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Tuesday 4 August 2020

मानस की अंर्तकथा

मानस की अंर्तकथा

मड़ैया के बाहर चबूतरे पर अधेड़ वय का एक आदमी खुपरिया पर हाथ धरे अनमना सा बैठा था. लोग -जा रहे थे मगर वो सब देखते हुए भी मानों किसी को देख नही रहा था. पहनावे और धज से वो कोई भगत लग रहा था. एक धोती मात्र पहने, ऊपर के बदन पर जनेऊ बस और माथे पर तिलक. सर घुटा हुआ और सिरोमूल पर गौ खुर के बराबर मोटाई की शिखा. वो ध्यान में नही बल्कि चिंतामग्न था. बीच-बीच में कपार से हाथ हटा कर, ‘हो मोरे राम, अरे राम होकह उठता तो कभी किटकिटा उठता. लोग भी देखते तो अनदेखा करते हुए निकल जाते. मड़ैया के बीच में दरवाजा था, दोनो तरफ चबूतरा था जिस पर छप्पर छाया हुआ था. आले में एक दीपक रखा था और दो आसनी चबूतरे पर गोल करके रखी हुई थीं. कुटिया का दरवाजा खुला था और दिख रहा था कि अन्दर कुछ पुस्तकें, कुछ कागज, मसि पात्र और कागजों का पुलिन्दा रखा था और एक ग्रन्थ सा भी बंधा रखा था. कागजों के पास एक थाली में दूसरी थाली से कुछ ढका हुआ रखा था और पास में एक लोटा और एक घड़ा जिस पर मिट्टी का ही ढक्कन था. अन्दर रखे सामान से निश्चित रूप से वह कोई कवि था और कुछ लिखते या पढ़ते में ऊब कर बाहर आकर बैठ गया था. अन्दर अलगनी पर एक दो धोतियां और रामनामी चादर टंगी थी. यह भी आभास होता था कि उस घर में कोई घरनी नही थी क्योंकि तो अलगनी पर कोई जनानी धोती-ओढ़नी वगैरह थी और ही रसोई का कोई चिन्ह. सम्भवतः वह कहीं से मांग-जांच कर खा लेता था या यजमान दे जाते होंगे. इतने कम सामान और घरनी के होने से निश्चिन्त जीवन में भी जाने क्या चिंता थी उसे जो मूड़ पर हाथ धरे चबूतरे पर बैठा था और बीच-बीच में  ‘हो मोरे राम, अरे राम होका उच्छवास भर रहा था.  

पाँय लागी महराज ! का भवा ! सब ठीक तो है ना ! कुछ ज्वर कि उदर  शूल कि बाहु पीड़ा वगैरह तो नही ? “

 “अरे कौन है भाई ?”

हम हैं महराज, चरनदास ! आपका ऐसे कपार पे हाथ धरे बैठे देखा तो आशङ्का हुई कि कुछ गड़बड़ है !”

अरे नही भाई ! कुछ नही, ऐसे ही जी उचाट है .”

ऐसा का भवा महराज ! तनि हमे बताईये तो कुछ उपाय किया जाय. मगर ठहरिये, सञ्झा  बेरिया हो रही, अँधेरा हो रहा और दिया-बाती भी नही की. आप बैठें , हाथ-मुह धो के चैतन्य हों और दिया-बाती करें , बैठ कर बात की जाय तो आपका कुछ जी हल्का हो. कोई समस्या हो तो हम हैं ना आप सबके सेवक, चरनदास

चरनदास के साथ इतनी बातचीत से ही तुलसीदास का जी कुछ संभला, वे कुटिया के अन्दर गये, दिया बाती की और एक दिया बाहर चबूतरे के एक आले में रखा और लोटे में पानी लेकर हाथ मुह धोने लगे और चरनदास ने एक आसनी बिछाई और वहीं बैठ गया. अब हाथ-मुँह धोकर धोती के छोर से मुह पोंछते हुए तुलसी भी उसके पास आसनी डाल कर विराजे.

