शाम का समय था। नित्य की भांति महराज मन्दिर पर आये किन्तु वहाँ कोई न था. कोई न था से मतलब यह नहीं कि निर्जन था। बच्चे खेल रहे थे, बेन्चों पर लोग बैठे थे, महिलाएं भी थीं किन्तु वो लोग न थे जो उनकी कथा में शामिल होते थे। कुछ देर प्रतीक्षा की और किसी को न आता देख कर कुछ देर बैठे। स्वगत ही कुछ श्लोक गुनगुनाये, अस्फुट स्वर में एक भजन गाया, कुछ चौपाईयाँ उच्चारित कीं फिर जाने का उपक्रम किया ही था कि उनके नियमित श्रोताओं के साथ और भी कई लोग आते दिखे। अक्सर तो होता यह था कि महराज आकर बैठते थे, उन्हें बैठा देख कर एक-दो लोग आते थे, चर्चा शुरू होती थी तो और लोग भी जुट जाते थे, कथा-वार्ता का रङ्ग जम जाता था किन्तु आज इतने लोग एक साथ आते देख कर सशङ्कित से हुए कि ये कुछ खखेड़ करने के मूड में हैं या कोई शङ्का है जिसका समाधान चाहते हैं। सोच ही रहे थे कि सब पास आ गये और नमस्कार, प्रणाम का एक शोर सा बरपा हो उठा।
“ प्रणाम महराज ! पाँय लागी ! आय गये महराज ! नमस्कार ! जय-जय राम ! … “
“
क्या बात है भाई ! आज तो जैसे घेराव करने के मूड में हो, इतने जने एक साथ गुट बांध कर आये हो।”
“
अरे नहीं ! ऐसी कोई बात नहीं। आज टहलने निकले तो देखा पार्क में पण्डाल लगा है और कथा हो रही है सो बजाय
टहलने के, सुनने बैठ गये और फिर वहाँ से साथ ही आये कि आप दिख गये। मगर आप तो अब जा रहे हैं, कल बैठते हैं।”
“हरि चर्चा में कल क्यों ! घर कुछ देर से जाऊँगा, आज ही बैठते हैं। हाँ तो प्रवचन था कि कथा-कीर्तन ?”
“संगीतमय कथा चल रही थी… गज-ग्राह की कथा थी जिसमें एक हाथी सरोवर में जल पीने जाता है कि एक मगर उसका पैर पकड़ लेता है और उसे खाने के लिये पानी में खींचने लगता है। अब वह अन्दर खींचे और हाथी पैर को बाहर को। दोनों में भयङ्कर युद्ध चला जो एक हज़ार साल तक चलता रहा। जल में तो मगर और प्रबल पड़ जाता है, हाथी हारने लगा, उसे लगा कि अब मगर उसे खींच ले जायेगा और खा डालेगा। तब उसने आर्त स्वर में भगवान विष्णु को पुकारा। एक कमल तोड़ कर, आकाश की ओर उठा कर उनका आह्वान किया। गज की कातर पुकार सुनकर विष्णु जी गरुण
पर सवार होकर आये और चक्र से मगर का सर काट डाला। इस प्रकार हाथी की रक्षा की। “
“हाँ, यह कथा है ‘गजेन्द्र मोक्ष’! इसमें कोई प्रश्न उठ खड़ा हुआ क्या ?”
“हाँ महराज ! प्रश्न क्या, विष्णु जी का कार्य अनीतिकारी और पक्षपातपूर्ण लगा। भई, मगर तो स्वभावगत आचरण ही कर रहा था। वह जल में रहने वाला मांसाहारी प्राणी है। मनुष्यों की तरह अपनी इच्छा से स्वाद के कारण मांसाहार नही करता बल्कि भगवान ने उसके भोजन की व्यवस्था ही यह की है कि वह अन्य पशुओं व मनुष्यों को खाकर अपनी भूख मिटाये। जब उसे भूख लगती है तो जो भी उसकी जद में आ जाता है, उसे पकड़ कर खा जाता है। वह उभयचर भी है तो किनारे पर सूखे में भी चला जाता है और शिकार पकड़ कर खाता है। सिंह व अन्य मांसाहारी पशु-पक्षी इसी प्रकार अन्य जन्तुओं को खाते हैं, वैसे ही जैसे हाथी वनस्पति खाता है व अन्य शाकाहारी पशु घास, फल व अन्य वनस्पतियां खाते हैं। यह तो भगवान की बनायी व्यवस्था है। पेट भरना सभी प्राणियों का धर्म है। मगर भी इसी धर्म का पालन कर रहा था तो उसे क्यों मारा ? वह कोई पाप तो कर न रहा था, स्वाभाविक आचरण कर रहा था। कहा भी है, ‘जीवो जीवस्य भोजनम्’ ऐसे में और भोजन के समय उस निरपराध की हत्या करने को क्या कहा जाय ?”
