मे राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित अपने नये उपन्यास “उपसंहार” मे.

उपन्यास महाभारत युद्ध के समापन से प्रारम्भ होता है. युद्ध अतिविनाशकारी सिद्ध हुआ, विजेता भी पराजित ही सिद्ध हुए क्योंकि उन्हे जो धरती मिली वह झुलसी हुई थी. विजेता दम्भ से भरे थे और उन्मत्त आचरण वाले हो गये थे. इस महायुद्ध को धर्मयुद्ध कहा गया किन्तु युद्ध के दौरान ही प्रश्न उठने लगे थे कि क्या वास्तव मे यह धर्मयुद्ध था. प्रश्नों के घेरे मे थे केवल कृष्ण और प्रश्न करने वालो मे थे उनके अपने और सबसे बढ़कर वे स्वयं. उन्हे भी अब लगता था कि जो उन्होने किया, वह धर्म नही था और उस धर्माचरण से जो हासिल हुआ, वह विभीषिका थी. अब उनके अपने ही अधर्म कर रहे थे. महाभारत मे तो अर्जुन को उन्होने अपनों के विरुद्ध युद्ध करन्ने को प्रेरित किया किन्तु अब वे स्वयं अपनों को रोक नही पा रहे थे. उन्हे सब निरर्थक लग रहा था और वे आशंका और अवसाद मे जी रहे थे. परिणिति बहुत त्रासद रही. सता और सचमुच के मद मे चूर उनके कुटुम्ब ने अपनों का वध कर दिया, बचों-खुचों का कृष्ण ने वध किया, बलराम ने आत्महत्या ( सागर मे जलसमाधि ) कर ली और वे जरा नामक व्याध द्वारा पशु के धोखे मे पशु की तरह मारे गये.
कृष्ण के अंर्तद्वन्द्व और अंतिम दिनों की गाथा है उपसंहार. काशीनाथ सिंह की एक अलग ही शैली का परिचय मिलता है इसमे. पूरा तो आप उपन्यास पढ़कर ही जानेंगे, अभी उपन्यास से कुछ अंश देखें जो मेरे विचार से उपन्यास का परिचय दे रहे हैं --


“ … यहीं कृष्ण को ब्राह्मणों को तीज – त्योहारों पर
  दान- दक्षिणा देते समय एक नया अनुभव हुआ
  कि ये जिसकी दान – दक्षिणा और सेवा-सत्कार से प्रसन्न हों
  उसे नारायण बना दें और जिससे असन्तुष्ट हों
  उसे असुर और राक्षस … “
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“ … कैसे समझाऊँ तुझे “ कृष्ण खड़े हो गए – “ बस यही समझो कि प्रत्येक मनुष्य कभी न कभी कुछ ही पलों या क्षणों के लिए ही सही, ‘ किसी न किसी का ईश्वर हुआ करता है. ऐसा एक नही, कई बार हो सकता है. आख़िर ईश्वर है क्या ? मनुष्य के श्रेष्ठतम का प्रकाश ही तो ? और यह प्रकाश प्रत्येक मनुष्य के भीतर होता है, लेकिन फूटता तभी है जब किसी को कातर, बेबस, निरुपाय और प्रताड़ित देखता है. मै भी था ईश्वर. हाँ, मेरी अवधि किन्ही कारणों से थोड़ी लम्बी खिंच गई रही होगी. … चलो अब… “
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“… ‘हाँ, तुमने एक काम ज़रूर किया’ बलराम रुक कर बोले- ‘तुमने युद्ध की शास्त्रीय और पुरानी शैली को नाकारा साबित कर दिया – अपनी छल और कूट बुद्धि से. इसका प्रयोग तुम राक्षसों-असुरों के संहार के लिए करते हो. लेकिन युद्ध मे छल से तुमने जिनका वध किया, वे असुर और राक्षस नही थे. भीष्म, द्रोण, कर्ण – ये अनमोल रत्न थे आर्यावर्त के, जो किसी-किसी युग मे कभी-कभार ही पैदा होते हैं. इन्हे अकेले नही मार सकता था क्या अर्जुन ? फिर वो किस बात के लिए तीनों लोकों मे सबसे बड़ा धनुर्धर कहलाता फिर रहा था ?’
  बलराम कृष्ण की प्रतिक्रिया देखते रहे.
  कृष्ण ने आँखें बन्द कर रखी थीं. चुप थे. … “
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“ … और रही बात ईश्वर की
 तो मै ईश्वर कहो या वासुदेव – होना चाहता था
 क्योंकि उसकी कोई जाति नही होती, वर्ण नही होता, गोत्र नही होता
 अकेला वही है जो वर्णाश्रमों के बन्धनों से मुक्त है.

 और दाऊ, कोई भी हारने के लिए नही लड़ता
 लड़ता है विजय के लिए
 और विजय गांडीव के रास्ते नही मिलती
 मिलती है रणनीति से
 जिसे तुम छल, कपट, झूठ, अधर्म कहते हो
 वे रणनीति के ही अंग हैं
 और मैने ‘रणनीतिकार’ की भूमिका उसी दिन तय कर ली थी
 जिस दिन स्वयं को ‘निःशस्त्र’ घोषित किया था. … “
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“ … शुरुआत की रुक्मिणी ने –
 ‘प्रद्युम्न के दिमाग से यह बात निकल ही नही रही है
 कि आपने बाप का कर्तव्य नही निभाया.
 कहता रहता है हमेशा
 कि सौरीघर से ही सात दिनों के अन्दर
 आधी रात को शम्बरासुर उठाकर ले गया
 और उस आदमी ने जानने की कोशिश ही नही की
 कि कौन ले गया ? कहाँ ले गया ? क्यों ले गया ?
 ऐसा भी कोई बाप होता है क्या ?
 मैने जाना ही नही कि बचपन क्या होता है ?
 माँ-बाप का प्यार क्या होता है ?
 उन्हे जब मेरी फिक्र नही तो मै क्यों करूँ उनकी फिक्र ?
 मै जो कुछ हूँ अपने बलबूते हूँ, किसी का अहसान नही मेरे ऊपर !
 उन्हे ‘पुरुषोत्तम’, ‘जनार्दन’, जगदीश्वर’ जो कुछ होना है
 हुआ करें, हमारे ठेंगे पर ! … “
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“ … लेकिन यह निश्चिन्तता बहुत देर तक नही रह सकी.
 वे इस चिन्ता मे घुलने लगे कि
 जिस लोकराज्य और गणराज्य के लिए
 वे जीवन भर राजतन्त्रों के खिलाफ लड़ते रहे
 उस गणराज्य की अपनी मुश्किले हैं, अपनी समस्याएँ हैं
 और उनका समाधान अगर है तो उन्ही के पास
 जो उन्हे खड़ी कर रहे ह्हैं.
 लेकिन इतना ही वे समझ सकते तो खड़ी क्यों करते ? … “
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“ … ‘लेकिन दारुक ! इधर लगातार मेरे भीतर कुछ गूँज हो रही है. उथल-पुथल मची हुई है. वह जगे मे नही, सोए मे भी सुनाई देती है. महाभारत शुरु होने से पहले ही जब दोनो पक्षों की सेनाएँ आमने-सामने डँट गईं, तो धृतराष्ट्र ने संजय से जानकारी चाही. संजय ने गान्धारी वगैरह को बुलाकर सबके सामने कहा – ‘यतो कृष्णस्ततो धर्मः यतो धर्मस्ततो जयः’ यानि जहाँ कृष्ण हैं, वहाँ धर्म है और जहाँ धर्म है, वहीं जय है. यह मैने सुना था. इधर बार-बार यही प्रतिध्वनि मेरे कानों मे गूँज रही है कि क्या सचमुच मैने महाभारत मे अठारह दिन धर्माचरण किया था, जिससे विजय मिली ?’ … “ 

