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Thursday, 25 August 2022

पुस्तक चर्चा – 'अक्स' , लेखक - अखिलेश

 

पुस्तक चर्चाअक्स


अखिलेश का नाम ऐसा है कि बुक स्टोर पर बिना उलटपलट कर देखे या बिना कोई ( वास्तविक ) समीक्षा पढ़े भी निशङ्क होकर उनकी किताब खरीदी जा सकती है, वह पठनीय होगी ही. जो लोग अखिलेश के लेखन यातद्भवसे दोचार हो चुके हैं, वे मेरी बात से सहमत होंगे. इसीलिए जब विज्ञापन ( फेसबुक पर भई, किताबों के विज्ञापन अब वहीं आते हैं ) देखा तो प्री बुकिंग कर दी और कल यह किताब मिली.

किताब कथेतर है. इसमें संस्मरण हैं.  औरों के बारे में उनकी यादें नहीं बल्कि अखिलेश की जीवनकथा है. संस्मरण में जिसकी याद की जाती है उसके साथ-साथ समकालीन लोगों की याद भी होती है, परिवेश भी आता है और उस समय की परिस्थितियां भी और जीवनयात्रा को कहते समय अपना ही नहीं बल्कि औरों का जीवन, उनसे सम्बन्धी, परिवेशभी साथ चलता है वैसा ही इस स्मृतिरेख में है. अखिलेश के जीवनानुभव, उनका संघर्ष, परिस्थितियां इसमें हैं. चूंकि वे एक कथाकार हैं सो कथा का सा रस और प्रवाह इसमें है. इसे एक ऐसा उपन्यास मान कर भी पढ़ सकते हैं जिसके पात्र, स्थान और घटनाएं काल्पनिक नहीं हैं.

इन स्मृतिरेख को 11 शीर्षकों में लिखा गया है. हर अध्याय सपाट ढंग से शुरू नहीं हो जाता बल्कि अनेक प्रतीक, बिम्ब और चिंतन को साथ लेकर चलता है. प्रथम अध्याय, स्मृतियां काल के घमण्ड को तोड़ती हैं में अपने जन्मस्थान, सुल्तानपुर जनपद के गाँव मलिकपुर नोनरा को याद करते हैं और वह भी उसका मानवीकरण करते हुए,

                                                                        और वह देखो, मेरा गाँव, सुल्तानपुर जनपद का गाँव मलिकपुर नोनरा, मुझसे नाराज हो रहा है: तुमने बिसरा ही दिया मुझको। बचपन में छुट्टियों में तुम आते थे। भूल गये उन आम वृक्षों को; जामुन, बेर, रसभरी, करौन्दे के पेड़ों को। हमारे तालाब और पेड़ों को। तुमने बहुत दिनों तक यहाँ का अन्न खाया है ; यहाँ के कूप का पानी पिया है, खेलेकूदे हो, झूला झूले हो, मेला घूमे हो लेकिन तुम ह्रदयहीन निकले और मुझको मेरे हाल पर छोड़ गये।

कस्बा कादीपुर और शहर सुल्तानपुर में क्या था, क्या छूट गयाइन सबको जीवनी की तरह नहीं बल्कि कहानी  की तरह लिखा है.

जालन्धर से दिल्ली वाया इलाहाबाद वाले अध्याय में वे कह तो अपनी कथा रहे हैं किंतु उनकी कथा के समानान्त, बल्कि कुछ अधिक ही, चलती रहती है रवींद्र कालिया और ममता कालिया ( किताब का समर्पण ममता कालिया जी को है ) की कथा चलती रहती है. रवींद्र कालिया जी के उपन्यासख़ुदा सही सलामत हैकीबेलन के आकार वाली गलीकी याद करते हुए बताते हैं कि रानी मण्डी की वह गली ही जैसे उपन्यास की गली में साकार हो गयी थी. पढ़ते हुए मालूम होता है कि हम मात्र जीवनी नहीं बल्कि वास्तव मेंस्मृतिरेखपढ़ रहे हैंयह इस किताब की विशेषता है जो इसे जीवनी/ आत्मकथा से अलग करती है.

ऐसे ही सूखे ताल मोरनी पिंहके अध्याय में कह तो अपनी कथा रहे हैं किंतु उनकी कथा से अधिक वह सुल्तानपुर जनपद के कवि मानबहादुर सिंह की स्मृति है जिनका कविता संग्रह बीड़ी बुझने के करीब दिल्ली के एक प्रकाशन ने छापा था,  वे शिक्षक भी थे. यह पूरा अध्याय उन्हीं मानबहादुर सिंह को समर्पित है. उनकी स्मृति के साथ गाँव के लोग कितने आत्मीय होते हैं कि ऐसे विरोधियों से भी, जिनसे मुकदमा चल रहा हो, आत्मीयता निभाते हैं. देखें एक प्रसङ्ग

