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Thursday 25 August 2022

पुस्तक चर्चा – 'अक्स' , लेखक - अखिलेश

 

पुस्तक चर्चाअक्स


अखिलेश का नाम ऐसा है कि बुक स्टोर पर बिना उलटपलट कर देखे या बिना कोई ( वास्तविक ) समीक्षा पढ़े भी निशङ्क होकर उनकी किताब खरीदी जा सकती है, वह पठनीय होगी ही. जो लोग अखिलेश के लेखन यातद्भवसे दोचार हो चुके हैं, वे मेरी बात से सहमत होंगे. इसीलिए जब विज्ञापन ( फेसबुक पर भई, किताबों के विज्ञापन अब वहीं आते हैं ) देखा तो प्री बुकिंग कर दी और कल यह किताब मिली.

किताब कथेतर है. इसमें संस्मरण हैं.  औरों के बारे में उनकी यादें नहीं बल्कि अखिलेश की जीवनकथा है. संस्मरण में जिसकी याद की जाती है उसके साथ-साथ समकालीन लोगों की याद भी होती है, परिवेश भी आता है और उस समय की परिस्थितियां भी और जीवनयात्रा को कहते समय अपना ही नहीं बल्कि औरों का जीवन, उनसे सम्बन्धी, परिवेशभी साथ चलता है वैसा ही इस स्मृतिरेख में है. अखिलेश के जीवनानुभव, उनका संघर्ष, परिस्थितियां इसमें हैं. चूंकि वे एक कथाकार हैं सो कथा का सा रस और प्रवाह इसमें है. इसे एक ऐसा उपन्यास मान कर भी पढ़ सकते हैं जिसके पात्र, स्थान और घटनाएं काल्पनिक नहीं हैं.

इन स्मृतिरेख को 11 शीर्षकों में लिखा गया है. हर अध्याय सपाट ढंग से शुरू नहीं हो जाता बल्कि अनेक प्रतीक, बिम्ब और चिंतन को साथ लेकर चलता है. प्रथम अध्याय, स्मृतियां काल के घमण्ड को तोड़ती हैं में अपने जन्मस्थान, सुल्तानपुर जनपद के गाँव मलिकपुर नोनरा को याद करते हैं और वह भी उसका मानवीकरण करते हुए,

                                                                        और वह देखो, मेरा गाँव, सुल्तानपुर जनपद का गाँव मलिकपुर नोनरा, मुझसे नाराज हो रहा है: तुमने बिसरा ही दिया मुझको। बचपन में छुट्टियों में तुम आते थे। भूल गये उन आम वृक्षों को; जामुन, बेर, रसभरी, करौन्दे के पेड़ों को। हमारे तालाब और पेड़ों को। तुमने बहुत दिनों तक यहाँ का अन्न खाया है ; यहाँ के कूप का पानी पिया है, खेलेकूदे हो, झूला झूले हो, मेला घूमे हो लेकिन तुम ह्रदयहीन निकले और मुझको मेरे हाल पर छोड़ गये।

कस्बा कादीपुर और शहर सुल्तानपुर में क्या था, क्या छूट गयाइन सबको जीवनी की तरह नहीं बल्कि कहानी  की तरह लिखा है.

जालन्धर से दिल्ली वाया इलाहाबाद वाले अध्याय में वे कह तो अपनी कथा रहे हैं किंतु उनकी कथा के समानान्त, बल्कि कुछ अधिक ही, चलती रहती है रवींद्र कालिया और ममता कालिया ( किताब का समर्पण ममता कालिया जी को है ) की कथा चलती रहती है. रवींद्र कालिया जी के उपन्यासख़ुदा सही सलामत हैकीबेलन के आकार वाली गलीकी याद करते हुए बताते हैं कि रानी मण्डी की वह गली ही जैसे उपन्यास की गली में साकार हो गयी थी. पढ़ते हुए मालूम होता है कि हम मात्र जीवनी नहीं बल्कि वास्तव मेंस्मृतिरेखपढ़ रहे हैंयह इस किताब की विशेषता है जो इसे जीवनी/ आत्मकथा से अलग करती है.

