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Tuesday 18 August 2020

लाईब्रेरियन / लाईब्रेरी दिवस और हम !

 

लाईब्रेरियन / लाईब्रेरी दिवस और हम !

12 अगस्त को लाईब्रेरियन दिवस था, कुछ लोगों ने इसे लाईब्रेरी दिवस भी बताया, साथ में युवा दिवस भी था और  तीनों से हमारा ताल्लुक रहा है सो इस बारे में कुछ बातें की जायं. वय के हिसाब से युवा हम थे, किन्तु उस अवस्था की बातें नहीं करते, लाईब्रेरी और लाईब्रेरियन से हमारा सम्बन्ध रहा है सो इसकी कुछ यादें ताज़ा करते हैं और बात लाईब्रेरी की होगी तो पढ़ने और किताबों की तो होगी ही और जब हम बात कर रहे हैं तो अपने शहर, लखनऊ, की ही बात करेंगे.

पहले की, अर्थात हमारी किशोरावस्था / युवा काल की बात करे तो बड़ी और प्रतिष्ठित लाईब्रेरियां तो थी हीं, उन किताबों की लाईब्रेरियां बहुतायत से थीं जिन्हे लुगदी साहित्य कहा जाता है. जासूसी और सामाजिक ( सामाजिक कहने का आशय रोमांटिक या पारिवारिक सम्बन्धों आदि पर उपन्यास से है.  यह अर्थ न लगायें कि बाक़ी किताबें असामाजिक होती थीं. सामाजिक से इतर किताबों से आशय जासूसी उपन्यासों से था ) किताबें दैनिक किराये पर मिलती थीं.

पहले बात बड़े और प्रतिष्ठित पुस्तकालयों की ! हम अमीनाबाद में रहते थे और घर से पैदल दूरी पर, झण्डावाला पार्क के एक तरफ जगत सिनेमा वाली रोड पर “गङ्गा प्रसाद मेमोरियल पुस्तकालय और वाचनालय “ था. हम अपने एक मित्र के साथ लगभग रोज ही शाम को वहां जाते थे. गेट पर सीने तक ऊँचाई वाली डेस्क पर एक रजिस्टर रखा रहता था जिसमें नाम पता, आने का समय आदि  लिख कर अन्दर जाते थे. पुस्तकालय का उपयोग तो नही किया, वाचनालय का ही किया. वहाँ लगभग सभी अख़बार और पत्रिकाएं रखी होती थीं और एक बड़ी ( करीब तीस लोगों के लायक, जैसी मीटिंग हॉल में होती है ) मेज होती थी और कुर्सियां, जिन पर बैठ कर पढ़ते-लिखते थे. ऐसी व्यवस्था लगभग सभी पुस्तकालयों में होती ही है. तो हम अख़बार और पत्रिकाएं पढ़ते थे. कई अख़बार पढ़ कर ही जाना कि एक ही घटना का प्रस्तुतिकरण / अख़बार या सम्पादक का नज़रिया अलग- अलग होता है. ख़बर देने के ढंग से उस अख़बार की विचारधारा पता चलती थी. साथ ही सम्पादकीय ज़रुर पढ़ते थे और सम्पादकीय पृष्ठ के लेख भी. सम्पादकीय पढ़ते थे किन्तु तब भी रुचि कथा साहित्य में ही थी, कथेतर में तो बाद में हुई. कभी-कभी कोर्स की व अन्य किताबें भी वहीं बैठ कर पढ़ते थे. सदस्य बने नही तो निर्गत करा कर घर नही लाते थे. इसके अलावा सूचना विभाग के पुस्तकालय, हिन्दी भवन के पुस्तकालय ( दोनों हज़रतगंज में ) जाना होता था. मोतीमहल पुस्तकालय व नवचेतना पुस्तकालय भी जाते थे किन्तु पाठ्य पुस्तकों के लिये. अमीरुद्दौला लाईब्रेरी भी जाना हुआ किन्तु कम. इनके अलावा हज़रतगंज में ‘ब्रिटिश लाईब्रेरी’ भी थी किन्तु वहाँ बस ऐसे ही, देखने के लिए जाना हुआ – काहे से वहाँ अंग्रेजी की किताबें थीं और आप जानते ही हैं कि हमारी रुचि / क्षमता और प्राथमिकता हिन्दी की किताबों की रही है, अंग्रेजी में हमने इण्टर और उसके बाद कोर्स की किताबें ही पढ़ीं या फिर विवशता में अंग्रेजी के कुछ उपन्यास पढ़े क्योंकि उन्हे पढ़ने की इच्छा थी और हिन्दी अनुवाद या तो हुआ नही या उपलब्ध न था.

ब्रिटिश लाईब्रेरी को थी कहा, ये अब नही है ( दो दशक से ऊपर हुआ बंद हुए ), बाक़ी अब भी हैं.