चरनदास बहुत चलता-पुर्जा और धूर्त प्रकार का व्यक्ति है और धूर्त के लक्षणों के अनुरूप ही बहुत मधुरी बानी बोलता है. करता धरता स्थायी रूप से कुछ नही मगर हर काम में उसका दखल है. कौन सा काम ऐसा है जो वह करा नही सकता. हर काम के लिए काम के लोगों से उसके सम्बन्ध हैं और इसी में वह चार पैसे का डौल भिड़ा लेता है. जिसका काम कराये, उससे तो कुछ कुछ लेता ही है, जिसके द्वारा काम कराये, उससे भी कुछ कुछ खींच ही लेता है. खुले तौर पर कहें तो दलाल किस्म का आदमी है. कोई उसके चक्कर में फंसना नही चाहता मगर वहशिकारकी हालत भाँप कर ऐसी सहानुभूति दिखाता है, ऐसा बिछा जाता है कि अगले को लगने लगता है और तो सब उसकी विपदा में साथ नही दे रहे, कट कर निकल जाते है और एक ये है कि हर मदद को तैयार.

इधर ये चरनदास तुलसी को यूँ बैठा देख कर पास आया कि कुछ काम का डौल बंधे तो उधर तुलसी भी चिन्ताग्रस्त किसी सहारे को ही सोच रहे थे. रामचरित मानस वो लिख चुके थे. अवधी में अद्भुत ग्रंथ था. इससे पहले के धर्म ग्रंथ संस्कृत में थे जो पण्डितों की भाषा थी. आम जनता को समझ आती और जिन्हे आती भी, उन्हे धर्मधुजी छूने / बाँचने देते. ऐसे में तुलसी ने लिख तो लिया किन्तु पाण्डुलिपि भर थी उनके पास. काशी के पण्डित उनका बहुत विरोध कर रहे थे कि पूज्य राम कथा को भाखा में लिख दिया, सब लोग पढ़ेंगे तो हमारा क्या होगा. तुलसी इसे छपवाना चाहते थे कि इसकी अधिक से अधिक प्रतियां हों, कम से कम दाम पर या निःशुल्क बाँटी जांय तो जन-जन में राम कथा का प्रसार हो. अनेक प्रयास कर चुके थे किन्तु कोई प्रकाशक तैयार हुआ और ही कोई प्रतिलिपिकार. जिन एक दो प्रकाशकों  ने रुचि भी दिखायी तो पैसा इतना मांगा कि तुलसी ग्रंथ की गठरी उठा कर लौट ही आये. पैसा कहाँ धरा था तुलसी के पास ! “मांग के खाईबो, मसीत में सोईबोवाली वृत्ति थी तुलसी की. ऊपर से स्वाभिमानी इतने कि कहते ही थे काहू की बेटी सो बेटा बियाहिबोसम्पत्ति थी नही और कुछ ऐसा करते थे कि धन आवे. रामभजन ही  उनका जीवन आधार था और राम के बाद जो आराध्य देव थे वे थे हनुमान जी तो वे और तो सब देते थे, धन नही. तुलसी भी तो यही मांगते थे, “बल बुधि विद्या देहु मोहि हरहु कलेस विकारधन की मांग तुलसी ने की और ही हनुमान जी ने इस विषय में कोई विचार किया. राम से भी हर बारदेहु भगति मोहि अनपायनीही मांगा. अब आत्मिक  सुख तो भगति से मिला परन्तु ग्रंथ की अनेक प्रतियां बनवा कर , ज़िल्दबंद कराने को तो भौतिक धन चाहिये, सो तुलसी के पास था नही. एक बार तो यह सोचा कि स्वयं ग्रंथ की प्रतियां बना कर वितरित करें किन्तु इसमें तो बरसों लग जाते. यही विकलता उन्हे घुलाए दे रही थी कि भाखा में रामचरित का गान किया कि जन-जन तक पहूँचे और धन के अभाव में पहूँच ही नही पा रहा. उधेड़बुन में थे कि चरनदास ने बात छेड़ी,

का महराज ! दिया-बाती कर चुके, संध्या वंदन हो गया किन्तु अब भी गुमसुम ! मुझसे तो देखा नही जा रहा. अपना हितू जान कर मुझसे कहें, हो सकता है मै कुछ सहायता कर सकूँ.”