“एक बात और है महराज ! कथा में बताया कि एक हज़ार वर्ष तक हाथी और मगर की लड़ाई होती रही। कभी
हाथी भारी पड़ता और मगर को खींच ले जाता तो कभी मगर हाथी को सरोवर में खींच ले जाता। तब तो भगवान ने किसी का वध नहीं किया ! जब हाथी भारी पड़ रहा था और मगर को सरोवर से दूर धरती पर खींच ले गया तो हाथी को नहीं मार डाला कि वह प्रकृति की व्यवस्था में, अपनी भूख मिटाने के मगर के काम में बाधा डाल रहा है। यह क्या कि जब हाथी ने सूंड में कमल उठाकर कातर स्वर में नारायण को पुकारा तो वे दौड़े आये और मगर को मार डाला। ये भी कोई बात हुई, ये तो साधारण मनुष्यों की सी खुशामद पसंदगी हुई कि अपनी लल्लो-चप्पो करने
वाले को बचा लें और जो दूसरा उन्हें न पुकारे, उसे मार डालें। दोनों ही बलशाली थे, मगर कोई अनीति या धर्मविरुद्ध आचरण तो न कर रहा था ?” एक और उत्तेजित आवाज़ आयी।
“
और पण्डित जी ! ऐसे रोज नहीं तो
हफ्ता- दस दिन में यह मगर किसी न किसी को ऐसे ही जल में खींच ले जाता होगा और खाता होगा। जिसे खाया जाता होगा वह बेचारा भी आर्तनाद करता होगा। अन्य सरोवरों, नदियों, सागर में मांसाहारी जन्तु अन्य जन्तुओं को, बड़ी मछलियां छोटी मछलियों को, मानव
मछलियों व अन्य पशु-पक्षियों को, सिंह आदि अन्य पशुओं को खाते होंगे – वे बेचारे भी तो आर्तनाद करते होंगे, बेमौत मरते होंगे, भगवान को पुकारते होंगे – उनको क्यों नहीं मार डाला ? इस मगर पर ही ऐसा क्या क्रोध और इसी हाथी पर ऐसा मोह – यह तो निन्दित कर्म हुआ कि अपने पर संकट देख कर जो अपने पाले में आ जाये उसके लिए निरपराध को मार डालो।” एक और कोई बोले।
“
हाँ ! यह हाथी कोई विभीषण और सुग्रीव जैसा न था जिस पर अत्याचार हो रहा हो और न यह मगर रावण या बालि जैसा। वो तो भगवान नें ही जैसी व्यवस्था कर रखी है, उसी के अनुसार अपनी जीवनरक्षा कर रहा था। यह कथा कुछ समझ न आयी, कौन सा आदर्श उपस्थित करती है।”
एक साथ कई लोग बोलने लगे, चिल्ल-पों सी मच गयी सब ऐसे कौआरोर मचाये थे जैसे मगर का सर पण्डित जी ने काटा हो या उनकी सम्मति से काटा गया हो। लोग उत्तेजित थे किन्तु पण्डित जी शान्त भाव से मन्द-मन्द मुस्की छांट रहे थे। जब बिना ‘शांति-शांति’ की गुहार लगाये सब लोग शांत हो गये तो पण्डित जी बोले,
“
हो गया ! या और भी कुछ शेष है ?”
“
इस कथा में तो इतना ही है। आपने तो मार तमाम अध्ययन कर मारा है और विवेचना भी करते हैं। कहिये, प्रभु श्री नारायण जी ने ऐसा क्यों किया होगा ?”
“
मति अनुसार बताने का प्रयास करता हूँ। पहले यह बताईये कि आप लोग कथा प्रारम्भ होने के बाद पहुँचे थे या प्रारम्भ से सुनी थी ?”