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Sunday 9 November 2014

“मसाला चाय” --- पी कर देखें ! अच्छी लगेगी !!

मसाला चाय” --- पी कर देखें ! अच्छी लगेगी !!

आज एक अच्छी किताब पढ़ी. अब अच्छी से ये कयास लगाने न लग जाईयेगा कि कोई गम्भीर/ गरिष्ठ, उत्कृष्ट मूल्यों का प्रतिपादन करने वाली, विचार प्रधान … वगैरह,, वगैरह जैसी किताब होगी. पहले ही स्पष्टीकरण इसलिये दे दिया कि मेरे साथ ये ऐसा जुड़ गया है जैसे बैंकिये के साथ 'लेट सिटिंग.' मैने किताब पकड़ी नही, उसका ज़िक्र किया नही कि होने लगता है, “ आ गये ये फिर कोई किताब की चर्चा लेकर, अब झेलो और खाली तारीफ की तो पूछ बैठेंगे कि क्या अच्छा लगा, विवेचना करें.” ऐसा इसलिये भी कह रहा हूँ कि पिछले दिनों “क” के दो अंश पोस्ट किये थे. उत्तम भाई बोले, “ बहुत गरिष्ठ है.” लखी ने हाजमोला मांगा और रजनीश ने कहा, “ अभी भी कुछ पल्ले नही पड़ा. “ घबराईये नही, इस बार ऐसा कुछ नही है. ( हाँ, अगली..... अगली....... अगली बार के लिये आगाह कर दूँ कि “क” पर तीसरी पोस्ट आनी है और इस पोस्ट मे पुस्तक अंशों के साथ मेरी टिप्पणियां भी होंगी.)
इस समय जिसकी चर्चा कर रहा हूँ, वो किताब है “ मसाला चाय “ और इसके लेखक हैं, , दिव्य प्रकाश दुबे. यह उनकी दूसरी किताब है. दुबे रुड़की से इंजीनियरिंग, पुणे ( SIBM ) से मार्केटिंग से MBA करने के बाद एक टेलीकॉम कम्पनी मे मार्केटिंग मैनेजर हैं और साथ ही फिल्म मेकिंग, स्क्रीनप्ले, लिरिक, कॉपी - राइटिंग आदि मे सक्रिय हैं व 2011 से फिल्म राइटर एसोसिएशन के सदस्य हैं. “डस्ट जैकेट” ( किताब के पिछला कवर / हार्ड बाउंड किताबों मे अन्दर की तरफ ) पर इनके परिचय मे यह भी लिखा है, “ … इनके ऑफिस मे लोग समझते हैं कि DP बेसिकली एक लेखक हैं जो मार्केटिंग भी कर लेते हैं जबकि बाक़ी लिखने वाले दोस्तों का मानना है कि ये एक अच्छे मार्केटिंग मैनेजर हैं जो लिख भी लेते हैं... “ किताब हिन्द-युग्म प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित है.
किताब पर कुछ कहने से पहले दो बातें और. एक तो यह कि इस बार एक किताब जो मै खरीदना चाहता था ( “महागुरु मुक्तिबोधः जुम्मा टैंक की सीढ़ियों पर” - लेखक कान्ति कुमार जैन-- संस्मरण, सामयिक प्रकाशन ) पुस्तक मेला मे न मिल सकी तो अभी 4 तारीख को यूनिवर्सल - कपूरथला, लखनऊ से खरीदी, साथ मे अरविन्द कुमार का समान्तर कोश - दो खण्ड, एक किताब “ मेरे मञ्च की सरगम” - थियेटर के गीतों का संग्रह और “ मसाला चाय “ खरीदी. . दूसरी बात, कि मेरी बेटी अपेक्षिता ने उसी शाम “मसाला चाय” पढ़ डाली और उसकी राय थी, “... बस ऐसे ही है... “ उसके साथ यह है कि बचपन से अब तक उसने हिन्दी की उत्कृष्ट/ साहित्यिक किताबें पढ़ी हैं ( अंग्रेजी मे कोई गुरेज नही है, उसमे हल्का-फुल्का ही पढ़ती है ) तो हल्का-फुल्का उसे “बस ऐसे ही” लगता है. इस किताब के बारे मे मेरी राय उससे अलग है.
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किताब और उसकी कहानियां हल्की-फुल्की हैं, जेब पर भी भारी नही - मात्र Rs. 100.00 की है. भाषा भी टकसाली नही बल्कि वह है जो हम-आप बोलते हैं, बीच-बीच मे अंग्रेजी के शब्द ही नही, पूरे वाक्य भी हैं. कथ्य आस-पास से उठाया गया है. किशोरों व युवाओं की बातें. किशोरों की जिज्ञासायें -- प्यार क्या है, कैसे होता है, क्या गंदी बात है ? वर्जित चीजों मे क्या है ? घर /स्कूल मे पूछने पर डांट -मार खाने व जिज्ञासा शमन न होने पर चोरी छिपे उनका अनुभव लेना, कैरियर, ब्रेक अप, प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी और उसके दौरान टाईम पास, फ्लर्ट टाईप का कुछ. मतलब वो तमाम विषय जिनसे सभी लोग दो-चार हो चुके होते हैं. इनका सपाट पाठ्यक्रमीय विश्लेषण नही बल्कि जैसे चल रहा है, वैसे ही देखना और बताना. यही वजह है कि किताब, उसका कथ्य व शैली हल्की लग सकती है. कुछ लखनऊ की घटनायें हैं तो कुछ दिल्ली की. इसी के बीच कुछ ऐसी बातें निकल कर सामने आती हैं जिन्हे महसूस सबने किया होगा किन्तु कहा / लिखा नही. अब हर कहानी का सार संक्षेप नही दूंगा, बस कुछ अंश दे रहा हूँ.
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... बड़ा ही अजीब हो जाता है ऐसे किसी बंदी से बात करना जो कि आने वाले कल मे आपकी बीवी हो सकती है. आपको पता होता है, आपको शुरू तो जीरो से करना है लेकिन इस बार आपको जान-पहचान से दोस्ती वाली सीढ़ी पार नही करनी. ये वैसे ही है जैसे किसी tournament मे टीम सीधे फाइनल खेलने के लिये उतरे और उससे पहले कोई प्रैक्टिस मैच भी खेलने को न मिला हो... “
