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Tuesday 4 August 2020

भूत-वूत कुछ नही होता !

भूत-वूत कुछ नही होता !

 इतवार की बात है, एक किताब की सोहबत में था कि घण्टी बजी. घर में कोई था नहीं, कूकी एक कार्यक्रम में गयी थी और श्रीमती जी किटी में तो घर में मेरा राज था. टी. वी. बन्द किया, चाय बनायी और किताब लेकर बैठा. जो घटनाक्रम चल रहा था वह बस आगे क्या होगा के बिन्दु पर था कि उस मायाजाल को भेदती सी घण्टी बजी. खल तो गया मगर गेट पर दुर्गा को देख कर खलन काफूर हो गयी. वो मेरे पुराने और पक्के दोस्त है और बेतकल्लुफ भी. किताब पढते देख कर बोले क्या यार, किताब में घुसे रहते हो ! फिर किताब देखी तो चौंके, किताब थी, "भुतहा हवेली". बोले, "अबे, तुम भूत-वूत तो मानते नही और पढ रहे हो भुतहा हवेली. हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और ! मैने कहा मानता क्यों नहीं, मै तो भूत भी मानता हूं, भविष्य भी और वर्तमान तो हस्तामलकवत है. हां वो वाला भूत नही मानता जो रात में निकलता है, पीपल पर या खण्डहर में या सुनसान जगहों पर रहता है, लोगों को पकडता है या सवार हो जाता है और या तो बिना शक्ल के काले साये सा होता है या फिर कंकाल. फिर बातें होने लगीं. वो भूत होता है की दलीलें देते रहे और मैं भूत का मजाक उडाता रहा. खैर, बातें बहुत हुईं, चा पानी भी हुआ और भूत पुराण का समापन उनके इस कथन से हुआ कि बेट्टा, जब भूत से पाला पडेगा तभी समझोगे ! काफी देर और बातें हुईं और जब वो गये तो शाम होने को थी.


दूसरे दिन सुबह टहलने निकला. रोज की तरह पार्क के पांच चक्कर लगाये और उसके पीछे के हिस्से में गया. वहां माली ने कुछ बगिया सी लगा रखी है और एक टुटहा पुराना मकान है जिसमें वो रहता है. उससे भी बातें होती हैं. रोज तो बाहर ही मिल जाता था मगर आज नही दिखा तो उसे तलाशता हुआ अन्दर चला गया. अन्दर वो नहीं था, आवाज दी तो उसने कहा, नीचे जाईये. तब मुझे पता चला कि इस टुटहे मकान में तहखाना जैसा भी कुछ है. सीढियां उतर कर नीचे पहुंचा तो डर के मारे वहीं जम सा गया. एक भूत बैठा था और वह एक किताब पढ रहा था. भूत कंकाल वाला था. भूत को मानना और उसके होने के तर्क देना और बात है और साक्षात होना और. हल्का अंधेरा या हल्का उजाला था जो माहौल को डरावना बना रहा था. आवाज निकल रही थी, भागते बन रहा था. तब तो जैसे खून जम सा गया जब उसने मेरी तरफ देखा और बोला, "रुक क्यों गये, आईये ना." अब तो मेरा बेहोश होना ही बचा था क्योंकि आवाज उसी माली की थी. खरखराती सी थी मगर पहचानी जा रही थी. वह उठ कर मेरी तरफ बढा तो मैं भागा और जीने पर चढते समय लडखडाकर गिर गया. सर ऊपर वाले जीने से टकराया और बेहोशी सी गयी. अचेत होते होते लगा कि अब गया.

पता नही कब तक बेहोश रहा मगर जब होश में आया तो वही माली सामने था और मैं उसकी खटिया पर. वो बोला, "क्या साहब, नींद नही पूरी हुई थी तो आज टहलने आते. मैं जरा बाहर गया था, आया तो देखा आप सो रहे हैं, मैने भी जगाया नही." अब तो मुझे उससे डर लग रहा था. उसने कहा,"ऐसे क्या देख रहे हैं जैसे मैं कोई भूत होऊं." वह रोज जैसा सामान्य ही लग रहा था. मैनें उससे तहखाने के बारे में पूछा तो वह हंसा, " क्या साहब ! ज्यादा किताबें विताबें मत पढा कीजिये कि ऊल जुलूल ख्याल आने लगें. तहखाना वहखाना कहां इस मकान में." वाकई मकान की तरह फर्श भी टुटहा था और कोई सीढियां नही थीं. अब लग रहा था कि वाकई मैं सो गया और सपना ही देखा, ये जरूर उस किताब का असर था. अब घर को चला तो सर पर कुछ चमक सी और दर्द भी महसूस हुआ. टटोला तो गूमड सा था जो तस्दीक कर रहा था कि सपना नही, वाकई मैने भूत देखा और भागते समय सीढियों पर गिरा तो गूमड निकल आया. अब सच क्या था - वो माली जो मुझसे बतिया रहा था या फिर वो जो मैनें उस तहखाने में देखा जो अब था ही नही. अब मुझे दुर्गा की बात याद रही थी, "बेट्टा, भूत होते हैं, जब सामना होगा तभी मानोगे."


 

 



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