पत्रिका चर्चाः इण्डिया टुडे
साहित्य वार्षिकी
एक समय था पत्रिकाओं का और समय के साथ हम भी पत्रिकाओं के नियमित पाठक थे. पहले धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान आदि का ज़माना था, हर साहित्यप्रेमी के घर में यह पत्रिकाएं अनिवार्य सी थीं. बहुरंगी पत्रिकाएं थीं ये – बहुरंगी कवर, रंगीन छपाई या रंगीन चित्रों के अर्थ में नहीं बल्कि इस अर्थ में कि इनमें सब
की रुचि की सामग्री होती थी. फिर आयीं रविवार, तहलका, गृहशोभा, माया, मनोरमा, सरिता व उस समूह की पत्रिकाएं आती थीं जिन्हें लोग मंगाते थे, न मंगाते थे तो भी पढ़ते तो थे ही. साहित्यिक रुचि वालें के लिए सारिका, हंस, कथादेश, तद्भव, आलोचना … तमाम पत्रिकाएं थीं. राजनीतिक और विविध ज्वलंत सामयिक विषयों पर थी इण्डिया टुडे और आऊटलुक जो अंग्रेजी में थीं. फिर आया इण्डिया टुडे का हिन्दी संस्करण जिसके लॉंच किये जाने के क्रम में अख़बारों व अन्य माध्यमों में आक्रामक विज्ञापन किया गया जिसमें यह बात मुख्य रूप से रेखांकित की गयी थी कि हिन्दी इण्डिया टुडे अंग्रेजी संस्करण का अनुवाद नहीं होगा बल्कि एक स्वतंत्र पत्रिका होगी. इस बात को इस तरह भी निभाया गया कि हिन्दी इण्डिया टुडे में हिन्दी साहित्य को भी स्थान दिया गया जिसके अंर्तगत कोई कहानी या आने वाले उपन्यासों के अंश या फिर कोई उपन्यास धारावाही रूप में प्रकाशित होता था. मनोहर श्याम जोशी का ‘हरिया हरक्युलिस की हैरानी’ इण्डिया टुडे में ही धारावाहिक रूप में पढ़ा. इसी क्रम में 1992-93 से ‘साहित्य वार्षिकी’ का प्रकाशन किया. नाम से स्पष्ट है कि यह वार्षिक अंक था जो नियमित अंकों से अलग, साहित्य पर ही केंद्रित था. वर्ष भर की साहित्यिक गतिविधियों का लेखा जोखा होने के साथ साथ कविताएं, कहानियां, आलेख, पुस्तक अंक, साक्षात्कार … इसमें होते थे. हर वार्षिकी किसी थीम पर आधारित होती थी. साहित्य की दृष्टि से ये अंक बहुत महत्वपूर्ण हैं. ‘साहित्य वार्षिकी’ का प्रकाशन नियमित रूप से हर वर्ष नहीं हुआ, कतिपय कारणों से इसमें अन्तराल रहा. 1992-93 से प्रकाशन प्रारम्भ होने पर अब तक 31 अंक होने चाहिए थे किंतु केवल 11 ‘साहित्य वार्षिकी’ ही प्रकाशित हुई हैं. 1992-93 से 1997 तक नियमित रूप से हर वर्ष प्रकाशित हुई किन्तु उसके बाद दो वर्षों का अन्तराल रहा, वैष 2000 में अगली साहित्य वार्षिकी प्रकाशित हुई, फिर 2002 में और उसके बाद लम्बा अन्तराल देकर 2017-18 में प्रकाशन हुआ. उसके बाद तीन साल, 2019-20तक नियमित रूप से प्रकाशित होने के बाद फिर अंतराल हुआ और अब 2022 का अंक प्रकाशित हुआ है. ये सारी जानकारी ‘साहित्य वार्षिकी 2022’ में दी गयी है और अब तक प्रकाशित अंकों के आवरण भी दिये हैं जिन्हें इस पोस्ट में भी दिया जा रहा है.
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अब बात ‘साहित्य वार्षिकी
2022’ पर
इसके मुखपृष्ठ पर ‘संग्रहणीय
अंक’ लिखा है, प्रकाशित सामग्री को देखते हुए उचित ही लिखा है, यह है संग्रहणीय अंक
! इस अंक की सामग्री को 8 खण्डों में बांटा गया है –
पंचायत,
धरोहर,
पुस्तक
अंश,
स्मृतिरेख,
रू-ब-रु,
कहानी,
कविता,
और
मनन.
पंचायत
खण्ड में आलोचना पर बात की गयी है. राजेश जोशी, सविता सिंह, संजीव कुमार, सुजाता, मृत्युंजय,
प्रियम अंकित, पंकज कुमार बोस और आशीष मिश्र ने आलोचना पर बात रखी है. सुधी पाठक साहित्य
के इन नामों से परिचित ही होंगे. राजेश जोशी कहते हैं, ‘आलोचना है, हम ही उसे अनसुना
कर रहे.’ सविता सिंह का कहना है, ‘तानाशाह को भी आलोचना का डर लगना चाहिए’ तो ‘आलोचना
का स्त्री पक्ष’ जैसी चर्चित और महत्वपूर्ण पुस्तक की लेखिका सुजाता ‘नई दृष्टियां
प्रस्तावित करने की चुनौती’ शीर्षक से चर्चा कर रही हैं.