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... Please tell something which is not written in the resume and please be honest.”
ये जो and please be honest है न, बार-बार इसलिय बोला जाता है ताकि ग़लती से कोई बंदा बातों मे आकर भूल गया कि उसको सब सच बोलना है तो वो एक बार सोच ले और वही बोले जो इंटरव्यू crack करने के लिये ठीक हो. वर्ना ज्यादा honest होने के जो फायदे - नुकसान हैं, वो किसी से छुपे ठोड़े ही हैं...” **** please be honest का मतलब यह नही है कि झूठ नही बोलना है बल्कि केवल वो सच बोलने हैं जो नौकरी दिलवाने के लिये काफी हैं.
( साक्षात्कार की इस चर्चा मे यहां नौकरी को नौकरी / प्रोन्नति पढ़ें )
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... ऐसे ही एक दिन साइकिल से स्कूल जाते हुए धुन ने सुरभि से पूछा,
प्यार क्या होता है”
सुरभि सवाल सुनके ज़ोर से हँसी और बोली, “ मुझे क्या पता !”
प्यार कब होता है ?” धुन ने सवाल बदल के पूछा.
अरे यार ! मुझे क्या पता !” सुरभि ने थोड़ा खीझते हुए कहा.
तो पता करके बता. टी वी पे, मूवीज मे हर जगह हर कोई इतना प्यार कर रहा है. even घर पर भी पापा ऑफिस जाने से पहले मम्मी को love you बोल के जाते हैं”
ओये, छोड़ न यार, प्यार-व्यार.”
नही, मुझे पता लगाना है. तू कुछ हेल्प कर.”
( ये वो सवाल हैं जो हर किशोर को पूरी शक्ति से उद्वेलित करते रहते हैं किन्तु उन्हे इसका ठीक-ठीक उत्तर कहीं नही मिलता. घर पर पूछने पर डांट / मार मिल सकती है या गोल-मोल उत्तर. यही स्कूल मे होता है. तब ये किशोर अपने समवयस्कों से / अपने से कुछ बड़ों से, जिनका 'चक्कर' चल रहा होता है, उनसे. अश्लील / अर्धअश्लील किताबों / फिल्मों से, नेट से... गरज़ ये कि तमाम जगहों से जानने की कोशिश करते हैं. मिलता क्या है - अधकचरी जानकारी या यौन का कुछ क्रियात्मक अनुभव. यह कहानी ऐसे ही सवालों से दो-चार होती है और किशोरों से ज्यादा बड़ों के attitude को दर्शाती है. जैसा कि मैने पहले कहा, इस किताब की कहानियां गम्भीर सवालों को बात-चीत के रोजमर्रा के अंदाज़ मे पेश करती हैं. उपदेशात्मक नही हैं सो कोई समाधान नही देतीं. बस पढ़ें और समाधान खुद तलाशें. हाँ, बाल से लेकर किशोर और युवा मन को सही से दिखाती हैं )
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... अक्सर अजनबी लोग बड़े सही रहते हैं, उनको कुछ भी बता दो. अनजान लोग कुछ ही देर मे हमारे बारे मे इतना जान जाते हैं जितना कभी करीबी नही जान पाता.हम अपने करीबी लोगों के लिये उम्र भर अजनबी ही रहते हैं. इस बंदी ने अपना नम्बर बड़ी ही आसानी से मुझे दे दिया और मैने भी कहा था कि लखनऊ मे पक्का मिलते हैं कभी... “
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... पापा शुरू से टॉपर रहे थे इसलिये कभी समझ नही पाये थे कि टॉपर के अलावा बाक़ी लोग दुनिया मे ज़िंदा कैसे रहते हैं. उनकी नौकरी कहाँ लगती है,वे खाते कैसे हैं और अपना घर कैसे चलाते हैं ! पापा की दुनिया स्कूल टॉप करने से शुरू हुई थी और कॉलेज टॉप करते-करते IAS बन गये थे. वो बात अलग है कि UPSC ( IAS वाला exam ) मे वो टॉप नही कर पाये थे जिसका मलाल उनको आज भी था. ..”
चूंकि उनको टॉपर ही पसंद थे तो उनको अपने ही बैच की लड़की से प्यार हुआ जो अपने कॉलेज की टॉपर थी... “
कभी भी यह देखना हो कि सरकारी ( बैंक वाला भी ) अधिकारी अच्छा है या खराब तो बस उठा के देख लो कि उसकी पिछली कुछ पोस्टिंग्स कहाँ-कहाँ हुई हैं. अगर पिछले 5-10 साल मे उसकी posting केवल अच्छी जगहों पर हुई हैं तो वो अधिकारी, अच्छा अधिकारी कम, अच्छा मैनेजर ज्यादा होता है और अगर पोस्टिंग खराब जगहों पर हुई है तो वो अधिकारी अच्छा अधिकारी होता है, जो अपनी postings manage नही कर पाता... “
कई रिश्ते केवल इसलिये बचे रहते हैं और लंबे चलते हैं क्योंकि उन रिश्तों मे वही कहा जाता है जो दूसरा सुनना पसंद करता है... “
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... दुनिया मे mute का बटन रिमोट मे आने से बहुत पहले से हुआ करता था. सच को जब भी दुनिया के जिस भी हिस्से मे बोला गया है, किसी न किसी ने उसको mute करने की कोशिश की है, यह कोशिश कोई नयी नही है... “
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पुस्तक अंश के साथ तिरछे अक्षरों मे दिये गये वाक्य मेरे हैं, उन कहानियों के नही जहाँ से ये टुकड़े उठाये गये हैं.
राज नारायण

Friday 7 November 2014

यक्ष प्रश्‍न के बाद !


यक्ष प्रश्‍न के बाद !