अब बात करें जासूसी और सामाजिक किताबों की व अन्य  लाईब्रेरियों की.  ये बहुतायत से थीं ( ये भी ‘थीं’, अब दिखती नहीं ) जिन दो के हम नियमित ग्राहक थे वे थीं, एक तो गणेशगंज में आहूजा लाईब्रेरी और दूसरी गुईन रोड ( कल्लन की लाट की ओर जाने वाली गली के नुक्कड़ पर ( उसका नाम याद नही आ रहा ) सदस्यता नियम बहुत सरल – एक किताब लेनी हो तो एक का, दो लेनी हों तो दो का दाम जमा करें.  यह सेक्यूरिटी होती थी कि कोई किताब लेकर वापस भी न करे तो लाईब्रेरी वाले / दुकानदार ( काम वही करते हुए भी वह “लाईब्रेरियन” नही कहाता था ) का नुकसान न हो, सदस्यता छोड़ने पर यह वापस हो जाती थी.. किराया दैनिक था, किताब ले जायें और जितने दिन बाद वापस करें उतने दिन का किराया देकर दूसरी किताबें ले जायें. एक रजिस्टर  में ‘लाईब्रेरियन’ नाम पता, जमा रकम आदि लिखता था. जब सदस्य पुराने और नियमित हो जाते थे तो एक / दो किताबों के दाम जमा होने पर भी कई किताबें ले जाते थे और किराया भी उधार हो जाता था. कई बार तो ऐसा भी हुआ कि फिल्म देखास लगी और पैसे न हुए तो सदस्यता छोड़ कर जमा वापस ली, फिल्म देखी और जब पैसे हुए तो फिर सदस्य बन गये. पुराने और नियमित ‘ग्राहकों’ को बिना सेक्यूरिटी जमा किये भी किताबें मिल जाती थीं. ऐसी लाईब्रेरियों से हमने बहुत जासूसी किताबें पढ़ीं. शायद ही कोई नयी-पुरानी किताब हमसे छूटी हो.

इनके अलावा कुछ और ऐसी लाईब्रेरियों का उल्लेख किये बिना लखनऊ की ऐसी लाईब्रेरियों की बात अधूरी ही रहेगी. एक लाईब्रेरी हज़रतगंज की प्रसिद्ध “लव लेन” ( वो जगह अब भी है किन्तु अब नाम “लव लेन” नही है ) में थी. लव लेन में “ज़ब्बार कॉफी हाउस” बहुत मशहूर था ( था इसलिए कि अब ये भी नही है ) गंजिंग करने वाले अधिकतर लोग वहाँ कॉफी पीते थे. उसी के ऊपर था, “हॉबी कॉर्नर” जिसे दो भाई चलाते थे. वहाँ कॉमिक्स और अंग्रेजी के लोकप्रिय नॉवल ( मिल्स एण्ड बून्स श्रेणी के ) व अन्य किताबें किराये पर मिलती थीं और गंजिंग करने वालों ( ‘गंजहे’ नही कह सकता, यह पदवी ‘शिवपाल गंज’ वालों के लिये एकाधिकृत है ) का अड्डा भी था. कालान्तर में जब लव लेन नही रही तो हॉबी कॉर्नर जनपथ में शिफ्ट हुआ, फिर वह भी ( शायद उनमें से एक भाई के निधन के बाद / कारण ) बन्द हुआ. जो भाई अभी हैं, वे अभी भी ‘लव लेन” ( भूतपूर्व ) के बारामदे में कुछ किताबें लगाकर बैठते हैं. जब मै लाईब्रेरियन रहा (उसकी बात अभी आयेगी) तो उनसे अंग्रेजी की किताबें खरीदीं – अधिकतर ‘मिल्स एण्ड बून्स’ श्रेणी की व कुछ साहित्यिक ( शायद पाइरेटेड प्रतियां  ) खरीदीं. अब पता नही वे किराये पर भी देते हैं या केवल बेचते भी हैं.

हज़रतगंज में ही पुस्तक प्रेमियों की सुपरिचित/ सुप्रष्ठित दुकान है, “युनिवर्सल”. वैसे तो ये किताबें, स्टेशनरी, गिफ्ट आईटम वगैरह बेचते हैं किन्तु ये किराये पर भी किताबें देते थे. भूतल पर सीढ़ियों के दांयी ओर हिन्दी की किताबों का खण्ड है जिसमें मुख्यतः साहित्यिक किताबें होत्ती हैं. उसी खण्ड में BOOKLIB ( Book Librery का संक्षिप्त रूप )  नाम से दो रैक किताबों की थी जो किराये पर उपलब्ध थीं. कुछ सदस्यता शुल्क था जिसे जमा करने पर सदस्य बना जा सकता था और किताबें किराये पर ली जा सकती थीं. “युनिवर्सल” तो अब भी है बल्कि पहले से विस्तृत रूप में है किन्तु BOOKLIB नही है, ये सुविधा / व्यवस्था दशकों पहले भङ्ग हो चुकी है.

