लोक में राम – उड़िया लोक गीतों में वनवास काल में राम-सीता-लक्ष्मण
राम जन-जन में व्याप्त हैं और जन-जन के हैं. राम कथा तो सब जगह
कमोबेश एक सी ही है किन्तु राम को सबने अपने ढंग से पूजा, वर्णित किया और पाया.
अधिकांश लोगों के मन में राम तुलसी के रामचरित मानस के चित्रण के अनुसार ही
विराजमान हैं. उनका रहन-सहन, आचरण, लीला वैसी ही है जैसा तुलसी ने गायी. तुलसी जन
कवि हैं, मानस को उन्होंने जन भाषा, अवधी, में गाया, लोगों के मन में उनकी छवि वही
है जो तुलसी ने स्थापित की – मर्यादा पुरुषोत्तम की. विष्णु के अवतार,
साक्षात परमब्रह्म, जिन्हें शङ्कर भी पूजते हैं.
राम जी को चौदह वर्ष का वनवास मिला, उनके साथ सीता और लक्ष्मण भी
गये. अब तीनों ही राजवंश के, राजसी सुख-सुविधा के साथ महल में पले
रहे. सुकोमल थे, अभाव, भय और अनिश्चितता कि भोजन क्या होगा, मिलेगा या
नहीं, रहेंगे कहाँ … आदि समस्या क्या, इन प्रश्नों से भी सामना न हुआ वे ही
राम-लक्ष्मण-सीता वन-वन इन सबको झेलते हुए भटके. वनवास का वर्णन तुलसी ने मानस में
किया तो है किन्तु किसी अभाव का नहीं. उन्हें इनका कुछ सामना ही न करना पड़ा.
वाल्मीकि तथा तुलसीदास के राम वन में जाकर भी किसी राजा से कम नहीं रहे. पर्ण कुटी
तैयार करने से लेकर कंद-मूल-फल की व्यवस्था और पहरेदारी लक्ष्मण करते थे. जहाँ भी
कुछ ऐसी बात आयी कि ये भूमि पर सो रहे हैं या कुटी में रह रहे हैं या वन में मिलने
वाला आहार कर रहे हैं तो इस वर्णन के साथ ही तुलसी याद दिला देते थे ये तो लीला कर
रहे हैं. राम के अवतार / परमब्रह्म होने की बात तुलसी न कभी भूले और न ही श्रोताओं
को भूलने दिया. जहाँ किसी कष्ट की बात आयी, दन्न से अगली ही चौपाई/ दोहा आदि में
कि धोखे में न आ जाना कि भगवान को कष्ट हो रहा है, ये तो लीला है.
तुलसी वनवास दिखा कर भी वनवासी का जीवन न दिखा सके किन्तु लोक का तो
मन भी अलग होता है और मान्यता भी. वो तो भगवान को भी अपने जैसा ही मानता है. उसके
भगवान वैसा ही सोचते और करते हैं जैसा वह. उनके लिए वह वैसी ही चिंता करता है जैसे
अपने स्तर के संगाती के प्रति. बरसात आती है तो उसे चिंता होने लगती है
–
“कौन बिरछ तर भीगत हुइहें राम-लखन दुहु भाई … “
सभी भाषाओं के लोक में राम सामान्य व्यक्ति हैं. वे सामान्य
व्यक्तियों की सी ही तकलीफ उठाते हैं और वैसे ही खेती-किसानी भी करते हैं. तुलसी
या वाल्मीकि के राम के वनवास की छोटी-छोटी बातों के लिए ह्रदय प्यासा ही रह जाता
है. हम नहीं जान पाते कि राम-सीता-लक्ष्मण दिन में कितनी बार हँसते थे, रोते थे कि
नहीं, उदास या चिन्तित भी होते थे, क्या खीझते और रूठते भी थे. कितना और कैसा
मनोविनोद होता था, कंद-मूल-फल ही खाते थे कि रोटी भी खाते थे ? रोटी-दाल खाते थे
तो आटा कहाँ से मिलता था और दाल-सब्जी मर्यादा पुरुषोत्तम की. कहाँ से ? दूध –दही
का सेवन करते थे कि नहीं, गाय आदि पाली थी क्या ? दिन-प्रतिदिन के ये क्रिया-कलाप
तुलसी या वाल्मीकि या राम को हर समय भगवान और मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप की याद
दिलाने वाले/ लीला बताने वाले ग्रंथ इस विषय में मौन हैं. ये तो लोक ही बताता है.