उच्छवास सी भरकर तुलसी बोले, “ क्या कहें चरनदास ! इतने भाव और परिश्रम से रामचरित मानस लिखा किन्तु कोई प्रकाशक तैयार नही. जन-जन में भाखा में राम कथा के प्रसार का मेरा सपना अधूरा ही रह जायेगा क्या ! अब धन तो मेरे पास है नही कि ग्रंथ प्रकाशित करवा सकूँ. “

चरनदास की आँखों में चमक आयी कि प्रकाशन की व्यवस्था करूँ तो तुलसी से भी कुछ खींच लूँ और प्रकाशक से भी. प्रतिलिपिकार तो उसका साला ही है जिसे उसने अपने सम्पर्कों की बदौलत यह काम शुरू कराया था और काम दिलाता भी है सो मुफ्त में या कम से कम दाम पर प्रतिलिपियां भी हो जायेंगी, प्रकाशक से तो बाज़ार दर से कुछ कम पर शुल्क लेगा तो प्रकाशक भी खुश और उसकी भी कुछ बचत इधर से भी. उसने सुन रखा था कि तुलसीदास जी की पहुँच राजदरबार तक है. खानखाना अब्दुर्रहमान रहीम तो इनके परम मित्र हैं और बादशाह अकबर भी कई बार बुलावा भेज चुके हैं. मीराबाई  भी इनको बहुत मानती हैं और वे राजघराने की हैं. वो किसी से कह देंगी तो ग्रंथ चुटकियों में प्रकाशित हो जायेगा तब मेरा क्या  काम ? उसने हिला हिला कर पक्का कर लेने की नियत से पूछा,

महराज ! आपके पास धन नही किन्तु रहीम जी तो अपके मित्र हैं, बादशाह अकबर भी आपको बुलावा भेजते हैं. उनसे इस सम्बन्ध में चर्चा नही की क्या ? वे चाहें तो राजकोष से ही व्यवस्था हो जाय या फिर राजकीय पुस्तकालय से ग्रंथ प्रकाशित जाय.”

नही चरनदास ! यह मेरा स्वभाव नही. उनसे काव्य चर्चा होती है, धर्म और भक्ति पर बात होई है, उस चन्दन में मै स्वार्थ की कीच मिलाना नहीं चाहता. मैं तो रोटी भी किसी से नही मांगता. यजमान दे जाते हैं नही तो तुलसीदल खाकर सो रहता हूँ. मेरा जो कुछ है वह यह राम गुन रचना है, अब उसके लिये किसी से भीख मांग कर अपने को और प्रभु को क्यों छोटा करूँ.”

यह जान कर चरनदास को बहुत सन्तोष हुआ. कहीं तुलसी के मन में उन लोगों से सहायता लेने की बात जाती तो उसका कोई काम ही था. अब सोचने लगा. प्रतिलिपिकार तो तय कर ही चुका था, अब प्रकाशक तय करना शेष था. परिचितों की ओर मन के घोड़े दौड़ाने लगा किरामकृपा प्रकाशनका नाम कौंधा. हाँ, यह ठीक रहेगा. है तो कांईया, पूरा व्यापारी है मगर भगत भी है. प्रतिष्ठान का नाम भीरामकृपा प्रकाशनरखा है. रामचरित मानस के लिये सस्ते में तैयार हो सकता है. अब तुलसी से कुछ कैसे खींचूँ. इनके पास तो फूटी कौड़ी नही दिखती. हाँ कुछ जेवर वगैरह हों तो काम चल जायेगा. चलो टटोलने में क्या जाता है.

महराज ! यह तो राम का काम है और मै जब तक यह करा दूँगा, चैन लूँगा. राम काज कीन्हे बिना मोहि कहाँ विश्राम. एक-दो प्रकाशकों को मै जानता हूँ और प्रतिलिपिकारों को भी, तो काम तो बनता दिखता है. मगर महराज, आप तो ठहरे भगत आदमी और मेरे लिये यह आपका और राम का काम है मगर और लोग तो कुछ नही तो लागत तो लेंगे ही. राम का काम जान कर लागत में से भी कुछ छोड़ दें तो भी वो तो संसारी जीव हैं, उन्हे तो चाहिए ही. कुछ है आपके पास ?”