ललाट पर आये स्वेद बिन्दु पोंछते हुए युधिष्ठिर द्रोपदी और चारो भाईयों सहित सरोवर से लौट रहे थे. कुछ क्षण पूर्व की स्थिति का स्मरण करते हुए भय से उनके शरीर मे सिहरन दौड़ गयी, साथ ही सदा शांत और सौम्य दिखने वाले उनके मुखमंडल पर क्षुब्धता के चिन्ह प्रकट हो उठे. बात ही क्षुब्ध होने की थी. एक तो सब प्यास से व्याकुल, चार भाई अचेत पड़े थे और वह धूर्त यक्ष ऐसे प्रश्नों को पूछने पर तुला था जिनके उत्तर कोई गूढ़ व गुह्य भी न थे, ये बातें तो सभी को ज्ञात थीं तो भला उसे न मालूम होतीं. यह न परीक्षा का विषय था, न समय, तथापि वह तृषा शमन को निमन्त्रित करता, सम्मुख लक्षित स्वच्छ जल से परिपूर्ण सरोवर  के जल का पान करने मे अवरोध उत्पन्न कर रहा था. इन सब विचारों की झञ्झा चल ही रही थी कि उनके मुखमंडल पर कुछ अन्य प्रकार के उद्वेग प्रकट हुये और वे द्रोपदी, भीम और अर्जुन की ओर कनकी अंगुली दिखाते हुये, एक हाथ से धोती उठाते और दूसरे हाथ से कान पर यज्ञोपवीत लपेटते निकट की झाड़ी की ओर दौड़ पड़े.  "हे भद्र जन ! लघुशंका एवं दीर्घ शंका का वेग अति प्रबल होता है. इसे सहन करना किसी पुरुष के बस मे नही. इनका शमन करने पर जो शांति व सन्तुष्टि प्राप्त होती है, वह अनिर्वचनीय है. पाण्डुपुत्रों मे ज्येष्ठ्य को इसी उद्वेग ने विचलित किया था एवं वे लघुशंका निवारणार्थ झाड़ी की ओर तीव्र गति से गये थे. हे तात ! ये कैसी शंकायें हैं जो जिसके अन्तर मे उठती हैं , मात्र एवं मात्र उसी को एकाकी ही इनका समाधान करना होता है. कोई अन्य उसके पक्ष मे इनका निवारण करने मे सक्षम नही है एवं निवारण किये जा चुकने पर भी पुनः पुनः उत्पन्न होती हैं. शंकायें हैं कि भवजाल !"
  
ऋषिवर ! एक जिज्ञासा है !, " पाण्डुपुत्रों के नाम से विख्यात पाँचों महाभागों मे से तो कोई भी जैविक रूप से पाण्डु का पुत्र नही था एवं यह कोई गोपन रहस्य भी न था, सभी इस तथ्य से अवगत थे. तो हे व्यासपीठ पर विराजमान श्रेष्ठवर ! लोग उन्हे पाण्डुपुत्र क्यों कहते थे ?"  कलिकाल के प्रथम चरण मे नैमिषारण्य के तपोवन मे संध्यावंदन एवं रात्रिभोजन के अन्तराल मे पुरातन प्रसंग का श्रवण करते मुनिगणों मे से एक युवा मुनि ने प्रश्‍न किया.

"शांत भाव से दत्तचित्त होकर बिना व्यवधान डाले कथा का श्रवण करें वत्स जिज्ञसेन् ! कदाचित तुम्हे कथा का श्रवण विधान ज्ञात नही. कथा के मध्य प्रश्‍न करने एवं उत्तर देने से श्रोता और वक्ता दोनो पाप के भागी होते हैं. वक्ता का प्रायश्‍चित तो एक प्रहर के मौन व्रत से हो जाता है किन्तु प्रश्‍नकर्ता का प्रायश्‍चित व्यासपीठ पर विराजमान वक्ता को एक माह तक दोनो प्रहर भोजन कराने से होता है - यही विधान है. क्या तुम प्रस्तुत हो वत्स ?"
"नही भगवन् ! मै पाप का भागी नही होना चाहता. "   

"तो ठीक है. जो जिज्ञासा हो, कथा के समापन के उपरान्त प्रश्‍नकाल  मे उपस्थित करना." इतना कह कर व्यासपीठ पर विराजमान ऋषि विज्ञदत्त प्रसंग की ओर चले. ज्यों ही युधिष्ठिर धोती उठाते हुए लघुशंका के निवारणार्थ बैठ ही रहे थे कि अट्टहास  के साथ तीव्र स्वर कर्णकुहरों मे प्रविष्ट हुआ, " ठहरो ! पहले मेरे...." अभी इतना ही सुना था कि युधिष्ठिर के मुख पर खिन्नता के चिन्ह प्रकट हुए एवं वे भी तीव्र स्वर मे बोले, "आप ठहरें ! पहले मुझे वो कर लेने दें जो करने आया हूँ अन्यथा उपयुक्त स्थान के स्थान पर अधोवस्त्र मे ही निवृत होऊंगा." इतना कह कर वे निवृत होने लगे. निवृत्ति के उपरान्त निकट जल उपलब्ध न होने के कारण विकल्प मे मृदा से प्रक्षालन करके प्रस्थान को उद्वत हुए कि एक धूर्त सा प्रतीत होते, भीमकाय व्यक्ति ने विकट अट्टहास के साथ मार्ग अवरुद्ध करते हुए कहा, "यह मेरा स्थान है . यहां कुछ करना तो दूर, सीमा मे प्रवेश पर भी शुल्क देना होता है."

" क्या विचित्र विपदा है ? जहां कुछ करने को खड़े हो, वहीं कोई न कोई भगिनीभञ्जक अट्टहास करता प्रकट हो जाता है ! कहो, तुम कौन हो और क्या अभीष्ट है तुम्हारा मुझसे ? " 

"हे मुनिजन ! धर्मराज ने जो अपने शांत और मृदु स्वभाव व शिष्टाचार के विपरीत घोर निन्दित अपशब्द का प्रयोग किया, वह उनकी उद्विग्नता व व्यग्रता मात्र न थी अपितु वे इससे भविष्य की ओर भी संकेत कर रहे थे. हे जिज्ञासुवृन्द ! मै भी भविष्य का कुछ भास रखता हूँ. इसी कलिकाल के अन्तिम चरण मे ऐसा भी होने वाला है कि इस कोटि के अपशब्द सहज प्रचलित होंगे, लोग भगिनी, माता, पुत्री, पिता , वृद्धजन आदि की उपस्थिति मे भी इनका व्यवहार करेंगे. कुछ लोग तो इन्हे सम्पुट, जिन्हे तकियाकलाम कहा जायेगा, की भांति बात के पूर्व बिना किसी प्रसंग के प्रयोग करेंगे एवं स्थिति यह भी होगी कि कोई अपने निवास के बाहर भी वाहन, जिन्हे कार व बाईक कहा जायेगा, रोकेगा तो तुरन्त ही यक्ष जैसा ही कोई व्यक्ति हाथ मे शुल्क -पत्र अर्थात टोकन लिये प्रकट हो जाया करेगा. ऐसी स्थिति मे अपने ही निवास के बाहर वाहन खड़ा करने पर शुल्क की मांग पर जो भाव आयेंगे एवं जो उद्‍गार अपशब्दों के रूप मे फूटेंगे , वे ही भाव एवं शब्द सत्यनिष्ठ युधिष्ठिर के श्रीमुख से निःसृत हुए. " कथा के इस अशोभन प्रसंग के औचित्य निवारण स्वरूप ऋषिश्रेष्ठ बोले.