                 सुल्तानपुर वह सबसे ज़्यादा मुक़दमों के सिलसिले में आते थे। ये मुक़दमे अमूमन उनके गाँव के पट्टीदारों, पड़ोसियों से खेतीबारी के छोटेमोटे विवादों के कारण थे जो दशकों से चल रहे थे। यदाकदा मानबहादुर जी मुझको दीवानी कचहरी लेकर जाते और अपने विरोधी से हँसहँस कर बातें करने लगते, वह भी बराबर का साथ देता। मानबहादुर जी उससे प्रश्न करते – ‘का हो केस की अगली तारीख क्या पड़ी ?’ विरोधी उत्तर देता – ‘चाचा सोलह तारीख।मानबहादुर जी कहते – ‘ हम जरा इनके, अखिलेश जी के साथ जा रहे हैं, शाम को बस में पहले पहुँच कर मेरे लिए भी सीट छेकाए रहना।वादी या प्रतिवादी जो भी रहा हो, आश्वस्त करता – ‘चाचा फिकर न करो, तुम बस पहुँचो। हे चाचा लो अमरूद खा लो।…

अब इसमें कथा तो मानबहादुर सिंह की की है किंतु साथ में अखिलेश भी हैं तो अखिलेख की भी कथा है. इसी खण्ड में मानबहादुर सिंह की निर्मम हत्या का दृश्य स्तब्ध कर देने वाला है.

 ऐसे ही अन्य अध्याय हैं जिनमें स्थान, परिवेश या लोग शामिल हैं जिन्हें अखिलेश अपनी नज़र से देख कर हमें दिखा रहे हैं.  ‘अब तक गीत जौन अनगावल’ में DPT उर्फ देवी प्रसाद त्रिपाठी की स्मृति है जिसमें उनका साहित्यिक, राजनैतिक, दोस्तों की मदद करने वाला … कई रूप दिखते हैं तो ‘छठे घर में शनि’ अखिलेश के उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान में नौकरी करने, संस्थान की कार्यप्रणाली, ‘अतएव’ पत्रिका और संस्थान के उपाध्यक्ष, परिपूर्णानन्द जी के साथ स्मृतिरेख खिंचती है. ‘जय भीम – लाल सलाम’ मुद्राराक्षस के साथ तो ‘एक तरफ राग था सामने विराग था’ श्रीलाल शुक्ल के साथ स्मृतियां हैं. हर अध्याय मे अखिलेश हैं तो किंतु उनसे अधिक उनके साथ कोई न कोई है.

एक अलग तरह का ही संस्मरण है ‘अक्स’. डस्ट जैकेट पर अखिलेश का परिचय देते हुए कृतियों में इसे सृजनात्मक गद्य कहा है तो इसी में इस कृति का परिचय इन शब्दों में दिया गया है –

                        … अक्स किसका ? लेखक के समय का ? समाज का ? या उन किरदारों का जिनकी ज़िंदगी की टकसाल में इस किताब के शब्द ढले हैं ? ख़ुद अखिलेश के अपने जीवन का अक्स तो नहीं ? वास्तव में ये सभी यहाँ इस कदर घुले–मिले हैं कि अलगाना असम्भव है। एक को छुओ तो अन्य के अर्थ झरने लगते हैं। दरअसल, ‘अक्स’ में वक़्त की कहानी में लेखक की आत्मकथा शामिल है तो लेखक की रामकहानी में वक़्त।अखिलेश ने सबको अद्भुत ढंग से आख्यान की तरह रचा है। अतः कोई चाहे, ‘अक्स’ को उपन्यास की तरह भी पढ़ सकता है…

किताब की बाइण्डिंग, कवर की डिजाइन और कवर का कागज अच्छी कोटि का है मगर अंदर के कागज से शिकायत है. इस कृति में क्या अधिकांश पेपरबैक किताबों में शिकायत रहती है कि वे कागज अच्छा इस्तेमाल नहीं करते, अख़बारी कागज से बस कुछ ही अच्छा होता है. लिखो तो स्याही फैलती है ( मेरी आदत है कि किताब पर नाम पता लिख देता हूँ ), उंगलियां ज़रा भी गीली हों तो कागज गल जाए / फटने लगे. इसके अलावा कागज सफेद न होकर भूरी आभा लिए है जिससे कम रोशनी में / कम रोशनी वालों को पढ़ने में दिक्कत होती है. ये कूछ कमियां हैं जो विषय सामग्री की नहीं, वस्तु के रूप में किताब की हैं. कुछ रुपये भले बढ़ा दें ( हम किताब का जो दाम देते हैं, कागज की गुणवत्ता के लिए दस – बीस रुपये और दे सकते हैं ) किंतु कागज तो अच्छा लगाएं. यह इसलिए भी कह रहा हूँ कि पोस्ट पढ़ने वालों में शायद कोई लेखक / प्रकाशक हो तो इस ओर ध्यान दे, निवारण करे.  

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पुस्तक – अक्स

लेखक – अखिलेश

विधा – संस्मरण / सृजनात्मक गद्य

प्रकाशक – सेतु प्रकाशन

अन्य – पेपरबैक, पृष्ठ संख्या 311, दाम 399/-

 

 

 

 

 

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