एक और लाईब्रेरी का भी उल्लेख करना उचित होगा जो अपने प्रकार की अनूठी ‘थी’. हमारे एक मित्र हैं, प्रमेश अग्रवाल. व्यापारी होने के अलावा ये साहित्यिक, सांस्कृतिक व अन्य गतिविधियों में सक्रिय रहते हैं. कई साल पहले (एक दशक से अधिक ही) इन्होने 300 Stories नाम से एक अभिनव शुरुआत की. इनके पास अंग्रेजी और हिन्दी की उत्कृष्ट पुस्तकों का संग्रह था जिसे उन्होने किराये पर देने की व्यवस्था की. किराये पर किताबें देना कोई अनूठी / अभिनव बात न थी, अनूठापन ये था कि 300 Stories सदस्यों को घर पर किताबें पहुँचाती थी और वापसी भी घर से ही लेती थी. सदस्य को कहीं जाने का कष्ट नही उठाना होता था, घर बैठे ही उसे किताबें मिल जाती थीं और बदल भी जाती थीं. सदस्यता शुल्क और किराया की व्यवस्था थी और यह ऑन लाइन जैसी थी. सदस्य को किताबों की सूची उपलब्ध करायी जाती थी, सदस्य फोन पर ऑर्डर देता था और किताबें उस तक पहुँच जाती थीं. जब वापस करना होता तो वह सूचित करता और अगली खेप की किताबें बता देता. इसी तरह सिलसिला चलता. पता नही क्यों 300 Stories बन्द हो गयी. प्रमेश से भेंट तो कई बार हुई किन्तु इस विषय पर कोई बात न हुई, अब भेंट होगी तो चर्चा करूँगा.

ये पुरानी बातें हैं, अब एक पुस्तकालय निरालानगर में है, “अनुराग पुस्तकालय” उनका संग्रह भी बहुत समृद्ध है और अन्य भी बहुत गतिविधियां होती रहती हैं जो फिलहाल कोरोना के कारण ठप हैं, शहीद स्मारक के सामने गांधी भवन में भी एक पुस्तकालय है. अन्य भी बहुत सी लाईब्रेरियां रही होंगी और अब भी होंगी जिन तक मैं नही पहुँचा या मुझे जानकारी नही. स्कूल / कॉलेज और विभिन्न सरकारी / गैर सरकारी कार्यालयों में भी पुस्तकालय हैं जिन्हे इस चर्चा में शामिल नही कर रहा हूँ. इसके अलावा लखनऊ में अब प्रतियोगी परीक्षाओं व अकादमिक अध्ययन के लिये बहुत सी लाईब्रेरियां खुल गयी हैं – मेरे निवास, जानकीपुरम, और इसके तीन-चार किलोमीटर की परिधि में ही पचीसों हैं – इनका बस नाम लाईब्रेरी है, वस्तुतः ये स्टडी के लिये जगह / माहौल भर उपलब्ध कराती हैं. इनके बारे में फिर कभी बात करूँगा.

हम लाईब्रेरियन भी रहे !

