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Friday 7 November 2014

यक्ष प्रश्‍न के बाद !


यक्ष प्रश्‍न के बाद !

ललाट पर आये स्वेद बिन्दु पोंछते हुए युधिष्ठिर द्रोपदी और चारो भाईयों सहित सरोवर से लौट रहे थे. कुछ क्षण पूर्व की स्थिति का स्मरण करते हुए भय से उनके शरीर मे सिहरन दौड़ गयी, साथ ही सदा शांत और सौम्य दिखने वाले उनके मुखमंडल पर क्षुब्धता के चिन्ह प्रकट हो उठे. बात ही क्षुब्ध होने की थी. एक तो सब प्यास से व्याकुल, चार भाई अचेत पड़े थे और वह धूर्त यक्ष ऐसे प्रश्नों को पूछने पर तुला था जिनके उत्तर कोई गूढ़ व गुह्य भी न थे, ये बातें तो सभी को ज्ञात थीं तो भला उसे न मालूम होतीं. यह न परीक्षा का विषय था, न समय, तथापि वह तृषा शमन को निमन्त्रित करता, सम्मुख लक्षित स्वच्छ जल से परिपूर्ण सरोवर  के जल का पान करने मे अवरोध उत्पन्न कर रहा था. इन सब विचारों की झञ्झा चल ही रही थी कि उनके मुखमंडल पर कुछ अन्य प्रकार के उद्वेग प्रकट हुये और वे द्रोपदी, भीम और अर्जुन की ओर कनकी अंगुली दिखाते हुये, एक हाथ से धोती उठाते और दूसरे हाथ से कान पर यज्ञोपवीत लपेटते निकट की झाड़ी की ओर दौड़ पड़े.  "हे भद्र जन ! लघुशंका एवं दीर्घ शंका का वेग अति प्रबल होता है. इसे सहन करना किसी पुरुष के बस मे नही. इनका शमन करने पर जो शांति व सन्तुष्टि प्राप्त होती है, वह अनिर्वचनीय है. पाण्डुपुत्रों मे ज्येष्ठ्य को इसी उद्वेग ने विचलित किया था एवं वे लघुशंका निवारणार्थ झाड़ी की ओर तीव्र गति से गये थे. हे तात ! ये कैसी शंकायें हैं जो जिसके अन्तर मे उठती हैं , मात्र एवं मात्र उसी को एकाकी ही इनका समाधान करना होता है. कोई अन्य उसके पक्ष मे इनका निवारण करने मे सक्षम नही है एवं निवारण किये जा चुकने पर भी पुनः पुनः उत्पन्न होती हैं. शंकायें हैं कि भवजाल !"
  
ऋषिवर ! एक जिज्ञासा है !, " पाण्डुपुत्रों के नाम से विख्यात पाँचों महाभागों मे से तो कोई भी जैविक रूप से पाण्डु का पुत्र नही था एवं यह कोई गोपन रहस्य भी न था, सभी इस तथ्य से अवगत थे. तो हे व्यासपीठ पर विराजमान श्रेष्ठवर ! लोग उन्हे पाण्डुपुत्र क्यों कहते थे ?"  कलिकाल के प्रथम चरण मे नैमिषारण्य के तपोवन मे संध्यावंदन एवं रात्रिभोजन के अन्तराल मे पुरातन प्रसंग का श्रवण करते मुनिगणों मे से एक युवा मुनि ने प्रश्‍न किया.

"शांत भाव से दत्तचित्त होकर बिना व्यवधान डाले कथा का श्रवण करें वत्स जिज्ञसेन् ! कदाचित तुम्हे कथा का श्रवण विधान ज्ञात नही. कथा के मध्य प्रश्‍न करने एवं उत्तर देने से श्रोता और वक्ता दोनो पाप के भागी होते हैं. वक्ता का प्रायश्‍चित तो एक प्रहर के मौन व्रत से हो जाता है किन्तु प्रश्‍नकर्ता का प्रायश्‍चित व्यासपीठ पर विराजमान वक्ता को एक माह तक दोनो प्रहर भोजन कराने से होता है - यही विधान है. क्या तुम प्रस्तुत हो वत्स ?"
"नही भगवन् ! मै पाप का भागी नही होना चाहता. "   