ऐसे ही सूखे ताल मोरनी पिंहके अध्याय में कह तो अपनी कथा रहे हैं किंतु उनकी कथा से अधिक वह सुल्तानपुर जनपद के कवि मानबहादुर सिंह की स्मृति है जिनका कविता संग्रह बीड़ी बुझने के करीब दिल्ली के एक प्रकाशन ने छापा था,  वे शिक्षक भी थे. यह पूरा अध्याय उन्हीं मानबहादुर सिंह को समर्पित है. उनकी स्मृति के साथ गाँव के लोग कितने आत्मीय होते हैं कि ऐसे विरोधियों से भी, जिनसे मुकदमा चल रहा हो, आत्मीयता निभाते हैं. देखें एक प्रसङ्ग

                 सुल्तानपुर वह सबसे ज़्यादा मुक़दमों के सिलसिले में आते थे। ये मुक़दमे अमूमन उनके गाँव के पट्टीदारों, पड़ोसियों से खेतीबारी के छोटेमोटे विवादों के कारण थे जो दशकों से चल रहे थे। यदाकदा मानबहादुर जी मुझको दीवानी कचहरी लेकर जाते और अपने विरोधी से हँसहँस कर बातें करने लगते, वह भी बराबर का साथ देता। मानबहादुर जी उससे प्रश्न करते – ‘का हो केस की अगली तारीख क्या पड़ी ?’ विरोधी उत्तर देता – ‘चाचा सोलह तारीख।मानबहादुर जी कहते – ‘ हम जरा इनके, अखिलेश जी के साथ जा रहे हैं, शाम को बस में पहले पहुँच कर मेरे लिए भी सीट छेकाए रहना।वादी या प्रतिवादी जो भी रहा हो, आश्वस्त करता – ‘चाचा फिकर न करो, तुम बस पहुँचो। हे चाचा लो अमरूद खा लो।…

अब इसमें कथा तो मानबहादुर सिंह की की है किंतु साथ में अखिलेश भी हैं तो अखिलेख की भी कथा है. इसी खण्ड में मानबहादुर सिंह की निर्मम हत्या का दृश्य स्तब्ध कर देने वाला है.

 ऐसे ही अन्य अध्याय हैं जिनमें स्थान, परिवेश या लोग शामिल हैं जिन्हें अखिलेश अपनी नज़र से देख कर हमें दिखा रहे हैं.  ‘अब तक गीत जौन अनगावल’ में DPT उर्फ देवी प्रसाद त्रिपाठी की स्मृति है जिसमें उनका साहित्यिक, राजनैतिक, दोस्तों की मदद करने वाला … कई रूप दिखते हैं तो ‘छठे घर में शनि’ अखिलेश के उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान में नौकरी करने, संस्थान की कार्यप्रणाली, ‘अतएव’ पत्रिका और संस्थान के उपाध्यक्ष, परिपूर्णानन्द जी के साथ स्मृतिरेख खिंचती है. ‘जय भीम – लाल सलाम’ मुद्राराक्षस के साथ तो ‘एक तरफ राग था सामने विराग था’ श्रीलाल शुक्ल के साथ स्मृतियां हैं. हर अध्याय मे अखिलेश हैं तो किंतु उनसे अधिक उनके साथ कोई न कोई है.

एक अलग तरह का ही संस्मरण है ‘अक्स’. डस्ट जैकेट पर अखिलेश का परिचय देते हुए कृतियों में इसे सृजनात्मक गद्य कहा है तो इसी में इस कृति का परिचय इन शब्दों में दिया गया है –

                        … अक्स किसका ? लेखक के समय का ? समाज का ? या उन किरदारों का जिनकी ज़िंदगी की टकसाल में इस किताब के शब्द ढले हैं ? ख़ुद अखिलेश के अपने जीवन का अक्स तो नहीं ? वास्तव में ये सभी यहाँ इस कदर घुले–मिले हैं कि अलगाना असम्भव है। एक को छुओ तो अन्य के अर्थ झरने लगते हैं। दरअसल, ‘अक्स’ में वक़्त की कहानी में लेखक की आत्मकथा शामिल है तो लेखक की रामकहानी में वक़्त।अखिलेश ने सबको अद्भुत ढंग से आख्यान की तरह रचा है। अतः कोई चाहे, ‘अक्स’ को उपन्यास की तरह भी पढ़ सकता है…