“
हम लोग थोड़ा विलम्ब से कथा में शामिल हुए थे, तब हाथी और मगर की लड़ाई का प्रसङ्ग चल रहा था। “
“
तभी तो ! चलिये प्रारम्भ का बताऊँगा। आशा है, इससे आपकी शङ्का का समाधान हो जायेगा।”
“हाँ, हाँ ! बताईये महराज।”
“
आज नहीं, कल ! आज वैसे ही देर हो गयी। मैं जाने ही वाला था तब आप लोग आये तो भी इतनी देर बातें हुईं। अब चलता हूँ, शाम या कार्यानुसार आठ बजे तक तो घर आ ही जाना चाहिये। कार्य का क्या, वो तो कभी समाप्त होता ही नहीं। जो कार्यकाल तक न हो सका, वह लेट सिटिंग से से तो कतई न होगा। देर तक काम करना दिखावा है, ख़ुद को भरमाना है और अपने अधिकारी को कि काम कर रहे हैं। वह अपने ऊपर वालों को
भरमाता है कि कस कर काम ले रहा है। लेट सिटिंग में सिटिंग ही सिटिंग होती है हाँ दाल में नमक बराबर काम भी हो जाता है। घर-बार को समुचित समय देना ही चाहिए, आख़िर उन्ही के लिए तो काम कर रहे हैं। काम पर न हों, आपकी और मेरी तरह मनोरंजन या अभिरुचि को समय दे रहे हों तो भी घरवालों के समय की कीमत पर नहीं। एक-आध बार या विशेष प्रयोजन/आयोजन की बात अपवाद स्वरूप है किन्तु यदि यह रोज की बात बनने लगे तो अप्रिय / कोपभाजन होने की परवाह न करके विनम्र दृढ़ता से इसे रोकें, साफ मना कर दें। तो बन्धुओं, कल मिलते हैं और समय सीमा के अन्दर।
“
ठीक है महराज ! जो कह रहे हैं, सबके भले का है।”
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कल की बात का असर था और गज-ग्राह कथा में उत्पन्न शङ्का के निवारण की आतुरता कि लगभग सभी लोग महराज के आगमन से पूर्व ही चौतरे पर बैठे थे। समय पर महराज आये और सन्तुष्ट भाव से सबको निहारा। यथायोग्य अभिवादनों का आदान-प्रदान हुआ और कथा प्रारम्भ हुई।
“ हाँ तो मित्रों ! किसी कथा पर तुम सबकी कुछ असहमति और शङ्का है, यह मैंने तभी अनुमान लगा लिया था जब इतने लोग एक साथ आये और साथ में शङ्काधर को देखा तो लगभग पक्का ही हो गया।”
“
आप तो भाँप लेने में पटु हैं और शङ्का निवारण में भी ! और
हाँ, पण्डित जी ! मेरा नाम शङ्काधर नहीं है। “
“
अरे तो मेरा ही नाम कौन सा महराज है और न ही मैं पण्डित हूँ। वो तो कथावाचन
करता हूँ तो लोग महराज या पण्डित जी कहने लगे। वैसे ही तुम
नवयुवक हो, अध्ययनशील हो और पौराणिक/ मिथकीय प्रसङ्गों मे शङ्का उठाते हो तो शङ्काधर कहा। याद है,
लक्ष्मण रेखा वाले प्रसङ्ग में भी शङ्का उठायी थी। वैसे शङ्का
उचित ही उठाते हो, जो लिखा है या जो कहा,
उस पर आँख मूँद कर विश्वास नहीं कर लेते। यह बात मुझे
रुचती है। भई, प्रश्नातीत कुछ भी नहीं। प्रश्न होते
हुए भी यदि विश्वास पर प्रश्न न किया जाय तो वह अंधविश्वास कहाता है।”
“उचित कहा महराज। और आप येन-केन-प्रकारेण शङ्का
समाधान कर ही देते हैं।”
“भई, मैं भी जिज्ञासु और तुम भी, तो प्रभु राह
निकाल ही देते हैं। तो कल उठायी गयी
शङ्काओं का निवारण करते हैं किंतु उससे पहले ‘गजेन्द्र मोक्ष’
की कथा और उसके स्रोत आदि के बारे में सुन लो.