मेरे पास कहाँ कुछ ! अगर होता तो काहे का झींखना था, अब तक प्रकाशित करा चुका होता.”

महराज ! मैं क्या आपकी साध और हालत जानता नही. कौन सा पूरा पैसा लग रहा है ! लागत से भी कम लगेगा. नगद तो कुछ गहना-गुरिया तो होगा.आप जैसे विरागी उसको रख कर क्या करेंगे. कुटिया भी खुली रहती है, कोई चोर ले गया तो रह जायेंगे छूछे !  अपनी साध पूरी करने में लगाईये ना इस धन को. अब चलता हूँ, प्रकाशक से बात करके कल दोपहर में आता हूँ, तब साथ चलेंगे. समझिये कि रामचरित मानस का प्रकाशन हो गया और यह जन-जन तक पहुँच गया, जैसी आपकी साध है. अच्छा परनाम ! कल आता हूँ.”

चरनदास तो चला गया मगर तुलसी के मन में आस जगा गया. उपाय भी बता गया. गहना- गुरिया ! हाँ धरा तो है कुछ एक सन्दूक में. अब क्या है, कुछ याद नही रहा. रत्ना के लिये गढ़ाया था. अब जब बरसात की उस रात को रत्ना ने तिरस्कार और घृणा से भगा दिया तो बात ऐसी लगी कि सब लौकिक विषय-वासना उसकी झिड़की के साथ ही बह गयी. तब से वह लौटी और ही तुलसी उसे लेने गये. उसका जो सामान था, वैसे ही रखा रहा. अब जब रत्ना ही नही तो गहना रख कर क्या करूँगा ? अच्छा है, राम काज में लग जाये. सोच-विचार करते हुए तुलसी ने कुटिया के कोने में रखा सन्दूक खोला. रत्ना की साड़ियां थीं और उसके नीचे एक पुटकिया में गहने बँचे थे. साड़ी हटा कर पुटकिया निकालते हुए तुलसी विचलित हुए, लगा जैसे रत्ना को ही स्पर्श कर रहे हों और वह कह रही हो, “ कुछ कटुवचनों का इतना बड़ा दण्ड ! पहले तो प्रेम की अति कर दी और फिर उपेक्षा की. शिव ने जैसे सती को त्याग दिया था, वैसे ही तुमने भी त्याग दिया अपनी रत्ना को. मानी इतने कि उस रात के बाद खबर भी ली कि रत्ना जीती भी है कि मर गयी. और अब मुझसे इतनी विरक्ति कि गहने भी हटाये दे रहे हो. अरे ! जब इतना ही मन से उतर गयी थी तो ये साड़ियाँ और गहने काहे रखे रहे, बहा देते इन्हे गङ्गा में. तुलसी के अन्तर में कुछ पिघलने सा लगा. लगा कि रत्ना की स्मृतियों को, इन गहनों को भले ही कोने में उपेक्षित रख छोड़ा था किन्तु इन्हे वे अलग कर पायेंगे. तभी उन्हे रत्ना की बात याद आयी जिसने उनकी जीवनधारा को राम की ओर मोड़ दिया, “ अस्थि चर्ममय देह मम तापर ऐसी प्रीति ... “ इसी याद और बहते आँसुओं के साथ उनकी दुविधा भी बह गयी. जब राम में ही जीवन लीन कर दिया तो इन गहनों से कैसा मोह. रत्ना ने पहले भी उनकी जीवनधारा बदली थी और इस समय भी वह संदेश दे रही थी. “ ... बस ! इतना दुर्बल है राम से नेह का धागा कि धागों से बनी यह साड़ियां छूते ही चटकने लगा. जब मुझे प्रेरणा माना, मेरे उद्बोधन से राम काज में लग गये तो क्यों भावुक होकर दुर्बल हो रहे हो. राम के लिए तो तन- मन और जीवन भी न्योछावर है तो इन गहनों की क्या बिसात. प्रसन्नचित्त से गहने निकालो और अपनी साध पूरी करो जो सारे जगत का कल्याण करेगी. मेरे गहने राम काज में काम आयें, इससे अधिक उनकी क्या उपयोगिता ! तुलसी के मन का सारा दुचित्तापन बह गया और गहनों की पुटकिया सिरहाने रख कर लेट रहे. कल चरनदास आयेगा, प्रकाशक के पास जायेंगे, ग्रंथ छपेगा और राम कथा पण्डितों के प्रपञ्च से मुक्त होकर दिग दिगन्त में व्याप्त होगी. सोचते-सोचते उन्हे नींद गयी.  