किताब की बाइण्डिंग, कवर की डिजाइन और कवर का कागज अच्छी कोटि का है मगर अंदर के कागज से शिकायत है. इस कृति में क्या अधिकांश पेपरबैक किताबों में शिकायत रहती है कि वे कागज अच्छा इस्तेमाल नहीं करते, अख़बारी कागज से बस कुछ ही अच्छा होता है. लिखो तो स्याही फैलती है ( मेरी आदत है कि किताब पर नाम पता लिख देता हूँ ), उंगलियां ज़रा भी गीली हों तो कागज गल जाए / फटने लगे. इसके अलावा कागज सफेद न होकर भूरी आभा लिए है जिससे कम रोशनी में / कम रोशनी वालों को पढ़ने में दिक्कत होती है. ये कूछ कमियां हैं जो विषय सामग्री की नहीं, वस्तु के रूप में किताब की हैं. कुछ रुपये भले बढ़ा दें ( हम किताब का जो दाम देते हैं, कागज की गुणवत्ता के लिए दस – बीस रुपये और दे सकते हैं ) किंतु कागज तो अच्छा लगाएं. यह इसलिए भी कह रहा हूँ कि पोस्ट पढ़ने वालों में शायद कोई लेखक / प्रकाशक हो तो इस ओर ध्यान दे, निवारण करे.  

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पुस्तक – अक्स

लेखक – अखिलेश

विधा – संस्मरण / सृजनात्मक गद्य

प्रकाशक – सेतु प्रकाशन

अन्य – पेपरबैक, पृष्ठ संख्या 311, दाम 399/-

 

 

 

 

 

Friday 19 August 2022

पत्रिका चर्चाः इण्डिया टुडे साहित्य वार्षिकी

 

पत्रिका चर्चाः इण्डिया टुडे साहित्य वार्षिकी

एक समय था पत्रिकाओं का और समय के साथ हम भी पत्रिकाओं के नियमित पाठक थे. पहले धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान आदि का ज़माना था, हर साहित्यप्रेमी के घर में यह पत्रिकाएं अनिवार्य सी थीं. बहुरंगी पत्रिकाएं थीं ये – बहुरंगी कवर, रंगीन छपाई या रंगीन चित्रों के अर्थ में नहीं बल्कि इस अर्थ में कि इनमें सब







की रुचि की सामग्री होती थी. फिर आयीं रविवार, तहलका, गृहशोभा, माया, मनोरमा, सरिता व उस समूह की पत्रिकाएं आती थीं जिन्हें लोग मंगाते थे, न मंगाते थे तो भी पढ़ते तो थे ही. साहित्यिक रुचि वालें के लिए सारिका, हंस, कथादेश, तद्भव, आलोचना … तमाम पत्रिकाएं थीं. राजनीतिक और विविध ज्वलंत सामयिक विषयों पर थी इण्डिया टुडे और आऊटलुक जो अंग्रेजी में थीं.  फिर आया इण्डिया टुडे का हिन्दी संस्करण जिसके लॉंच किये जाने के क्रम में अख़बारों व अन्य माध्यमों  में आक्रामक विज्ञापन किया गया जिसमें यह बात मुख्य रूप से रेखांकित की गयी थी कि हिन्दी इण्डिया टुडे अंग्रेजी संस्करण का अनुवाद नहीं होगा बल्कि एक स्वतंत्र पत्रिका होगी. इस बात को इस तरह भी निभाया गया कि हिन्दी इण्डिया टुडे में हिन्दी साहित्य को भी स्थान दिया गया जिसके अंर्तगत कोई कहानी या आने वाले उपन्यासों के अंश या फिर कोई उपन्यास धारावाही रूप में प्रकाशित होता था. मनोहर श्याम जोशी का ‘हरिया हरक्युलिस की हैरानी’ इण्डिया टुडे में ही धारावाहिक रूप में पढ़ा. इसी क्रम में 1992-93 से ‘साहित्य वार्षिकी’ का प्रकाशन किया. नाम से स्पष्ट है कि यह वार्षिक अंक था जो नियमित अंकों से अलग, साहित्य पर ही केंद्रित था. वर्ष भर की साहित्यिक गतिविधियों का लेखा जोखा होने के साथ साथ कविताएं, कहानियां, आलेख, पुस्तक अंक, साक्षात्कार … इसमें होते थे. हर वार्षिकी किसी थीम पर आधारित होती थी. साहित्य की दृष्टि से ये अंक बहुत महत्वपूर्ण हैं.  ‘साहित्य वार्षिकी’ का प्रकाशन नियमित रूप से हर वर्ष नहीं हुआ, कतिपय कारणों से इसमें अन्तराल रहा. 1992-93 से प्रकाशन प्रारम्भ होने पर अब तक 31 अंक होने चाहिए थे किंतु केवल 11 ‘साहित्य वार्षिकी’ ही प्रकाशित हुई हैं. 1992-93 से 1997 तक नियमित रूप से हर वर्ष प्रकाशित हुई किन्तु उसके बाद दो वर्षों का अन्तराल रहा, वैष 2000 में अगली साहित्य वार्षिकी प्रकाशित हुई, फिर 2002 में और उसके बाद लम्बा अन्तराल देकर 2017-18 में प्रकाशन हुआ. उसके बाद तीन साल, 2019-20तक नियमित रूप से प्रकाशित होने के बाद फिर अंतराल हुआ और अब 2022 का अंक प्रकाशित हुआ है. ये सारी जानकारी ‘साहित्य वार्षिकी 2022’ में दी गयी है और अब तक प्रकाशित अंकों के आवरण भी दिये हैं जिन्हें इस पोस्ट में भी दिया जा रहा है.