"तो ठीक है. जो जिज्ञासा हो, कथा के समापन के उपरान्त प्रश्‍नकाल  मे उपस्थित करना." इतना कह कर व्यासपीठ पर विराजमान ऋषि विज्ञदत्त प्रसंग की ओर चले. ज्यों ही युधिष्ठिर धोती उठाते हुए लघुशंका के निवारणार्थ बैठ ही रहे थे कि अट्टहास  के साथ तीव्र स्वर कर्णकुहरों मे प्रविष्ट हुआ, " ठहरो ! पहले मेरे...." अभी इतना ही सुना था कि युधिष्ठिर के मुख पर खिन्नता के चिन्ह प्रकट हुए एवं वे भी तीव्र स्वर मे बोले, "आप ठहरें ! पहले मुझे वो कर लेने दें जो करने आया हूँ अन्यथा उपयुक्त स्थान के स्थान पर अधोवस्त्र मे ही निवृत होऊंगा." इतना कह कर वे निवृत होने लगे. निवृत्ति के उपरान्त निकट जल उपलब्ध न होने के कारण विकल्प मे मृदा से प्रक्षालन करके प्रस्थान को उद्वत हुए कि एक धूर्त सा प्रतीत होते, भीमकाय व्यक्ति ने विकट अट्टहास के साथ मार्ग अवरुद्ध करते हुए कहा, "यह मेरा स्थान है . यहां कुछ करना तो दूर, सीमा मे प्रवेश पर भी शुल्क देना होता है."

" क्या विचित्र विपदा है ? जहां कुछ करने को खड़े हो, वहीं कोई न कोई भगिनीभञ्जक अट्टहास करता प्रकट हो जाता है ! कहो, तुम कौन हो और क्या अभीष्ट है तुम्हारा मुझसे ? " 

"हे मुनिजन ! धर्मराज ने जो अपने शांत और मृदु स्वभाव व शिष्टाचार के विपरीत घोर निन्दित अपशब्द का प्रयोग किया, वह उनकी उद्विग्नता व व्यग्रता मात्र न थी अपितु वे इससे भविष्य की ओर भी संकेत कर रहे थे. हे जिज्ञासुवृन्द ! मै भी भविष्य का कुछ भास रखता हूँ. इसी कलिकाल के अन्तिम चरण मे ऐसा भी होने वाला है कि इस कोटि के अपशब्द सहज प्रचलित होंगे, लोग भगिनी, माता, पुत्री, पिता , वृद्धजन आदि की उपस्थिति मे भी इनका व्यवहार करेंगे. कुछ लोग तो इन्हे सम्पुट, जिन्हे तकियाकलाम कहा जायेगा, की भांति बात के पूर्व बिना किसी प्रसंग के प्रयोग करेंगे एवं स्थिति यह भी होगी कि कोई अपने निवास के बाहर भी वाहन, जिन्हे कार व बाईक कहा जायेगा, रोकेगा तो तुरन्त ही यक्ष जैसा ही कोई व्यक्ति हाथ मे शुल्क -पत्र अर्थात टोकन लिये प्रकट हो जाया करेगा. ऐसी स्थिति मे अपने ही निवास के बाहर वाहन खड़ा करने पर शुल्क की मांग पर जो भाव आयेंगे एवं जो उद्‍गार अपशब्दों के रूप मे फूटेंगे , वे ही भाव एवं शब्द सत्यनिष्ठ युधिष्ठिर के श्रीमुख से निःसृत हुए. " कथा के इस अशोभन प्रसंग के औचित्य निवारण स्वरूप ऋषिश्रेष्ठ बोले.

"आगे क्या हुआ ऋषिवर ?",  "शीघ्र कहें, अन्यथा भोजन का समय हो जायेगा और कथा कल तक के लिये स्थगित हो जायेगी.",  "भगवन् ! अब कथा मे विराम होने पर कल सांय तक विराम !  जिज्ञासा के कारण मेरे तो उदरशूल होने लगेगा !",  "हे पितृचरण ! कथा को इस प्रकार ऐसे बिन्दु पर विराम देने से कोई पाप व प्रायश्‍चित नही होगा क्या !" इस प्रकार कोलाहल होने लगा.

"शांत ! शांत !! विचलित न हों, आगे सुनें."

निमिष मात्र के विचलन एवं अपशब्द के प्रयोग पर युधिष्ठिर अत्यन्त लज्जित हुए और प्रायश्‍चित सा करते हुए, करवद्ध हो, शांत एवं मृदु स्वर मे बोले, "अपना परिचय दें भद्र ! मै पाण्डुपुत्रों मे ज्येष्ठ्य, युधिष्ठिर आपको प्रणाम निवेदित करता हूँ. कुछ क्षण पूर्व की मेरी अभद्रता को क्षमा करते हुए अपना प्रयोजन प्रकट करें."
"मै यक्षाधिपति का एक न्यासी, स्वरभञ्जन नामधारी यक्ष हूँ, हे धैर्यमूर्ति युधिष्ठिर ! मै तुम्हारी वंशावली से परिचित हूँ और तुम्हारे शिष्टाचार व विनय से अति प्रसन्न हूँ किन्तु  शुल्क तो तुम्हे देना ही होगा. मै इससे भी अवगत हूँ कि वनवास करते हुए तुम भौतिक श्री से हीन हो अतः तुमसे स्वर्ण - रत्नादि की अपेक्षा के स्थान पर कुछ प्रश्‍न पूछता हूँ. इनका समुचित उत्तर देने पर ही तुम इस क्षेत्र से सकुशल वापस जा सकोगे. "

