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Monday 3 December 2012

"हाय, हुसैन हम न हुये“



“या हुसैन, या हुसैन ! हाय, हुसैन हम न हुये“
अपने घर से थोड़ी ही दूर टेढ़ी पुलिया चौराहा ( जानकीपुरम् लखनऊ ) से गुज़रते समय जब यह सदा कान मे पड़ी तो निगाह उस तरफ घूमी और निगाह के साथ कदम भी खुद ब खुद रुक गये. मोहर्रम का जलूस निकल रहा था. लोग ठेलों पर ताज़िया रखे, मातम करते हुये कर्बला की ओर ताज़िया दफ़्न करने जा रहे थे. तमाम लोग थे – बच्चे, नौज़वान, बूढ़े, नन्हे बच्चों को गोद मे उठाये औरतें. बड़ी और ऊंची ताज़िया ठेलों पर, कुछ साईकिलों पर तो छोटी ताज़िया हाथों पर लिये लोग थे. जुलूस मे सबसे आगे नौज़वानों का झुंड था जो मातम करते चल रहे थे. चौराहा जैसी खुली जगह पर रुक कर मातम करते. यह चौराहा था सो यहां रुक कर मातम हो रहा था. अब तो मातम अधिकतर छाती व पीठ पर दुहत्थड़ मारते हुए व ट्यूब लाईटों से होता है. मातम मे लोग नंगे बदन छाती व पीठ पर दुहत्थड़ मारते हैं व छाती व पीठ पर ट्यूब लाईट मार कर फोड़ते हैं. डण्डो से पटेबाज़ी ( तलवारबाज़ी की तरह का खेल ) कर रहे थे. मुझे करीब चालीस साल पहले का ज़माना याद आ गया जब मै अमीनाबाद मे रहता थ, हवा इतनी खराब न हुई थी और अमीनाबाद, कैसरबाग और पुराना लखनऊ की तमाम जगहों से अलम, मेंहदी, ताबूत के जुलूस बिना किसी आशंका के निकलते थे. ट्यूब लाईट वगैरह से नही बल्कि जंजीर, छुरियों वगैरह से मातम होता था. बच्चे, नौज़वान ही नही पकी उम्र वाले और बुजुर्ग भी मातम करते थे. दोहत्थड़ों, जंजीर व छुरी आदि से सीना व पीठ खूनमखूम हो जाता था. या हुसैन, या हुसैन की सदा जोश को बढ़ाती थी. ताज़िया दफ़्न करने वाले दिन ( मोहर्रम की दसवीं तारीख़ ) को सजा हुआ “दुलदुल” ( हुसैन का सफेद घोड़ा ) निकलता था. श्रद्धालु औरतें अपने बच्चों को उसके नीचे से निकालती थीं. लखनऊ सोगवार रहता था, नौहाख़्वानी, मर्सियाख़्वानी की मज़लिसें आम थी. अब भी यह सब होता है… मगर पुराना लखनऊ मे और इमामबाड़ों मे. नयी कालोनियों मे यह सब कहां. वो तो जानकीपुरम गावों के बीच व गांव जानकीपुरम के बीच बसा है तो ये दिख गया.

मै तो यादों मे खो गया. चन्द तस्वीरें खींची जिनमे से एक यहां आपके लिये चस्पा कर रहा हूँ.जो साहित्यप्रेमी साथी हैं वे ‘शानी’ की “कालाजल” और ‘राही मासूम रज़ा’ की “आधा गांव” मे मोहर्रम का विशद् वर्णन पढ़ सकते हैं.
(25 नवम्बर'12 को 'फेसबुक' पर लिखा गया.)

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