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अब बात ‘साहित्य वार्षिकी 2022’ पर

इसके मुखपृष्ठ पर ‘संग्रहणीय अंक’ लिखा है, प्रकाशित सामग्री को देखते हुए उचित ही लिखा है, यह है संग्रहणीय अंक ! इस अंक की सामग्री को 8 खण्डों में बांटा गया है –

पंचायत,

धरोहर,

पुस्तक अंश,

स्मृतिरेख,

रू-ब-रु,

कहानी,

कविता, और

मनन.

 

पंचायत खण्ड में आलोचना पर बात की गयी है. राजेश जोशी, सविता सिंह, संजीव कुमार, सुजाता, मृत्युंजय, प्रियम अंकित, पंकज कुमार बोस और आशीष मिश्र ने आलोचना पर बात रखी है. सुधी पाठक साहित्य के इन नामों से परिचित ही होंगे. राजेश जोशी कहते हैं, ‘आलोचना है, हम ही उसे अनसुना कर रहे.’ सविता सिंह का कहना है, ‘तानाशाह को भी आलोचना का डर लगना चाहिए’ तो ‘आलोचना का स्त्री पक्ष’ जैसी चर्चित और महत्वपूर्ण पुस्तक की लेखिका सुजाता ‘नई दृष्टियां प्रस्तावित करने की चुनौती’ शीर्षक से चर्चा कर रही हैं.

 

धरोहर खण्ड इतिहास के तीन आलेखों की ओर ले जाता है जिसमें हिन्दू महासभा के भाई परमानंद का आलेख ‘ रामराज्य क्या है ?’ जो आज़ादी के पूर्व स्वराज्य की अवधारणा पर हिन्दू महासभा और कांग्रेस के बीच मतभेदों पर है और इसके जवाब में लिखा हुआ पण्डित जवाहरलाल नेहरू का आलेख, ‘भाई परमानंद और स्वराज्य’ है. पण्डित जवाहरलाल नेहरू का हिन्दी में यह पहला लेख है. भाई परमानंद का लेख उस समय की प्रख्यात पत्रिका ‘सरस्वती’ के अगस्त 1935 में प्रकाशित हुआ था और पण्डित जवाहरलाल नेहरू का भी उसी में अक्टूबर 1935 में. गजानन माधव मुक्तिबोध के भाई शरच्चंद्र माधव मुक्तिबोध का संस्मरण, ‘ मेरे बड़े भाई’ है जो 1964 में उनकी मृत्यु के बाद लिखा गया.

पुस्तक अंक खण्ड में गीतांजलि श्री की ‘सह – सा’, सत्य व्यास की ‘मीना मेरे आगे’ ( मीनकुमारी पर ) और गस्साल कनाफानी की ‘गाजा से एक चिट्ठी’ के अंश हैं. गस्साल कनाफानी फलीस्तीनी लेखक हैं जिंनकी छत्तीस वर्ष की आयु में हत्या कर दी गयी गयी थी. 1956 में लिखी इस कहानी में युद्धभूमि बने गाजा में नारकीय जीवन, पलायन और अपराध बोध को रेखांकित किया गया है. मूल कहानी अंग्रेजी में है, हिन्दी अनुवाद श्रीकांत दुबे ने किया है.