"आगे क्या हुआ ऋषिवर ?",  "शीघ्र कहें, अन्यथा भोजन का समय हो जायेगा और कथा कल तक के लिये स्थगित हो जायेगी.",  "भगवन् ! अब कथा मे विराम होने पर कल सांय तक विराम !  जिज्ञासा के कारण मेरे तो उदरशूल होने लगेगा !",  "हे पितृचरण ! कथा को इस प्रकार ऐसे बिन्दु पर विराम देने से कोई पाप व प्रायश्‍चित नही होगा क्या !" इस प्रकार कोलाहल होने लगा.

"शांत ! शांत !! विचलित न हों, आगे सुनें."

निमिष मात्र के विचलन एवं अपशब्द के प्रयोग पर युधिष्ठिर अत्यन्त लज्जित हुए और प्रायश्‍चित सा करते हुए, करवद्ध हो, शांत एवं मृदु स्वर मे बोले, "अपना परिचय दें भद्र ! मै पाण्डुपुत्रों मे ज्येष्ठ्य, युधिष्ठिर आपको प्रणाम निवेदित करता हूँ. कुछ क्षण पूर्व की मेरी अभद्रता को क्षमा करते हुए अपना प्रयोजन प्रकट करें."
"मै यक्षाधिपति का एक न्यासी, स्वरभञ्जन नामधारी यक्ष हूँ, हे धैर्यमूर्ति युधिष्ठिर ! मै तुम्हारी वंशावली से परिचित हूँ और तुम्हारे शिष्टाचार व विनय से अति प्रसन्न हूँ किन्तु  शुल्क तो तुम्हे देना ही होगा. मै इससे भी अवगत हूँ कि वनवास करते हुए तुम भौतिक श्री से हीन हो अतः तुमसे स्वर्ण - रत्नादि की अपेक्षा के स्थान पर कुछ प्रश्‍न पूछता हूँ. इनका समुचित उत्तर देने पर ही तुम इस क्षेत्र से सकुशल वापस जा सकोगे. "

"हे ईश्‍वर ! पुनः प्रश्‍न !!" युधिष्ठिर स्वगत कथन सा करते हुए बोले. वे अब इस प्रकार के अति सरल एवं निरर्थक प्रश्‍नों, समस्याओं व उनके उतने ही अति सामान्य किन्तु शब्दाडम्बर मे गूढ़ बना कर प्रस्तुत किये जाने वाले गुञ्जलवत् उत्तर एवं स्थापनाओं का सार समझने लगे थे अतः यही व्यर्थताबोध स्वगत कथन के रूप मे निःसृत हुआ.

" कुछ कहा भद्र ! "

"नही, मै प्रस्तुत हूँ. आप पूछें."

"तो बताओ, वह कौन महाभाग होगा जिसे कलिकाल मे भी मोह-माया नही व्यापेगी ? गृहस्थ होकर परिवार के बीच रहकर भी उनमे लिप्त नही होगा ? कर्म करते हुए भी उससे विरक्त रहेगा ?"

"हे क्षेत्रपाल ! शिष्टाचार के विरुद्ध न हो तो कृपया बतायें कि मात्र यही प्रश्‍न है अथवा अन्य भी हैं ?"

" नही, अन्य प्रश्‍न भी हैं किन्तु सारे इसी श्रंखला के हैं. स्थितप्रज्ञ के समस्त लक्षणों से युक्त, कलिकाल मे जन्म लेने वाले पुण्यात्माओं को, मेरे स्वामी किसी प्रयोजन विशेष से चिन्हित करने का अभीष्ठ रखते हैं. "

"तो हे निष्ठावान् अमात्यवर ! आप सारे प्रश्‍न प्रस्तुत करें, मै एक साथ ही सबका उत्तर देने का प्रयास करूंगा. "
" तो दत्तचित्त होकर सुनो राजन् ! वह कौन सी प्रजाति अथवा वर्ग होगा जो कलिकाल के अन्तिम चरण मे भी हर्ष-विषाद से परे होगा ? किसे परिजनों अथवा घनिष्ठ मित्रों के मांगलिक कार्यों, उत्सवों आदि मे सम्मिलित होने का उल्लास न होगा एवं इसी वीतराग भाव से उनके शोक से भी विचलित न होगा ? ज्ञानियों, ऋषियों - मुनियों यहां तक कि नारद, उमा एवं श्रीहरि को भी व्यापने वाली माया किसे नही व्यापेगी "

                                                "वह कौन होगा जो जल मे कमलवत् अपार धन-लक्ष्मी के बीच रहकर उससे लिप्त न होगा ? कौन ऐसा कर्मयोद्धा होगा जो फल की अभिलाषा को भी जीत लेगा ? कौन अपने कर्मों का सुफल अन्य लोगों को निर्लिप्त भाव से अर्पित कर दिया करेगा और उन कर्मों के दुष्परिणामों को स्वयं पर ले लेगा ? "

                                                  " हे धर्मावतार ! कलिकाल मे कौन वह महात्मा होगा जो कर्तव्यपथ पर अपने व्यक्तिगत समय, अपने परिवार - कुटुम्बियों - मित्रों के समय को न्योछावर कर देगा ? कर्म करते हुए उसे न क्षुधा विचलित कर सकेगी न तृषा. भूख-प्यास को जीत लेने वाला वह महायोगी किस वर्ग अथवा जाति मे उत्पन्न होगा ? किसका कर्तव्यबोध इतना जाग्रत होगा कि सर्व भूतों मे निद्रा रूप मे स्थित माता भगवती उसे अंक मे लेने मे विफल रहेंगी ? किसे कार्य मे रत होने पर समय का भान न रहेगा ?"