लाईब्रेरी दिवस की बातें तो हो गयीं, अब लाईब्रेरियन की भी बात करें – अपनी ही बात करेंगे क्योंकि हम लाईब्रेरियन भी रहे. हम बैंक की नौकरी में (1983 में) आ गये थे और स्थानीय प्रधान कार्यालय, लखनऊ ( हिन्दी भवन के बगल ) में  तैनात थे. वहाँ करीब आठ सौ लोग सेवारत थे और दो पुस्तकालय थे – एक ‘राजभाषा विभाग’ का और दूसरा ‘स्थानीय क्रियान्वयन समिति’ (यूनियन की समिति) का – दोनों अब भी हैं. राजभाषा विभाग के पुस्तकालय में हिन्दी की साहित्यिक पुस्तकें होती है जबकि स्थानीय क्रियान्वयन समिति में सभी तरह की – हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू की व “लुगदी साहित्य” से लेकर साहित्यिक तक. इसमें पुस्तकालय सचिव यूनियन द्वारा मनोनीत किया जाता है. हम करीब पाँच साल तक लाईब्रेरियन (पुस्तकालय सचिव) रहे. लाईब्रेरी जब हमने संभाली तब किताबों की संख्या, स्तर और रख रखाव बस ऐसे ही / चलताऊ सा ही रहा. चूँकि हम साहित्यिक अभिरुचि के रहे और किताबों के रख रखाव में भी रुचि है सो हमने इसे व्यवस्थित किया. किताबें मिली जुली रखी थीं – साहित्यिक, जासूसी, सामाजिक सब मिली जुली और अंग्रेजी व उर्दू की अलग आल्मारी में. हमने उन्हे अलग – अलग रखा - साहित्यिक अलग, जासूसी अलग और सामाजिक अलग, अंग्रेजी और उर्दू तो पहले ही अलग थीं. किताबें एक रजिस्टर में चढ़ी होती थीं और निर्गमन-वापसी भी रजिस्टर में नोट होती थी. हमने पुस्तकालय मानकों के अनुसार ‘बुक कार्ड’ व ‘सदस्य कार्ड’  का चलन प्रारम्भ किया. हर किताब का ब्योरा बुक कार्ड में नोट होता था और हर किताब का कार्ड था. उसमें निर्गम/ वापसीका ब्योरा ( जिसे निर्गत किया, उसका सदस्यता क्रमाङ्क, निर्गमन तिथि और वापसी तिथि ) जब किताब पुस्तकालय में होती थी तो बुक कार्ड किताब में बने एक पॉकेट में रखा रहता था, निर्गत होने पर ब्योरा दर्ज करके ड्राअर में रखा होता था. जब किताब वापस होती तो वापसी तिथि दर्ज करके बुक कार्ड फिर किताब के पॉकेट में और किताब आलमारी में. यह व्यवस्था हिन्दी- अंग्रेजी- उर्दू की साहित्यिक किताबों के लिये थी, जासूसी- सामाजिक और पॉपुलर श्रेणी की किताबों के लिये नही. कार्ड सिस्टम से फायदा यह हुआ कि चुटकियों में जाना जा सकता था कि कार्ड पात्रता वाली कितनी किताबें निर्गत हैं, किसे निर्गत हैं और कितने दिन से या किताब आलमारी में है या निर्गत ( जिसका कार्ड ड्राअर में नही, वो निश्चित ही आलमारी में होगी ) यह व्यवस्था तगादा करने में भी सहायक थी. इसके अलावा नियमावली भी बनायी और पोस्टर के रूप मे लिख कर चिपकायी.  

किताबों का स्तर भी सुधारा. सालाना बजट होता था जिसे हमने किताबों के अनुसार आबंटित किया – 70% साहित्यिक किताबों के लिये, 10% जासूसी उपन्यासों के लिये, 10% सामाजिक उपन्यासों के लिये और 10% उर्दू किताबों के लिये. उर्दू पढ़ने वाले बहुत कम थे. साहित्यिक किताबें अपेक्षाकृत मंहगी होती हैं और “लुगदी साहित्य” में साहित्यिक किताबों की एक किताब की अपेक्षा औसतन आठ से दस किताबें आ जाती थीं और उन पर छूट भी अपेक्षाकृत अधिक थी सो बजट का यह विभाजन युक्तिसंगत था.  

किताबों के स्तर की दिशा में उर्दू किताबों के लिए अमीनाबाद की मशहूर दुकान, “दानिश महल” जाकर किताबें खरीदीं. मैं उर्दू लिपि पढ़ना-लिखना नही जानता किन्तु बहुधा किताबों के अन्दर अंग्रेजी में भी किताब के बारे में आवश्यक जानकारी रहती है और अख़बारों व साहित्यिक पत्रिकाओं की समीक्षा / चर्चा आदि से जानकारी तो रहती ही है सो चयन में सुविधा रही. इसके अलावा दुकान के मालिक से भी मदद लेता था. हिन्दी की कुछ किताबें प्रकाशक और थोक विक्रेता (बहुधा ‘भारत बुक सेन्टर’ अशोक मार्ग) से, पुस्तक मेलों व अन्य प्रदर्शनियों आदि से खरीदारी करता था.

उस समय लगभग सभी सदस्यों के नाम और कार्ड नम्बर मुझे याद थे और यह भी मालूम रहता था कि कौन सी किताब आलमारी में है या निर्गत है, आलमारी में है तो कहां रखी है. बहुत से सुधार किये और लाईब्रेरी का संचालन अच्छे से किया. स्वयं बहुत बताना आत्मश्लाघा होगी किन्तु अब भी (मुझे लाईब्रेरी छोड़े पच्चीस साल से अधिक हो गया ) LHO के साथी लाईब्रेरी के सन्दर्भ में मुझे याद करते हैं. उनमे से बहुत से साथी फेसबुक पर भी हैं, वे इसकी पुष्टि कर सकते हैं.

पोस्ट बहुत बड़ी हो गयी है, उबाने की सीमा तक. मैने तो कह दिया अब आपकी बारी है. अनुरोध है, लाईब्रेरियों के बारे में और लखनऊ की लाईब्रेरियों के बारे में अपनी यादें साझा करें.

( तस्वीर 'अनुराग पुस्तकालय' की है, एक कार्यक्रम में हम भी मौजूद थे )

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