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अगले दिन दोपहर से पहले ही चरनदास गया. तुलसी के पास से निकलने के बाद वह घर नही गया था बल्कि रामकृपा प्रकाशन के मालिक, रामदास के घर गया. रात्रि को उसे आया देख कर रामदास की आँखें चमक उठीं कि हो हो कोई मुर्गा फंसा है. रामदास का  बहुत सा काम इसकी बदौलत चलता था. ये कवियों / लेखकों की तलाश में रहता और जो ऐसे होते कि ग्रंथ तो लिख मारा किंतु छप नही पा रहा, तो उन्हे पटा कर यहाँ ले आता.चलते पुर्जे कवियों का तो काम इधर उधर से , राजकीय कर्मचारियों से सांठ गांठ करके हो जाता या जो गांठ के पूरे होते वे किसी भी प्रकाशन से ग्रंथ प्रकाशित करवा लेते किन्तु जो गांठ के पूरे होते और ही राजकर्मचारियों के चहेते और ही किसी धनी मानी के चारणउन्हे ये चरनदास ले आता. वे नगद तो देते किन्तु गहना या फिर खेत वगैरह देकर भी ग्रंथ प्रकाशित करवाने का प्रयास करते, उनका काम यह करता और गहना या खेत वगैरह नगद से अधिक ही होता. दोनों का एक दूसरे को देख कर प्रफुल्लित होना स्वाभाविक ही था.

आओ चरनदास ! किसे ला रहे हो कल और ग्रंथ क्या है ? गद्य है कि काव्य ? “

बंधु ! एक है तुलसीदास, उसने एक महाकाव्य लिख मारा है, ‘रामचरित मानसमगर उसे प्रकाशित नही ्करवा पा रहा. पैसा उसके पास है नही और राजदरबार में पहुँच तो अच्छी है मगर अपनी ही अकड़ में रहता है सो उनका उपकार लेगा नही.”

वो तुलसीदास तो नही जो गङ्गा किनारे कुटिया में रहता है और यजमानों के भरोसे भोजन पानी चल रहा है ?”

हाँ, हाँ ! वही है.”

अरे उसके पास क्या होगा ! पत्नी पहले ही लात मार कर भगा चुकी है, काशी के पण्डितों से निभती नही. वो इससे बहुत रिसाने हैं कि रामायण को भाखा में लिख दिया और उसका मञ्चन भी करता रहता है जिसेरामलीलाकहता है. कई बार रामलीला के दौरान ही उत्पात हुआ और उसे टीम टमरा समेट कर भागना पड़ा. बाबा ! इसका ग्रंथ प्रकाशित करने में कुछ लाभ नही. देने को छदाम नही, गहना-गुरिया भी क्या होगा और काशी के पण्डितों से वैर अलग ! तुम तो कोई दूसरा तलाश करो तो आओ.”

बंधु ! जैसा  सोच रहे हो, वैसा भी कोरा नही है. मैने अभी उसका मन टटोला तो बता गया कि पत्नी का कुछ गहना है उसके पास. मैने उकसाया कि अब इतने दिन पत्नी आयी तो अब क्या आयेगी. गहना रामकथा के प्रकाशन के पुनीत कार्य में लगाओ.”

कितना होगा गहना ?”

चरनदास ने अनुमान लगाया कि गले का, हाथ का तो होगा ही. नाक-कान का , हल्का-फुल्का गले में और मांगटीका तो औरत पहने ही रहती है, शेष भारी हार और कङ्गन आदि घर में रखे रहते हैं सो वे तो होंगे ही. सोच विचार कर बोला,

कहाँ होगा बहुत ! जैसी उसकी हालत है तो चाँदी का कुछ और  एक आध सोने का निकल आये वही बहुत है. खेत वेत तो हैं नही उसके.”