“गज-ग्राह की यह कथा श्रीमद्भागवत के अष्टम स्कन्ध में ‘गजेन्द्र मोक्ष’ नाम से वर्णित है। शुकदेव जी नें ३३ श्लोकों में इस कथा का वर्णन किया। इसमें कुछ तो कथा है, शेष गज द्वारा भगवान विष्णु जी की स्तुति और अन्तिम ३ श्लोकों में गजेन्द्र और ग्राह – दोनों का मोक्ष वर्णित है। कथा संक्षेप में ही सुना रहा हूँ, काहे से कि शङ्का समाधान भी तो करना है। तो सुनो –
अति प्राचीन काल की बात है।
द्रविड़ देश में एक पाण्ड्यवंशी राजा राज्य करते भये,
उनका नाम रहा इंद्रद्युम्न। वैसे तो राजा होने के नाते राज-काज, प्रजापालन भी करते भये किंतु वह उनके लिए गौण
रहा, मुख्य था भगवद्भक्ति। श्रीहरि विष्णु के वे उपासक थे, सो वे भगवान की आराधना में ही अपना अधिक समय व्यतीत करते थे। यद्यपि
उनके राज्य में सर्वत्र सुख-शांति थी। प्रजा प्रत्येक रीति से संतुष्ट थी तथापि
राजा इंद्रद्युम्न अपना समय राजकार्य में कम ही दे पाते थे। वे कहते थे कि भगवान
विष्णु ही मेरे राज्य की व्यवस्था करते है। अतः वे अपने इष्ट परम प्रभु की उपासना
में ही दत्तचित्त रहते थे। अब
अधिक क्या कहूँ, वे राज्य से विमुख होकर विरागी से हो गये थे, सुंदर केश बढ़ कर जटा
जूट से हो गये, महल त्याग कर मलय पर्वत पर तपस्वियों की तरह रहने लगे। उन्हें राज्य, कोष, प्रजा तथा पत्नी आदि किसी प्राणी या पदार्थ की स्मृति ही
नहीं होती थी।
एक
दिन महर्षि अगस्त्य अपने समस्त
शिष्यों के साथ वहां पहुँच गए। अब
राजा तो ध्यानमग्न ! उन्हें उनके आने का भान ही न हुआ सो उठ कर स्वागत भी न किया, अर्ध्य,
पाद्य आदि की कौन कहे। जैसा कि मुनियों का स्वभाव वर्णित है, वे अपनी उपेक्षा से कुपित
हो गये, शिष्य मण्डली के समक्ष उपेक्षा हुई थी सो क्रोध चरम पर पहुँच गया और राजा को
शाप दिया, “इस राजा ने गुरुजनो से शिक्षा
नहीं ग्रहण की है और अभिमानवश परोपकार से निवृत होकर मनमानी कर रहा है। ऋषियों का
अपमान करने वाला यह राजा हाथी के समान जड़बुद्धि है इसलिए इसे घोर अज्ञानमयी हाथी
की योनि प्राप्त हो।”
कालांतर में राजा हाथी भये और
चूंकि राजा थे सो साधारण हाथी नहीं अपितु विशाल वन संपदा से युक्त वन में गजेन्द्र भये। क्षीराब्धि में दस सहस्त्र योजन
लम्बा, चौड़ा और ऊंचा त्रिकुट नामक पर्वत था। वह पर्वत अत्यंत सुन्दर एवं श्रेष्ठ था।
उस पर्वतराज त्रिकुट की तराई में ऋतुमान नामक भगवान वरुण का क्रीड़ा-कानन था। उसके
चारों ओर दिव्य वृक्ष सुशोभित थे। वे वृक्ष सदा पुष्पों और फूलों से लदे रहते थे।
उसी क्रीड़ा-कानन ऋतुमान के समीप पर्वतश्रेष्ठ त्रिकुट के गहन वन में हथनियों के
साथ अत्यंत शक्तिशाली और अमित पराक्रमी गजेन्द्र रहता था। एक बार प्यास से व्याकुल होकर सरोवर का संधान करते हुए हथिनियों
व अन्य दल के साथ एक विशाल सरोवर के पास पहुँचे, जी भर जल पिया, फिर हथिनियों व दल
के साथ जलक्रीड़ा करने लगे। उसी सरोवर में एक विशाल ग्राह (मगरमच्छ
) भी रहता था। जैसे गजेन्द्र साधारण यूथपति हाथी न थे वैसे ही वह ग्राह भी साधारण ग्राह न