                                                 " हे धैर्यमूर्ति ! महायोगी के समस्त लक्षणों से विभूषित होने पर भी कलिकाल के किस वर्ग मे सांसारिक लोग होंगे ? कार्यक्षेत्र के समस्त व्यवधानों से देखते ही देखते पार पा लेने वाला कौन धीरोदात्त होगा जो अपने ही हित की बाधाओं के सम्मुख नत हो जाया करेगा ? किस वर्ग के लोगों मे अधिसंख्या मे ऐसे विरोधाभासों से युक्त लोग होंगे ? किसे अपना हित प्रिय होते हुए भी उसके पक्ष मे खड़े होने का नैतिक बल न होगा ? कौन से वर्ग मे अपने हित मे मौन और सहनशीलता धर्म होंगे ?" हे द्यूत की मर्यादा रखने वाले वीर ! आप अवश्य ही इससे भिज्ञ होंगे. मेरे एवं मेरे स्वामी के हित मे बतायें . "

" हे दिग्पाल ! ये समस्त लक्षण तो एक ही वर्ग मे होंगे . वह क्रीतदास न होते हुए भी वैसा ही आचरण करेगा. लक्षण तो आपने विस्तार से बता ही दिये हैं, मै विस्तार न करते हुए बता रहा हूँ. उस वर्ग को 'बैंकर' कहा जायेगा. यद्यपि वह 'बैंकर' न होकर "बैंककर्मी" अर्थात बैंक मे वेतन पर कार्य करने वाला भृत्य होगा किन्तु वह स्वयं को 'बैंकर' कहा जाना पसन्द करेगा. इस वर्ग मे कुछ अति चाटुकार होंगे जो अपने मान- अपमान से परे होकर अपने ही सहकर्मियों के विरुद्ध कूटरचना मे लिप्त रहेंगे किन्तु विडम्बना यह होगी कि उन्हे चाटुकारिता की तुलना मे सुफल अपेक्षाकृत अति अल्प प्राप्त होगा. वे न तो उनके विश्‍वस्त होंगे जिनकी चाटुकारिता करेंगे, न ही अपने सहकर्मियों के. उनकी निष्ठा किसी के प्रति न होगी, वे अवसरवादी होंगे. पद की उच्चता के साथ उनकी रीढ़ नत होती जायेगी.
                                                                हे दण्डाधिकारी ! 'बैंकर्स' मे सारे ही ऐसे न होंगे, अपवाद हर क्षेत्र मे होते हैं तो इस क्षेत्र मे भी कुछ ऐसे होंगे जो कार्य के साथ परिवार, मित्रों एवं  अपनी अभिरुचियों को भी यथोचित समय देंगे एवं अस्थिमात्र से ही नही अपितु लाक्षणिक रूप से भी "रीढ़युक्त" होंगे. स्वाभिमान उन्हे प्रिय होगा, वे न किसी को दबाने की चेष्टा करेंगे न स्वयं को दबाया जाना सहन करेंगे. वे निडर व मुखर होंगे किन्तु अभद्र नही और न ही अभद्रता सहन करेंगे. खेद है, ऐसे लोग प्रारम्भ मे तो होंगे किन्तु उत्तरोत्तर इनकी संख्या कम होती जायेगी. ऐसे लोगों को अनुशासन एवं प्रशासन के नाम पर नाना विधि अंकुश रखने व दण्डित करने का उपक्रम होगा."

हे बटुकवृंद ! इतना कहकर युधिष्ठिर ने उस क्षेत्ररक्षक से पूछा, " यदि अधिक गोपन न हो तो कृपया यह बतायें कि आपके स्वामी इस वर्ग को चिन्हित करने मे रुचि क्यों रखते हैं ?"

" गोपनीय तो है किन्तु आपने अपने स्वभाव व विद्वता से मुझे जीत लिया है अतः निरापद जान कर बताता हूँ. मेरे स्वामी कुबेर ने मृत्युलोक के कुछ लोगों का वैभव देखा तो विचलित हो गये. अपनी सम्पदा उन्हे उनकी सम्पदा के सम्मुख नगण्य प्रतीत हुई. अब कोष का संचालन के अतिरिक्त उन्हे कुछ और तो आता नही अतः उन्होने मृत्युलोक मे व्यवसाय करने का निर्णय लिया. अब इस हेतु उन्हे ऐसे ही लक्षणों से युक्त कर्मचारी चाहियें सो उन्होने व्यवसाय का क्षेत्र निर्धारित करने हेतु यह किया. आशा है आपकी जिज्ञासा का शमन हो गया होगा. द्रोपदी एवं आपके भ्राता इधर ही आ रहे हैं अतः अब मै अंर्तध्यान होता हूँ."

इधर ऋषिवर ने इस प्रसंग का समापन किया उधर भोजनशाला से निमन्त्रण सूचक शंखनाद हुआ. सब क्षुधा का अनुभव तो कर ही रहे थे अतः वे सभी और उनके साथ युवा बटुक जिज्ञसेन भी 'पाण्डुपुत्र' सम्बन्धी अपनी जिज्ञासा को किसी और सत्र के लिये स्थगित करके भोजनशाला की ओर दौड़ पड़ा.

                                          ॥ इति उत्तर यक्षप्रश्‍न प्रसंग सम्पन्न ॥   

Thursday 27 March 2014

ऐरा गैरा नत्थू खैरा


 

ऐरा गैरा नत्थू खैरा

अभी चाय के दो घूंट ही लिये थे कि कुण्डी खड़की. अब तो कालबेल है, जञ्जीर-कुण्डी वाले बचे-खुचे दरवाज़े भी अब हटे - तब हटे की मुद्रा मे खड़े हैं किन्तु मै कालबेल की आवाज़ को कुण्डी खड़कना ही कहता हूँ. हाँ तो कुण्डी खड़की, झांक कर देखा, नत्थू था. “ छत पर चले आओ भई, ज़रा एक चाय और भेजना ” ये हांक लगा कर मै फिर दरी पर जा बैठा. पहली हांक नत्थू के लिये थी और दूसरी पत्नी के लिये. वह कुछ गुस्सा जैसा लग रहा था, चाल मे भी तेज़ी थी जो तैश की सी थी.

ये उतरते जाड़े के दिनों की बात है. कोहरा, बदली के दिन विदा हो चुके थे और उनके डर से छुपी रहने वाली या डर-डर के आने वाली धूप बेधड़क आने लगी थी,  कुछ गुजरात टूरिज्म के विज्ञापन मे अमिताभ की शैली मे.”… कुछ पल तो गुज़ारिये धूप मे.” मनुहार करती सी लगती थी. वो सुनहरी गुनगुनी सी धूप रोक ही लिया करती थी अगर किसी उससे ज्यादा अहमियत वाले से मिलने जाना न हो. रविवार की सुबह और कोई घरेलू काम भी नही सो छत पर धूप के साथ बैठ कर कुछ लिखत-पढ़त के इरादा से दरी, डेस्क, कागज – कलम, किताबें जमाईं, पानी का जग, गिलास और चाय का कप लेकर “अब तो सब हो गया” के भाव से बैठक पर नज़र डाली. अभी बैठा ही था और चाय के दो घूंट ही लिये थे कि कुण्डी खड़की. अरे ! यह तो बता चुका हूँ कि कुण्डी खड़की… नत्थू आया और बड़े तैश मे आया.