"हे ईश्‍वर ! पुनः प्रश्‍न !!" युधिष्ठिर स्वगत कथन सा करते हुए बोले. वे अब इस प्रकार के अति सरल एवं निरर्थक प्रश्‍नों, समस्याओं व उनके उतने ही अति सामान्य किन्तु शब्दाडम्बर मे गूढ़ बना कर प्रस्तुत किये जाने वाले गुञ्जलवत् उत्तर एवं स्थापनाओं का सार समझने लगे थे अतः यही व्यर्थताबोध स्वगत कथन के रूप मे निःसृत हुआ.

" कुछ कहा भद्र ! "

"नही, मै प्रस्तुत हूँ. आप पूछें."

"तो बताओ, वह कौन महाभाग होगा जिसे कलिकाल मे भी मोह-माया नही व्यापेगी ? गृहस्थ होकर परिवार के बीच रहकर भी उनमे लिप्त नही होगा ? कर्म करते हुए भी उससे विरक्त रहेगा ?"

"हे क्षेत्रपाल ! शिष्टाचार के विरुद्ध न हो तो कृपया बतायें कि मात्र यही प्रश्‍न है अथवा अन्य भी हैं ?"

" नही, अन्य प्रश्‍न भी हैं किन्तु सारे इसी श्रंखला के हैं. स्थितप्रज्ञ के समस्त लक्षणों से युक्त, कलिकाल मे जन्म लेने वाले पुण्यात्माओं को, मेरे स्वामी किसी प्रयोजन विशेष से चिन्हित करने का अभीष्ठ रखते हैं. "

"तो हे निष्ठावान् अमात्यवर ! आप सारे प्रश्‍न प्रस्तुत करें, मै एक साथ ही सबका उत्तर देने का प्रयास करूंगा. "
" तो दत्तचित्त होकर सुनो राजन् ! वह कौन सी प्रजाति अथवा वर्ग होगा जो कलिकाल के अन्तिम चरण मे भी हर्ष-विषाद से परे होगा ? किसे परिजनों अथवा घनिष्ठ मित्रों के मांगलिक कार्यों, उत्सवों आदि मे सम्मिलित होने का उल्लास न होगा एवं इसी वीतराग भाव से उनके शोक से भी विचलित न होगा ? ज्ञानियों, ऋषियों - मुनियों यहां तक कि नारद, उमा एवं श्रीहरि को भी व्यापने वाली माया किसे नही व्यापेगी "

                                                "वह कौन होगा जो जल मे कमलवत् अपार धन-लक्ष्मी के बीच रहकर उससे लिप्त न होगा ? कौन ऐसा कर्मयोद्धा होगा जो फल की अभिलाषा को भी जीत लेगा ? कौन अपने कर्मों का सुफल अन्य लोगों को निर्लिप्त भाव से अर्पित कर दिया करेगा और उन कर्मों के दुष्परिणामों को स्वयं पर ले लेगा ? "

                                                  " हे धर्मावतार ! कलिकाल मे कौन वह महात्मा होगा जो कर्तव्यपथ पर अपने व्यक्तिगत समय, अपने परिवार - कुटुम्बियों - मित्रों के समय को न्योछावर कर देगा ? कर्म करते हुए उसे न क्षुधा विचलित कर सकेगी न तृषा. भूख-प्यास को जीत लेने वाला वह महायोगी किस वर्ग अथवा जाति मे उत्पन्न होगा ? किसका कर्तव्यबोध इतना जाग्रत होगा कि सर्व भूतों मे निद्रा रूप मे स्थित माता भगवती उसे अंक मे लेने मे विफल रहेंगी ? किसे कार्य मे रत होने पर समय का भान न रहेगा ?"