तो क्या फायदा ! कोई दूसरा लाओ.”

अरे भाई ! अब हर बार धंधा ही देखो ! खुद रामदास हो, प्रतिष्ठान का नामरामकृपा प्रकाशनहै औररामचरित मानसके प्रकाशन मे वणिकवृत्ति दिखा रहे हो. सोचो ! भाखा में रामकथा हाथों हाथ ली जायेगी. तुम्हारे प्रकाशन से आया और तुमने-हमने और तुलसीदास ने ढंग से प्रचार कर दिया तो कुछ ही दिन में पाँच हज़ार प्रतियां तो हाथों हाथ बिक जायेंगी. एक माह में ही दूसरा संस्करण निकालने की नौबत जाय तो कहना. प्रकाशन के बाहर कोई रामायण मण्डली बैठा देना जो मानस गान करती रहेगी. उसका खर्चा तो चढ़ावे से ही निकल आयेगा, उसमें तो तुलसी भी बैठ जायेगा. वो धुँवाधार प्रचार होगा कि इसकी कमाई से ही दूसरा प्रकाशन खोल लोगे. मैने तो नाम भी सोच लिया है, ‘मानस प्रकाशनतुलसी ने और भी ग्रंथ लिख रखे हैं. कुछ उसकी वृत्ति बाँध देना तो सारे ग्रंथमानस प्रकाशनसे ही प्रकाशित होंगे. कल लाता हूँ उसे. और हाँ, उसे बहुत मूसने का उपक्रम मत करना, बेचारा वैसे ही दरिद्र है, बस रामकथा के भाखा में प्रसार के लिये पत्नी के गहने उत्सर्ग करने को राजी कर पाया. अब चलता हूँ.”

दूसरे दिन जब वह कुटिया पहुँचा तो तुलसी मानस की एक प्रति, जो उन्होंने स्वयं तैयार की थी,  साफ कपड़े में बांधे तैयार बैठे थे. गहने भी एक पोटली में बांध कर धोती की फेंट में लपेट लिये थे. चरनदास को आता देख कर आतुरता से बोले,

भैया, बड़ी देर कर दी ! बात तो हो गयी है ना प्रकाशक से ? “

हाँ महराज, बड़ा भैया-मुनवा करके, राम काज का निहोरा देकर समझा पाया हूँ. गहने तो धर लिये हैं ना ?”

हाँ, हाँ भैया ! अब चलो.”

तुलसी सर पर ग्रंथ की गठरी उठाये और कमर टटोलते साथ चले. नगर में जब प्रकाशन पर पहुँचे तो चरनदास ने कहा,

महराज, तनि गहने तो दिखाओ क्या हैं. और कोई हल्का गहना मुझे दे दो, मैं ऊपर देख कर आता हूँ  कि कार्यालय में है कि नही. बात से फिर तो नही जायेगा. लालची आदमी है  किन्तु क्या करे, उसे व्यापार चलाना है. पेशगी दे दूँगा तो बंध जायेगा.”

तुलसी ने आड़ में पुटकिया खोली. एक मटरमाला थी, एक हार था और दो कङ्गन. उसने मटरमाला ली और कहा कि वह देख कर और पेशगी देकर आता है, तब तक वे वहीं ठहरें. ऊपर सीढ़ियों में ही मटरमाला मिर्जई की अन्दूरनी जेब में रख ली और ऊपर पहुँचा. रामदास उसी की बाट जोह रहा था.

अकेले रहे हो ! क्या वह नही माना गहने लाने को ?”

उतावले हो बंधु. वो आया है. बड़ी मुश्किल से मना पाया हूँ और तुम्हे आगाह भी कर दे रहा हूँ कि मन में चाहे जो हो, ऊपर से भक्ति ही दिखाना और ऐसा जताना कि राम काज के लिये लागत से कम ले रहे हो. गहने देख कर टूट पड़ना ! मेरा हिस्सा उसके जाते ही दे देना. राजी हो तो कहो उसे ऊपर लाऊँ नही तोभक्त प्रकाशनवाले भी तैयार हैं और बिक्री से उसे आधा फीसदी देंगे भी. तुम एक फीसदी दो तो यहां लाऊँ नही तो जा रहा हूँ उधर.”