नत्थू इसी मोहल्ले का बाशिंदा है मगर बसा किसी घर मे नही. इसके आगे नाथ न पीछे पगहा, ज़ोरू न जाता अल्लाह मियां से नाता. कहां से आया – पता नही. पार्क का मंदिर ही उसका ठिकाना है. मंदिर की साफ-सफाई, देख-रेख करता है और बारामदे मे सो रहता है. बस काम भर का लिखना पढ़ना आता है, थोड़ा बहुत बिजली का काम भी जानता है, सभी के छोटे-मोटे काम कर देता है तो उसके बीड़ी तम्बाकू का इन्तज़ाम हो जाता है, खाना कभी बना लिया तो ज्यादातर किसी न किसी के यहां खा लिया. मै उससे काम कराने के अलावा बतिया भी लिया करता हूँ सो मेरा मुहलगा सा है, यारी सी है और पढ़ते-लिखते देख कर काबिल भी मानता है… मै भी उसका भ्रम नही तोड़ता. बैठने को कहा, बैठते हुए ही बोला, ”ये क्या फैला रखा है आप लोगों ने ? कैसी-कैसी कहावतें गढ़ रखी हैं, “ऐरा गैरा नत्थू खैरा !” छोटा आदमी हूँ तो क्या हमारी कोई इज्जत नही. ये ऐरा, गैरा कौन हैं जिन्हे मेरे साथ जोड़ दिया. अरे कोई गैर है तो मेरे साथ क्यों है और ये ऐरा और खैरा कौन हैं. मैने तो इन्हे देखा तक नही और जोड़ दिया मेरे साथ. कितना भी सबके काम करो कहेंगे बेइज्जती करते हुए – ऐरा गैरा नत्थू खैरा ! ग़ल्ती करें ऐरे, गैरे, खैरे और बदनाम हो नत्थू.”

मेरी तो बोलती बंद हो गयी, कुछ उसके तैश से और कुछ इससे भी कि बात तो उसकी जायज थी. मुझसे कुछ बोलते नही बना सिवाय इसके कि यह कहावत तो बहुत पहले की बनी है.

“ होगी पहले की मगर अब के लोग भी तो यही कर रहे हैं. कहावत मे नत्थू के साथ नत्थी किये गये ऐरा, गैरा और खैरा और फिल्म मे मूंछों और नत्थू का मज़ाक बनाया गया. फिल्म शराबी का सीन याद करें साहब. छोटे कद का एक्टर और मूंछे बड़ी-बड़ी. नाम भी रखा तो नत्थूलाल. उसकी मूंछे छूते हुए डायलाग बोला, मूंछे हों तो नत्थू लाल जैसी. हम आपके जैसे पढ़े-लिखे तो नही मगर इतना तो समझते हैं कि तारीफ नही हो रही है… मज़ाक उड़ाया जा रहा है.”

अभी नत्थू उलझ ही रहा था कि जीने पर से कदमों की आहट सुनाई दी. ये शीला और मुन्नी थीं जिन्होने कुण्डी खड़काना भी ज़रूरी नही समझा. बिना किसी भूमिका के शुरू हो गयी शीला, “ जीना हराम कर रखा है ऐसे गानों ने, जिसे देखो वही देखते ही “शीला की जवानी” और “मुन्नी बदनाम हुयी, डार्लिंग तेरे लिये” गाने लगता है.” उनकी शिकायत पूरी होते न होते लाठी टेकती हुयी बी नसीबन भी आन पहुँचीं. “ ये मुन्नी तो अब परेशान हो रही है, निगोड़े मुझे तो तबसे परेशान किये हैं जब मै नन्ही ही थी. वो क्या गाना चला था, ‘लौंडा बदनाम हुआ, नसीबन तेरे लिये’. ये ‘मुन्नी बदनाम’ तो उसकी नकल है.”

“खाला आप भी !” मेरे मुह से निकला.

“हाँ नही तो क्या ! उस ज़माने मे यह ज़ोरों पर था, जिन छोकरों को इस बदनामी की समझ भी न थी, वो भी देखते ही शुरू हो जाते थे. निकाह हुआ तो तुम्हारे खालू एक शक्की. जब कहीं ये गाना सुनकर आते तो मुझे दिक करते, ‘ये लौंडा कौन है जो तुम्हारे लिये बदनाम हुआ है’. मै लाख कहती, ‘ये तो गाना है, मुए दहिजरों ने बना दिया है. मुझे क्या मालूम, होगी कोई नसीबन और होगा कोई लौंडा… मुझसे कोई वास्ता नही.’ ‘कुछ तो बात होगी, यूं ही कोई थोड़े गाना बनाता है’ पता नही शक़ था कि मियां खुद लौंडे के चक्कर मे थे. उनकी झायं-झायं से तो बेवा होकर छुटकारा मिला मगर ये मरदूद अब बेचारी मुन्नी और शीला का जीना हराम किये हैं.

“ सच कह रही हैं खाला “ ये पटवारी जी थे जो जाने कब आकर बैठ गये थे. “ खालू एक बार मुझसे भी उलझ गये थे, ‘ कहीं ये तुम्हारा वाला लौंडा तो नही जिसके पीछे मेरी नसीबन बदनाम है’. उस ज़माने मे एक और गाना चला था, ‘लौंडा पटवारी का बड़ा नमकीन’ अब आपको खालू परेशान किये थे और मुझे आपकी बहू. ज़रा घर आने मे देर होती तो ताना मारतीं, ‘होगे उसी लौंडे के साथ.’ अब मै कभी सफाई देता तो कभी झल्ला पड़ता. हद तो ये कि एक बार तहसीलदार साहब ने भी मौका देखकर फुसफुसाते हुए कहा, ‘भई, वो तुम्हारा लौंडा कहां है, हमसे भी तो मिलवाओ’ पता नही संजीदा थे कि चुहुल कर रहे थे.”   

खैर, किसी तरह लल्लो-चप्पो करके इन सबको चाय-पानी कराके विदा किया. अब पढ़ने-लिखने का क्या मन होता, चिन्तन ही चालू हो गया. कितने ही मुहावरें और कहावते हैं जो किसी नाम पर या जात पर बने हैं. कल को वो भी ऐतराज करने लगें, याचिका-वाचिका दायर दें तो क्या हो ! कहावतें और कुछ नाम तो बदले जा सकते नही भले ही सरकारें उन्हे बदल दें. अब ‘बाम्बे डाईंग’, फिल्म ‘बम्बई का बाबू’ और भी तमाम ‘मुम्बई डाईंग’ और ‘मुम्बई का बाबू’ होने से रहे.