था, वह एक गन्धर्वश्रेष्ठ हूहू थे जो महर्षि
देवल के शाप से ग्राह हो गए थे। वे भी अत्यंत पराक्रमी थे। अब ग्राह ने गजेन्द्र
का पैर पकड़ लिया और उन्हें जल में
खींचने लगा। गजेन्द्र भी अपने को छुड़ाने और उन्हें किनारे, भूमि पर खींचने लगा। हे
मित्रों ! जलचर जल में और भूमिचर भूमि पर प्रबल होता है, उनकी शक्ति और कौशल अपने क्षेत्र
में और प्रभावी हो जाता है अतः वे दोनों एक दूसरे को अपने-अपने क्षेत्र में खींच ले
जाने का प्रयास करने लगे। गजेन्द्र
स्वयं को बाहर खींचता और ग्राह गजेन्द्र को भीतर खींचता। सरोवर का निर्मल जल गंदला
हो गया था। कमल-दल क्षत-विक्षत हो गए। जल-जंतु व्याकुल हो उठे। गजेन्द्र और ग्राह
का संघर्ष एक सहस्त्र वर्ष तक चलता रहा। दोनों जीवित रहे। अंततः गजेन्द्र का शरीर
शिथिल हो गया। उसके शरीर में शक्ति और मन में उत्साह नहीं रहा। परन्तु जलचर होने
के कारण ग्राह की शक्ति में कोई कमी नहीं आई। उसकी शक्ति बढ़ गई। वह नवीन उत्साह
से अधिक शक्ति लगाकर गजेन्द्र को खींचने लगा। असमर्थ गजेन्द्र के प्राण संकट में
पड़ गए। उसकी शक्ति और पराक्रम का अहंकार चूर-चूर हो गया। वह पूर्णतया निराश हो
गया तो उसने आर्त होकर भगवान विष्णु को
पुकारा। पूर्वजन्म की स्मृति हो आयी, तब के सीखे हुए स्त्रोत स्मरण हो आये, वह स्तुति
करने लगा। वह स्तुति पूरी सुनाऊँ क्या !”
“ नहीं, नहीं ! इतना पर्याप्त है कि स्तुति करने लगा। वैसे भी बिना स्तुति किए भगवान आते कहाँ ?”
“भगवान स्तुति करने से ही आते अथवा वैसे ही – यह पृथक विवेचना का विषय है। इस पर विमर्श करना हो तो एक सत्र इसी पर रख लें और जिनको वह स्तुति, बल्कि पूरा ही ‘गजेंद्र मोक्ष’ संस्कृत में और हिन्दी में अर्थ सहित पढ़ना हो – वे मुझसे डिजिटल रूप में मेल अथवा व्हाट्स ऐप पर ले लें. जिन्हें डिजिटल माध्यम में रुचि न हो तो गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित ‘गजेन्द्र मोक्ष’ खरीद लें। गीताप्रेस गोरखपुर के स्टोर भीलगभग हर शहर में हैं, गांधी आश्रम में भी गीताप्रेस गोरखपुर की किताबें मिलती हैं, लखनऊ में ‘गीता वस्त्रालय’, अमीनाबाद और कपूरथला में भी इस प्रकाशन की किताबें मिलती हैं और प्रकाशन से डाक द्वारा भी मंगायी जा सकती हैं। तो सुनो आगे की कथा”
गजेन्द्र की कातर पुकार सुनते ही भगवान विष्णु गरुड़ पर सवार होकर आ पहुँचे, गरुड़ की पीठ से कूद पड़े दोनों को सरोवर से बाहर खींच लाये व सुदर्शन चक्र से ग्राह का सर काट दिया। सर कटते ही ग्राह मर गया और उसकी पकड़ से गजेन्द्र का पैर छूट गया. ग्राह मरा नहीं बल्कि मुक्त हो गया। ग्राह दिव्य शरीर-धारी हो गया। भगवान विष्णु के मंगलमय वरद हस्त के स्पर्श से पाप मुक्त होकर अभिशप्त हूहू गन्धर्व ने प्रभु की परिक्रमा की और उनके चरण-कमलों में प्रणाम कर अपने लोक चला गया। भगवान विष्णु ने गजेन्द्र का उद्धार कर उसे अपना पार्षद बना लिया। कथा श्रवण फल को बताते हुए भगवान विष्णु ने सबके समक्ष कहा- “प्यारे गजेन्द्र ! जो लोग ब्रह्म मुहूर्त में उठकर तुम्हारी की हुई स्तुति से मेरा स्तवन करेंगे, उन्हें मैं मृत्यु के समय निर्मल बुद्धि का दान करूँगा।”