अरे कैसी बात करते हो. ये कोई पहला काम तो है नही तुम्हारे साथ. लाओ उसे.”

सीढ़ियां फलांगता हुआ तुलसी के पास पहूँच कर बताया कि बड़ी मुश्किल से मटरमाला पेशगी देकर मना पाया हूँ और बिक्री में आपके हिस्से की भी बात कर ली हैपूरे आधा फीसदी ! अब बयाना वगैरह की बात करना, कहीं बिदक जाय

तुलसी और वो ऊपर पहुँचे. गद्दी पर मानस रखा और आशा भरी दृष्टि से दोनों की ओर देखा कि कोई बात प्रारम्भ करे. बात रामदास ने ही शुरू की,

प्रणाम महराज ! नाम तो बहुत हो रहा है आपका, लीला भी खेलवा रहे हैं तो अब तक ग्रंथ प्रकाशित क्यों नही कराया ?”

क्या बतायें भैया, रामजी की अभी इच्छा रही होगी. अब उनकी प्रेरणा से यह चरनदास भेंटा गया और इसके उपक्रम से आप से भेंट हुई. अब आपकी कृपा हो तो यह ग्रंथ प्रकाशित हो जाय.”

हाँ,  हाँ ! क्यों नही ! दिखाईये तो ग्रंथ.”

तुलसी ने गठरी खोली और ग्रंथ दिखाया. देख कर दोनों की आँखें फैल गयीं, वृहद ग्रंथ था. उसने देखने को मांगा. बीच-बीच से पढ़ा, हाथ में उठा कर वज़न सा किया. तुलसी को धुकधुकी लग गयी कि क्या कहेगा. उसने अन्दर से एक और कर्मचारी को बुलाया. उसने भी उनकी ही तरह परखा. फिर उच्छवास सी भरते हुए बोला,

महराज ! ग्रंथ तो बहुत बड़ा है. रामकथा क्या महाकाव्य है पूरा. सात काण्ड हैं और सबसे छोटे काण्ड, किष्किन्धाकाण्ड में ३० दोहे हैं, अरण्यकाण्ड में ४६ और सुन्दरकाण्ड में ६०, शेष चारों काण्डों में डेढ़-डेढ़ सौ से ऊपर हैं. दोहों के बीच औसतन छह चौपाईयाँ हैं और प्रत्येक काण्ड के मङ्गलाचरण में संस्कृत के श्लोक. ऊपर से अवधी में है. मेरे कर्मचारियों का तो संस्कृत में अभ्यास है, अवधी के दो जानकार भी तो बुलाने ही पड़ेंगे. ग्रंथ भी वृहद है सो सामान्य आवरण से काम चलेगामोटी दफ्ती का सज़िल्द संस्करण तैयार करना होगा. फर्मा बनाना, शुद्धि देखना, प्रतिलिपि बनाने और फिर दफ्तरीगिरी में कुशल लोग लगेंगे. बहुत पैसा लग जायेगा. मैं रामकाज में कुछ लूँगा, कुछ पल्ले से भी लगा दूँगा किन्तु अन्य कर्मचारियों को तो देना होगा. आपकी स्थिति देख कर लगता तो नही कि इतना दे सकेंगे. है कुछ गहना-गुरिया आपके पास ?”

अब भईया ! बड़ी आस लेकर आया हूँ. जैसे भी हो, तुमको ही करना है. रामकाज अरु मोर निहोराकहते हुए तुलसी ने पुटकिया खोली. एक हार और दो कङ्गन देख कर आँखों में आयी चमक को छुपाते हुए उपेक्षा से बोला, “ये क्या महराज ! इतना तो कागज और प्रकाशन की मजूरी में भी कम पड़ेगा. प्रतिलिपिकार को कहाँ से दूँगा. आप ले जाईये ग्रंथ कहीं और.”

अब भईया जो है बस यही है. अब जैसे भी हो राम काज मान कर कर दो.”