अगर कोई गंगू नामधारी लड़ने लगें कि ‘कहां राजा भोज, कहां गंगू तेली’ मे मुझे क्यों घसीटा गया, होंगे राजा भोज बड़े, करो उनकी तारीफें , मेरी बेइज़्ज़्ती क्यों पीढ़ी दर पीढ़ी करते चले आ रहे हो. इतना ही नही तेली समाज भी आपत्ति उठा सकता है कि ये गंगू की ही नही पूरी तेली जाति का अपमान है और पता नही किस गंगू को हमारी जात से जोड़ रहे हो. कल को कोई अब्दुल्ला आकर बखेड़ा करे, ’क्यों मियां, मै किस बेगानी शादी मे दीवाना हुआ था, हुआ होगा कोई अब्दुल्ला दीवाना किसी बेगाने की शादी मे, अब तक क्यों सारे अब्दुल्लाओं के पीछे पड़े हो ? गोया अब्दुल्ला नाम न हुआ जात हो गयी !’ है कोई जवाब ! जात की बात पर ध्यान आया कि “मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक” भी तो ऐतराज के लायक है. कल को कोई मुल्ला कह दे कि हमे क्या निरा मुल्ला ही समझ रखा है कि मस्जिद से आगे का न पता हो, न समाई. अरे हम वो मुल्ला नही, दीन के साथ दुनिया की खबर रखते हैं और ऊपरवाले के अलावा नीचे के ऊपरवालों तक भी पहुँच रखते हैं. मुल्ला ऐतराज करें तो पण्डित जी क्यों पीछे रहेंगे. उस्ताद बड़े गुलाम अली खां की गायी ठुमरी, “… कंकरि मार जगा गयो रे बम्भना का छोरा… “ मे एक तो ब्राह्मण को बदनाम किया सो किया मगर ब्राहमण देवता कहना तो दूर बम्भना कहा है और आपको बड़ा रस मिलता है इसे सुनने मे. गया राम, गंगा दास, जमुना दास, नयनसुख आदि भी तो आपत्ति उठा सकते हैं. इनके नामों पर भी तो कहावते हैं और कहावत मे इन नामों को इज्जत तो दी नही गयी है.

नत्थू, शीला, मुन्नी, पटवारी और बी नसीबन के अलावा और कोई शिकायत करने तो नही आया मगर आशंका बराबर बनी हुई है कि कहावतों, मुहावरों और गानो मे शामिल नामों और जातियों के लोग भी आकर खड़े हो गये तो क्या जवाब होगा. अदालती कार्यवाही झेलो और इनका प्रयोग बन्द करो. फिर तो लाक्षणिक अभिव्यक्ति सीमित ही समझो.

दरअसल मुहावरों व कहावतें मे, लोकगीतों से लेकर फिल्मी गानों मे, विभिन्न शीर्षकों मे, कथानकों मे, और और भी कई प्रसंगों मे नाम और जाति का प्रयोग हुआ है. इनके पीछे मंशा क्या रही होगी ! निश्चित ही यह मंशा तो नही ही होगी कि इनका मज़ाक उड़ाया जाय या इन्हे अपमानित किया जाय. अब तो जाति का आधार व्यवसाय नही और यह भी आवश्यक नही कि किसी जाति विशेष के लोगों मे जातिगत गुण-अवगुण या विशेषताएं हों. बहुत अकादमिक विश्लेषण मे न जायें तो किसी घटना या प्रवृत्ति के बारे मे जो कुछ सूत्र रूप मे कहा जाय वह कहावत और जो मुह दर मुह चलन मे रहे, वह मुहावरा. दोनो का ही एक फार्मूला और एक ही मानक है. कोई नाम, कोई जाति या घटना इसलिये जोड़ी जाती है कि पूरी बात न बतानी पड़े, सुनते लोग जान जायें कि, अच्छा उस घटना / उस आदमी ( औरत भी हो सकती है ) की बात हो रही है या ये बात भी ‘ऐसी’ ही है जैसी ‘वो’ थी. यही कहावतों का उद्गम, आशय और उपयोगिता है.

जब कोई कहावत बनी तो उस समय के लोग तो समझ लेते थे कि किस सन्दर्भ की बात है किन्तु इनका कोई लिखित अभिलेख तो रखा जाता नही अतः एक पीढ़ी बाद के लोग या उससे भी बाद के लोग उस घटना या व्यक्ति विशेष के बारे मे नही जानते तो कुछ खुराफाती लोग भड़कने और भड़कने से अधिक भड़काने मे लग जाते हैं. ऐसे लोग कभी कोर्स की किताबों के पाठ बदलवाने के लिये तो कभी फिल्मों के नाम को लेकर तो कभी किसी गाने से एक आध शब्द बदलवाने के लिये हाय तोबा मचाते हैं. बहाना यही होता है कि हमारी भावना को ठेस पहुँची / भावना आहत हुई, हमारी जाति का अपमान हो रहा है… आदि, इत्यादि. जहां तक हम समझते हैं, इन कारणों मे से कोई भी वास्तविक नही होता बल्कि ये चर्चा मे आने या सस्ती लोकप्रियता पाने का ओछा हथकण्डा है. सरकार उनकी बात कभी कभी मान भी लेती है. उन्हे तो उतना प्रचार नही मिलता और न ही जातीय गौरव बढ़ता है और न ही वे जाति के प्रतिनिधि बन जाते हैं, बस उनका अहं तुष्ट हो जाता है या फिर फिल्म-विल्म का मामला हुआ तो कुछ माल-मत्ता हाथ लग जाता है.

इस वितण्डा से सबसे अधिक फायदा उसे होता है जिस पर आपत्ति की गयी होती है. फिल्म या किताब या लेख के मामले मे तो मुफ्त मे प्रचार हो जाता है. कुछ समय पहले ‘नया ज्ञानोदय’ मे एक साक्षात्कार मे विभूति नारायण सिंह ने नाम लिये बगैर कुछ लेखिकाओं के लिये एक बहुश्रुत/ प्रचलित शब्द ( फ्लर्ट से ऊंचे दर्जे का) प्रयोग किया तो कुछ ने इसे लपक लिया. नतीजा क्या हुआ – साहित्य मे ज़रा भी रुचि / जानकारी रखने वालों ने ढूंढ-ढूंढ कर वह साक्षात्कार पढ़ा. पत्रिका की बिक्री बढ़ी बस. ऐसे ही फिल्म ’आजा नच ले’ के एक गाने मे ‘सुनार’ शब्द पर हाय-तोबा मची तो शब्द तो हटा मगर बहुतेरे सुनार सहित गाना सुन चुके थे. जिन्होने पहले वाला नही सुना था उन्होने भी सुना. दो कार्टूनों पर चाय के प्याले मे तूफान उठाया गया तो लोगों ने ढूंढ-ढूंढ कर वो कार्टून देखे. विवाद पर लोग प्रयास करके देखते/ पढ़ते/ सुनते हैं कि देखें इसमे है क्या ! इस चक्कर मे औसत माल भी खप जाता है. इससे तो लगता है कि ऐसी आपत्तियां प्रायोजित और इन पर लड़ाई नूरा कुश्ती होती है.   

पहले नत्थू, शीला, मुन्नी, बी नसीबन और पटवारी की बमचक से मार खुपड़ी झांझर हो गयी और रही-सही कसर इस चिन्तन ने पूरी कर दी. अब पढ़ता तो क्या और लिखता भी क्या… सरो सामां समेट कर खाने की गुहार लगाता नीचे उतरा.

राज नारायण