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Tuesday, 16 August 2022

१५ अगस्त १९४७ के 'हिंदुस्तान' में सोहनलाल द्विवेदी की कविता 'असमय संघर्ष'


 

आज़ादी के अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में कल, स्वतंत्रता दिवस, पर दैनिक समाचार पत्रहिंदुस्तानने एक परिशिष्ट भी दिया जिसमें 15 अगस्त, 1947 के अंक  में प्रकाशित सामग्री है. केवल सामग्री नहीं बल्कि अपने अभिलेखागार (Archive) से वे पृष्ठ ही ज्यों के त्यों प्रकाशित किए हैं. कागज का रंग भी पीलापन लिए बादामी सा रखा है ताकि उस समय जैसा लगे ( हो सकता है बिना एडिट किये छापने पर वैसा ही रंग आता हो )

यह उपक्रम बहुत महत्वपूर्ण है, ये पृष्ठ एक दस्तावेज हैं. न केवल उस दिन के समाचार हू ब हू पता चलते हैं बल्कि उस काल खण्ड की भाषाशैली, रिपोर्टिंग, सामग्री आदि की भी जानकारी मिलती है. इसमें समाचार हैं, लेख हैं, भाषण हैं और उस दौर के मूर्धन्य कवियों की कविताएं भी हैं. जिन कवियों को हमने पाठ्यक्रम में पढ़ा या अब सुधी कविताप्रेमी किताबों में पढ़ते हैं, उन्हें अख़बार में देखना अतीत से साक्षात जैसा है. यह परिशिष्ट सहेज कर रखने योग्य है.

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इन्हीं में छपी है श्री सोहनलाल द्विवेदी जी की कविता  

                    असमय संघर्ष

आजादी के उषाकाल की हुई न अब तक अगवानी

यह कैसा संघर्ष  तुम्हारा,  यह कैसी रण की वाणी ?

                                ()

अभीअभी तो अपने घर में, आजादी आने को है

अभी-अभी तो कालरात्रि भी अम्बर से जाने को है

अभी-अभी तो  शासन सत्ता  हाथों में  आना ही है

नई व्यवस्था नया सन्तुलन, नया सृजन लाना ही है

क्यों इतनी  शीघ्रता तुम्हें  कुछ बात नहीं जाती जानी !

यह असमय संघर्ष तुम्हारा, यह असमय रण की वाणी !

                            ()

हुआ कौन अभिनव प्रहार है, जो इतना विक्षोभ हुआ ?

इन मंगल घड़ियों में  अपनों से लड़ने का  लोभ हुआ

अब तक तुम थे मौन, कौन सी पीड़ा अब झनकार उठी ?

आज  मुक्ति के पुण्य पर्व में  रणभेरी  हुंकार उठी !

तुम्हे  नहीं शोभा देती है  यह  असम की कुर्बानी !

यह असमय संघर्ष तुम्हारा, यह असमय रण की वाणी !

                          ()

बुरा न मानों, तो पूछें, तुमने कितना बलिदान किया ?

बुरा न मानों तो पूछें,  कितने  शीशों का दान दिया ?

बुरा न मानों तो पूछें, अब तक क्यों खुला न गर्जन था ?

जब नृशंसता, बर्बरता का  घर में  भीषण तर्जन था !

जब हम रण से हटे, बड़े तुम, लिए धनुर्धर का पानी !

यह असमय संघर्ष तुम्हारा, यह असमय रण की वाणी !

                              ()

ठहरो जरा, बनो मत आतुर, कुछ तो सोचविचार करो !

जनमत जाग्रत करो, जाति में नया रक्त संचार फरो।

रक्त तुम्हारा ही बहता है, हममें, घायल प्राणों में,

अभी पड़ा बंगाल और पंजाब विषबुझे वाणों में।

आजादी के पायल की झनकार न तुमने पहचानी !

यह असमय संघर्ष तुम्हारा, यह असमय रण की वाणी !

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इस कविता का संदर्भ क्या हैइस बारे में अख़बार में भी कुछ नहीं दिया और न ही कवि का कोई वक्तव्य है कि आजादी के तुरंत बाद ही कौन सा संघर्ष छिड़ गया था जो अपने ही देशवासियों के विरुद्ध था ! कौन थे येअसमय संघर्षकरने वाले जिन्होंने आजादी की लड़ाई में सम्भवतः भाग नहीं लिया किंतु अब रण छेड़ दिया. सम्भवतः कवि की लताड़ और क्षोभ आज़ादी के साथ ही देश के विभिन्न भागों में छिड़ गये भयंकर दंगों के प्रति है या फिर विभाजन के समय दोनों ओर की जा रही मारकाट के प्रति. कवि ने ऐसे लोगों की  भर्त्सना की है.

                   बहुधा कवि युद्ध के मोर्चे पर प्रत्यक्ष नहीं लड़ता, वह क्रांति में वैसा सक्रिय भाग नहीं लेता जैसा क्रांतिकारी. वह तो साहित्य के माध्यम से अलख जगाता है, प्रेरित करता है, सत्ता व अन्य का विरोध लेखनी के द्वारा करता है और सत्ता से अलग, जनता भी  ग़लत करे तो ऐसे ही धिक्कारता है.

                      उस अवसर पर कवि की ओजपूर्ण वाणी समयानुकूल है. आज भी बहुतेरे साहित्यकार व कलाकार अपना प्रतिरोध दर्ज करा रहे हैं ऐसे में हमारे पूर्वज कवि की यह रचना समीचीन है. आस्वाद करें रचना का और यदि सन्दर्भ ठीकठीक ज्ञात हो तो बताएं.

    

 


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