लोक के अलावा अन्य ग्रन्थों में, भले ही वह लोक भाषाअवधी का रामचरित मानस हो, ऐसा
सहज चित्रण नहीं मिलता. आज देखें उड़िया लोक गीतों में वनवासी प्रभु का सरल /
सामान्य जन का सा जीवन.
अब केवल कंद-मूल-फल खाकर तो नहीं रह सकते न ! वो भी चौदह बरस ! तो
राम खेती भी करते हैं, हल चलाते हैं. हल चलाते हुए उत्कल प्रांत के कृषक लोग जो
गीत गाते हैं, उन्हें उड़िया में ‘हलिया – गीत’ कहते हैं. इनमें प्रायः राम की गाथा
गायी जाती है. लोकगीत में पहले तो किसी
किसान के हल चलाने का वर्णन है किंतु गीत के बीच में ही किसान की जगह
राम-सीता-लक्ष्मण शामिल हो जाते हैं. लोक अपने बीच वनवासी राम को मिला लेता है.
चलो चलो, बैल, देर न करो, थोड़ी देर में तुम्हे छुट्टी मिल जाएगी.
खाने को ताज़ा घास मिलेगी, पीने को ठण्डा पानी. किसान बूढ़े बैलों को पसंद नहीं
करता. राम हल चला रहे हैं, लक्ष्मण जी जुताई करेंगे, सीताजी के लिए और क्या काम
है, वे बीज बो देंगी.
चालो-चालो बलद न करो
भालोनी,
आऊरी घड़िए हेले पाईवो
मेलानी,
खाईवो कंचा घास जे …
पीईवो ठंडा पानी हो … ।
बूढ़ा बलूद कु जे हलिया
मंगु नांई
राम बांधे हल लईखन देवे
नामी,
आऊरी कि करिवे जे …
सीताया देवे रोई जे … ।
लोक के राम-लक्ष्मण में काम के बंटवारे को लेकर विवाद भी होता है
(तुलसी की तरह नहीं कि लक्ष्मण बिना कहे ही सारा काम अपने ऊपर ले लें) राम ढेंकी
में धान कूटते हैं और पान भी खाते हैं. ढेकी के पास हीरा-मणियों की तरह धान का ढेर
लगा है, राम और लक्ष्मण में विवाद हो रहा है कि कौन धान डाले, कौन कूटे. राम ने
कहा – लक्ष्मण, तुम धान डालो, मैं कूटूँगा. यह कह कर राम ढेकी पर बैठ गए और पान
खाने लगे. दो में से एक पान राम नें खा लिया. धान कूटने का काम आनंद से चलता गया.
चारो ओर महक फैल गयी.
हीरा मांणकर धान ढेंकी-रे
अच्छी पनां
राम लईखन दुई हेले झींका
टणां,
किए गो पेलिवो से धान,
कहो मोते कि न जे … !
राम बोलति हे … सुनो लखईन
पेलीवो धान तुम्भे कुटिया
मोर मन,
एते कहि ढेंकी ऊपरे बस्सी
भांगे पान
दि खंडि पानरु खंडिए
खाईले राम तो से … !
धान कूटा पेला चालीला
केते रंगे रसे,
महकी ऊठूछी वासना की मीठा
लागीवा से !
तुलसी के राम गृहस्थ जीवन में क्रोध नहीं करते, सीता पर तो कतई नहीं किंतु वनवासी राम तो साधारण व्यक्ति की तरह रह रहे हैं तो वे सीता पर क्रोध भी करते हैं.