यह कहकर भगवान विष्णु ने पार्षद रूप में गजेन्द्र को साथ
लिया और गरुडारुढ़ होकर अपने दिव्य धाम को चले गए।“
“यह तो ठीक पर इसमें भी एक तो मजे में हथिनियों के साथ सुख भोग
रहा था, दूसरा भी अपनी योनि के अनुसार जल में सुखपूर्वक योनि के अनुसार जीवन यापन कर
रहा था तो एक को बचाना और दूसरे की गरदन काटना क्यों ? और यह भी कि एक को तो पार्षद
बना कर अपने साथ ले गये और दूसरा पुनः अपने लोक गया, जैसे सस्पेंशन के बाद बहाल हुआ
हो।”
“ यह इसलिए कि राजा इंद्रद्युम्न पूर्वजन्म में भी
भक्त और सात्विक प्रवृत्ति का था तो उसे इस जन्म में भी वैभव और सुख भोग मिला किंतु
गन्धर्वश्रेष्ठ हूहू का आचरण भोगविलास का था, वह अभिमानी था तो उसे जलीय जंतु बनना
पड़ा। यह वैसे ही है जैसे कोई अच्छी पढ़ाई करता है, प्रतियोगी परीक्षा और साक्षात्कार
की अच्छी तैयारी करता है तो अधिकारी पद पाता है, चलताऊ पढ़ाई और तैयारी वाला साधारण
पद पाता है, कुछ मज़दूर तो कुछ अपराधी बन जाते
हैं। परिश्रम, संस्कार आदि के अनुरूप ही पद मिलता है तो इसी कारण राजा इंद्रद्युम्न गजेन्द्र भये और गन्धर्वश्रेष्ठ हूहू ग्राह।
गजेन्द्र को पार्षद पद मिला, कारण कि उसने इच्छा और प्रार्थना ही ऐसी की थी।
उसका मन सदा ही भगवान में रमता था तभी तो ग्राह के जबड़े में पैर फंसा होने के बाद भी
यह प्रार्थना की –
यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा
भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।
किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं
करोतु मेsदभ्रदयो विमोक्षणम् ॥१९॥
(जिन्हे
धर्म, अभिलाषित भोग,
धन तथा मोक्ष की कामना से भजने
वाले लोग अपनी मनचाही गति पा लेते हैं अपितु जो उन्हे अन्य प्रकार के अयाचित भोग
एवं अविनाशी पार्षद शरीर भी देते हैं वे अतिशय दयालु प्रभु मुझे इस विपत्ति से सदा
के लिये उबार लें।)
तो श्रीहरि उसे पार्षद बना कर अपने लोक ले गये, वहीं दूसरी ओर ग्राह पूर्व में
भी भक्ति नहीं, भोगों मे रत था। इस योनि में भी उसने ऐसी कोई कामना न की, अपना लोक
ही उसे अभीष्ट था सो वह वहीं गया। इस प्रसङ्ग में किसी के साथ कोई अन्याय न हुआ अपितु
यह प्रारब्ध था। वनस्पतियां उगती हैं अथवा मानव उन्हें उगाता है. अन्न आदि खाये जाते
हैं तो अन्य वनस्पतियां ऐसे ही अथवा जीवन चक्र के अनुसार काल-कलवित हो जाती हैं। जंगली
फूल उगते, सूखते और झड़ जाते हैं तो सायास उगाये जाने वाले सुगंधित फूल पूजा, शृंगार
या इत्र आदि बनाने के काम आते हैं। आप लोग यहां शास्त्र चर्चा व विवेचन कर रहे हैं
तो कुछ लोग टी.वी. देख रहे होंगे तो कुछ बार या मॉडल शॉप में आनंद ले रहे होंगे। यह
अन्तर और परिणाम तो शिक्षा, संस्कार और रुचि के कारण है, वैसे ही फलाफल है। तो अब समापन किया जाय !”