                                                 " हे धैर्यमूर्ति ! महायोगी के समस्त लक्षणों से विभूषित होने पर भी कलिकाल के किस वर्ग मे सांसारिक लोग होंगे ? कार्यक्षेत्र के समस्त व्यवधानों से देखते ही देखते पार पा लेने वाला कौन धीरोदात्त होगा जो अपने ही हित की बाधाओं के सम्मुख नत हो जाया करेगा ? किस वर्ग के लोगों मे अधिसंख्या मे ऐसे विरोधाभासों से युक्त लोग होंगे ? किसे अपना हित प्रिय होते हुए भी उसके पक्ष मे खड़े होने का नैतिक बल न होगा ? कौन से वर्ग मे अपने हित मे मौन और सहनशीलता धर्म होंगे ?" हे द्यूत की मर्यादा रखने वाले वीर ! आप अवश्य ही इससे भिज्ञ होंगे. मेरे एवं मेरे स्वामी के हित मे बतायें . "

" हे दिग्पाल ! ये समस्त लक्षण तो एक ही वर्ग मे होंगे . वह क्रीतदास न होते हुए भी वैसा ही आचरण करेगा. लक्षण तो आपने विस्तार से बता ही दिये हैं, मै विस्तार न करते हुए बता रहा हूँ. उस वर्ग को 'बैंकर' कहा जायेगा. यद्यपि वह 'बैंकर' न होकर "बैंककर्मी" अर्थात बैंक मे वेतन पर कार्य करने वाला भृत्य होगा किन्तु वह स्वयं को 'बैंकर' कहा जाना पसन्द करेगा. इस वर्ग मे कुछ अति चाटुकार होंगे जो अपने मान- अपमान से परे होकर अपने ही सहकर्मियों के विरुद्ध कूटरचना मे लिप्त रहेंगे किन्तु विडम्बना यह होगी कि उन्हे चाटुकारिता की तुलना मे सुफल अपेक्षाकृत अति अल्प प्राप्त होगा. वे न तो उनके विश्‍वस्त होंगे जिनकी चाटुकारिता करेंगे, न ही अपने सहकर्मियों के. उनकी निष्ठा किसी के प्रति न होगी, वे अवसरवादी होंगे. पद की उच्चता के साथ उनकी रीढ़ नत होती जायेगी.
                                                                हे दण्डाधिकारी ! 'बैंकर्स' मे सारे ही ऐसे न होंगे, अपवाद हर क्षेत्र मे होते हैं तो इस क्षेत्र मे भी कुछ ऐसे होंगे जो कार्य के साथ परिवार, मित्रों एवं  अपनी अभिरुचियों को भी यथोचित समय देंगे एवं अस्थिमात्र से ही नही अपितु लाक्षणिक रूप से भी "रीढ़युक्त" होंगे. स्वाभिमान उन्हे प्रिय होगा, वे न किसी को दबाने की चेष्टा करेंगे न स्वयं को दबाया जाना सहन करेंगे. वे निडर व मुखर होंगे किन्तु अभद्र नही और न ही अभद्रता सहन करेंगे. खेद है, ऐसे लोग प्रारम्भ मे तो होंगे किन्तु उत्तरोत्तर इनकी संख्या कम होती जायेगी. ऐसे लोगों को अनुशासन एवं प्रशासन के नाम पर नाना विधि अंकुश रखने व दण्डित करने का उपक्रम होगा."

हे बटुकवृंद ! इतना कहकर युधिष्ठिर ने उस क्षेत्ररक्षक से पूछा, " यदि अधिक गोपन न हो तो कृपया यह बतायें कि आपके स्वामी इस वर्ग को चिन्हित करने मे रुचि क्यों रखते हैं ?"

" गोपनीय तो है किन्तु आपने अपने स्वभाव व विद्वता से मुझे जीत लिया है अतः निरापद जान कर बताता हूँ. मेरे स्वामी कुबेर ने मृत्युलोक के कुछ लोगों का वैभव देखा तो विचलित हो गये. अपनी सम्पदा उन्हे उनकी सम्पदा के सम्मुख नगण्य प्रतीत हुई. अब कोष का संचालन के अतिरिक्त उन्हे कुछ और तो आता नही अतः उन्होने मृत्युलोक मे व्यवसाय करने का निर्णय लिया. अब इस हेतु उन्हे ऐसे ही लक्षणों से युक्त कर्मचारी चाहियें सो उन्होने व्यवसाय का क्षेत्र निर्धारित करने हेतु यह किया. आशा है आपकी जिज्ञासा का शमन हो गया होगा. द्रोपदी एवं आपके भ्राता इधर ही आ रहे हैं अतः अब मै अंर्तध्यान होता हूँ."

इधर ऋषिवर ने इस प्रसंग का समापन किया उधर भोजनशाला से निमन्त्रण सूचक शंखनाद हुआ. सब क्षुधा का अनुभव तो कर ही रहे थे अतः वे सभी और उनके साथ युवा बटुक जिज्ञसेन भी 'पाण्डुपुत्र' सम्बन्धी अपनी जिज्ञासा को किसी और सत्र के लिये स्थगित करके भोजनशाला की ओर दौड़ पड़ा.

                                          ॥ इति उत्तर यक्षप्रश्‍न प्रसंग सम्पन्न ॥   

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