 

स्मृतिरेख खण्ड में नामवर सिंह , मन्नू भण्डारी, मंगलेश डबराल, मेल ओमवेट, कमला भसीन, मंजूर एहतेशाम, शम्सुर्रहमान फारुकी, इरफान खान ( अभिनेता ) और सुंदरलाल बहुगुणा पर संस्मरण हैं. संस्मरणकर्ता भी अशोक बाजपेयी, उदयन बाजपेयी, मनोज रूपणा, असद जैदी जैसे लोग हैं. ऐसे व्यक्तित्वों के बारे में ऐसे लोगों के संस्मरण अलग ही महत्व रखते हैं.

 

रू-ब-रू खण्ड में  बातचीत है.  काशीनाथ सिंह, अरुण कमल, गाब्रीएल गार्सीया मारकेज, अभिजात जोशी, डेजी रॉकवेल ( ‘रेत समाधि’ की अनुवादक) एच. के. शर्मा और दामोदर माउजो (कोंकणी कथाकार और 2021 के ज्ञानपीठ पुरुस्कार विजेता) के साथ बातचीत है. मारकेज और उनके गहरे दोस्त मेंदोजा की 40 साल लंबी बातचीत मारकेज की ज़िंदगी पर अंग्रेजी में ‘द फ्रेगरेंस ऑफ ग्वावा’ नामक किताब के दूसरे अध्याय का अनुवाद इसमें है.

 

कहानी खण्ड में विनीत शर्मा, प्रमोद सिंह और नितिन कुशवाहा की कहानी विशेष है, इसकी विशेषता है इसका कॉमिक्स रूप में होना. कहानी तो जो है सो है, कॉमिक्स और वह भी किसी पत्रिका में कॉमिक्स स्ट्रिप नहीं बल्कि पूरी कहानी इसे विशेष बनाती है.

 

कविता खण्ड में विचारोत्तेजक कविताएं हैं और मनन खण्ड में निबंध हैं जिनमें 8 निबंध/ आलेख हैं. भाषा परिदृश्य पर जी. एन. जैदी का आलेख ‘ज़िंदगी और मौत के बीच भाषाएं’  है जो इस व्याकुल कर देने वाले तथ्य की पड़ताल करता है कि यूनेस्को की एक सूची में भारत में सबसे अधिक, 197, भाषाएं लुप्त होने की इस कगार पर हैं. अनिल यादव के ‘काम के लिए कितना सरंजाम’ यात्रा संस्मरण में कामपिपासा बढ़ाने के लिए मिथक बन चुकी कीड़ाजड़ी के कारोबार का जायजा है तो डॉ. ब्रह्म प्रकाश के आलेख, ‘सिर्फ और सिर्फ बदनाम हुआ’ में लोक में प्रचलित ‘लौंडा नाच’ और उसके लौंडा कलाकारों  की सामाजिक स्थिति पर बात है.

 

कुल मिला कर यह अंक पठनीय और संग्रहणीय है. पत्रिका चिकने और रंगीन कागज पर है, प्रसंगानुसार  चित्र और पेण्टिंग्स भी हैं.

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पत्रिका – इण्डिया टुडे साहित्य वार्षिकी 2022

दाम – 200/-

प्राप्ति स्थान – बुक स्टाल पर तो अब उपलब्ध नहीं है. अमेजन और विभिन्न साइट्स पर है. कुछ अन्य विक्रेताओं के पास भी है, मैंने ‘दिनकर पुस्तकालय’ से मंगायी है.

 

 

 

 

Tuesday 16 August 2022

१५ अगस्त १९४७ के 'हिंदुस्तान' में सोहनलाल द्विवेदी की कविता 'असमय संघर्ष'


 

आज़ादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में कल, स्वतंत्रता दिवस, पर दैनिक समाचार पत्रहिंदुस्तानने एक परिशिष्ट भी दिया जिसमें 15 अगस्त, 1947 के अंक  में प्रकाशित सामग्री है. केवल सामग्री नहीं बल्कि अपने अभिलेखागार (Archive) से वे पृष्ठ ही ज्यों के त्यों प्रकाशित किए हैं. कागज का रंग भी पीलापन लिए बादामी सा रखा है ताकि उस समय जैसा लगे ( हो सकता है बिना एडिट किये छापने पर वैसा ही रंग आता हो )

यह उपक्रम बहुत महत्वपूर्ण है, ये पृष्ठ एक दस्तावेज हैं. न केवल उस दिन के समाचार हू ब हू पता चलते हैं बल्कि उस काल खण्ड की भाषाशैली, रिपोर्टिंग, सामग्री आदि की भी जानकारी मिलती है. इसमें समाचार हैं, लेख हैं, भाषण हैं और उस दौर के मूर्धन्य कवियों की कविताएं भी हैं. जिन कवियों को हमने पाठ्यक्रम में पढ़ा या अब सुधी कविताप्रेमी किताबों में पढ़ते हैं, उन्हें अख़बार में देखना अतीत से साक्षात जैसा है. यह परिशिष्ट सहेज कर रखने योग्य है.