तुलसी दैन्य भाव में गये. भक्त में तो यूँ भी दैन्य होता है. चरनदास ने देखा कि अब अभिनय अधिक हो रहा है. कहीं तुलसी निराश होकर चल दे तो मटरमाला लौटानी पड़ जायेगी सो एक आँख से तुलसी को आश्वस्त करता और दूसरी से रामदास को बरजता प्रकट मॅं बोला,

अरे बंधु रामदास ! अब हर सौदे में कमाई नही देखी जाती. रामकाज है और महराज बड़ी आस लेकर आये हैं. अब तुम पीछे हटोगे तो क्या हम कहीं और जायेंगे. तुम तो कह रहे थे कि कुछ अपने पास से लगा कर लागत से कम लोगे. अपनी बात पर रहो. बहुत घाटा होगा तो बिक्री पर तुलसी अपने हिस्से से भरपाई कर देंगे. अब इतने पर मानते हो कि ... ‘

बात पूरी होने पायी कि कहीं और जाने की घुड़की से उसने ग्रंथ उठा कर माथे से लगाया और इस प्रकार प्रकाशन की सहमति दी. गहने तिजोरी में रखे और तुलसी को एक माह बाद ज़िल्दसाजी से पहले पाठ की शुद्धि देखने और संशोधन के लिये आने को कहा. तुलसी ने कृत्कृत्य से होते हुए माथे में हाथ लगा कर प्रणाम किया और दोनों को ढेरों आशीर्वाद दिये और जाने को उद्वत हुए. चरनदास ने कुटिया तक छोड़ आने को कहा किन्तु तुलसी बोले कि अब वो सीधे घाट के मन्दिर जाकर माथा टेकेंगे फिर कुटिया जायेंगे. तुलसी के जाने के बाद दोनों ने एक दूसरे की हथेली पर हथेली मारी और बधाई दी. बात का खरा निकला रामदास, तुरन्त तिजोरी खोली. हार तो कागज, कर्मचारियों के मेहनताने, छपाई और ज़िल्द बंधाई में लग जाने की बात कहते हुए दो कङ्गनों में से एक चरनदास को दिया. चरनदास ने भी उदारता दिखाते हुए टेंट में खोंस लिया, मटरमाला वह पहले ही अन्दर कर चुका था तो उसे संतोष था. एक परिचर को जलपान लाने को कहते हुए रामदास बोला.

इसमें कोई घाटा नही हुआ, चार पैसे बच भी जायेंगे, कोई और मुर्गा है दृष्टि में !”

है बंधु ! अपना तो काम ही यही है. बृज में एक भक्त कवि है, अंधा है वो मगर क्या खूब कृष्ण के पद गाता है ! कृष्ण की बाल लीला का तो ऐसा वर्णन कियाहै जैसे सब आँखों से देख रखा हो. भक्त है सो चतुर नही और निर्धन भी है. अब वर्षा ऋतु बीत जाय तो शरद ऋतु के प्रारम्भ में ही उसके पास जाता हूँ. कुछ कुछ तो होगा उसके पास नही तो और कवि देखूंगा. प्रकाशनोत्सुक कवियों की कमी है क्या ?”

मेरे होते हुए कहीं और क्यों जाओगे, मैं जाने दूँगा भला.”

अब तक जलपान गया, दोनों उसमें लग गये. बाद की कथा तो आप जानते ही हैं. प्रकाशन हुआ और वो धुँआधार लोकप्रियता मिली उसे कि छह माह में ही चौथा संस्करण एक लाख प्रतियों का हुआ


. आज भी वोबेस्टसेलरहै.

रामजी ने सबका भला किया. चरनदास और रामदास तो मालामाल हुए ही तुलसी की भी साध पूरी हुई. इसी पूर्णिमा कोमानस प्रकाशनका उद्घाटन है, तुलसी के करकमलों से गद्दी पूजन होगा, आखिर और ग्रंथ भी तो प्रकाशित होने हैं तुलसी के.

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2 comments:

  1. Replies
    1. बहुत बहुत आभार मित्र जो आपने इस कथा को पढ़ा और रुचिकर पाया. आप अपना नाम भी देते तो मुझे और प्रसन्नता होती.

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