“ महराज ! प्रश्न तो और हैं जैसे कि ये राक्षस आदि तो जितना
सुनते-पढ़ते हैं, सब तो तपस्वी, मनीषी, साधु, ऋषि-मुनियों के बनाये हुए ही हैं। सारे
ही प्रमुख राक्षस किसी न किसी के शापवश ही बने। बड़े – बड़े ही क्यों रावण, कुंभकरण के
अलावा संजीवनी लेने जाने के समय हनुमान जी को भरमा कर रोकने वाला कालनेमि भी तो ज्ञानी
मुनि था जो किसी अन्य अपने से प्रबल मुनि के शापवश राक्षस बना था और हनुमान जी के द्वारा
वध किये जाने पर मुक्त होकर पुनः मुनि होकर अपने आश्रम गया। उसका भेद बताने वाली मकरी
भी तो शापग्रस्त अप्सरा थी जो वध द्वारा मुक्त होकर अपना रूप पाकर स्वलोक गयी। सारे
उपद्रव, अत्याचार की जड़ तो ये ऋषि-मुनि थे जिन्होंने ज़रा–ज़रा सी बात पर शाप देकर और
ब्रह्मा जी ने वरदान दे देकर उन्हें शक्तियां दीं, उन्होंने मानवों पर अत्याचार किए।
भुगतना आम जनता और विष्णु जी को पड़ता था, बेचारे मनुज अवतार लेकर, वर्षों कष्ट सह कर,
उनसे युद्ध करके उद्धार करते हैं ताकि शाप देने वाले की बात मिथ्या न हो। और कहने को
तो त्यागी, योगी, संयमी, सदाचारी … जाने क्या क्या थे ये ऋषि-मुनि पर
ईगो इतना कि अवहेलना भर से ऐसा भयङ्कर शाप दे देते थे। यह क्या है पण्डित जी !”
“बस-बस ! सारी जिज्ञासा आज ही रखोगे क्या ? न मैं खलिहर न तुम
! देर से घर जाऊँगा तो यहाँ मैं प्रवचन कर रहा हूँ, घर में मुझे सुनना पड़ेगा ! यह कथा
खाली तुम लोग ही नहीं सुन रहे, तमाम फेसबुकिये भी पढ़ रहे होंगे। वैसे ही लंबी पोस्ट
कोई पढ़ता–वढ़ता नहीं, मित्र सूची के बहुतेरे तो मुरव्वत में नीला ठिंगा या दिल या ‘वाव’
टिका देते हैं, ऐसा करवाओगे तो पोस्ट देखेंगे भी नहीं। तो फिर कभी !“
“ ठीक है महराज ! वैसे खलिहर तो हमहू हैं औ तुमहू, नइ तो काहे
इतना बतकुच्चन करते। लेव चुनही खाव औ घर का सिधारो, हमहू चली। जै-जै राम जी की।“
“जै-जै राम जी की सबका !“
जितनी सही शंका लगी, उतने ही तरीके से निवारण भी हो गया। रूचिकर तो है ही हमेशा की तरह
ReplyDeleteधन्यवाद. शङ्का निवारण समुचित हुआ, यह सुनकर बहुत सन्तुष्टि मिली, श्रम सार्थक हुआ.
Deleteपूरी कथा पढ़ डाली, कथा में कथा मिलती गयी और आनन्द लिया। कथा शंका निवारण के लिये है लेकिन स्वयं में बहुत सी शंकाओं को समाहित किये हुए है जिनके निवारण में वही बात है जो मैंने फेसबुक कमेंट में लिखी यानी 'ईश्वर की लीला'.
ReplyDeleteपौराणिक कथाओं में 'लीला' तो प्रमुख है ही. जहाँ कार्य-कारण सम्बन्ध न हो, कुछ अटपटा लगे ... वह लीला ही है. पौराण्क्क कथाओं का रस लेने के दो तरीके मान्य हैं - एक, कहे अनुसार रस लेते जाएं. लीला, प्रभु की इच्छा, प्रारब्ध मानें और दूसरा, उनको कुछ विचलन के साथ आधुनिक सन्दर्भों में ग्राह्य बनाने का प्रयास करें, जैसा कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, नरेन्द्र कोहली से होते हुए अमीश त्रिपाठी,आनन्द नीलकण्ठन तक पहुँचा और अभी ज़ारी है - वैसे है यह भी लीला, साहित्यकार की लीला !
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