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इन्हीं में छपी है श्री सोहनलाल द्विवेदी जी की कविता  

                    असमय संघर्ष

आजादी के उषाकाल की हुई न अब तक अगवानी

यह कैसा संघर्ष  तुम्हारा,  यह कैसी रण की वाणी ?

                                ()

अभीअभी तो अपने घर में, आजादी आने को है

अभी-अभी तो कालरात्रि भी अम्बर से जाने को है

अभी-अभी तो  शासन सत्ता  हाथों में  आना ही है

नई व्यवस्था नया सन्तुलन, नया सृजन लाना ही है

क्यों इतनी  शीघ्रता तुम्हें  कुछ बात नहीं जाती जानी !

यह असमय संघर्ष तुम्हारा, यह असमय रण की वाणी !

                            ()

हुआ कौन अभिनव प्रहार है, जो इतना विक्षोभ हुआ ?

इन मंगल घड़ियों में  अपनों से लड़ने का  लोभ हुआ

अब तक तुम थे मौन, कौन सी पीड़ा अब झनकार उठी ?

आज  मुक्ति के पुण्य पर्व में  रणभेरी  हुंकार उठी !

तुम्हे  नहीं शोभा देती है  यह  असम की कुर्बानी !

यह असमय संघर्ष तुम्हारा, यह असमय रण की वाणी !

                          ()

बुरा न मानों, तो पूछें, तुमने कितना बलिदान किया ?

बुरा न मानों तो पूछें,  कितने  शीशों का दान दिया ?

बुरा न मानों तो पूछें, अब तक क्यों खुला न गर्जन था ?

जब नृशंसता, बर्बरता का  घर में  भीषण तर्जन था !

जब हम रण से हटे, बड़े तुम, लिए धनुर्धर का पानी !

यह असमय संघर्ष तुम्हारा, यह असमय रण की वाणी !

                              ()

ठहरो जरा, बनो मत आतुर, कुछ तो सोचविचार करो !

जनमत जाग्रत करो, जाति में नया रक्त संचार फरो।

रक्त तुम्हारा ही बहता है, हममें, घायल प्राणों में,

अभी पड़ा बंगाल और पंजाब विषबुझे वाणों में।

आजादी के पायल की झनकार न तुमने पहचानी !

यह असमय संघर्ष तुम्हारा, यह असमय रण की वाणी !

                          ****************

इस कविता का संदर्भ क्या हैइस बारे में अख़बार में भी कुछ नहीं दिया और न ही कवि का कोई वक्तव्य है कि आजादी के तुरंत बाद ही कौन सा संघर्ष छिड़ गया था जो अपने ही देशवासियों के विरुद्ध था ! कौन थे येअसमय संघर्षकरने वाले जिन्होंने आजादी की लड़ाई में सम्भवतः भाग नहीं लिया किंतु अब रण छेड़ दिया. सम्भवतः कवि की लताड़ और क्षोभ आज़ादी के साथ ही देश के विभिन्न भागों में छिड़ गये भयंकर दंगों के प्रति है या फिर विभाजन के समय दोनों ओर की जा रही मारकाट के प्रति. कवि ने ऐसे लोगों की  भर्त्सना की है.

                   बहुधा कवि युद्ध के मोर्चे पर प्रत्यक्ष नहीं लड़ता, वह क्रांति में वैसा सक्रिय भाग नहीं लेता जैसा क्रांतिकारी. वह तो साहित्य के माध्यम से अलख जगाता है, प्रेरित करता है, सत्ता व अन्य का विरोध लेखनी के द्वारा करता है और सत्ता से अलग, जनता भी  ग़लत करे तो ऐसे ही धिक्कारता है.

                      उस अवसर पर कवि की ओजपूर्ण वाणी समयानुकूल है. आज भी बहुतेरे साहित्यकार व कलाकार अपना प्रतिरोध दर्ज करा रहे हैं ऐसे में हमारे पूर्वज कवि की यह रचना समीचीन है. आस्वाद करें रचना का और यदि सन्दर्भ ठीकठीक ज्ञात हो तो बताएं.