सीता दूध दुहने गयीं
किंतु पात्र टुटा हुआ था. उन्हें यह बात मालूम ही न हुई और दुहा हुआ सारा दूध बह
गया. हल चला कर जब राम घर आये तो उन्होंने सीता से दूध मांगा. सीता दौड़ कर आयीं और
राम को सब बात बतायी. सुनकर राम की आँखें क्रोध से लाल हो गयीं और उन्होंने सीता
को डांटाअ, ‘क्या तुम पगला गयी हो.’
दौदरा माठिया हाते धरि करि,
खीर दहिबाकु सीताया गला
मो राम रे।
सबु खीर जाको तले बहि
गला,
सीताया ए कथा जाणी न
परीला मो राम रे।
बौहड़ीला राम हल काम सरि,
खीर मंदे वेगे सीता कु
मागीला मो राम रे।
धांई धांई सीताया पाखकु
अईला,
घोईतांकु सबु कथा टी
कहिला मो राम रे।
रामंक आखीटी रंग होई गला,
मन कि तोर लो बाइया हेला
मो राम रे।
राम किसी काम से गये और उनको देर हो जाये तो सामान्य स्त्रियों की तरह सीता भी विचलित हो जाती है, चिन्ता करने लगती हैं. सीता की चिन्ता तो तुलसी ने मानस में भी व्यक्त की है. स्वर्ण मृग बन कर आये मारीच के पीछे जब राम जाते हैं तो वध के समय वह लक्ष्मण की सी बोली में कातर स्वर में, “हा लक्ष्मण !” पुकारता है तो अनिष्ट व संकट में पड़े होने की आशङ्का से सीता लक्ष्मण को जाने को कहती हैं और उनके आश्वस्त करने पर कटु वचन भी कहती हैं –
आरत
गिरा सुनी जब सीता। कह लछिमन सन परम सभीता॥
जाहु
बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहसि कहा सुनु माता॥
भृकुटि बिलास सृष्टि लय
होई। सपनेहुँ संकट परइ कि सोई॥
मरम
बचन जब सीता बोला। हरि
प्रेरित लछिमन मन डोला॥
- अरण्य काण्ड, दोहा
२७/३से ३ तक
उड़िया लोक गीत में राम खेत जोतने गये हैं कि मौसम खराब होने लगा.
आकाश पर बादल छाये हैं और बिजली चमक रही है. अँधेरी कुटिया में बैठी सीता का मन
आशङ्कित और उदास हो रहा है. कि राम अभी तक वापस नहीं आये, इतनी देर तक क्या कर रहे
हैं. उन्होने कोठरी में दिया तक नहीं जलाया. लक्ष्मण से कहती हैं, “हे
लक्ष्मंण ! दौड़ कर खेत को जाओ और राम को बुला लाओ”. लक्ष्मण जाते हैं. आगे आगे
बैल हैं, पीछे लक्ष्मण और उनके पीछे राम ज़ल्दी-ज़ल्दी घर की ओर आ रहे हैं. राम को
घर लौटते हुए देख कर उन्हें कितना आनन्द हुआ होगा.
मेघुया आकासे बिजला
खेलछी,
मंगा कुड़िया रे सीताया
भालछी महाप्रभु से।
पास सरि राम बाहुड़ी
गहति,
एतो बेलो जाए किसो
करिछन्ति महाप्रभु से।
जायो हे लईखन बेगे बिल
कु,
आणी वाकु राम कु निज घर
कु महाप्रभु से।पवन बहुछी मेघ गरजछी,
अंदार कुड़िया रे सीताया
बस्सछी महाप्रभु से।
आग रे बलद पच्छ रे लईखन,
बेगे राम घर कु फेरी आछी
महाप्रभु से।
वन में गृहस्थ जीवन का एक और रंग देखें. उड़ीसा में खजूर के वृक्ष
बहुत होते हैं और खजूर से मदिरा (ताड़ी) भी निकाली जाती है जिसे प्रायः पुरुष पीते
हैं. राम (सम्भवतः इसी आशय से) खजूर का रस निकालने जा रहे हैं तो सीता को
मर्यादाबोध हुआ कि लक्ष्मण देखेगा तो क्या कहेगा, छोटे भाई को बरजने के स्थान पर
बड़े भाई ताड़ी बनाने को रस निकालने जा रहे हैं. दूर से देख कर सीता दौड़ती हुई
आयी और वर्जना के भाव से राम का हाथ पकड़ लिया .