धरोहर
खण्ड इतिहास के तीन आलेखों की ओर ले जाता है जिसमें हिन्दू महासभा के भाई परमानंद का
आलेख ‘ रामराज्य क्या है ?’ जो आज़ादी के पूर्व स्वराज्य की अवधारणा पर हिन्दू महासभा
और कांग्रेस के बीच मतभेदों पर है और इसके जवाब में लिखा हुआ पण्डित जवाहरलाल नेहरू
का आलेख, ‘भाई परमानंद और स्वराज्य’ है. पण्डित जवाहरलाल नेहरू का हिन्दी
में यह पहला लेख है. भाई परमानंद का लेख उस समय की प्रख्यात पत्रिका ‘सरस्वती’ के अगस्त
1935 में प्रकाशित हुआ था और पण्डित जवाहरलाल नेहरू का भी उसी
में अक्टूबर 1935 में. गजानन माधव मुक्तिबोध के भाई शरच्चंद्र माधव मुक्तिबोध का संस्मरण,
‘ मेरे बड़े भाई’ है जो 1964 में उनकी मृत्यु के बाद लिखा गया.
पुस्तक
अंक
खण्ड में गीतांजलि श्री की ‘सह – सा’, सत्य व्यास की ‘मीना मेरे आगे’ ( मीनकुमारी पर
) और गस्साल कनाफानी की ‘गाजा से एक चिट्ठी’ के अंश हैं. गस्साल कनाफानी फलीस्तीनी
लेखक हैं जिंनकी छत्तीस वर्ष की आयु में हत्या कर दी गयी गयी थी. 1956 में लिखी इस
कहानी में युद्धभूमि बने गाजा में नारकीय जीवन, पलायन और अपराध बोध को रेखांकित किया
गया है. मूल कहानी अंग्रेजी में है, हिन्दी अनुवाद श्रीकांत दुबे ने किया है.
स्मृतिरेख
खण्ड में नामवर सिंह , मन्नू भण्डारी, मंगलेश डबराल, मेल ओमवेट, कमला भसीन, मंजूर एहतेशाम,
शम्सुर्रहमान फारुकी, इरफान खान ( अभिनेता ) और सुंदरलाल बहुगुणा पर संस्मरण हैं. संस्मरणकर्ता
भी अशोक बाजपेयी, उदयन बाजपेयी, मनोज रूपणा, असद जैदी जैसे लोग हैं. ऐसे व्यक्तित्वों
के बारे में ऐसे लोगों के संस्मरण अलग ही महत्व रखते हैं.
रू-ब-रू
खण्ड में बातचीत है. काशीनाथ सिंह, अरुण कमल, गाब्रीएल गार्सीया मारकेज,
अभिजात जोशी, डेजी रॉकवेल ( ‘रेत समाधि’ की अनुवादक) एच. के. शर्मा और दामोदर माउजो
(कोंकणी कथाकार और 2021 के ज्ञानपीठ पुरुस्कार विजेता) के साथ बातचीत है. मारकेज और
उनके गहरे दोस्त मेंदोजा की 40 साल लंबी बातचीत मारकेज की ज़िंदगी पर अंग्रेजी में ‘द
फ्रेगरेंस ऑफ ग्वावा’ नामक किताब के दूसरे अध्याय का अनुवाद इसमें है.
कहानी
खण्ड में विनीत शर्मा, प्रमोद सिंह और नितिन कुशवाहा की कहानी विशेष है, इसकी विशेषता
है इसका कॉमिक्स रूप में होना. कहानी तो जो है सो है, कॉमिक्स और वह भी किसी पत्रिका
में कॉमिक्स स्ट्रिप नहीं बल्कि पूरी कहानी इसे विशेष बनाती है.
कविता
खण्ड में विचारोत्तेजक कविताएं हैं और मनन खण्ड में निबंध हैं जिनमें 8 निबंध/
आलेख हैं. भाषा परिदृश्य पर जी. एन. जैदी का आलेख ‘ज़िंदगी और मौत के बीच भाषाएं’ है जो इस व्याकुल कर देने वाले तथ्य की पड़ताल करता
है कि यूनेस्को की एक सूची में भारत में सबसे अधिक, 197, भाषाएं लुप्त होने की इस कगार
पर हैं. अनिल यादव के ‘काम के लिए कितना सरंजाम’ यात्रा संस्मरण में कामपिपासा बढ़ाने
के लिए मिथक बन चुकी कीड़ाजड़ी के कारोबार का जायजा है तो डॉ. ब्रह्म प्रकाश के आलेख,
‘सिर्फ और सिर्फ बदनाम हुआ’ में लोक में प्रचलित ‘लौंडा नाच’ और उसके लौंडा कलाकारों की सामाजिक स्थिति पर बात है.
कुल
मिला कर यह अंक पठनीय और संग्रहणीय है. पत्रिका चिकने और रंगीन कागज पर है, प्रसंगानुसार
चित्र और पेण्टिंग्स भी हैं.
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पत्रिका
– इण्डिया टुडे साहित्य वार्षिकी 2022
दाम
– 200/-
प्राप्ति
स्थान – बुक स्टाल पर तो अब उपलब्ध नहीं है. अमेजन और विभिन्न साइट्स पर है. कुछ अन्य
विक्रेताओं के पास भी है, मैंने ‘दिनकर पुस्तकालय’ से मंगायी है.
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