छिड़ा लूंगा पिंधी राम
जाऊधीले,
खजूरी गच्छ र रस
काढ़ीवाकु मो बाईधन।
दूरु देखी सीता अईला
धांइ,
धरि पकाईला राम र हस्तकु
मो बाईधन।
कि पाई धांईछो खजूरी गच्छ
कु,
लईखन ईहा देखी कि कहिबे
तुम्भंकु।
लोक के राम ब्रह्म या राज परिवार के नहीं और न ही सर्वसमर्थ हैं कि उनके
भ्रकुटि विलास से ही सब उपलब्ध हो जाये. वे साधारण मानव हैं, ग़रीब हैं और वे सारे
कार्य करते हैं जो निर्धन वनवासी परिवार करता है. सामान्य जन की भांति उनकी
छोटी-छोटी इच्छाएं हैं, रूठना, मनाना, रोना हँसना होता है और ऐसा करते हुए लोक यह
नहीं कहता कि ये तो लीला कर रहे हैं. लोक के राम उनमें से एक हैं.
वन में रहते राम निर्धन हैं. वे वनवासी हैं तो क्या हुआ, हैं तो राज
परिवार से. ऐसे समय जब उनका राजतिलक होने जा रहा था तभी उन्हें वनवास मिला और सीता
व लक्ष्मण भी उनके साथ आ गये. अब वन में न आजीविका और न धन सो वस्त्राभूषण आदि भी
नहीं. तुलसी ने तो सीता तो अनसूया से ऐसे दिव्य वस्त्र और आभूषन प्रदान किये जो
कभी मैले न हों, फटें न और दिव्य आभूषण भी –
दिव्य बसन भुषन पहिराए। जे नित नूतन अमल सुहाए॥
-
अरण्यकाण्ड,
दोहा ४ की चौपाई २ की अर्धाली.
किंतु उड़िया लोक के राम
निर्धन हैं. सीता ठकुरानी फटे-पुराने वस्त्र पहने हुए हैं, राम टूटे बर्तन में भात
खा रहे हैं, हे महाप्रभु ! सीता नये वस्त्रों के लिए तरस रही हैं, लक्ष्मण पखाल भात
के लिए तरस रहे हैं, हे महाप्रभु ! सीता जी नाक गुणां ( नाक का आभूषण ) के लिए तरस
रही हैं, राम नारियल लाने के लिए भटक रहे हैं, हे महाप्रभु ! सीता जी आंखों में आंसू
भरकर दूध दुह रही हैं, वे माता के घर को याद कर रही हैं, हे महाप्रभु !
छिड़ा लूंगा पिंघी सीताया
ठकुराणी,
दौदरा गिन्ना रे भात खाई
छंति रघुमणि महाप्रभु से !
सीताया झुरुछंति नुया
लूगा पांई,
लईखन झुरुछंति पखाल भात
पांई महाप्रभु से !
सीताया झुरुछंति नाक गुणां
पाईं,
राम बूलूछंति नड़िया आणिया
पांई महाप्रभु से !
कांदी-कांदी सीता खीर
दुहुछंति,
मा घर कथा मते पकाऊछंति
महाप्रभु से !
लक्ष्मण चटनी के बहुत शौक़ीन हैं. वे कच्चे आम लाये और सीता ने चटनी
पीसी किन्तु सारी की सारी चटनी राम खा गये, लक्ष्मण कहते ही रह गये कि थोड़ी सी
चटनी मुझे भी तो दो. चटनी खतम हो गयी तो लक्ष्मण रोने लगे.
अंब कसी तोली लईखन आणी
सीताया ठकुराणी चटनी
बाटीले,
रघुमणी राम खाईछंति हलिया
हे !
टिकिए चटनी मोते देयो आणी
हो … सीताया ठकुराणी,
चटणी गल सरी लईखन
कांदूछंति जे।
ऐसे ही अनेक चित्र हैं उड़िया लोक गीतों में राम के वनवासी जीवन के. लोक ने राम को चौदह वर्ष वन में भटकते सुना तो जैसा जीवन उन वनवासियों व ग्रामीणों का था, वैसा ही राम-लक्ष्मण-सीता का उन्होंने चित्रित किया, अपने गीतों में वैसा ही गाया. ये राजपुरुष राम या विष्णु के अवतार या शिव के आराध्य परम ब्रह्म राम नहीं, उनके जैसे राम हैं तो भला वे दिव्य-भव्य कैसे हो सकते थे ! भगवान तो सदा ही भगत के बस में हैं तो जैसा भगत रखेगा, वैसे रहेंगे. लोक की जो सामर्थ्य, जैसा जीवन यापन, वैसा ही उसके राम का. लोक का यह वर्णन भक्ति की पराकाष्ठा है, लोकाभिराम है. भक्ति के इस भाव का, इस रस का आनन्द लें.
बोलिये वनवासी
राम की जय !
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अब पुस्तक चर्चाः
यह लोक गीत “देवेन्द्र
सत्यार्थी लोक निबंध” पुस्तक से लिए हैं जिसका सम्पादन और संचयन प्रकाश मनु ने किया
है. लोक सम्पदा तो विशद है और यह भारत के गाँवों में बिखरी पड़ी है. यह लोक सम्पदा
गीतों के रूप में भी है और बड़े-बूढ़ों में कण्ठ दर कण्ठ, ह्रदय और स्मृति में है.
लोक गीत बहुधा वाचिक/श्रुत परम्परा में पीढ़ी दर पीढ़ी अन्तरित होते आ रहे हैं. युवा
पीढ़ी की लोक में रुचि कम है, वे लोक भाषा, बोली, रीति-रिवाज, गीत, नाट्य, देवी-देवता
आदि से विमुख होते जा रहे हैं, उन्हें गँवारू मानते हैं सो इनके लुप्त होने का खतरा
है. इसी को दृष्टिगत रखते हुए सुधी जन ने इस धरोहरों को संकलित करने और संजोने का काम
किया. देवेन्द्र सत्यार्थी उन्हीं में से हैं. वे भारत के अनोखे लोकयात्री थे, जिन्होंने
लोकगीतों की खोज में देश का चप्पा-चप्पा छान मारा और अलग-अलग अंचलों के तीन लाख से
अधिक लोक गीत इकठ्ठा करके उन पर बहुत सुंदर और गवेषणापूर्ण लेख लिखे.
यह पुस्तक लोकगीतों
पर आधारित सत्यार्थी जी के रस-रागपूर्ण लेखों का संचयन है जो लोक संस्कृति का इन्द्रधनुषी
बिंब प्रस्तुत करता है. इस पुस्तक में भारत भर के लोकगीत हैं जो मूल भाषा में किन्तु
देवनागरी लिपि में हैं और उनका हिन्दी अनुवाद भी दिया है, साथ में सरस भाव भूमि भी.
लोक में रुचि रखने वालों के लिए यह बहुत महत्वपूर्ण ग्रंथ है.
पुस्तक
– देवेन्द्र सत्यार्थी लोक निबंध
लेखक
- देवेन्द्र सत्यार्थी
संचयन
व सम्पादन – प्रकाश मनु
विधा
- कथेतर, लेख एवं लोकगीत
प्रकाशक
– नेशनल बुक ट्रस्ट
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